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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ ६६७ ] विदेशे बन्धुलाभो हि मरावस्तनिर्झरः । | विदेश में बन्धु से समागम मरुभूमि में अमृत ( कथा० ) स्रोत के समान है । विद्या के लिए व्याकुल व्यक्तियों को न सुख रुचता है न नींद | विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या ददाति विनयम् । विद्या मित्रं प्रवासेषु | विद्यारत्न सरसकविता | विद्या रूपं कुरूपिणाम् । 'विद्यासमं नास्ति शरीरभूषणम् । विद्या सर्वस्य भूषणम् । विद्वान् कुलीनो न करोति गर्वम् । विद्वान् सर्वत्र पूज्यते । विनयाद् याति पात्रताम् । विनयो हि सतीव्रतम् । ( कथा० ) विना मलयमन्यत्र चन्दनं न प्ररोहति । विनाशकाले विपरीत बुद्धिः । विना हि गुर्वादेशेन संपूर्णाः सिद्धयः कुतः ? गुरु के उपदेश के बिना सम्पूर्ण सिद्धियाँ कहाँ ? ( कथा० ) विभूषणं मौनमपण्डितानाम् । विमलं कलुषीभवच्च चेतः विप्रियमध्याकर्ण्य ब्रूते प्रियमेव सर्वदा कटु बात भी सुनकर सज्जन सदा प्रिय बात ही सुजनः । कहते हैं । मौन मूर्खों का भूषण है । १. दिल, दिल का साक्षी है । कथयत्येव हितैषिणं रिपुं वा । (किरात०) २. निर्मल या मलिन होता हुआ मन हितैषी या शत्रु को बता देता है । विरक्तस्य तृणं भार्या । विलासिनी हि सर्वस्य संध्येव क्षणरागिणी । विद्या से नम्रता आती है । विदेश में विद्या मित्र है 1 1 सरस कविता करना ही उत्तम विद्या है कुरूप लोगों का रूप विद्या है। विद्या के समान शरीर का कोई भूषण नहीं । विद्या सबका भूषण है । कुलीन विद्वान् अभिमान नहीं करता । विद्वान की सब जगह पूजा होती है । विनय से मनुष्य योग्य बनता है । विनय ही सतियों का व्रत है । ( कथा० ) विवक्षितं ह्यनुत्तमनुतापं जनयति । (अभिज्ञा० ) विश्वासः कुटिलेषु कः ? ( कथा० ) विषं गोष्टी दरिद्रस्य । विषयाकृष्यमाणा हि तिष्ठन्ति सुपथे कथम् ( कथा० ) विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गताः ? चन्दन मलय पर्वत के सिवा कहीं नहीं उगता । विनाश के समय बुद्धि फिर जाती है । विरक्त को पत्नी तृणसम लगती है । संध्या के समान सब के साथ बेश्या का राग ( प्रेम, लाली) क्षणस्थायी होता है । अकथित अभिलषित बात पश्चात्ताप उत्पन्न करती है । कपटियों पर क्या विश्वास ? निर्धन की बात-चीत विष है । ? विषयासक्त लोग सुमार्ग पर कैसे रह सकते हैं ? उचित नहीं । किस विषयी व्यक्ति को आपत्तियाँ समाप्त हो गई हैं ? विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम् | अपने पाले पोसे हुए विप-वृक्ष को भी उखाड़ना ( कुमार० ) वीरो हि स्वाम्यमर्हति । ( कथा० ) वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः । वृथा दीपो दिवापि च । वृथा वृष्टिः समुद्रेषु । वृद्धस्य तरुणी विषम् । वीर ही स्वामी बनने के योग्य होता है । फल-हीन वृक्ष को पक्षी छोड़ जाते हैं । दिन में दीपक व्यर्थ है । समुद्रों में वर्षा व्यर्थ है । बूढ़े के लिए युवती विष है । For Private And Personal Use Only
SR No.091001
Book TitleAdarsha Hindi Sanskrit kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamsarup
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages831
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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