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है।' जातकमाला के कुछ अंश का चीनी में अनुवाद ९६० और ११२७ ई० के मध्य में किया गया था। कल्हण (कल्याण)-इनके पिता चणपक काश्मीरनरेश हर्ष (१०४८-२१०१ ई०) के प्रधानमंत्री थे। ये अलंकदत्त नामक व्यक्ति के आश्रित थे। इन्होंने राज-दरबार से दूर रहकर अपनी प्रख्यात ऐतिहासिक काव्यकृति 'राजतरंगिणी' की रचना सुस्सल के तनुज राजा जयसिंह (११२७-५९ ई०) के शासनकाल में की थी। राजतरंगिणी' का निमितिकाल ११४८-११५० ई० है। इसमें काश्मीर के राजनीतिक इतिहास, भौगोलिक विवरण, सामाजिक व्यवस्था, साहित्यिक समृद्धि आदि का सविस्तर और रोचक उल्लेख किया गया है। 'राजतरंगिणी' काव्य तथा इतिहास दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण कृति है जिसमें काश्मीर के प्राचीन काल से लेकर बारहवीं शती तक का विश्वसनीय वृत्त प्रस्तुत किया गया है। कविराज सूरि-जयन्तपुरी के राजा कामदेव (१९८२-९७ ई० ) के सभापंडित माधवभट्ट की ही उपाधि कविराज थी। इनकी रचना 'राघवपांडवीय' अपने ढंग की अपूर्व कृति है जिसका अनुकरण परवत्ती अनेक कवियों ने किया। इसका प्रत्येक पद्य लिष्ट है और रामायण तथा महाभारत दोनों से सम्बन्धित अर्थ व्यक्त करता है। इसी के अनुकरण पर हरदत्त ने 'राषव. नैषधीय', चिदंबर ने 'राघवपाण्डवयादवीय' और विद्यामाधव ने 'पार्वतीरुक्मणीय' नामक कान्यों की सृष्टि की। इस प्रकार की लिष्ट रचनाएँ संस्कृत के अतिरक्त सभी भाषाओं में अलभ्य हैं और सम्भवतः अलभ्य रहेंगी। कालिदास कुछ विद्वान इन्हें ई० पू० प्रथम शताब्दी में मानते हैं तो कुछ छठी शती ईसवी में । कोई इनकी जन्मभूमि काश्मीर मानता है, कोई बंगाल और कोई उज्जयिनी। बहुमत उज्जयिनी के प्रति विशेष पक्षपात तथा सूक्ष्म भौगोलिक परिचय के आधार पर कालिदास उज्जयिनीकासी प्रतीत होते हैं।
कृतियाँ-ऋतुसंहार, कुमारसम्भव, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तल, मेघदूत । ___'कुमारसम्भव' तथा 'रघुवंश' महाकाव्य हैं। 'कुमारसम्भव' के १७ सर्गों में शिव-पार्वती के विवाह, कार्तिकेय की उत्पत्ति तथा तारकासुर के वध की कथा है। 'रघुवंश' के १९ सर्गों में सूर्यवंशी राजाओं का कीर्तिगान है। मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और अभिज्ञानशाकुन्तल-तीनों नाटक हैं। प्रथम में राजा अग्निमित्र और मालविका की, द्वितीय में राजा पुरूरवा और अप्सरा उर्वशी की तथा तृतीय में राजा दुध्यन्त और शकुन्तला की प्रेमकथा का वर्णन है। 'ऋतुसंहार'
और 'मेघदूत' संस्कृत गीतिकाव्य की प्राचीनतम कृतियाँ हैं। ऋतुसंहार के १४४ फ्यों में षड्ऋतुओं का सुन्दर वर्णन है तथा उनका प्रेमियों के हृदय पर प्रभाव अंकित किया गया है। 'मेघदूत' के १२१ पद्यों में एक निर्वासित विरही यक्ष की मनोव्यथा का हृदयस्पशी चित्रण किया गया है। कालिदास की सर्वप्रियता का कारण है उनकी प्रसादपूर्ण, लालित्योपेत, परिष्कृत शैली । इन्होंने सभी ग्रन्थ वैदी रीति में लिखे हैं। उपमाओं में ये अपना जोड़ नहीं रखते। भाव, रस, भाषा, शैली, छंद, अलंकार जिस किसी भी दृष्टि से देखें कालिदाप उत्कृष्टतम ठहरते हैं। कुमारदास–सिंहल की जनश्रुति के अनुसार कुमारदास ने वहाँ ५१७-५२६ ई० तक शासन किया था । आधुनिक विद्वान् इन्हें ६५० और ७५० ई० के बीच में मानते हैं। इनके महाकाव्य 'जानकीहरण' के २५ में से १५ सर्ग ही प्राप्त हैं। कथा रामायण की पुरानी ही है परन्तु वर्णनशैली अभिरूप है । प्रसाद, सुकुमारता, शब्दसौष्ठव तथा नादसौन्दर्य कृति के उल्लेख्य गुण हैं। राजशेखर ( ९०० ई० ) ने इसकी प्रशंसा में यों लिखा है--
जानकीहरणं कर्तुं रघुवंशे स्थिते सति । कविः कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमः॥
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