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प्रयोगार्थ उपयुक्त होते हैं। जैसे- 'न हि लोकाः प्रायशो विना गुडजिह्विकां दुष्करकर्मसु प्रवर्तन्ते ।' ३५. घट्टकुटी प्रभातन्याय :- घट्टकुटी प्रभातन्त्राय अर्थात् चुंगी को चौकी के समीप सबेरा होने का न्याय । चुंगी से बचने के लिए गाड़ीवान आदि रात को उन मार्गों से निकलने का यत्न करते थे जिनसे चुंगी देने से बच जायँ । परतु कभी-कभी दुर्भाग्यवश प्रभात वहाँ हो जाता था जहाँ चुङ्गी की चौकी समीप होती थी। इस प्रकार उनके किये कराये पर पानी फिर जाता था । इस कहावत का प्रयोग ऐसे ही अवसरों पर किया जाता है जिन पर परिहार्य वस्तु अवश्य ही समक्ष आ जाती हैं । यथा - ' कानिचिद् वस्तून्येकाक्येव केतुमहं मध्याह्ने आपण मगच्छन्, परन्तु घट्टकुटी न्यायेन मोहनस्तत्र मां विफलमनोरथं व्यदधात् ।'
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३६. घुणाक्षरन्याय :- घुणाक्षरन्याय अर्थात् घुन या किसी अन्य कीड़े द्वारा लकड़ी आदि में कोई अक्षर बन जाने का न्याय । घुन आदि कीड़े लकड़ी, पुस्तक के पन्ने आदि को खाते रहते हैं। कभी-कभी उनके खाने से कोई अक्षर- सा बन जाता है, जिसे देख कौतुक होता है। इसी प्रकार दैवयोग से होने वाली बातों के लिए इस न्याय का व्यवहार होता है। पूर्वोक्त अन्धचटकन्याय का आशय भी इसी प्रकार का है। यथा- प्राचीन हस्तलिखितग्रन्थान्वेषणाय गतेन मया तत्र 'विमाननिर्माणम्' अपि घुणाक्षरन्यायेनाधिगतम् । ' ३७. चन्दनन्याय :- इस न्याय का अर्थ है, चन्दन के तेल की उपमा । यदि शरीर के किसी एक भाग पर चन्दन के तेल की बूँद या चन्दन का लेप लगाया जाए तो उसके आह्लादक अनुभव होता है। इसी प्रकार जहाँ एकत्र स्थित पदार्थ व्यापक प्रभाव व्यवहार होता है यथा - ' चन्दनन्यायेन प्रसरति दिग्दिगन्तं युगा
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प्रभाव का समग्र शरीर डाले वहाँ इस न्याय का घुगञ्च महात्मनां कीर्तिः ।'
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३८. चौरापराधान्माण्डव्यनिग्रहन्याय :- इस न्याय का अर्थ है, चोरों के अपराध पर माण्डव्य को दण्ड देने की कहावत । महाभारत के आदिपर्व में ऋषि अणीमाण्डव्य के मौनव्रत से सम्बन्धित तप की कथा आती है। जब वे तपोमग्न थे तब चोर, राई हुई सम्पत्ति के सहित उनके आश्रम में आ छिपे । राज-कर्मचारियों ने चोरों के साथ उन्हें भी पकड़ लिया और लगे सूली पर चढ़ाने । अन्त में मुनिजी छोड़ तो दिये गये परन्तु सूली की अणी के शरीर में रह जाने के कारण अणीमाण्डव्य कहलाने लगे। इसी प्रकार जहाँ 'करे कोई और भरे कोई' का
व्यवहार होता है वहाँ उक्त न्याय प्रयुक्त होता है । जैसे- 'कदाचित्तु नृपः कुख्यातदुष्टापराधेन सर्वानेव ग्रामवासिनः चौरापराध माण्डव्य निग्रहन्यायेन दण्डयति ।'
३६. छत्रिन्याय :- उक्त न्याय का अर्थ है, छातेवालों की कहावत । आशय यह है कि यदि किसी जाते हुए जन समुदाय में अनेक लोगों ने छत्रियाँ तानी हुई हों तो हम उन सबको 'छाते वाले लोग' कह देते हैं चाहे सबके पास छत्रियाँ न भी हों। इसी प्रकार जहाँ कुछ एक के सम्बन्ध में कही हुई बात सब पर चरितार्थ कर दी जाती है, वहाँ इस न्याय का व्यवहार उचित होता है। जैसे- 'पुरा देवा राहुं सुरमेव मेनिरे छत्रिन्यायेन ।'
- ४०. जामातृशु द्विन्याय :-- इस न्याय का अर्थ है - जमाई कृत पुनरीक्षण की कहावत । मेरुतुंग के 'प्रबन्धचिन्तामणि' में कहानी यों दी गई है कि विक्रमादित्य ने राजकुमारी के लिए वर ढूँढ़ने का काम वररुचि को सौंपा। राजकुमारी ने वररुचि से पढ़ते समय एक दिन उनकी अवज्ञा की थी, इसलिए चतुराई से वररुचि ने एक मूढ़ को राजा का जामाता बना दिया । वररुचि के उपदेशानुसार जामाता चुप ही रहता था परन्तु राजकुमारी ने परीक्षार्थ एक पुस्तक उसे दोहराने को दी । उसने अक्षरों के ऊपर के बिन्दु और मात्राएँ नखच्छेदिनी से मिटा डाली । कुमारी पहचान गई कि यह तो कोई चरवाहा है। तब से मूर्ख से शोधन कार्य कराने के सम्बन्ध
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