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सत्पुत्र एव कुलसद्मनि कोऽपि दीपः । सत्यपूतां वदेद् वाणीम् । सत्यं कण्ठस्य भूषणम् । सत्यं न तद् यच्छलमभ्युपैति । सत्यमेव जयते ।
मक्षरम् ।
स धार्मिको यः परमर्म न स्पृशेत् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते ।
[ ६६ ]
अच्छा पुत्र ही वंश का विलक्षण दीपक है । सत्य से शोधित वाणी बोलनी चाहिए। सत्य कण्ठ का भूषण है ।
वह सत्य नहीं जो हल का आश्रय लेता है । सत्य की ही विजय होती है।
सत्येन धार्यते पृथ्वी ।
पृथ्वी को सत्य ही धारण किये हुए हैं |
सदसद्वा न हि विदुः कुस्त्रीवचनमोहिताः । बुरी नारियों के वचन से मोहित लोग अच्छाई ( कथा० ) या बुराई नहीं समझते । सुभाषित सभा का भूषण है ।
सदो भूषा सूक्तिः । सद्भिः कुर्वीत संगतिम् । सद्भिर्विवाद मैत्री च |
सज्जनों का संग करना चाहिए।
झगड़ा और मैत्री सज्जनों से ही करनी चाहिए । सद्भिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखित- सज्जनों की स्वाभाविक बात भी पत्थर की
लकीर होती है ।
धार्मिक वही है जो दूसरे का जी नहीं दुखाता | सज्जन परीक्षा के अनन्तर ही कोई बात स्वीकार करते हैं ।
संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे । ( रघु० ) संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम् । संतोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत् । संधिं कृत्वा तु हन्तव्यः संप्राप्तेऽवसरे पुनः । सन्धि करके भी अवसर प्राप्त होने पर शत्रु को
( कथा० )
मार देना चाहिए | विद्वान सभा का रत्न है ।
समय पर किया हुआ सब कुछ उपकारक होता है ।
सभारत्नं विद्वान् । समये हि सर्वमुपकारि कृतम् । ( शिशु० )
समानशीलव्यसनेषु सख्यम् । सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दम् । सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते । ( भगवद्गीता ) सरित्पतिर्न हि समुपैति रिक्तताम् । (शिशु० सरित्पूरप्रपूर्णोऽपि क्षारो न मधुरायते ।
)
सर्वः कालवशेन नश्यति । सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छति जनः सत्वानु- | रूपं फलम् ।
सर्वः कान्तमात्मीयं पश्यति । ( अभिज्ञान० ) | सर्वः प्रियः खलु भवत्यनुरूपचेष्टः । (शिशु० ) | सर्व कार्यवशाज्जनोऽभिरमते
तत्कस्य
शुद्ध वंश की सन्तान लोक-परलोक में सुख-दायक होती है ।
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संतोष ही मनुष्य का सर्वोत्तम कोष है। संतोष के समान धन नहीं ।
को वल्लभः ?
सर्व जीवराज्य ( कथा० ). सर्वरत्नमुपद्रवेण सहितं निर्दोषमेकं यशः ।
समान शील तथा व्यसन वालों में मैत्री होती है। भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता । सम्मानित मनुष्य के लिए अपयश मृत्यु से भी बुरा होता है ।
समुद्र कभी खाली नहीं होता ।
नदियों के जलसमूह से भर जाने पर भी समुद्र मीठा नहीं होता ।
समय पाकर सब नष्ट होते हैं ।
विपत्ति पड़ने पर भी सब लोग अपनी योग्यतानुसार फल चाहते हैं ।
सबको अपनी वस्तु सुन्दर दिखाई देती है । अनुकूल चेष्टाओंवाले सब व्यक्ति प्यारे लगते हैं। लोग सभी को कार्य-वश प्यारे लगते हैं, वैसे कौन किसका प्रिय है ?
जीवित मनुष्य सब कुछ पा लेते हैं । सब रत्नों में कोई न कोई दोष होता है, निर्दोष तो केवल यश है ।
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