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पहुँचे। उक्त काव्य में कवि ने निज आश्रयदाता तथा उसके वंश का विस्तृत वर्णन किया है। १८ सर्गों के इस काव्य में माधुर्य एवं प्रसाद की भाषा प्रचुर है तथा वैदी रीति प्रयुक्त की गई है । यह काव्य अनूठी सूक्तियों तथा वीर, शृङ्गार और करुण रस से पूर्ण है। भट्टनारायण-इनका विशेष वृत्त अभी तक अविदित है। सुनते हैं, ये उन पाँच कनौजिया ब्राह्मणों में से थे जिन्हें बंगनरेश 'आदिशूर' ने वंग में वैदिकधर्म-प्रचारार्थ बुलाया था। आदिशूर ७१५ ई० में गौड़ाधिपति के पद पर आसीन हुए थे। इनका नाटक 'वेणीसंहार' ८०० ई० से पूर्व रचा जा चुका था। कवि की उक्त एकमात्र कृति का विषय है महाभारत का युद्ध । रचना में गौड़ी रीति तथा ओजगुण विशिष्ट रूप से मिलता है। नाटकीय सिद्धान्तों के प्रदर्शनार्थ नाटक अत्यन्तोपयोगी है। भट्टि वा भट्टिस्वामी-'भट्टिकाव्य' ( रावणवध ) के रचयिता का विशेष वृत्त अज्ञात है। इस महाकाव्य के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है कि वलभी-नरेश श्रीधरसेन की सभा में कवि समादृत या । भट्टि का समय छठी शती का उत्तरार्द्ध तथा सप्तमी का पूर्वार्द्ध है ।
उक्त महा-काव्य की रचना सरलता से व्याकरण सिखाने को की गई थी। इसके २२ सर्गों में “१६२४ श्लोक हैं। इसके प्रकीर्ण, प्रसन्न, अलंकार और तिङन्त नामक चार भागों में व्याकरण तथा अलंकारों का सुन्दर निरूपण हुआ है। राम-कथा के साथ-साथ पाठक को व्याकरण-शान भी पूर्णतया हो जाता है । काव्यत्व की दृष्टि से भी ग्रन्थ उपादेय है। कवि ने इसके उद्देश्य के विषय में स्वयं लिखा है
दीपतुल्यः प्रबन्धोऽयं शब्दलक्षणचक्षुषाम् ।
हस्तादर्श इवान्धानां भवेद् व्याकरणाद् ऋते ॥ और इस उद्देश्य की पूर्ति में कृति सफल हुई है। ‘भर्तृहरि-भर्तृहरि का नाम जितना प्रसिद्ध है, उतना ही जीवन-चरित अबुद्ध । कुछ लोग रहें महाराज विक्रमादित्य का अग्रज मानते हैं परन्तु अधिकतर विद्वान् इन्हें प्रख्यात व्याकरण भर्तृहरि से अभिन्न कहते हैं। कुछ लोग इन्हें बौद्ध कहते हैं परन्तु इनकी कृतियाँ इन्हें अद्वैतवादी वैदिकधी घोषित करती हैं। इनका समय सप्तमी शती कहा जाता है।
इनके तीन शतक प्रसिद्ध हैं-नीतिशतक, भृङ्गारशतक और वैराग्यशतक। भर्तृहरि ने जो पर्याप्त सांसारिक अनुभव प्राप्त किया था उसी को स्वकृतियों में अंकित कर अक्षय यश प्राप्त किया है । धार्मिक कृतियों में जेसे गीता प्रख्यात है, लौकिक कृतियों में वैसे ही इनकी शतकत्रयी। भवभूति-इनके नाटकों की प्रस्तावना से विदित होता है कि इनका जन्म विदर्भ ( बरार ) के पद्मपुर नगर में उदुम्बरवंशी विप्र-परिवार में हुआ था। इनका परिवार कृष्णयजुर्वेद का अध्येता तथा सोमयाजी था। ये भट्टगोपाल के पौत्र तथा नीलकण्ठ के पुत्र थे। इनकी जननी का नाम जतुकर्णी था तथा इनका निजी नाम श्रीकण्ठ था। भवभूति इनका प्राश-प्रदत्त नाम था और ये ज्ञाननिधि के शिष्य थे। इनका जीवन-काल सम्भवतः ६५०.७५० ई० के मध्य में होगा । ये प्रख्यात मीमांसक कुमारिल भट्ट के भी शिष्य थे और दार्शनिक जगत् में भट्ट उम्बेक के नाम से विख्यात थे।
इनके तीन रूपक प्राप्त हुए हैं—महावीरचरित, मालतीमाधव और उत्तररामचरित । महावीरचरित के छह अंकों में श्रीराम का चरित प्रस्तुत किया गया है। नाटक वीररस-प्रधान है। मालतीमाधव दस अंकों का विशाल 'प्रकरण' है। इसमें मालती तथा माधव की काल्पनिक प्रेम-कथा को भावपूर्ण ढङ्ग से उपन्यस्त किया गया है। उत्तररामचरित में सीताजीवन का बहुत ही करुणाजनक वर्णन है। सात अंकों की यह रचना भवभूति की सर्वोत्कृष्ट कृति है। इसमें कवि ने -राम के विलाप से निर्जीव पत्थरों तक को रुलाया है। कवि ने अपने कल्पना-बल से वाल्मीकीय
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