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इस नियम को भंग करता है, उसके पिटने को आशंका रहती है। इसी प्रकार जहाँ किसी कार्य को नियमानुसार करना अभीष्ट हो, वहाँ इस न्याय का प्रयोग करते हैं । दृष्टान्त लीजिए'यस्मिन् तु विद्यालये छात्रा राजपुरप्रवेशन्यायेन स्वकक्षाः प्रविशन्ति न तत्र कोलाहलो जायते ।' ६३. रुमाक्षिप्तकाष्ठन्याय :--इस न्याय का अर्थ है, नमक की खान और लकड़ी का दृष्टान्त । यह प्रसिद्ध है कि जो वस्तु नमक की खान में फेंकी जाती है, नमक बन जाती है । इसी प्रकार जहाँ कुसंगति के प्रबल प्रभाव से अन्य वस्तु भी वैसी बन जाए, वहाँ इस न्याय का प्रयोग उचित है । यथा--'विनीता अपि जना अधिकार प्राप्य रुमाक्षिप्तकाष्ठन्यायेन दृप्ता भवन्ति ।' ६४. लोहचुंबकन्याय :-लोहचुम्बकन्याय अर्थात् लोहे और चुम्बक का न्याय। यह न्याय उस सम्बन्ध को व्यक्त करता है जिसके कारण दो पदार्थ दूर होते हुए भी, स्वआवा: एक-दूसरे के समीप जाने का उद्योग करते हैं। जैसे-'दूरस्था अपि सज्जना लोहचुम्बकवत् मिथो मिलितुं वान्छन्ति ।' ६५. बकबन्धनन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, बगुले को पकड़ने का दृष्टान्त । किसी ने बगुला पकड़ने की रीति यह बताई कि जब बगुला बैठा हो तो चुपके से उसके सिर पर मक्खन रख देना चाहिए। जब मक्खन धूप से पिघलकर उसकी आंखों में पड़ेगा तो वह अन्धा हो जायगा और झट पकड़ लिया जाएगा। वस्तुतः यह विधि हास्यास्पद है क्योंकि बगुला तभी क्यों न पकड़ लिया जाए जब उसके सिर पर मक्खन रखा जाए। इसी प्रकार जहाँ सहज सरल विधि को छोड़कर किसी हास्यास्पद ढंग को स्वीकृत किया जाता है वहाँ उक्त न्याय प्रयुक्त होता है। जैसे-'बकबन्धनन्यायपर्याय एवायं यद् गलघण्टिकारावेश अवगते मार्जारागमे मूषाणामात्मरक्षाविचारः।' ६६. वनसिंहन्याय :-इस न्याय का शब्दार्थ है-वन और. सिंह का दृष्टान्त । सिंह न हो तो लोग वन को ही काट डालें और वन न हो तो सिंह को ही मार डाले। ये दोनों वस्तुतः एक-दूसरे के रक्षक हैं। इसी प्रकार जहाँ पदार्थ परस्पर रक्षक हों वहाँ इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। जैसे-'न जातु सेव्यसेवको अन्योऽन्यं हन्तुं पारयतः-वनसिंहवदन्योऽन्याश्रयित्वात् ।' ६७. बधिमन्याय :-वह्निधूमन्याय अर्थात् अग्नि और धूएँ के निरन्तर साथ-साथ रहने का न्याय । जहाँ धूआँ होता है वहाँ अग्नि होती ही है। इसी प्रकार जहाँ एक पदार्थ का दूसरे से अनिवार्य साहचर्य बताया जाए वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है। जैसे-'यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र च धनुर्धरः पार्थः, तत्र विजयो वह्निधूमन्यायेन निश्चित एव ।' ६८. विषकृमिन्याय :-विषकृमिन्याय अर्थात् विष के कीड़ों का न्याय। साधारण प्राणी तो विष के प्रभाव से मर जाते हैं, परन्तु विष के कीड़े विष में ही उत्पन्न होते हैं, उसी को खाते हैं और फिर भी जीवित रहते हैं। इस न्याय का प्रयोग उन अवसरों पर होता है जिन पर सामान्य प्राणी तो प्राणों से हाथ धो बैठते हैं परन्तु व्यक्तिविशेष सुरक्षित रहते हैं। जैसे-'हरिजनानां कर्म कुर्वन्तः सामान्यास्तु अचिरात् कालकवलिता भवेयुः ते च हरिजनाः पुनः विषकृमिन्यायेन दीर्घजीविनो भवन्ति ।' ६१. विषवृक्षन्याय :-विषवृक्षन्याय अर्थात् विषैले पेड़ का न्याय । कालिदास ने 'कुमारसम्भव' में कहा है-'विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम्' अर्थात् यदि विष का वृक्ष भी स्वयं लगाया
और पाला-पोसा गया हो तो उसे काटना या उखाड़ना उचित नहीं होता। इसी प्रकार जिस व्यक्ति का स्वयं पालन-पोषण किया हो, वह बड़ा होने पर अनिष्टकर भी सिद्ध हो, तो भी उसका विध्वंस समीचीन नहीं। यही इस न्याय का आशय है। उदाहरण द्रष्टव्य है-'विषवृक्षन्यायमनुसरता पित्रा कुपुत्रस्याप्यहितं कर्तुं न पार्यते।'
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