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[ ६७६ ]
अमर्षणः शोणितकाङ्क्षया किं पदा स्पृशन्तं । क्या उग्र सर्प पाँव से छूनेवाले व्यक्ति को लहू दशति द्विजिह्वः ? ( रघु०)
पीने की इच्छा से काटता है ? अस्मृतं क्षीरभोजनम् ।
खीर-रूपी भोजन अमृत है। अमृतं प्रियदर्शनम् ।
प्रिय पदार्थ का दर्शन अमृत है। अमृतं राजसंमानम्।
राजा से प्राप्त सम्मान अमृत है। अमृतं शिशिरे वह्निः।
जाड़ों में अग्नि अमृत है। अम्बुगर्भो हि जीमूतश्चातकैरभिनन्द्यते ।(रघु०) पपीहे जलपूर्ण बादल की ही प्रशंसा करते हैं । अयशोभीरवः किं न कुर्वते बत साधवः! | अपयश से डरने वाले सज्जन क्या नहीं करते !
. (कथा) अयातपूर्वा परिवादगोचरं सतां हि वाणी सज्जनों की वाणी, निन्दा के मार्ग से अपरिचित __गुणमेव भाषते। (किरातार्जुनीय ) होने के कारण, गुणों का ही वर्णन करती है। अरुंतुदत्वं महतां ह्यगोचरः। (किरात०) बड़े लोग किसी का जी नहीं दुखाते। अर्थमनर्थ भावय नित्यं,
सदा ही धन को दुःखरूप समझो, वस्तुतः उससे नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् ।
तनिक भी सुख नहीं। अर्थातुराणां न गुरुन बंधुः।
धन के लोभी गुरु और बन्धु तक का ध्यान
नहीं करते। अर्थो हि कन्या परकीय एव । (अभिज्ञान०) कन्या पराया ही धन है। अधों घटो घोषमुपैति नूनम् ।
अधजल गगरी छलकत जाए। अल्पविद्यो महागी।
थोड़ी विद्या वाला व्यक्ति बहुत ही गर्वीला
होता है। अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः ।
समय थोड़ा है और विघ्न बहुत ।। अल्पीयसोऽप्यामयतुल्यवृत्तमहापकाराय रोग की तरह स्वभाव वाले छोटे से शत्रु की रिपोर्विवृद्धिः । (किरात.)
उन्नति से भी भारी अनिष्ट होता है। अवस्तुनि कृतक्लेशो मूल् यात्यवहास्य- तुच्छ वस्तु के लिए कष्ट उठाने वाला मूर्ख ताम् । (कथा)
__ उपहासास्पद बनता है। अविद्याजीवनं शून्यम् ।
अविद्यापूर्ण जीवन सूना है। अविनीता रिपुभार्या ।
नम्रता-रहित पत्नी शत्रु है। अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयंकरः। जिसका मन ठिकाने न हो, उसकी कृपा भी
भयावनी होती है। अशीलस्य हतं कुलम् ।
शीलरहित व्यक्ति की कुलीनता व्यर्थ है। अश्नुते स हि कल्याणं, व्यसने यो न | जो विपत्ति में विमूढ़ नहीं होता वह अवश्य ही मुह्यति ।
कल्याणभागी बनता है। अश्रेयसे न वा कस्य विश्वासो दुर्जने जने? दुष्ट जन पर विश्वास करने से किसका अनिष्ट
नहीं होता? असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः।
संतोष-हीन-ब्राह्मण नष्ट हो जाते हैं। असन्मैत्री हि दोषाय कूलच्छायेव सेविता। दुर्जनों की मित्रता कगार की छाया के समान
(किरात०) ___अनर्थकारिणी होती है। असारे दग्धसंसारे सारं सारङ्गलोचनाः। इस दुःखपूर्ण निस्सार संसार में साररूप तो
केवल मृगनयनियाँ ही हैं। असिद्धार्था निवर्तन्ते न हि धीराः कृतो- | उद्यमी धीर कार्यसिद्धि से पूर्व नहीं रुकते।
द्यमाः। (कथा) असिद्धेस्तु हता विद्या।
| सिद्धि के बिना विद्या व्यर्थ है।
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