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में यह न्याय चल पड़ा है। यथा--'कैश्चित् अयोग्यजनैः कारितं कार्य जामातृशुद्धिवदुपहासास्पदमेव भवति ।' ४१. तिलतण्डुलन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है-तिल और चावल की उपमा । दूध और पानी भी मिलते हैं तथा तिल और चावल भी। परन्तु प्रथम मेल में दूध-पानी का पार्थक्य अशेय होता है, द्वितीय में स्पष्ट । तिल-चावल की तरह जहाँ मेल तो हो परन्तु दोनों पदार्थ पृथक पृथक् प्रतीत भी होते हों, वहाँ तिलतण्डुलन्याय का प्रयोग किया जाता है । जैसे- 'कथं नाम मौनमेवापण्डितानामशताया आच्छादनं भवितुमर्हति विदुषां समाजे, तिलतण्डुलयोः स्पष्ट पृथग्दर्शनात् ।' ४२. तुलोन्नमनन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-तुला को उठाने की कहावत । आशय यह है कि जब तुला का एक पलड़ा हाथ से उठाया जाता है तब दूसरा स्वयमेव नीचे चला जाता हैं। इसी प्रकार जहाँ एक क्रिया से दूसरी क्रिया करना भी अभिप्रेत होता है वहाँ इस न्याय का व्यवहार होता है। जैसे-'आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन, तेन हि तुलोन्नयनन्यायेन दुष्टनाशो जायते देवप्रसादश्च ।' ४३. तृणभक्षणन्याय :-इस न्याय का शब्दार्थ है-तिनका खाने का न्याय। भारत में यह रीति रही है कि जब कोई व्यक्ति किसी के सम्मुख दाँतों से तिनका दबा लेता था तब इसका माशय होता था-पराजय की स्वीकृति । ऐसी दशा में वह अवध्य माना जाता है। हिन्दी में यह उक्ति 'दाँतों तले तिनका दबाना' के रूप में प्रचलित है। पराजय की स्वीकृति के अर्थ में. इमका प्रयोग यों होता है-'आयः पराजिता रिपवः खलु तृणभक्षणन्यायेन निजप्राणानरक्षन् ।' ४४. दग्धेन्धनवह्निन्याय :-इस न्याय का अर्थ हैं-उस अग्नि का दृष्टान्त जो ईधन को जलाकर स्वयं भी बुझ गई हो। इसी प्रकार जहाँ कोई वस्तु अपने कार्य को सम्पन्न कर स्वयं भी समाप्त हो जाए, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। 'जलकतकरेणुन्याय' का आशय भी ऐसा ही है। यथा-'पाण्डवानां कोपः दुर्योधनादोन विनाश्य दग्धेन्धनवह्निन्यायेन शान्तः ।' ४५. देहलीदीपकन्याय :-देहलीदोपकन्याय अर्थात् दहलीज में रखे हुए दीपक का न्याय । कमरे के कोने में रखा हुआ दीपक तो कमरे को ही आलोकित करता है परन्तु दहलीज पर रखा हुआ अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश देता है। इसी प्रकार जहाँ कोई शब्द, वाक्यांश या कोई अन्य वस्तु दो तरफ अपना प्रभाव डाल रही हो, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। उदाहरण-'भवति हि पितृतर्पणार्थं श्रपितस्य भोजनस्यातिथ्युपकारकत्वं देहलीदीपकन्यायेन ।' ४६. धान्यपलालन्याय :-इस न्याय का अर्थ हैं-अनाज और भूसे का दृष्टान्त । जिस प्रकार लोग अनाज को ग्रहण कर लेते हैं और भूसे को त्याग देते हैं, उसी प्रकार जहाँ सारसहित वस्तु को लिया तथा निस्सार को छोड़ दिया जाता है, वहाँ इस न्याय का व्यवहार होता है। जैसे'ग्राह्यो बुधैः सारः निस्सारम् अपास्य फल्गु-धान्य-पलालन्यायेन ।' ४७. नष्टाश्वदग्धरथन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-लुप्त घोड़ों और जले रथ की कहावत । कहावत की आधार-कथा इस प्रकार है कि दो यात्री अपने अपने रथों में यात्रा करते हुए रात को एक गाँव में ठहरे । दैवयोग से रात को गाँव में आग लगी जिससे एक के घोड़े लुप्त हो गये और दूसरे का रथ जल गया। तब एक के घोड़ों को दूसरे के रथ में जोड़ दिया गया और यात्रा जारी रही। इसी प्रकार यह न्याय वहाँ व्यवहृत होता है जहाँ पारस्परिक लाभ के लिए मिल जुलकर काम किया जाए। जैसे-'अपटुरहमितिहासे तथा पुतस्त्वं तु गणिते, मन्ये नष्टाश्वदग्धरथन्या-- येनैवावा परीक्षामुत्तरिष्यावः।'
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