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रघुवंश की विद्यमानता में जानकीहरण करना या तो रावण का काम है या फिर कुमारदास का । कृष्ण मिश्र-प्रबोधचन्द्रोदय' नामक रूपक नाटक के रचयिता कृष्ण मिश्र जेजाकमुक्ति के राजा कीर्तिवर्मा के शासनकाल में ११०० ई० के लगभग विद्यमान थे। भास के 'बालचरित' के समान इस नाटक में विवेक, मोह, ज्ञान, विद्या आदि भावों को स्त्री-पुरुष पात्रों के रूप में कल्पित किया गया है। इसी कृति के अनुकरण पर यशःपाल ने 'मोहपराजय', वेंकटनाथ ने 'संकल्पसूर्योदय' तथा कविकर्णपूर ने 'चैतन्य चन्द्रोदय' की रचना की। हिन्दी कवि केशवदास ने 'विज्ञानगीता' में इसका छन्दोबद्ध अनुवाद किया है। दार्शनिक दृष्टि से कृति महत्त्वपूर्ण है। क्षेमेन्द्र-सिन्धु के पौत्र तथा प्रकाशेन्द्र के पुत्र क्षेमेन्द्र का जन्म काश्मीर के एक धनाढ्य और उदार परिवार में हुआ था। इन्होंने आचार्य अभिनवगुप्त से साहित्याध्ययन किया था। ये ११वीं शती के मध्य में विराजमान थे। शैवमंडल में रहते हुए भी ये परम वैष्णव थे और इसका कारण था भागवताचार्य सोमपाद की शिक्षा। __इनके बृहदाकार अनेक ग्रंथों में से प्रमुख ये हैं--रामायणमञ्जरी, भारतमञ्जरी तथा बृहत्कथामञ्जरी। ये क्रमशः रामायण, महाभारत और गुणाढ्य की बृहत्कथा के आधार पर रचित स्वतंत्र काव्यकृतियाँ हैं। 'दशावतारचरित' में विष्णु के दशावतारों का तथा 'बोधिसत्त्वाबदान' कल्पलता' में जातक कथाओं का सरल-सुन्दर वर्णन है। अल्पाकार कृतियों में कलाविलास, चतुर्वर्गसंग्रह, चारुचर्या, नीतिकल्पतरु, समयमातृका और सेव्यसेवकोपदेश व्यवहारविषयक सुन्दर काव्यकृतियाँ हैं। इनकी रचनाएँ साहित्यिकता से पूर्ण भी हैं और लोकोपकार की भावना से
ओत-प्रोत भी। गोवर्धनाचार्य-ये बंगाल के अन्तिम हिन्दनरेश लक्ष्मणसेन (१११६ ई०) की सभा के प्रतिष्ठित कवि थे। 'आर्यासप्तशती' इनकी एकमात्र रचना है जो 'हाल' की 'गाथासप्तशती' के अनुकरण पर रचित है। 'गाथासप्तशती' तो हालकृत संग्रह है परन्तु 'आर्यासप्तशती' केवल आचार्य की रचना है। इसमें संयोग तथा वियोग-शृंगार की विविध दशाओं का मार्मिक चित्रण पुष्ट आर्या छन्द में किया गया है। नागरिक ललनाओं की शृङ्गारिक चेष्टाओं तथा ग्रामीण रमणियों की स्वाभाविक उक्तियों का उल्लेख अत्यन्त रमणीय है। हिन्दी के बिहारी आदि शृङ्गारी कवि भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे । जगन्नाथ (पंडितराज)-आंध्र ब्राह्मण जगन्नाथ काशीनिवासी पेरुभट्ट तथा लक्ष्मीदेवी के पुत्र थे। इन्होंने काव्य और अलंकार का अध्ययन अपने पिता से किया और न्याय, व्याकरण आदि विषयों का ज्ञानेन्द्रभिक्षु, महेशाचार्य, खण्डदेव, शेष वीरेश्वर आदि से। दिल्लीश्वर शाहजहाँ ( शासन १६२८-६६ ई० ) ने इन्हें दाराशिकोह के शिक्षार्थ दिल्ली में बुलवा लिया था। उसके पश्चात् वृद्धावस्था में इनका स्वर्गवास १६७४ ई० में मथुरा में हुआ। कहते हैं, किसी यवनी के प्रेमजाल में फंसने के कारण इन्हें स्वजातीयों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था।
गंगालहरी, सुधालहरी, अमृतलहरी, करुणालहरी और लक्ष्मीलहरी इनके सरस काव्यस्तोत्र हैं । 'जगदाभरण' में दाराशिकोह का, 'आसफविलास' (गधकान्य ) में नवाब आसफ़खाँ का और • 'प्राणाभरण' में कामरूपाधिपति प्राणनारायण का वर्णन है। इनकी अन्य कृतियाँ 'चित्रमीमांसा
खंडन', मनोरमाकुचमर्दन' तथा 'भामिनीविलास' हैं। इनकी सर्वोत्तम कृति 'रसगंगाधर' नामक अलंकार-शास्त्र है जिसमें इनके प्रकाण्ड पाण्डित्य तथा अप्रतिम काव्य-प्रतिभा का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। इन्हें अपने पाण्डित्य और कवित्व पर जो अभिमान था, वह अनुचित न था। जयदेव-सात अंकों के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक 'प्रसन्नराघव' के कर्ता जयदेव का परिचय अभी तिमिराच्छन्न है । सुनते हैं, ये मिथिलावासी थे। ये १४वीं शती से पूर्व हुए हैं। 'प्रसन्नराधव' में रामायणीय कथा सुचारु रीति से चित्रित की गई है। मंजुल पदावली तथा प्रसादोपेत कविता
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