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[ ७०२ ]
स्वभावस्वच्छानां पतनमपि भाग्यं हि । स्वभावतः पवित्र व्यक्तियों का पतन भी भवति ।
भाग्यार्थ ही होता है ।
पवन स्वयमेव अग्नि का सारथि बन जाता है ।
स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते । ( रघु० )
स्वसुखं नास्ति साध्वीनां तासां भर्तृसुखं सुखम् । (कथा० ) स्वस्थः को वा न पण्डितः ? स्वस्थे चित्ते बुद्धयः संभवन्ति । स्वादुभिस्तु विषयर्हतस्ततो
दुःखमिन्द्रियगणो निवार्यते । (रघु० ) स्वाधाना दयिता सुतावधि | हंसो हि क्षीरमादते तन्मिश्रा वर्जयत्यपः । ( अभिशा० )
हो पद्मसरः कुतः कतिपयैह सैर्विना श्रीस्तव ?
हतं ज्ञानं क्रियाहीनम् । हतं निर्नायकं सैन्यम् | महतश्चाज्ञानतो नरः ।
हरति मनो मधुरा हि यौवनश्रीः । ( किरात ० )
पुनः । ( कथा० ) - हितप्रयोजनं मित्रम् | हितभुक्, मितभुक्, शाकभुक् ।
सत्त्रियों का अपना कोई सुख नहीं होता, वे पति के सुख को ही अपना सुख समझती हैं । कौन स्वस्थ मनुष्य बुद्धिमान् नहीं ? स्वस्थ चित्त में ही सुविचार उत्पन्न होते हैं । स्वादिष्ट विषयों से आकर्षित इन्द्रियों को उनसे हटाना कठिन है।
सन्तान से पूर्व ही स्त्री स्वाधीन होती है ।
- हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । (किरात ० ) - हितोपदेशो मूर्खस्य कोपायैव न शान्तये । ( कथा० ) हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा । ( रघुवंशे० ) अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः ।
हंस दूध ले लेता है और उसमें मिले जल को छोड़ देता है ।
अरे कमलसर ! कुछ हंसों के बिना तुम्हारी शोभा कहाँ ?
क्रिया-रहित ज्ञान व्यर्थ है ।
सेनानी के बिना सेना निकम्मी है ।
हस्तस्य भूषणं दानम् ।
दान हाथ का गहना है ।
- हितः परोऽपि स्वीकार्यों हेयः स्वोऽप्यहितः हितकारक बेगाना भी स्वीकार्य है और अहित
मनुष्य अज्ञान से मारा जाता है । यौवन की मधुर शोभा मन को हर लेती है।
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कारक अपना भी त्याज्य । मित्र भलाई के लिए ही होता है । हितकर वस्तु खानेवाला, थोड़ा खानेवाला, साग-सब्जी खानेवाला ( स्वस्थ रहता है ) । हितकर तथा मनोहर वचन दुर्लभ है । हितकारक उपदेश मूर्ख को कुपित करता है, शान्त नहीं ।
सुवर्ण की खराई खोटाई अग्नि में ही परखी जाती है ।
संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है ।
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