________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ ७४७ ]
धोयी - जयदेव ने 'गीतगोविन्द' ( १-४ ) में धोयी को 'श्रुतिधर' लिखा है । ये गोवर्धनाचार्य तथा जयदेव के साथ राजा लक्ष्मणसेन ( १११६ ई० ) की सभा में विद्यमान थे । मन्दाक्रान्ता छन्द में लिखे हुए इनके 'पवनदूत' में १०४ पथ हैं। मलयाचल में कुवलयवतीनाम्नी गन्धर्व कन्या दिग्विजयी लक्ष्मणसेन पर आसक्त हो गई और उसने उनके विदेश जाने पर पवन द्वारा संदेश भेजा । 'मेघदूत' का प्रभाव इस कृति पर स्पष्ट दिखाई देता है । काव्य में भावसौष्ठव तथा वाक्यविन्यास मनोरम हैं नारायणपण्डित - ये बंगाल के राजा धवलचन्द्र के आश्रित थे। इन्होंने १४वीं शती से पूर्व 'हितोपदेश' की रचना बहुत सीमा तक 'पंचतंत्र' के आधार पर की। कई श्लोक कामन्दकीयनीतिसार से लिए गए हैं। हितोपदेश में नीति- सम्बन्धी रोचक गद्य-पद्यमयी कथाएँ हैं । भाषा सरल एवं सुबोध है ।
1
पद्मगुप्त — ये धारानरेश मुंज तथा उनके पुत्र सिन्धुराज ( नवसाहसांक ) के सभा-कवि थे। इन्होंने 'नवसाहसांक-चरित' काव्य को रचना सं० २००५ ई० के आस-पास की थी । काव्यका विषय कृति नाम से ही अनुमित हो जाता है। उसमें सिन्धुराज और शशिप्रभा के विवाह आदि का उल्लेख है । ऐतिहासिक तथ्यों की दृष्टि से भी कृति महत्वपूर्ण है। कृति में १८ सर्ग तथा १९ प्रकार के छन्द हैं और कुल १५०० पद्य हैं। भाषा व शैली कालिदास से प्रभावित है।" काव्य का माधुर्य तथा वर्णनकौशल प्रशस्य है ।
बाणभट्ट - बाणभट्ट के पूर्वज अत्यन्त विद्वान थे और सोनतीरवत्ती प्रीतिकूट नगर में रहते थे । बाण का जन्म वात्स्यायनगोत्री चित्रभानु के गृह में हुआ था। कुसंगति में पड़कर बाण पहले तो आवारा घूमते रहे परन्तु सँभलने पर महान विद्वान् तथा सम्राट हर्षवर्धन के सभारत्न बन गये । बाण अपनी ' कादम्बरी' को पूर्ण नहीं कर पाये थे कि काल का निमंत्रण आ पहुँचा । उस अपूर्ण कृति को इनके पुत्र पुलिन या पुलिन्दभट्ट ने पूर्ण किया। कहते हैं बाण का विवाह मयूर कवि की पुत्री से हुआ था और उनकी एक धिक सन्तान थी । वाण का स्फुरण सातवीं शती में हुआ। उनकी प्रख्यात कृतियाँ ये हैं
१. ' चण्डीशतक' में देवी भगवती की प्रशंसा है।
२. ‘हर्षचरित' के प्रथम दो उच्छ्वासों में कवि का आत्मचरित है और शेष छह में हर्ष का चरित। यह रचना बड़ी ओजस्विनी तथा समासबहुला है । संस्कृत की प्राचीनतम उपलब्ध आख्यायिका यही है ।
३. 'कादम्बरी' इनकी उत्कृष्टतम कृति है। दो-तिहाई भाग ( पूर्वाद्ध ) बाणकृत है और उत्तरार्द्ध पुलिन्दरचित । भाव, भाषा, कल्पना, वर्णन, रस- सभी दृष्टियों से कादम्बरी अनुपम है । ४. 'पार्वतीपरिणय' नाटक में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है, कई लोग इसे किसी अन्य बाण की कृति कहते हैं ।
५. 'मुकुटताडितक' नाटक को इनकी रचना कहा गया है परन्तु अभी तक प्राप्त नहीं हुआ । किसी ने तो समग्र संसार को ही बाण का जूठा कहा है – 'बाणोच्छिष्टं जगत् सर्वम् । गोवर्द्धनाचार्य ने तो बाण को वाणी का अवतार ही माना है
जाता शिखण्डिनी प्राग् यथा शिखण्डी तथावगच्छामि । प्रागल्भ्यमधिकमाप्तुं बाणो वाणी बभूवेति ॥
बिहण - अपने ऐतिहासिक महाकाव्य 'विक्रमांकदेवचरित' में बिहण ने स्वपरिचय भी प्रस्तुत किया है । बिरूण ज्येष्ठकलश और नागदेवी के पुत्र तथा इष्टराय और आनन्द के भाई थे । -आश्रयदाता की खोज में ये काश्मीर से निकलकर मथुरा, प्रयाग, काशी आदि होते हुए कल्याणनगर के चालुक्यवंशीय विक्रमादित्य षष्ठ (१८६६ - ११२७ ) की सभा में जा
For Private And Personal Use Only