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( ३१ )
विभक्त है । प्रथम भाग सूत्रात्मक है तथा दूसरा सूत्रों तथा तत्सम्बन्धी विवरणों से युक्त है । यह ग्रन्थ सम्भवतः १००० - १४०० ई० के मध्य लिखा गया हो ।
इस प्रसङ्ग में वैद्यक- कोशों का उल्लेख करना अत्यावश्यक है। इन कोशों की
संज्ञा है। इनमें प्रमुख है - " ( क ) धन्वन्तरिनिघण्टु । यह नव खण्डों में विभक्त है । क्षीरस्वामी के अनुसार यह अमरकोष से प्राचीन है । अवान्तर निघण्टुओं में ( ख ) माधवकर की रत्नमाला ( नवीं शती) तथा हरिचरण सेन की (ग) पर्याय मुक्तावली ग्रन्थ सुविदित हैं । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त (घ) हेमचन्द्र का निघण्टुशेष, (ङ) मदनपाल का मदनपालनिघण्टु ( १३७४ ई०) (च) केशव का सिद्धमन्त्र ( १२५० ई० के लगभग ), (छ) केशवदेव का पथ्यापथ्यबोधक निघण्टु एवं (ज) नरहरि का राजनिघण्टु भी वैद्यक निघण्टुओं में मान्य हैं । इन सबमें राजनिघण्टु सबसे बड़ा है। इसके लेखक नरहरि नामक वैद्य हैं ( १३८० ई० के आसपास ) । इन सबके अतिरिक्त नानार्थ - औषधकोशों में (झ) शिवकोश (१६७७ ई०) बड़ा महत्त्वपूर्ण है । इसके रचयिता शिवदत्त मिश्र थे । ग्रन्थकार ने इसकी व्याख्या भी स्वयं लिखी है । यह नानार्थक ओषधि कोष है । इसमें ऐसे ओषधि - वाचक शब्द संकलित किये गए हैं, जिनके अनेक अर्थं उपलब्ध होते हैं ।
इन पृष्ठों में वर्णित कोशग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक कोशग्रन्थ हस्तलिखित -रूप में हैं तथा अनेक कोश केवल उद्धरणों के रूप में ही ज्ञात हैं । ऐसे कोशकारों में अजयपाल ( धरणीकोश के कर्ता ), रन्तिदेव, रभस, आदि अनेक विद्वान् प्रसिद्ध हैं ।
अधिकतर कोशों में संज्ञाशब्दों का ही बाहुल्य है । कतिपय कोश क्रिया के अर्थ का निरूपण करने के लिए भी लिखे गए हैं। ऐसे क्रियाकोशों में दो कोश विख्यात हैं- भट्टभल्ल ( १२ वीं शति ) की आख्यातचन्द्रिका तथा हलायुध का कविरहस्य | इस प्रकार के अन्य ग्रन्थों में ये भी प्रसिद्ध हैं- विद्यानन्द का क्रियाकलाप, वीरपाण्ड्य की क्रियापदार्थदीपिका, रामचन्द्र का क्रियाकोश, गुणरत्नसूर का क्रिया - रत्नसमुच्चय तथा दशबल का धातुरूप भेद । इन ग्रन्थों का उल्लेख 'आख्यातचन्द्रिका' की भूमिका में किया गया है। इसी प्रकार उणादि कोष भी रचा गया है। अब तो कोष-ग्रन्थों की व्यापकता इतनी बढ़ गई है कि ग्रन्थविशेष - में प्रयुक्त शब्दों के सम्बन्ध में भी कोषग्रन्थों की रचना होने लगी है । कादम्बरी • आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों के कोष तैयार होने लगे हैं। इसके साथ ही प्रत्येक शास्त्र के पारिभाषिक कोष एवं शास्त्रीय कोषों की भी अब बाढ़ सी आ गई है । सार्वजनिक लोकोपयोगी विधि एवं व्यवहार कोषों की भी रचना हो गई है । जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसको अभिलक्षित कर कोष-रचना न हुई हो । रामायण
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