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( २१ )
अमरसिंह - सुप्रसिद्ध "नामलिङ्गानुशासन" कोष के रचयिता अमरसिंह की ख्याति कोषकर्ता के रूप में सबसे अधिक है । इनके नाम से ही यह ग्रन्थ अमरकोष प्रसिद्ध हो गया । इनसे पूर्व प्राचीन कोषकारों ने दो प्रकार की शैलियाँ अपनायी थीं । कतिपय कोष केवल नामों का ही निर्देश करते थे और कुछ को लिङ्गों के ही विवेचन को अपना मुख्य विषय मानते थे । अमरसिंह ने दोनों का समन्वय कर अपने कोष को सर्वाङ्गपूर्ण बनाया । तीन काण्डों में विभक्त कर इस ग्रन्थ को ' त्रिकाण्ड' संज्ञा भी दी गई। इसका उपविभाग 'वर्गों' के नाम से किया गया है । 'अमरकोष' पद्यबद्ध रचना है । 'अनुष्टुप् छन्द के १५३३ श्लोकों में यह रचना सम्पूर्ण हुई है । ग्रन्थ का छठा भाग नानार्थ के वर्णन में है । शेष भाग में समानार्थ शब्दों का निरूपण किया गया है । समानार्थ-भाग में एक विषय के वाचक नामों का एकत्र संकलन है । नानार्थ - खण्ड में अन्तिम वर्ण के अनुसार पदों का संग्रह है । अव्ययों का वर्णन एक स्वतन्त्र वर्ग में किया गया है। तथा ग्रन्थ के अन्त में लिङ्गों के साधक नियमों का उल्लेख किया गया है ।
अमरसिंह के समय का निर्णय भी एक समस्या बना हुआ है । इतना तो अवश्य निश्चय है कि यह ग्रन्थ छठी शताब्दी से पहले ही रचा गया था । गुणरात द्वारा चीनी भाषा में इसका अनुवाद किया जाना उस समय की पश्चिम (अन्तिम) अवधि है । इसकी लोकप्रसिद्धि का सबसे अधिक प्रमाण यह है कि इस पर लगभग ४० टीकायें लिखी गई हैं । इनमें क्षीरस्वामी और रामाश्रम ( भानुदीक्षित ) द्वारा लिखित टीकायें बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं । इन दोनों में से रामाश्रमीका पदव्युत्पत्ति प्रदर्शन अधिक सूक्ष्म तथा परिनिष्ठित है । अमरसिंह बौद्ध थे । इनके समय की पूर्वसीमा २२५ ई० के आसपास निर्धारित की जाती है ।
कोष ग्रन्थों में अमरकोष का प्रचलन अद्यावधि सर्वाधिक है । संस्कृत के विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में ही इसे कण्ठस्थ कराया जाता रहा । यह परम्परा अब भी थोड़ी-बहुत दिखाई पड़ती है । सरल भाषा एवम् अनुष्टुप् छन्द में विरचित होने के कारण इसे हृदयङ्गम करने में कठिनाई नहीं होती । अमरकोष के अतिरिक्त शब्द- ज्ञान का लघुभूत उपाय दूसरा कोई नहीं है । इस प्रकार अमरसिंह अपने पचाद्वर्ती कोषकारों के प्रेरणा-स्रोत बन गए । इसी कारण उनकी सरणि को अधिक प्रशस्त बनाने में आगे के कोषकार तत्पर होते हुए दिखाई पड़ते हैं ।
अमरसिंह के पश्चाद्वर्ती कोषकार — बाद के
कोषकार शब्दों के वैशिष्टय का
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निदर्शन कराने में बड़े सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं उनके प्रकरण भले ही सीमित sa ferg उनका क्षेत्र अधिक विस्तृत है । कतिपय कोषकारों ने केवल नानार्थकोषग्रन्थों की ही रचना स्वतन्त्र रूप में की है, किन्तु उन्होंने शब्दों की सूक्ष्म
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