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आहुः सप्तपदी मैत्री।
| सात पग साथ-साथ चलने को मैत्री कहते हैं। इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः।
न इधर के रहे न उधर के रहे । इदं च नास्ति न परं च लभ्यते।
न यह रहा, न वह मिला। इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्या- अपने मुंह मियाँ निठू बनकर इन्र भी गौरवपितैर्गुणः।
हीन हो जाता है। इन्धनौषधगप्यग्निस्त्विषा नात्येति पूष- ईधन के बहुत बड़े ढेर को जलानेवाली आग भी णम् । (शिशु०)
अपनी ज्योति से सूर्य को मात नहीं कर
सकती। इष्टं धर्मेण योजयेत् ।
अभिलापा धर्मानुसारिणी चाहिए । इहामुत्र च नारोणां परमा हि गतिः पतिः। | लोक और परलोक में स्त्रियों का परम आश्रय
(कथा) । पति ही है। ईर्ष्या हि विवेकपरिपन्थिनी । ( कथा०) । | ईर्ष्या विवेक की शत्रु है। ईश्वराणां हि विनोदरसिकं मनः । (किरात०) | धनाढ्य लोग विनोदी होते हैं । उत्सवप्रियाः खलु मनुष्याः । (अभिज्ञान०) | मनुष्य उत्सवप्रिय होते हैं। उत्साहैकधने हि वीरहृदये नाप्नोति खेदो- वीरों के उत्साहपूर्ण हृदय में खेद के लिये ___ऽन्तरम् । (कथा)
___ अवकाश कहाँ! उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् । | उदारचरित लोगों के लिये तो सारी भूमि ही
कुटुम्ब है।
उदारस्य तृणं वित्तम्।
उदार व्यक्ति के लिये धन तृणतुल्य है। उदिते तु सहस्रांशी न खद्योतो न चन्द्रमाः। सूर्य के उदय पर न जुगुनू की चमक रहती है,
न चाँद की। उदिते परमानन्दे नाहं न त्वं न वै जगत् । ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होने पर मैं, तू और जगत्
का ज्ञान नहीं रहता। उद्योगः पुरुषलक्षणम् ।
उद्योग ही पुरुष का लक्षण है। उन्नतो न सहते तिरस्क्रियाम् ।
उच्च व्यक्ति तिरस्कार नहीं सहता। उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये ।। मूर्ख लोग उपदेश से प्रकुपित होते हैं, शांत नहीं। उप्तं सुकृतबीजं हि सुक्षेत्रेषु महत्फलम्। उत्तम पात्रों में बोया हुआ पुण्यरूपो बीज महान्
(कथा०) । फल देता है। उष्णत्वमग्न्यातपसंप्रयोगाच्छैत्यं हि यत् सा जल का स्वाभाविक गुण तो शीतलता है, उसमें प्रकृतिलस्य ( रघु०)
___गर्मी तो अग्नि या धूप के संसर्ग से आती है। उष्णो दहति चाङ्गारः शीतः कृष्णायते | गर्म अङ्गार हाथ को जलाता है, ठण्ढा कलुषित करम् ।
करता है। ऋणकर्ता पिता शत्रुः ।
ऋण लेनेवाला पिता शत्रु है। ऋद्धिश्चित्तविकारिणी।
| ऐश्वर्य चित्त को विकृत कर देता है। एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज तीन्दोः गुण-समुदाय में अकेला दोष ऐसे छिप जाता किरणेष्विवाङ्कः । ( कुमर०) .
है जैसे किरणों में चाँद का कलंक । क उष्णोदकेन नवमल्लिका सिञ्चति ! अभि०) | मोतिये के पौधे को गर्म जल से कौन सींचता है ! कणशः क्षणशश्चैव विद्यामर्थञ्च साधयेत् । विद्या और धन का संग्रह क्षण-क्षण में कण-कण
करके करते रहना चाहिए। कण्ठे सुधा वसति वै खलु सज्जनानाम् ।(कथा०) अमृत सज्जनों के कण्ठ में ही रहता है। . कमलवनभूषा मधुकरः।
भ्रमर कमल-समूह का अलंकार है। कर्तव्यं हि सतां वचः । ( कथा०)
सत्पुरुषों के वचनानुसार चलना चाहिए। . कर्तव्यो महदाश्रयः।
| आश्रय बड़ों का ही लेना चाहिए।
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