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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९ ) निघण्टु - यह 'निघण्टु' ग्रन्थ यास्क से प्राचीन है, क्योंकि इसी के आधार पर यास्क ने 'निरुक्त' लिखा है । महाभारत से अनुसार प्रजापति कश्यप इस निघण्टु के रचयिता हैं । इसमें पाँच अध्याय हैं | आदि के तीन अध्यायों में 'पृथ्वी' आदि के बोधक समानार्थं शब्दों का संकलन है । इस प्रकरण को 'नैघण्टु काण्ड' कहा जाता है। चतुर्थ अध्याय में अव्युत्पन्न तथा गूढार्थक शब्दों का चयन किया गया है | इसे 'नैगम-काण्ड' की संज्ञा दी गई है । पाँचवें अध्याय ( दैवतकाण्ड ) में भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप तथा स्थान का विस्तृत निरूपण है। 'निघण्टु' के प्रमुख व्याख्याता देवराज यज्वा हैं । ये सायण से प्राचीन अवश्य हैं, क्योंकि सायण के ऋग्वेद भाष्य में एक स्थान पर निघण्टुभाष्य के वचनों का उद्धरण मिलता है । देवराज ने अपने भाष्य में क्षीरस्वामी को अपने पूर्ववर्ती भाष्यकार के रूप में स्मरण किया है | क्षीरस्वामी 'अमरकोष' के सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं । अतः देवराज यज्वा का समय १२ वीं तथा १३ वीं शताब्दी के मध्य प्रमाणित होता है । वैदिक कोष – प्राचीन परिपाटी के अनुसार भास्कर राय ने वैदिक-कोष की रचना लोकिक कोषों के ढंग पर की है। इस कोष के संकलित शब्द तो वे ही हैं जो निघण्टु में हैं, किन्तु उन शब्दों का अर्थ 'अनुष्टुप् छन्द' द्वारा अभिव्यक्त किया है । इस कोष का रचना-काल १७७५ ई० है । भास्कर राय ने अपनो गुप्तवती टोका में अनेक स्थलों पर नागेश की सप्तशती - टीका का खण्डन किया है । अतः ये नागेश के समकालीन अथवा उनसे कुछ ही समय के अनन्तर हुए होंगे । गया पुरुषोत्तम देव ने अपने लौकिक संस्कृत के पुराने कोषकारों का उल्लेख ' हारावली' कोष के अन्त में वाचस्पति, व्याडि तथा विक्रमादित्य का नाम लेकर किया है । तदनन्तर केशव ने कात्य, व्याडि, वाचस्पति, भागुरि, अमर, मङ्गल, साहसा, महेश तथा हेमचन्द्र का नामोल्लेख किया है । इनके अतिरिक्त किसी हस्तलेख के आधार पर १८ प्रसिद्ध कोषों के विषय में परिज्ञान होता है । इस प्रकार अमर- कोष को केन्द्रबिन्दु मानकर संस्कृत वाङ्मय के कोषग्रन्थों को आचार्य पं० बलदेव उपाध्याय जी ने तीन कालों में विभक्त किया है( १ ) अमरपूर्व-काल, ( २ ) अमरकाल तथा ( ३ ) अमरोत्तर - काल | अमर-पूर्व कोवकार - अमर-पूर्व कोषकारों में व्याडि सर्वप्राचीन कोषकार हैं । व्याडि के कोषग्रन्थ का नाम 'उत्पलिनी' था। पुरुषोत्तम ने अपने हारावली कोष के अन्त में इसका उल्लेख किया है। इस कोष में समानार्थ शब्दों की प्रधानता थी । इन्होंने व्युत्पत्ति के द्वारा अर्थानुसन्धान की प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराया है । जैसे 'निघण्टु' की व्याख्या इन्होंने इस तरह की है - " अर्थान् निघण्टयत्यस्मात् निघण्टुः परिकीर्तितः" । ये व्याडि कदाचित् पाणिनि के समकालीन सुप्रसिद्ध 'संग्रह' नामक ग्रन्थ के कर्ता ही हों । For Private And Personal Use Only
SR No.091001
Book TitleAdarsha Hindi Sanskrit kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamsarup
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages831
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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