SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 737
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्पुत्र एव कुलसद्मनि कोऽपि दीपः । सत्यपूतां वदेद् वाणीम् । सत्यं कण्ठस्य भूषणम् । सत्यं न तद् यच्छलमभ्युपैति । सत्यमेव जयते । मक्षरम् । स धार्मिको यः परमर्म न स्पृशेत् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते । [ ६६ ] अच्छा पुत्र ही वंश का विलक्षण दीपक है । सत्य से शोधित वाणी बोलनी चाहिए। सत्य कण्ठ का भूषण है । वह सत्य नहीं जो हल का आश्रय लेता है । सत्य की ही विजय होती है। सत्येन धार्यते पृथ्वी । पृथ्वी को सत्य ही धारण किये हुए हैं | सदसद्वा न हि विदुः कुस्त्रीवचनमोहिताः । बुरी नारियों के वचन से मोहित लोग अच्छाई ( कथा० ) या बुराई नहीं समझते । सुभाषित सभा का भूषण है । सदो भूषा सूक्तिः । सद्भिः कुर्वीत संगतिम् । सद्भिर्विवाद मैत्री च | सज्जनों का संग करना चाहिए। झगड़ा और मैत्री सज्जनों से ही करनी चाहिए । सद्भिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखित- सज्जनों की स्वाभाविक बात भी पत्थर की लकीर होती है । धार्मिक वही है जो दूसरे का जी नहीं दुखाता | सज्जन परीक्षा के अनन्तर ही कोई बात स्वीकार करते हैं । संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे । ( रघु० ) संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम् । संतोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत् । संधिं कृत्वा तु हन्तव्यः संप्राप्तेऽवसरे पुनः । सन्धि करके भी अवसर प्राप्त होने पर शत्रु को ( कथा० ) मार देना चाहिए | विद्वान सभा का रत्न है । समय पर किया हुआ सब कुछ उपकारक होता है । सभारत्नं विद्वान् । समये हि सर्वमुपकारि कृतम् । ( शिशु० ) समानशीलव्यसनेषु सख्यम् । सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दम् । सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते । ( भगवद्गीता ) सरित्पतिर्न हि समुपैति रिक्तताम् । (शिशु० सरित्पूरप्रपूर्णोऽपि क्षारो न मधुरायते । ) सर्वः कालवशेन नश्यति । सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छति जनः सत्वानु- | रूपं फलम् । सर्वः कान्तमात्मीयं पश्यति । ( अभिज्ञान० ) | सर्वः प्रियः खलु भवत्यनुरूपचेष्टः । (शिशु० ) | सर्व कार्यवशाज्जनोऽभिरमते तत्कस्य शुद्ध वंश की सन्तान लोक-परलोक में सुख-दायक होती है । I संतोष ही मनुष्य का सर्वोत्तम कोष है। संतोष के समान धन नहीं । को वल्लभः ? सर्व जीवराज्य ( कथा० ). सर्वरत्नमुपद्रवेण सहितं निर्दोषमेकं यशः । समान शील तथा व्यसन वालों में मैत्री होती है। भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता । सम्मानित मनुष्य के लिए अपयश मृत्यु से भी बुरा होता है । समुद्र कभी खाली नहीं होता । नदियों के जलसमूह से भर जाने पर भी समुद्र मीठा नहीं होता । समय पाकर सब नष्ट होते हैं । विपत्ति पड़ने पर भी सब लोग अपनी योग्यतानुसार फल चाहते हैं । सबको अपनी वस्तु सुन्दर दिखाई देती है । अनुकूल चेष्टाओंवाले सब व्यक्ति प्यारे लगते हैं। लोग सभी को कार्य-वश प्यारे लगते हैं, वैसे कौन किसका प्रिय है ? जीवित मनुष्य सब कुछ पा लेते हैं । सब रत्नों में कोई न कोई दोष होता है, निर्दोष तो केवल यश है । For Private And Personal Use Only
SR No.091001
Book TitleAdarsha Hindi Sanskrit kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamsarup
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages831
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy