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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७६४ ] ५५. प्रपानकरसन्याय :- प्रपानकर सन्याय अर्थात् शर्बत की उपमा । शर्बत बनाने के लिए अनेक द्रव्यों को मिश्रित करना पड़ता है । शर्बत का स्वाद उनमें से किसी एक के भी तुल्य नहीं होता। इसी प्रकार जहाँ अनेक वस्तुओं के संयोग से एक विलक्षण पदार्थ निर्मित हो जाय वहाँ यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है। यथा - 'अभिमन्युः किल प्रपानकरसन्यायेन वृष्णींश्च पाण्डवांश्च गुणैरत्यरिच्यत ।' ५६. फलवत्सहकारन्याय :-- इस न्याय का अर्थ है- आम के फलित पेड़ का दृष्टान्त | आम का फलवान् वृक्ष फल ही नहीं देता, थके-माँद्रे यात्रियों को सुगन्ध और छाया भी प्रदान करता है । इसी प्रकार जहाँ कोई क्रिया अभीष्ट फल के अतिरिक्त भी कोई फल दे, वहाँ इस न्याय का प्रयोग किया जाता है । यथा - 'पुत्रोत्पत्तिर्हि नाम प्रस्नवयित्री मातृवक्षसः, प्रशमयित्री पितृनेत्रयोविकाशयित्री च भवति वंशस्य फलवत्सहकारन्यायेन ।' ५७. बहुराज देशन्याय : - इस न्याय का शब्दार्थ है - अनेक राजाओं के देश की कहावत । जहाँ एकाधिक राजाओं का शासन होता है वहाँ उनकी परस्पर विरोधी आज्ञाओं के कारण प्रजा अति पीड़ित हो उठती है । यथा - 'यस्मिन् कुले मातापित्रोर्वैमत्यं विद्यते तत्रातिदुःखिता भवति संत तिर्बहु राजकदेशवत् । ' ५८. बीजाङ्कुरन्याय : – बीजांकुरन्याय अर्थात् बीज और अँखुए का न्याय । इस न्याय का उद्गम बीज और अंकुर के पारस्परिक कारण-कार्यभाव से हुआ है। बीज से अंकुर उत्पन्न होता है अतः बीज कारण है, अंकुर कार्य । परन्तु आगे चलकर उसी अंकुर से बीज भी उत्पन्न होते हैं; इसलिए अंकुर कारण और बीज कार्य बन जाता है। इस प्रकार जहाँ दो पदार्थ एक दूसरे कारण और कार्य भी हों, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त किया जाता है। जैसे— 'स्वास्थ्येन वित्तमधिगम्यते वित्तेन च पुनः स्वास्थ्यं बीजाङ्कवत् । ' ५६. मण्डूकप्लुतिन्याय :- उक्त न्याय का अर्थ है, मेंढक की छलाँग की लोकोक्ति । मेंढक सर्पवत् समग्र मार्ग का स्पर्श करता हुआ नहीं चलता, छलाँगें लगाता जाता है, जिससे मध्यवर्ती स्थान अस्पृष्ट रह जाता है । इसी प्रकार जहाँ कोई नियम सब पर समानरूप से लागू न हो, बीच-बीच में कई वस्तुओं को छोड़ता जाए, अथवा कोई काम बीच-बीच में छोड़कर किया जाए वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है । यथा - 'अस्माकमध्यापकः पाठ्यपुस्तकं मण्डूकप्लुतिन्यायेन पाठयति न तु यथाक्रमम् ।' ६०. मात्स्यन्याय : मात्स्य न्याय अर्थात् मछलियों का दृष्टान्त । प्राय: यह देखा जाता है कि बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को हड़प जाती हैं। इस प्रकार जहाँ बलवान् निर्बल को मारने या सताने लग जाएँ वहाँ इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी की लोकोक्ति 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' भी इसी आशय को व्यक्त करती है। उदाहरण देखिए- 'सुशासकाभावे यदि राष्ट्र मास्त्यन्यायः प्रवर्तेत, तहिं किमाश्चर्यम् ।' ६०. रथकारन्याय : - इस न्याय का अर्थ है - रथकार ( रथ बनानेवाले ) का दृष्टान्त । शास्त्र में कहा गया है कि रथकार वर्षाऋतु में अग्नि की स्थापना करे । प्रश्न उठता है, रथकार का अर्थ रथ बनाने वाला कोई भी व्यक्ति है या विशेष उपजाति का मनुष्य । जैमिनि ने निर्णय किया है कि केवल जातिविशेष का व्यक्ति ही । इस प्रकार इस न्याय का भाव यह है कि शब्दों का रूढ़ या प्रचलित अर्थ यौगिक अर्थों से बलवान् होता है । यथा- 'अद्य तु रथकारन्यायेन कार्यपटुरेव कुशलो मन्यते न पूर्ववत गुरोः कृते कुशानयनदक्ष एव ।' ६२. राजपुरप्रवेशन्याय :- इस न्याय का शब्दार्थ है - राजधानी में प्रवेश का दृष्टान्त | राजपुर में प्रवेश करने का नियम यह है कि पंक्ति बनाकर पर्याय से प्रविष्ट हुआ जाए। जो उच्छृङ्खल For Private And Personal Use Only
SR No.091001
Book TitleAdarsha Hindi Sanskrit kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamsarup
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages831
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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