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४८. नासिकाग्रेण कर्णमूलकर्षणन्याय :-इस न्याय का शब्दार्थ है-नक की नोक से कान के अधोभाग को खींचने की कहावत । जैसे नाक के अग्रभाग से कान के निचले भाग को खींचना असम्भव है, वैसे ही अशक्य विषयों में यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है। यथा'यो वै विद्यार्थी परिश्रमं विनैव विद्वान् भवितुमिच्छति, स खलु नासिकाग्रेण कर्णमूलं कर्षति ।। ४६. नृपनापितपुत्रन्याय :- नृपनापितपुत्रन्याय अर्थात् राजा और नाई के बेटे की कहावत । कहा जाता है, कि एक राजा ने अपने भाई को राज्य-भर में से सुन्दरतम बालक लाने का आदेश दिया। वह नाई सारे देश में बहुत घूमा-फिरा परन्तु उसे ऐसा कोई बालक दिखाई न दिया जैसा कि राजा चाहता था। विवश होकर वह घर लौट आया। उसका अपना पत्र नसरूप थान सलक्षण परन्तु उसे वही सुन्दरतम प्रतीत हुआ। इसलिए वह उसे ही लेकर राजा के समक्ष जा उपस्थित हुआ। पहले तो राजा, यह समझकर कि यह मेरा उपहास कर रहा है, क्रुद्ध हुआ; परन्तु कुछ सोचने पर उसे इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का बोध हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति आत्मीय पदार्थ को ही सर्वोत्तम समझता है । अतः इस न्याय का प्रयोग उन्हीं अवसरों पर होता है जिनमें कोई व्यक्ति अपनी बुरी वस्तु को भी अच्छी समझता है। जैसे—'अकाव्यमपि स्वं कुकवयः नृपनापित पुत्रन्यायेन सत्काव्यपदे गणयन्ति ।' २०. पंकाक्षालनन्याय :-पंकप्रक्षालनन्याय अर्थात् कीचड़ धोने का न्याय । शरीर पर लगे कीचड़ को सभ्य मनुष्य तुरन्त को डालता है। परन्तु उससे कहीं अच्छी बात यह है कि कीचड़ लगने ही न दिया जाय। इसी प्रकार परिस्थितियों से पहले ही बचना उत्तम है, जिनमें पड़ने के पश्चात फिर उनके प्रभाव को मिटाने का यत्न किया जाय। जैसे-'पश्चाच्यागाद्धि वित्तस्य वरं पूर्वमसङ्ग्रहः । प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ।' २१. पंबिंधन्याय :-इस न्याय का अर्थ है लँगड़े और अंधे की कहावत । न अंधा मार्ग देख सकता है न पंगु पथ पर चल सकता हैं। परन्तु यदि पंगु अंधे के कंधों पर बैठ जाय तो दोनों निर्विघ्न यात्रा कर सकते हैं। इसी प्रकार जहाँ पारस्परिक लाभार्थ सहयोग किया जाय, वहाँ उक्त न्याय प्रयुक्त किया जाता है। यथा-'सुवक्ताऽपि देवदत्तो न पण्डितः, सुपण्डितोऽपि यशदत्तो वक्तृत्वविहीनः, तथापि तौ पंग्वन्धन्यायेन संगत्य स्वदेशसेवायां संलग्नौ दृश्येते।' ५२. पिष्टपेषणन्याय :-पिष्टपेषणन्याय अर्थात् पीसी हुई वस्तु को पुनः पीसने का न्याय। गेहूँ, मकई आदि को तो पीसा जाता है परन्तु उनके आटे को पीसना निरर्थक होता है। साथ ही वह पेषण पेषक की मूर्खता का घोतक माना जाता है। इसी प्रकार के अनावश्यक और अनर्थक कार्यों के सम्बन्ध में उक्त न्याय का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है-'महान् दोष एवायं यदिद. मुक्तस्य पुनः पुनर्वचनम्, पिष्टपेषणं हि तत् ।' २३. पृष्टलगुडन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, मोटे डंडे का दृष्टान्त । आशय यह है कि यदि भौंकने वाले कुत्ते की ओर मोटा डंडा फेंका जाय तो वह सभवतः दूसरे कुत्तों को भी लग कर शान्त कर देगा। इसी प्रकार जहाँ एक क्रिया से एकाधिक कार्यों की सिद्धि हो जाय, वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है। जैसे-'हीरोशीमानागासाकीनगरयोरणुबमाभ्यां विध्वस्तयोर्महायुद्धं पुष्टलगुडन्यायेन निमिषेण समाप्तिमगात् ।' ५४. प्रधानमल्लनिबर्हणन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, मुख्य शत्रु के विनाश की कहावत । आशय यह है कि जब प्रबलतम वैरी का विनाश कर दिया जाता हैं तब सामान्य वैरी स्वयमेव वश में हो जाते हैं। इसी प्रकार जब भारी बाधाएँ मिटा दी जाती हैं तब सामान्य विन्न बाधक नहीं बन सकते । जैसे-'हतयोभीष्मद्रोणयोनिश्चित एवाभूत् पाण्डवानां विजयः प्रधानमल्लनि: बहणन्यायेन ।'
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