Book Title: Kriya kosha
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Darshan Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦). શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ હીરાજૈન સોસાયટી, રામનગર, સાબરમતી, અમદાવાદ-૦૫. (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 268 456 420 १४. 638 192 428 070 406 પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી या पुस्तat परथी upl stGnels sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ભાષા કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्दति बृदन्यास अध्याय-६ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 056 | विविध तीर्थ कल्प पू. जिनविजयजी म.सा. 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृति टीका श्री धर्मदतसूरि 06080 संजीत राममा श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) सं श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ 062 | व्युत्पतिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय | श्री सुदर्शनाचार्य 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी पू. मेघविजयजी गणि 064 | विवेक विलास सं/४. श्री दामोदर गोविंदाचार्य 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध सं | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 066 | सन्मतितत्वसोपानम् पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 067 | 6:शभादीशुशनुवाई पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 068 | मोहराजापराजयम् सं पू . चतुरविजयजी म.सा. 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह | सं/Y४. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन | 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं | श्री भगवानदास जैन 074 | सामुदिइनi uiय थी ४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र supम ला1-1 ४. श्री साराभाई नवाब 0768नयित्र पद्मसाग-२ ४. श्री साराभाई नवाब 077 | संगीत नाटय ३पावली ४. श्री विद्या साराभाई नवाब 078 मारतनां न तीर्थो सनतनुशिल्पस्थापत्य १४. श्री साराभाई नवाब 079 | शिल्पयिन्तामलिला-१ १४. श्री मनसुखलाल भुदरमल 080 दशल्य शाखा -१ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 081 | शिल्पशाखलास-२ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 082 | शल्य शास्त्रला1-3 | श्री जगन्नाथ अंबाराम 083 | यायुर्वहनासानुसूत प्रयोगीला-१ १४. पू. कान्तिसागरजी 084 ल्याएR8 १४. श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री 085 | विश्वलोचन कोश सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 086 | Bथा रत्न शास-1 श्री बेचरदास जीवराज दोशी 087 | Bथा रत्न शा1-2 श्री बेचरदास जीवराज दोशी 088 |इस्तसजीवन | सं. पू. मेघविजयजीगणि એ%ચતુર્વિશતિકા पूज. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા | सं. आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 308 128 532 376 374 538 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 ४. 230 322 089 114 560 Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૭૯ ક્રિયાકોશ : દ્રવ્યસહાયક : જિનશાસન શિરતાજ, કલીકાલ કલ્પતરૂ, સન્માર્ગ સંરક્ષક, પૂજ્યપાદ આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ વિજય રામચંદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજાના સમુદાયના માતૃહૃદયા કરૂણાસિંધુ પૂ. સા. જયરેખાશ્રીજી મ.સા.ના મધુરભાષિ સુશિષ્યા સા. પીયૂષરેખાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી ૨૦૬૦ ના ચાતુર્માસમાં શ્રી માણીભદ્ર સોસાયટીમાં ઉપાશ્રયમાં આરાધના કરતી શ્રાવિકાઓના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬ ઈ.સ. ૨૦૧૦ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश "Aho Shrutgyanam" Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrutgyanam" Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाकोश CYCLOPÆDIA OF KRIYA जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या १२२२ तथा १३०१ वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी सम्पादक मोहनलाल बाँठिया श्रीचंद चोरड़िया प्रकाशक जैन दर्शन समिति १६-सी, डोवर लेन, कलकत्ता-२६ १९६६ "Aho Shrutgyanam" Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम विषय-कोश ग्रंथमाला द्वितीय पुष्प-क्रिया-कोश : जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या १२२२ तथा १३०१ अर्थ-सहायक-श्री भगवतीलाल सिसोदिया ट्रष्ट, जोधपुर प्रथम आवृत्ति ११०० मूल्य भारत में रु० १५०० विदेश में Sh 20/ मुद्रक : सुराना प्रिन्टिंग वस २०५, रवीन्द्र सरणी, कलकत्ता-७ "Aho Shrutgyanam" Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण उन गणधरों और आचार्यों को जिन्होंने जिनवाणी का गुंथन किया है। "Aho Shrutgyanam" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन-संपादन में प्रयुक्त ग्रन्थों की संकेत-सूची अणुत्त० अणुत्तरोववाइयदसाओ अणुओ० अणुओगदाराइ अंत अन्तगडदसाओ अभिधा० अभिधानराजेन्द्र कोश आया आयारी आव० आवस्सयं उत्त० उत्तरायणाई उवा० उवासगदसाओ ओव० ओक्वाइय कप्पसु० कप्पसुत्तं कर्म कर्मग्रन्थ कर्मप्र० कर्मप्रकृति गीता भगवद्गीता गोक० गोम्मटसार (कर्मकांड) गोजी गोम्मटसार (जीवकाण्ड) चद० चंदयपणत्ती जंबू जंबूदीवपण्णत्ती जीवा० जीवाजीवाभिगमो ठाण ० ठाणे तत्त्व० तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वराज० (राज.) राजवार्तिक तत्वश्लो० (इलोवा०) श्लोकवार्तिक तत्त्वसर्व ० (सर्व०) सर्वार्थ सिद्धि तत्त्व सिद्ध (सिद्ध०) सिद्धसेन टीका दसवे० दसवेआलियं दसासु० दसासुयक्खंधो नंदो० नंदीसुत्तं नाया० नायाधम्मकहाओ निर० निरयावलियाओ निसी० निसीह पण्ण० पण्णवणासुतं पण्हा० पहावागरणा बिह० बिहकप्पो भग० विवाहपपणती (भगवई) राय० रायपसेणइयं वव० ववहारो विवा० विवागसूर्य विशेभा० विशेषावश्यक भाप्य षट्० पटखण्डागम सम० समवाओ समय ० समयसार सूय० सूयगडो सूर० सूर पण्णत्ती हेम० सिद्धहेमशब्दानुशासन ज्ञान ज्ञानसार [ 6 ] "Aho Shrutgyanam" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्रद्धेय मोहनलालजी बाँठिया ने, अपने अनुभवों से प्रेरित होकर, एक जैन-विषयकोश की परिकल्पना प्रस्तुत की तथा श्रीचन्दजी चोरड़िया के सहयोग से, प्रमुख आगम ग्रन्थों का मंथन करके, एक विषय सूची प्रणीत की। फिर उस विषय सूची के आधार पर जैन आगमों से विषयानुसार पाठ संकलन करने प्रारम्भ किये। यह संकलन उन्होंने प्रकाशित आगमों की प्रत्तियों से कतरन-विधि से किया । इस प्रकार प्रायः १००० विषयों पर पाठ संकलित हो चुके हैं। गृहीत पुस्तकों से संकलन समाप्त हो जाने के बाद उन्होंने 'नारक जीव' संबंधी पाठों का सम्पादन प्रारंभ किया। लेकिन हम कुछ मित्रों ने उनसे अनुरोध किया कि वे इस विषय को सर्व प्रथम ग्रहण नहीं करें । बन्धुओं के अनुरोध को मानकर उन्होंने 'नारक जीव' विषय को छोड़कर जैन दर्शन के रहस्यात्मक 'लेश्या' विषय को चयन किया और उसके ऊपर संकलित पाठों का सम्पादन कर 'लेश्या कोश' नामक पुस्तक स्वयं ही प्रकाशित की । यह 'लेश्या कोश' विद्वद्वर्ग द्वारा जितना समाहत हुआ है तथा जैन दर्शन और वाड्मय के अध्ययन के लिए जिस रूप में इसको अपरिहार्य बताया गया है और पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के रूप में जिस तरह मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की गयी है, यही उसकी उपयोगिता तथा सार्वजनीनता को आलोकित करने में सक्षम है । श्री मोहनलालजी बाँठिया के जैनागम एवं वाङ्मय के तलस्पर्शी गम्भीर अध्ययन द्वारा प्रसूत कोश परिकल्पना को क्रियान्वित करने तथा उनके सत्कर्म और अध्यवसाय के प्रति समुचित सम्मान प्रकट करने की पुनीत भावनावश जैन दर्शन समिति की संस्थापना महावीर जयन्ती १६६६ के दिन की गई है। इस नवगठित संस्था ने वर्तमान में बाँठियाजी द्वारा संकलित और वर्गीकृत कोशों का प्रकाशन कार्य अपने हाथ में ग्रहण कर लिया है । यह क्रम निरन्तर गतिशील रहे इसकी पूर्ण चेष्टा की जा रही है । इसी प्रयास स्वरूप क्रिया-कोश आपके समक्ष प्रस्तुत है ! मैं यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि श्री बाँठियाजी के इस प्रयत्न और प्रयास में सक्रिय सहयोग कर रहे हैं श्री श्रीचन्द चोरड़िया । श्री चोरड़िया एक नवोदित और तरुण जैन विद्वान हैं, जिनकी अभिरूचि इस दिशा में श्लाघ्य है । जैन दर्शन समिति ने कोश प्रकाशन की योजना को किसी तरह की लाभवृत्ति या उपार्जन के लिए हाथ में नहीं लिया है, अपितु इसका पावन उद्देश्य एक अभाव की पूर्ति [ 7 ] "Aho Shrutgyanam" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना, अर्हत प्रवचन की प्रभावना करना तथा जैन दर्शन और वाड्मय का प्रचार-प्रसार करना तथा इसके गहन गम्भीर तत्वज्ञान के प्रति सर्व साधारण को आकृष्ट करना और इस तरह समाज की सेवा करना ही है । अस्तु —– इस महान और ऐतिहासिक कार्य के सुसम्पादन और सम्पूर्ति में पर्याप्त राशि की आवश्यकता होगी। जिसके लिए हम जैन समाज के हर व्यक्ति से साग्रह अनुरोध करते हैं कि इस कार्य को गतिशील रखने के लिए यथासंभव सहायता करें तथा मुक्तहस्त से राशि प्रदान कर समिति को अनुग्रहीत करें । समिति के सभी उत्साही सदस्यों, शुभचिन्तकों एवं संरक्षकों के साहस और निष्ठा का उल्लेख करना भी मेरा कर्तव्य है जिनकी इच्छाएँ एवं परिकल्पनाएँ मूर्त रूप में सामने आ रही हैं। कोश- सम्पादन और प्रकाशन में परोक्ष और अपरोक्ष रूप में प्राप्त सहायता और सुकावों के लिए भी हम सबके प्रति बिना नाम उल्लेख किये ही आभार प्रगट करते हैं और आशा है कि उनकी सद्भावना सदा हमारे साथ रहेगी । अन्त में हम श्री भगवतीलाल सिसोदिया ट्रष्ट, जोधपुर के अधिकारियों को तथा उनके मैनेजिंग ट्रष्टी श्री जबरमलजी भंडारी को विशेष धन्यवाद देते हैं जिन्होंने 'क्रियाकोश' के प्रकाशन का सम्पूर्ण व्यय वहन किया है। जैन दर्शन समिति में अभी तक इतने धन का संग्रह नहीं हुआ है कि 'क्रियाकोश' का भी 'लेश्याकोश' की तरह निर्मूल्य वितरण किया जा सके । अतः हमको इसका मूल्य ६० १५) ( अंके पन्द्रह रुपया ) रखना पड़ा है। जैन के सभी सम्प्रदाय के धनी मानी तथा प्रवचन प्रभावना के इच्छुक श्रमणोपासकों से हमारा निवेदन है कि 'क्रियाकोश' को क्रय करके अंततः अपने सम्प्रदाय के विद्वानों में, भंडारोंमें, पुस्तकालयों में इसका यथोचित वितरण करने में हमारा सहयोग दें । सभी नगरों के भंडारों और पुस्तकालयों में 'क्रियाकोश' के रहने से श्रमण वर्ग को भी यह पुस्तक सहजतया समुपलब्ध हो सकेगी। भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में भी इसका वितरण होना परम आवश्यक है । आशा है इस पुस्तक के सम्यक् वितरण में हमें सभी श्रमणोपासकों का निर्बाध सहयोग प्राप्त होगा । कलकत्ता, दीपावली, विक्रम सं० २०२६ [ 8 ] "Aho Shrutgyanam" मोहनलाल बैद मंत्री जैन दर्शन समिति Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैन दर्शन सूक्ष्म और गहन है तथा मूल सिद्धांत ग्रंथो में इसका कमबद्ध तथा विषयानुक्रम विवेचन नहीं होने के कारण इसके अध्ययन में तथा इसके समझने में कठिनाई होती है । अनेक विषयों के विवेचन अपूर्ण-अधुरे हैं, अतः अनेक स्थल इस कारण से भी समझ में नहीं आते हैं । अर्थवोध की इस दुर्गमता के कारण जैन अजैन दोनों प्रकार के विद्वान जैन दर्शन के अध्ययन से सकुचाते हैं। क्रमबद्ध तथा विषयानुक्रम विवेचन का अभाव जैन दर्शन के अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित करता है-ऐसा हमारा अनुभव है। अध्ययन को बाधा मिटाने के लिए हमने जैन विषय-कोश की एक परिकल्पना बनायी और उस परिकल्पना के अनुसार समग्र आगम ग्रंथों का अध्ययन किया और उस अध्ययन के आधार पर सर्व प्रथम हमने विशिष्ट पारिभाषिक, दार्शनिक तथा आध्यात्मिक विषयों की एक सूची बनाई। विषयों की संख्या १००० से भी अधिक हो गई तथा इन विषयों का सम्यक् वर्गीकरण करने के लिए हमने आधुनिक सार्वभौमिक दशमलव वर्गीकरण का अध्ययन किया। तत्पश्चात् बहुत कुछ इसी पद्धति का अनुसरण करते हुए हमने सम्पुर्ण वाङ्मय को १०० रगों में विभक्त करके मूल विषयों के वर्गीकरण की एक रूपरेखा (देखें पृ० १३ ) तैयार की। यह रूपरेखा कोई अन्तिम नहीं है । परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन की अपेक्षा भी इसमें रह सकती है । मुल विषयों से भी अनेक उपविषयों की सूची भी हमने तैयार की है। उनमें से जीव परिणाम ( मूल विषयांक ०४ ) की उपविषय सूची लेश्याकोश में दी गई है। जीव परिणाम की वह उपसूची भी परिवर्तन, परिवर्तन व संशोधन की अपेक्षा रख सकती है। 'क्रिया' शब्द का आगम में दो भावों में व्यवहार हुआ है एक कर्मवाद ( जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण संख्या १२) के अन्तर्गत 'कर्मबन्धनिबन्धभूता' के अर्थ में तथा दूसरा कियाबाद (जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण संख्या १३ ) के अन्तर्गत ( मोक्षमार्गवाहका ) अर्थ में व्यवहार हुआ है। हमने कर्मवाद के उपविषयों की सूची तथा क्रियावाद के उपविषयों को सूचो अलग-अलग दी है (देखें पृ० १७-१८)। इन सूचियों में भी परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन की अपेक्षा रह सकती है। कर्मवाद में 'क्रिया' शब्द विषयांक १२२२ है तथा क्रियावाद में सदनुष्ठान क्रिया शब्द विषयांक १३०१ है। विद्वदूर्ग से निवेदन है कि वे इन विषय-सूचियों का गहरा अध्ययन करें तथा इनमें [ 9 ] "Aho Shrutgyanam" Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन, परिवर्द्धन व संशोधन सम्बन्धी अथवा अपने अन्य बहुमुल्य सुझाव भेजकर हमें अनुगृहीत करें। हमने इस पुस्तक में यथाशक्ति दोनों प्रकार की क्रियाओं के सभी पाठों का संकलन करने का प्रयास किया है। फिर भी हम यह दावा नहीं कर सकते कि कोई पाठ छूटा नहीं है। हमारी छद्मस्थता से, हमारे प्रमादवश पाठ छूट गये हों तो कोई आश्चर्य नहीं है। पाठों के संकलन-संपादन में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची में यद्यपि हमने कतिपय ग्रन्थों का ही नाम दिया है तथापि अध्ययन हमने अधिक ग्रन्थों का किया है तथा नियुक्ति-चूर्णीटीका आदि का भी आवश्यकतानुसार अध्ययन किया है । 'लेश्या कोश' की तरह पाठों का मिलान हमने कई मुद्रित प्रतियों से किया है। यद्यपि हमने सन्दर्भ एक ही प्रति का दिया है। सम्पादन में निम्नलिखित तीन बातों को हमने आधार माना है :१-पाठों का संकलन और मिलान, २---विषय के उपविषयों का वर्गीकरण, तथा ३--हिन्दी अनुवाद पाठों के मिलान के लिए हमने कई मुद्रित प्रतियों की सहायता ली है। और, यदि कोई महत्त्वपूर्ण पाठान्तर मिला तो उसे शब्द के बाद ही कोष्ठक में दे दिया है। जहाँ क्रिया सम्बन्धी पाठ स्वतन्त्र रूप में मिल गया है वहाँ हमने उसे उसी रूप में ले लिया है लेकिन जहाँ क्रिया सम्बन्धित पाठ अन्य विषयों के साथ सम्मिश्रित दिये गये है वहाँ हमने निम्नलिखित दो पद्धतियों को अपनाया है : १-पहली पद्धति में हमने सम्मिश्रित पाठों से क्रिया-सम्बन्धी पाठ अलग निकाल लिया है तथा जिस सन्दर्भ में वह पाठ आया है उस सन्दर्भ को प्रारम्भ में कोष्ठक में देते हुए उसके बाद क्रिया-सम्बन्धी पाठ दे दिया है ( देखें विषयांक ८१.३)। २-दूसरी पद्धति में हमने सम्मिश्रित विषयों के पाठों में से जो पाठ क्रिया से सम्बन्धित नहीं हैं उनको बाद देते हुए क्रिया सम्बन्धी पाठ ग्रहण किया है तथा बाद दिये हुए अंशों को तीन गुणा (xxx) चिह्नों द्वारा निर्देशित किया है-( देखें विषयांक ८६२) मूल पाठों में संक्षेपीकरण होने के कारण अर्थ को प्रकट करने के लिए हमने कई स्थलों पर स्वनिर्मित पूरक पाठ कोष्ठक में दिये हैं। (देखें विषयांक ८६१) वर्गीकृत उपविषयों में हमने मूल पाठों को अलग-अलग विभाजित करके भी दिया है तथा कहीं-कहीं समूचे मूल पाठ को एक वर्गीकृत उपविषय में देकर उस पाठ में निर्दिष्ट [ 10 ] "Aho Shrutgyanam" Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य वर्गीकृत उपविषयों में उक्त पाठ दिया गया है उस स्थल को मूल पाठ को बार-बार उद्धृत न करके जहाँ समूचा मूल इंगित कर दिया है । ( देखें विषयांक ४८४ ) 'लेश्याकोश' की तरह 'क्रियाकोश' को भी हमने १० मूल विभागों में विभक्त किया है । क्रियाकोश के मूल विभाग किया है और उनको फिर १०० विभागों में विभक्त इस प्रकार हैं : ० शब्द विवेचन १ से ६ विभिन्न कियाओं का विवेचन ७ सदनुष्ठान क्रिया ८ जीव और किया ६ क्रिया और विविध विषय ६६ क्रिया सम्बन्धी फुटकर पाठ शब्द विवेचन का विभाजन निम्न प्रकार से हुआ ० शब्द विवेचन ( मूलवर्ग ) ०१ शब्द व्युत्पत्ति - प्राकृत, पाली, संस्कृत भाषाओं में .०२ क्रिया शब्द के पर्यायवाची शब्द ०३ क्रिया शब्द के विभिन्न अर्थ ०४ सविशेषण - ससमास - सप्रत्यय क्रिया शब्दों की सूची और परिभाषा ०५ परिभाषा के उपयोगी पाठ • ०६ प्राचीन आचार्यों द्वारा की गई किया की परिभाषा ०७ क्रिया के भेद ०८ क्रिया पर विवेचन गाथा ०६ क्रिया का नय और निक्षेपों की अपेक्षा विवेचन कर्मबंधनिबंधभूता किया का विषयांकन हमने १२२२ किया है । इसका आधार यह है कि सम्पूर्ण जैन वाङ्मय को १०० विभागों में विभाजित किया गया है । ( देखें मूल वर्गीकरण सूची पृ० १४-१६) । इसके अनुसार कर्मवाद का विषयांकन १२ है । कर्मवाद को भी १०० भागों में विभक्त किया गया है । ( देखें कर्मवाद वर्गीकरण सूची पृ० १७ ) इसके अनुसार क्रिया का विषयांकन २२ होता है अतः कर्मबन्धनिबन्धभूता क्रिया का विषयांकन हमने १२२२ किया है। सदनुष्ठान क्रिया का विषयांकन हमने १३०१ किया है । इसका आधार इस प्रकार है- जैन वाङ्मय के मूलवर्गीकरण में क्रियावाद का विषयांकन १३ है । क्रियावाद के उपवर्गीकरण में सदनुष्ठान क्रिया का विषयांकन ०१ है अतः सदनुष्ठान क्रिया का विषयांकन १३०१ किया है । [ 11 ] "Aho Shrutgyanam" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तव में हमको कर्मबंधनिबंधभूता क्रिया का कोश अलग बनाना चाहिए था तथा सदनुष्ठान क्रिया का अलग। लेकिन हमने दोनों क्रियाओं का विरोधी पक्ष देखकर दोनों का संकलन एक साथ कर दिया है । यदि भावी अध्ययन से यह अनुभव हुआ कि सदनुष्ठान क्रिया का अलग से कोश प्रकाशन करना आवश्यक है तो उसका अलग से प्रकाशन करेंगे। क्रिया संबंधी तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम कई असुविधाओं के कारण अन्य धर्मों के दार्शनिक ग्रंथों का सम्यग् अध्ययन नहीं कर सके, केवल सप्त टीका सहित श्रीमद् भगवद्गीता का ही अध्ययन किया ! उससे प्राप्त क्रिया संबंधी तुलनात्मक पाठों को हमने दे दिया है । ( देखें क्रमांक .६८) तत्पश्चात् हमें अंगुत्तर निकाय का एक संदर्भ क्रियावाद के संबंध का आचार्य भागचंद जैन की एक अंग्रेजी रचना में मिला । वह अंगुत्तर निकाय का उद्धरण हमने छुटे हए पाठों में पुस्तक के अन्त में दे दिया है । सामान्यतः अनुवाद हमने शाब्दिक अर्थ रूप ही किया है लेकिन जहाँ विषय की गम्भीरता या जटिलता देखी है वहाँ अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विवेचनात्मक अर्थ भी किया है। विवेचनात्मक अर्थ करने के लिए हमने सभी प्रकार की टीकाओं तथा अन्य सिद्धांत ग्रंथों का उपयोग किया है ! छदमस्थता के कारण यदि अनुवादों में या विवेचन करने में कहीं कोई भूल, भ्रान्ति व त्रुटि रह गई हो तो पाठक वर्ग सुधार लें । जहाँ मूल पाठ में विषय अस्पष्ट रहा है वहाँ मूल पाठ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए हमने टीकाकारों के स्पष्टीकरण को भी अपनाया है तथा स्थान-स्थान पर टीका का पाठ भी उद्धृत कर दिया है। यद्यपि हमने संकलन का काम श्वेताम्बर आगम ग्रंथों तक ही सीमित रखा है तथापि सम्पादन, वर्गीकरण तथा अनुवाद के काम में नियुक्ति, चूर्णी, वृत्ति, भाष्य आदि टीकाओं का तथा अन्य श्वेताम्बर-दिगम्बर सिद्धांत ग्रंथों का भी उपयोग किया है । सम्भव है हमारी छद्मस्थता के कारण तथा मुद्रक के कर्मचारियों के प्रमादवश पुस्तक की छपाई में कुछ अशुद्धियाँ रह गई हों। आशा है पाठकगण अशुद्धियों के लिए हमें क्षमा करेंगे तथा आवश्यकतानुसार संशोधन कर लेंगे। हमारी कोश-परिकल्पना का अभी परीक्षण काल ही चल रहा है अतः इसमें अनेक त्रुटियाँ हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है ! लेकिन अब हमारी परिकल्पना में पुष्टता आ रही है तथा हमारे अनुभव में यथेष्ट समृद्धि हुई है इसमें कोई संदेह नहीं है । पाठक वर्ग से सभी प्रकार के सुझाव अभिनन्दनीय हैं चाहे वे सम्पादन, वगीकरण, अनुवाद या अन्य [ 12 ] "Aho Shrutgyanam" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी प्रकार के हों। आशा है इस विषय में विद्वद्वर्ग अपने सुझाव भेज कर हमें पूरा सहयोग देंगे। पुद्गल कोश की हमारी तैयारी अधिकांश सम्पूर्ण हो चुकी है । दिगम्बर लेश्याकोश का कार्य भी चल रहा है। साथ ही साथ परिभाषा-कोश का भी संकलन हो रहा है । हम जैन दर्शन समिति के आभारी है जिसने कोश प्रकाशन की सारी व्यवस्था की जिम्मेवारी ग्रहण कर ली है तथा संकलन- सम्पादन के काम में भी हमारे लिए सहयोगियों की व्यवस्था कर रही है। हम बंधुवर जबरमलजी भंडारी के अत्यन्त आभारी है जिन्होंने सदा इस कार्य के लिए हमें प्रोत्साहित किया है। हम साहित्य वारिधि श्री अगरचन्दजी नाहटा के भी कम आभारी नहीं हैं जो सदा हमारी तथा हमारे कार्य को खोज खवर लेते रहे हैं तथा हमारे लिये ग्रन्थों को व्यवस्था करते रहे हैं। हम उन सभी देशी-विदेशी विद्वानों को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने 'लेश्या-कोश' के ऊपर अपनी सम्मतियाँ भेजकर हमारा उत्साह वर्धन किया है। हम सर्वश्री नेमचन्दजी गधैया, रामचन्द्रजी सिंघो, मोहनलालजी वैद, कन्हैयालालजी दूगड़, केवलचन्दजी नाहटा, गणेशमलजी चंडालिया आदि-आदि सभी बंधुओं को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने हमारे विषय-कोश-निर्माण-परिकल्पना में हमें किसी न किसी रूप में सहयोग दिया है। सुराना प्रिंटिंग वर्क्स तथा उसके कर्मचारी भी धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस पुस्तक का सुन्दर मुद्रण किया है। मोहनलाल बाँठिया श्रीचन्द चोरडिया [ 13 ] "Aho Shrutgyanam" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण मूल विभागों की रूपरेखा जै० द० व० सं० यू० डी० सी० संख्या --जैन दार्शनिक पृष्ठभूमि १-लोकालोक ५२३.१ ०२.-द्रव्य ---उत्पाद व्यय-ध्रीव्य ०३-जीव १२८ तुलना ५७७ ०४---जीव-परिणाम ०५- अजीव-अरूपी ०६--अजीव-रूपी-पुद्गल ११७ तुलना ५३६ ०७-पुद्गल परिणाम ०८--समय-- व्यवहार-समय ११५ तुलना ५२६ ०६----विशिष्ट सिद्धान्त १- जैन दर्शन ११----आत्मवाद १२-कर्मवाद-आस्रव-बंध-पाप-पुण्य १३–क्रियावाद-संवर निर्जरा-मोक्ष १४-जेनेतरवाद १५-मनोविज्ञान १६-न्याय-प्रमाण १७-- आचार संहिता १८-स्याद्वाद-नयवाद-अनेकान्तादि १६-विविध दार्शनिक सिद्धान्त २ धर्म २१-- जैन धर्म की प्रकृति २२--जैन धर्म के ग्रन्थ २३-आध्यात्मिक मतवाद २४-धार्मिक जीवन २५–साधु-साध्वी-यति-भट्टारक क्षुल्लकादि २६-चतुर्विध संघ २७--जैन का साम्प्रदायिक इतिहास २८-सम्प्रदाय २४- जेनेतर : तुलनात्मक धर्म -समाज विज्ञान ३१-सामाजिक संस्थान [ 14 ] "Aho Shrutgyanam" Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० द० व० सं० ३२ - राजनीति ३३- अर्थ शास्त्र ३४ - नियम - विधि कानून-न्याय ३५ - शासन ३६ -- सामाजिक उन्नयन ३७--- शिक्षा ३८ - व्यापार-व्यवसाय यातायात ३६ -- रीति-रिवाज - लोक कथा ४ - भाषा विज्ञान भाषा ४१ - साधारण तथ्य ४२ -- प्राकृत भाषा ४३ - संस्कृत भाषा ४४- अपभ्रंश भाषा ४५ - दक्षिणी भाषाएँ ४६ - हिन्दी ४७ - गुजराती-राजस्थानी ४६ - महाराष्ट्री ४ε-- अन्यदेशी-विदेशी भाषाएँ ५- विज्ञान ५१-गणित ५२ -- ब्रगोल ५३- भौतिकी-यांत्रिकी ५४ -- रसायन ५५- भूगर्भ विज्ञान ५६ - पुराजीव विज्ञान ५७ - जीव विज्ञान ५८ ५- पशु विज्ञान वनस्पति विज्ञान ६--- प्रयुक्त विज्ञान ६१-- चिकित्सा ६२ - यांत्रिक शिल्प ६३ - कृषि विज्ञान ६४ - गृह विज्ञान ६६ [ 15 ] "Aho Shrutgyanam" यू० डी० सी० संख्या ૨ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३६ ४ ४१ ४६ १३ ४६१.२ ४६१३ ४६४८ ४६१*४३ ४६१४ ४६१४६ ४६. १ ५ ५.१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५६ Www x + ६१ ६२ ६३ ६४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यू० डी० सी० संख्या GGGGG G ७८ ७४ जै० द०व० सं० ६६-रसायन शिल्प ६७- हस्त शिल्प वा अन्यथा ६८--विशिष्ट शिल्प ६६-वास्तु शिल्प ७-कला-मनोरंजन-क्रीड़ा ७१-नगरादि निर्माण कला ७२-स्थापत्य कला ७३-मूर्तिकला ७४-रेखांकन ७५-चित्रकारी ७६---उत्कीर्णन ७७-प्रतिलिपि-लेखन-कला ७८-संगीत ७४--मनोरंजन के साधन ८- - साहित्य ८१-छंद-अलंकार-रस ८२--प्राकृत साहित्य ८३- संस्कृत जैन साहित्य ८४-अपभूश जैन साहित्य ८५-~-दक्षिणी भाषा में जैन साहित्य ८६-हिन्दी भाषा में जैन साहित्य ८७-गुजराती-राजस्थानी भाषा में जैन साहित्य ८८-महाराष्ट्री भाषा में जैन साहित्य बह--अन्य भाषाओं में जैन साहित्य 8-भूगोल-जीवनी-इतिहास ६.१-भूगोल ह२-जीवनी ६३-इतिहास ६४-मध्य भारत का जैन इतिहास ६५--दक्षिण भारत का जैन इतिहास ६६-- उत्तर तथा पूर्व भारत का जैन इतिहास ६७-गुजरात-राजस्थान का जैन इतिहास ६८-महाराष्ट्र का जैन इतिहास ६६-अन्य क्षेत्र व वैदेशिक जैन इतिहास [ 16 ] VM + + + + + + + + warm + + + + + + "Aho Shrutgyanam" Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कर्मवाद का वर्गीकरण १२०० विवेचन १२०१ कर्म १२०२ घाती-अघातीकर्म १२०३ पुण्य-पाप २०४ १२०५ १२०६ १२०७ १२०८ १२०६ १२३० कर्मकरण १२३१ उद्वर्तन १२३२ अपवर्तन १२३३ सत्ता १२३४ उदीरण १२३५ संक्रमण १२३६ उपशम १२३७ निधत्ति १२३८ निकाचन १२३६ घात १२१० कर्मप्रकृति शानावरणीय १२१२ दर्शनावरणीय १२१३ वेदनीय १२१४ मोहनीय १२१५ आयुष्य १२१६ नाम १२१७ गोत्र १२१८ अंतराय १२१६ १२२० कर्मपरिणाम १२२१ आस्रव १२१२ क्रिया १२२३ बंध १२२४ उदय १२२५ वेदन १२२६ १२२७ १२२८ १२२६ [ 17 ] "Aho Shrutgyanam" Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१३ क्रियावाद का वर्गीकरण १३०० विवेचन १३०१ सदनुष्ठान क्रिया १३०२ संवर १३०३ १३०४ १३०५ मोक्ष १३०६ १३०७ १३०८ १३०६ निर्जरा-तप अंतक्रिया १३१० सामायिक १३११ चतुर्विंशतिस्तव १३१२ स्त्वस्तुति मंगल १३१२ वंदना १३१४ प्रतिक्रमण १३१५ १३१६ आलोचना १३१७ आत्मनिंदा १३१८ ग १३१६ प्रत्याख्यान - त्रत-त्याग प्रतिलेखन १३२० दर्शनाराधना १३२१ १३२२ १३२३ अहिंसा १३२४ सत्य १३२५ अस्तेय १३२६ ब्रह्मचर्य १३२७ अपरिग्रह १३२८ समिति १३२६ गुप्ति ज्ञानाराधना-श्रुताराधना चारित्राराधना [ 18 ] " Aho Shrutgyanam" १३३० संवेग १३३१ निवेद १३३२ सुखशांत १३३३ अप्रतिबद्धता १३३४ विषयनिवृत्ति १३३५ इन्द्रियनिग्रह १३३६ योगनिग्रह १३३७ संयम १३३८ १३३६ १३४० कषायविजय १३४१ क्षमा १३४२ मार्जव १३४३ आर्जव १३४४ संतोष निर्लोभता १३४५ १३४६ १३४७ १३४८ १३४६ १३५० दान १३५१ लाघव १३५२ धर्मश्रद्धा १३५३ प्रवचन प्रभावना १३५४ धर्मकथा १३५५ सम्पन्नता १३५६ १३५७ १३५८ १३५६ समाधारणता केवलि आराधना Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका विश्व के प्रायः सभी नये-पुराने धर्मों का तत्वदर्शन आत्मा का तत्त्वदर्शन है। धार्मिक परम्पराओं की चिन्तनधारा अनन्तकाल से आत्मा को केन्द्र करके ही प्रवाहित होती आई है और प्रवाहित होती रहेगी। यदि आत्मचिन्तन को कुछ क्षणों के लिये अलग कर दिया जाये, तो फिर धर्मों के पास शून्य के सिवा और कुछ शेष रहेगा ही क्या ? यह पाप और पुण्य, यह धर्म और अधर्म, यह नरक और स्वर्ग, यह बन्ध और मोक्ष, यह उत्थान और पतन, यह सुख और दुःख क्या है ? आत्मा के अनन्त चैतन्य रूप का हो तो एक विस्तार है। परिवार का माधुर्य, समाज का दायित्व, राष्ट्रों की गौरव-गरिमा भी मूल में आत्मतत्त्व पर ही केन्द्रित होती है । इसलिये विश्व के प्रबुद्ध मनीषियों ने आत्मा के सम्बन्ध में विराट साहित्य का सृजन किया है। भारत के तत्त्वज्ञों का यह अत्यन्त प्रिय एवं प्रमुख विषय रहा है । भारत के तत्त्व-चिन्तकों में कितना ही क्यों न मतभेद रहा हो, पर आत्मतत्त्व को स्वीकृति के सम्बन्ध में तो प्रायः सभी का स्वर एक है । वैदिक परम्परा का उदघोष है.---'आत्मानं विद्धि'-अपने को जानो, अपने को पहचानो। श्रमण संस्कृति का तो यह चिरन्तन सन्देश है कि 'अप्पाणमेव समभिजाणाहि'—और कुछ जानने से पहले अपने को जानो, अपने को परखो। जिसने अपने को नहीं जाना, उसने कुछ नहीं जाना। जिसने अपने को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया-'आत्मनि विज्ञाने सर्व विज्ञातं भवति ।” आत्माओं में यह विरूपता क्यों ? भारतीय धर्मों और दर्शनों ने जब आत्मतत्त्व का परीक्षण किया, विश्लेषण किया, तो उन्होंने देखा कि सब आत्मा एक-सी नहीं है, एक स्वरूप नहीं है । कोई क्रूर है तो कोई दयालु है ; कोई अभिमानी है तो कोई विनम्र है ; कोई सरल है तो कोई कुटिल है ; कोई लोभी-लालची है तो कोई सन्तोषी-उदार है ; कोई रागी-द्वेषी है तो कोई वीतरागी है ; कोई संयमी है तो कोई असंयमी है। प्रश्न है, यह विभिन्नता क्यों ? आत्मा जब आत्मा है तो उसका रूप एक ही होना चाहिए। यह विरूपता क्यों, विभिन्नता क्यों, विविधता क्यों ? ऐक तत्त्व में दो परस्पर विरोधी रूप नहीं हो सकते । यदि है तो उनमें कोई एक ही रूप मौलिक एवं वास्तविक हो सकता है । दोनों तो वास्तविक नहीं हो सकते, मौलिक नहीं १-सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया-द्रव्यसंग्रह । [ 19 ] "Aho Shrutgyanam" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकते। अतएव धर्मों के वह रूप सही है ? आत्मा के प्रकाश को ? तत्वदर्शन के समक्ष यह ज्वलन्त प्रश्न है कि यह रूप सही है या किस रूप को सत्य माना जाये ? अन्धकार को सच्चा मानें या विरूपता का मूल -- 'कर्म' आत्माओं को यह विरूपता स्वयं आत्माओं की अपनी नहीं है, स्वरूपगत नहीं है । जल में उष्णता जिस प्रकार बाहर के तेजस पदार्थों के संसर्ग से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार आत्माओं में भी यह काम, क्रोध, भय, लोभ, सुख-दुःख आदि की विरूपता बाहर से आती है, अन्दर से नहीं । अन्दर में तो हर आत्मा अनन्त चैतन्य का प्रकाश लिए हुए है, वहाँ अन्धकार को एक क्षण के लिए भी स्थान नहीं है; जैन दर्शन की भाषा में द्रव्य-दृष्टि से अर्थात् अपने मूल स्वरूप से सभी आत्मा शुद्ध है, अशुद्ध कोई है ही नहीं । अशुद्धता पर्यायदृष्टि से है, द्रव्य-दृष्टि से नहीं । अतः सिद्धान्त निश्चित है कि हर आत्मा स्वभाव से शुद्ध है, एक स्वरूप है । जो अशुद्धता है, विरूपता है, भेद है, विभिन्नता है, वह सव विभाव से है, विभाव- परिणति से है । यह नहीं कि यह विभाव-परिणति आत्माओं में यों ही आकस्मिक नहीं होती है । आत्माओं में जो अशुद्धता है, विरूपता है, वह अहेतुक है और उसका कोई कारण नहीं है । यदि अशुद्धता को अहेतुक माना जाय, तो फिर वह कभी दूर ही नहीं हो सकेगी ! जो अहेतुक है, वह कैसे दूर हो सकती है ? और, जब वह दूर नहीं हो सकती, तो फिर धर्म-साधना का क्या अर्थ रह जाता है ? धर्म-साधना तो आत्मा में सोए हुए परमात्मतत्त्व को जागृत करने के लिये है, आत्मा के अनन्त प्रकाश को आच्छादित करने वाले आवरणों से मुक्त होने के लिये है । यदि यह सब कुछ नहीं है तो फिर साधना अहेतुकता के अन्धकार में भटकती रह जाती है, सर्वथा मूल्यहीन हो जाती है । अतएव भारतीय तत्त्वचिन्तन ने आत्माओं की शुद्धता को सहेतुक माना है, अहेतुक नहीं । यह हेतु क्या है और उसका क्या स्वरूप है ? इस पर काफी चिन्तन हुआ है। भार तीय दर्शन की खोज का यह इतना महान प्रमुख विषय रहा है कि इस पर लक्षाधिक गाथाएँ लिखी गई हैं । भारतीय दर्शनों इसे 'कर्म' कहा है । 'कर्म' शब्द एक ऐसा शब्द है, जो प्रायः सभी आत्मवादी दर्शनों को मान्य है । परिभाषा में अन्तर हो सकता है, परन्तु आत्मा की विभिन्न सांसारिक परिणतियों के लिये सभी दर्शनों ने कर्म को ही निमित्त माना है । यह कर्म अपने आप होता है, आत्मा से स्वयं आकर बँध जाता है ? अथवा ईश्वर या अन्य किसी शक्ति द्वारा प्रेरित होकर आत्माओं को दूषित कर देता है ? अथवा आत्मा का अपना किया हुआ होता है ? कर्म अपनी ही भूल है, जो अपने को तंग करती है ? उक्त [ 20 ] "Aho Shrutgyanam" Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 प्रश्नों पर भारतीय चिन्तन में काफी चर्चा हुई है । कुछ विचारकों ने ऐसा माना है कि आत्मा स्वयं कुछ नहीं कर पाता है, वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं नहीं है । जो कुछ भी होता है, वह ईश्वर के द्वारा होता है। ईश्वर की इच्छा है, वह जैसा चाहता है, कैसा करता है । यह विचार भारतीय चिन्तन में प्रस्फुटित तो हुआ है, परन्तु ठीक तरह गति नहीं पकड़ सका । यह कैसी बात कि प्राणी के हाथ में कोई सत्ता नहीं। वह निरीह है, दीन है, हीन है, असमर्थ है । वह स्वयं कुछ नहीं करता और अकारण ही ईश्वर अपनी निरंकुश इच्छा को उस पर थोप देता है । अतः यह चिन्तन विचार क्षेत्र में अधिक समर्थन नहीं पा सका । कर्म का सिद्धान्त ही सर्वोपरि सिद्धान्त माना गया । जैन दर्शन का तो यह प्राणतत्र ही है। जैन तत्त्व की यह मुक्त घोषणा है कि आत्माओं की अशुद्धता एवं विरूपता 'कर्म' के कारण है । और कर्म भी किसी अन्य के द्वारा लादा हुआ नहीं होता, अपना ही किया होता है । व्यक्ति ही कर्ता है, व्यक्ति ही भोक्ता है । कृत ही भोगा जाता है, अकृत नहीं । जो कर्ता है वही भोक्ता भी है । यह नहीं कि कर्ता कोई और हो, और भोक्ता कोई और ही । यह आत्माओं की स्वतन्त्रता का वह महान् उद्घोष है, जिसे कोई महान चुनौती नहीं दी जा सकती । क्रिया कर्म की जननी कर्म क्या है और वह आत्मा के साथ कैसे बद्ध होता है ? उक्त प्रश्न समाधान के लिए स्पष्ट विचारणा माँगता है । अन्य दर्शनों में कर्म के सम्बन्ध में विभिन्न धारणाएँ हैं, यहाँ हम उस लम्बे विस्तार में नहीं जाना चाहते। प्रस्तुत प्रसंग जैन दर्शन का है, अतः हम यहाँ संक्षेप में जैन दर्शन से सम्बन्धित कर्मवाद की ही विवेचना प्रस्तुत करते हैं । जैन दर्शन का मन्तव्य है कि समग्र लोक में कार्मण वर्गणा के पुद्गल व्याप्त हैं । ये पुद्गल स्वयं कर्म नहीं हैं, किन्तु उनमें कर्म होने की योग्यता है । वे कर्मरूप पर्याय विशेष में प्रसंगानुसार परिणत हो जाते हैं । प्राणी के अन्तर में जब भी राग-द्वेषात्मक भाव होते हैं, " तभी तत्क्षण वे आत्मक्षेत्रावगाही कार्मण वर्गणा के पुद्गल कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं, और कार्मण नाम के सूक्ष्म शरीर के माध्यम से आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं । आत्मा १ - ईश्वरप्रेरितो गच्छेत स्वर्ग वा श्वभूमेव वा--- २- कम्मुणा उवाही जायहइ - आया० १/३/१ ३- अत्तकडे दुक्खे णो परकडे ! - भग० १७/५ ४- अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।-उत्त० २० । ५- रागो य दोसो वि य कम्मबीयं— उत्त० ३२/७ ६ • सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढ स्थिता तत्त्वार्थसूत्र ८२५ [ 21 ] "Aho Shrutgyanam" Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ बद्ध रहने की उनकी अपनी-अपनी एक काल-मर्यादा होती है, उसे शास्त्रीय भाषा में स्थितिबन्ध कहते हैं। जब आत्मा कर्मों का फल भोग कर लेती है तब वह कर्म-पुद्गल आत्मा से अलग हो जाते हैं 1 फल भोग के समय यदि आत्मा के रागद्वेषात्मक भाव होते हैं, तो फिर वह नये कर्म बाँध लेता है और उन्हें फिर यथाप्रसंग भोगना होता है। इस प्रकार बीज-वृक्ष-न्याय से कर्म और कर्मफल का भोग, फिर कर्म और फिर कर्मफल का भोग--यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है। सांसारिक स्थिति के निचले स्तरों पर कोई क्षण ऐसा नहीं गुजरता, जबकि रागद्वेष की वृत्ति का कोई भी अंश अन्दर में न हो और उस समय कोई भी कर्म आत्मा के साथ न बँधता हो। हर क्षण में रागद्वेष किसी न किसी रूप में होते ही हैं और उसके अनुसार कर्मबन्ध भी न्यूनाधिक मात्रा में हर क्षण होता ही रहता है। द्रव्यकर्म पुद्गल रूप है, और वह भावकर्म के निमित्त से कर्म का रूप ग्रहण करता है। यह भावकर्म ही है, जिसे जैन दर्शन ने क्रिया कहा है, और जिसे कर्म की जननी कहा जाता है । आत्मा की शुभ-अशुभ प्रवृत्तियाँ, चेष्टाएँ, हरकतें ही क्रिया है ! यदि क्रिया न हो तो कर्म भी न हो। क्रिया से ही कर्म अस्तित्व में आता है। हर क्रिया की कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है और प्रतिक्रिया ही कर्म है। अतएव जैन दर्शन ने जितने विस्तार से कर्मों का वर्णन किया है, उतने ही विस्तार से क्रियाओं का भी वर्णन किया है। कर्म के शुभाशुभ विकल्पों को, विभिन्न प्रकारों को समझने के लिये कियाओं के स्वरूप का भी विस्तार से परिज्ञान होना आवश्यक है। आगम साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग क्रियाओं की चर्चा से परिव्याप्त है। कहीं संक्षेप शैली में चर्चा है तो कहीं विस्तार शैली में। कहीं व्यवहार दृष्टि से निरूपण है तो कहीं निश्चय दृष्टि से । कहीं-कहीं तो इतनी अधिक सूक्ष्म चर्चाएँ हैं कि उनके वास्तविक मर्म को समझने के लिये काफी दूर तक चिन्तन की गहराई में उतरना पड़ता है और यह चिन्तन की गहराई ही साधक के लिये साधना का पथ प्रशस्त करती है। व्यक्ति की जैसी क्रिया होगी, उसी के अनुसार उसका कर्म भी होगा। और जैसा कर्म होगा, वैसा ही उसका फल होगा ! यदि कोई कर्म के फल से बचना चाहता है तो उसे कर्मबन्ध से बचना होगा। और जो कर्म बन्ध से बचना चाहता है, उसे कर्मबन्ध करने वाली क्रियाओं से बचना होगा। मूल में क्रिया है और शेष सब उसी का विस्तार है । धर्मसाधना कियाओं का निरोध है, और कुछ नहीं। यह निरोध ही संवर है, जो जैनसाधना का महातिमहान मुक्तिपथ है। १-आस्रवनिरोधः संवरः।-तत्त्वार्थसूत्र ६१ [ 22 ] "Aho Shrutgyanam' Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाओं के निरोध से क्या अभिप्राय है ? यह यहाँ समझ लेना आवश्यक है। क्रिया का यह अर्थ नहीं कि साधक निष्क्रिय होकर बैठ जायेगा, वह कोई भी प्रवृत्ति नहीं करेगा। साधना का अर्थ शून्यता नहीं है और न मनुष्य जीवनकाल में इस प्रकार शून्य, निर्जीव एवं निश्चेष्ट हो ही सकता है । जब तक जीवन है प्रवृत्तिचक्र चलता ही रहेगा। एक क्षण के लिये भी व्यक्ति निश्चेष्ट नहीं रह सकता ।' जब जीवन की यह स्थिति है तब प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर साधन-पथ में क्रिया का निरोध कैसा ? जब क्रिया का निरोध नहीं तो कर्म-बन्धन से छुटकारा नहों और जब कर्म-बन्धन से छुटकारा नहीं तो फिर मुक्ति कैसे होगी ? कर्मबन्धन से मुक्ति ही तो मुक्ति है ।२ उक्त प्रश्न का समाधान है कि यहाँ क्रिया से बाहर शरीर, इन्द्रिय आदि द्वारा होने वाली स्थूल प्रवृत्ति एवं चेष्टा ही अभिप्रेत नहीं है। यहाँ क्रिया से अभिप्राय है व्यक्ति के अन्दर की मनोवैज्ञानिक स्थिति, भावात्मक वृत्ति । जिस प्रवृत्ति के मूल में राग, द्वेष तथा मोह की वृत्ति है, वस्तुतः वही प्रवृत्ति क्रिया है, जो कर्म बन्धन की हेतु होती है। जो प्रवृत्ति अनासक्त भाव से की जाती है, संसार को अनित्य समझ कर उदासीन भाव से की जाती है, जिसके मूल में आवश्यकता पूर्ति हेतु केवल कर्तव्य कर्म की ही निर्मल बुद्धि है, अन्य कोई भी रागद्वेषात्मिका मलिन बुद्धि नहीं है, वह प्रवृत्ति होते हुए भी अप्रवृत्ति है, क्रिया होते हुए भी अक्रिया है। इस प्रकार बाहर होनेवाली 'क्रियाओं में कर्मबन्ध की शक्ति का अभाव होता है। यदि किया की प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ कर्मबन्ध होता भी है तो वह क्षणिक होता है। ऐसा क्षणिक कि उसे कर्म या कर्मबन्ध कहना, केवल शास्त्रीय भाषा है और कुछ नहीं। जिस कर्म में न कोई स्थिति हो और न कोई फल प्रदानरूप रस ही हो, वह कर्म ही क्या ? साधारण स्थिति में यदि बीज का वपन किया जाए तो अंकुर की उत्पत्ति होती है, किन्तु यदि बीज को भुंज दिया जाए तो उसके वपन से अंकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इसी प्रकार राग, द्वेष तथा मोह से प्रेरित होकर यदि क्रिया अर्थात् प्रवृत्ति करता है तो उससे कर्मबन्ध होता है, और उस कर्मबन्ध के फलभोग के लिये पुनर्जन्म होता है । किन्तु अनासक्त भाव से विवेक १-न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।--भगवद्गीता ३५ २--कृत्स्नकर्मक्षयोः मोक्षः।-तत्त्वार्थ सूत्र १०३ ३-पमायं कम्म माहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं ।-सूय० १।८।३ ४.--जहा दड्ढाणं बीयाणं न जायंति पुण अंकुरा । कम्म-बीयेसु दड्ढेसु ण जायंति भवंकुरा ।। दसासु० ५।१५ [ 23 ] "Aho Shrutgyanam" Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वक प्रवृत्ति करने से न कर्मबन्ध होता है, न उसके फलभोग के लिये पुनर्जन्म । जब कर्म ही नहीं तो उसका फल कैसा ? मूलं नास्ति कुतः शाखा । जब कोई साधक वीतराग हो जाता है, अर्हन्त स्थिति प्राप्त कर लेता है तो वह शताधिक वर्षों जीवित रह कर गमनागमनादि तथा धर्मदेशना आदि की उचित प्रवृत्ति करता है, निष्काम भाव से पूर्ववद्ध सुख-दुःख आदि के कर्मफलों को भोगता रहता है, किन्तु नवीन कर्मों से बद्ध नहीं होता। इसी दार्शनिक चिन्तन को लक्ष्य में रखकर अर्हन्त तीर्थकरों के लिये 'जिणाणं जावयाणं, तिण्णाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोयगाणं' आदि स्व-पर कल्याणकारिता के द्योतक महत्त्वपूर्ण विशेषणों का प्रयोग किया गया है। यह जीवन जीने की प्रक्रिया जल में कमल के रहने की प्रक्रिया है, जो भारतीय जीवन पद्धति का एक आदर्श सूत्र है ।। कमल जल में जन्म लेता है, जल में पोषित होता है, बढ़ता है, खिलता है, महकता है परन्तु अपने पत्तों को जल से आर्द्र रेखांकित नहीं होने देता है। जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहता है। साधक भी संसार में जन्म लेता है और अन्त तक संसार में ही रहता है, जीवन के लिये आवश्यक क्रियाएँ भी करता है, परन्तु वह उस अद्भुत निष्काम भाव से करता है कि क्रियाओं को करते हुए भी क्रियाओं से लिप्त नहीं होता है । वीतराग साधना का यही मूल रहस्य है। क्रियाकोश: एक महत्त्वपूर्ण संकलन प्राचीन आगम साहित्य में यत्र-तत्र क्रियाओं का उल्लेख बिखरा पड़ा है । कहीं पर कुछ वर्णन है तो कहीं पर कुछ । प्रबुद्ध पाठक भी उन सब उल्लेखों का एकत्र अनुसंधान एवं चिन्तन करने में कठिनाई अनुभव करता है । साधारण जिज्ञासु पाठकों की कठिनाई का तो कहना ही क्या ? कभी-कभी तो साधारण अध्येता इतनी उलझन में फँस जाता है कि सब कुछ छोड़कर किनारे ही जा बैठता है । श्री मोहनलालजी वाँठिया ने उन सब वर्णनों को कियाकोश के रूप में एकत्र संकलन कर वस्तुतः भारतीय वाङ्मय की एक उल्लेखनीय सेवा की है। मैं जानता हूँ, यह कार्य कितना अधिक श्रमसाध्य है। चिन्तन के पथ की कितनी विकट घाटियों को पार कर मंजिल पर पहुँचना होता है। प्रतिपाद्य विषय का विभिन्न भागों में वर्गीकरण कितना अधिक उलझन भरा होता है ? परन्तु श्री बाँठियाजी अपनी धुन के एक ही व्यक्ति हैं। उनका चिन्तन स्पष्ट है। वे वस्तुस्थिति को काफी गहराई १-जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए । जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधई ।। दसवे० ४।८ २-न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं। उत्त० ३२१४७ [ 24 ] "Aho Shrutgyanam" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पकड़ते हैं और उसका उचित विश्लेषण करते हैं । उनकी एक पुस्तक 'जैन पदार्थ विज्ञानं में पुद्गल' प्रकाशित हुई है और वह काफी प्रशंसा प्राप्त कर चुकी है। इधर कुछ समय पहले लेश्याकोश' के नाम से एक दूसरी कृति भी उनकी बहुत शानदार निकली है । यह प्रस्तुत "क्रियाकोश' भी उसी कोटि की श्रेष्ठ कृति है। इसमें यत्र-तत्र उनकी बहुमुखी प्रतिभा के दर्शन होते है। आगम साहित्य में दूर-दूर तक फैले हुए क्रिया सम्बन्धी वर्णनों को बड़े सुन्दर ढङ्ग से एकत्र कर क्रिया-साहित्य का एक सर्वाङ्गीण चित्र ही उपस्थित कर दिया है । मैं श्री बॉठियाजी के इस संकलन का हृदय से स्वागत करता हूँ और विद्वानों से अनुरोध करता हूँ कि वे उक्त कोश का यथावकाश गम्भीर अध्ययन करें और सर्वसाधारण जिज्ञासुओं के लिये कर्मवाद, क्रियावाद, साथ ही कर्म-मुक्तिवाद आदि का भव्य विश्लेषण कर भारतीय तत्त्वचिन्तन को श्रीवृद्धि करें । जैन भवन मोती कटरा, आगरा २०-१०-१६६६ —उपाध्याय अमर मुनि [ 25 ] "Aho Shrutgyanam" Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख सकल जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण करके सम्पादक द्वय ने हजारों पारिभाषिक विषयों का चयन किया है तथा इन विषयों पर पाठों का प्राथमिक संकलन भी किया हैं । मूल दशमलव वर्गीकरण से ही पता चलता है कि सम्पदाकों ने कितनी विशाल दृष्टि से विषयों का विभाजन किया है। सम्पूर्ण जैन दशमलव वर्गीकरण की सूची V. D. C. की तरह प्रकाशित कर दी जाय – यह परम वांछनीय है । सम्पादकों से अनुरोध है कि वे इस कार्य को प्रगति दें और इस सूची के निर्माण में अन्य विद्वानों का सहयोग बिना दुविधा के ले जिससे निर्माण कार्य शीघ्रातिशीघ्र सम्पूर्ण हो सके । लेश्याकोश के बाद, जिसकी देश-विदेश में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है, सम्पादकों ने क्रियाकोश का निर्माण किया है । यह ग्रंथ भी सम्पादकों ने उसी लगन तथा तटस्थ शोध वृत्ति से संकलित किया है जिससे उन्होंने लेश्याकोश किया था तथा अपने लेश्याकोश के अनुभवों से इसमें कई विशेषताएँ भी लाये हैं । यथा - ससमास - सप्रत्यय - सविशेषण किया शब्दों की अकारादि क्रम से सूची तथा उनकी समूल पाठ परिभाषाएँ, विभिन्न क्रियाओं तथा उनके भेदों की आगमीय तथा आचार्यगण द्वारा की गई परिभाषाओं का संकलन, इससे सम्पादकगण की परिभाषा कोश निर्माण की कल्पना की पूर्ति स्वतः होती जायगी । क्रिया जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण विषय है। हमारा दैनिक जीवन अच्छी-बुरी क्रियाओं से संवलित है । क्रियाकुशल श्रावक-श्राविका प्रशस्त क्रियाओं में स्वयं को नियोजित करते हैं तथा उपयोग और विवेक से यत्न- पूर्वक गृहस्थ सांसारिक कार्यों को करते हुए दुष्ट व अप्रशस्त क्रियाओं से अपने को बचाते हैं । सच्चे श्रावकों का क्रियाकुशल होना आवश्यक है क्योंकि क्रियाओं का कुशल ज्ञान हुए बिना अप्रशस्त क्रियाओं से बचना कठिन है । भगवई सूत्र में तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें क्रिया कुशल का विशेषण भी दिया गया है । जगत में, जैन दर्शन के अनुसार, छः द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल तथा काल । इनमें प्रथम तीन निष्क्रिय हैं । ( देखो तत्त्व० ५/६ ) जीव और पुद्गल क्रिया वान है (देखो तत्त्व० ५/६ भाष्य ) तथा जीव और पुद्गल की किया करने में काल सहकारी है । ( देखो तत्त्व० ५/२२ ) निष्क्रिय का अर्थ यहाँ देशान्तर प्राप्ति रूप गति से है या परिणमन से ? धर्म-अधर्म - आकाश परिस्पंदन रूप कोई क्रिया नहीं करते हैं और न [ 26 ] "Aho Shrutgyanam" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्रदेश से अन्य प्रदेश में स्थानान्तर करते हैं, वे जहाँ हैं वहीं स्थिर रहते हैं, पर अपनेअपने भावगुणों के अनुसार परिणमन अवश्य करते हैं । जीव के दो भाव होते हैं - एक परिस्पंदनात्मक, दूसरा अपरिस्पंदनात्मक । ( देखो राज० ५/२२ | पृ० ४८१ ) जिसमें या जिससे जीव के आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता है वह परिस्पंदनात्मक भावक्रिया है । अपरिस्पंदनात्मक भाव परिणाम कहलाता है--द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्ति-धर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः ( सर्व ० ५/२२ | पृ० २६२) ज्ञान दर्शन-उपयोग आदि में जीव जो परिणमन करता है उससे उसके आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन नहीं होता है अतः ज्ञान-दर्शन उपयोग अपरिस्पंदनात्मक है तथा जीव परिणाम है। परिणाम और क्रिया दोनों जीव के भाव हैं, दोनों में अन्तर यह है कि परिणाम अपरिस्पंदनात्मक है तथा क्रिया परिस्पंदनात्मक होती है । जब जीव कोई क्रिया करता है तब उसके आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता है । पुद्गल के भी दो भाव होते हैं -- परिस्पंदनात्मक तथा अपरिस्पंदनात्मक । अपरिस्पंदनात्मक भाव में पुद्गल वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श तथा अगुरुलघु आदि गुणों में परिणमन करता है । ( सर्व ० ५/२२ | पृ० २६२ ) परिस्पंदनात्मक भाव में एजनादि क्रिया तथा देशान्तर प्राप्ति रूप क्रिया करता है । जीव दो प्रकार के होते हैं- सशरीरी तथा अशरीरी । अशरीरी -- सिद्ध जीव किसी प्रकार की परिस्पंदनात्मक किया नहीं करते हैं अतः अक्रिय होते हैं ( देखो क्रमांक ८१.१ ) यहाँ ख्याल रखने की बात है कि प्रथम समय के सिद्ध एजन क्रिया सहित ( सेया ) होते हैं । ( देखो क्रमांक ६३७ ) सशरीरी जोव दो प्रकार के होते हैं । चतुर्दश गुणस्थानवर्ती तथा इतर | चतुर्दशगुणस्थानवर्ती जीव शैलेशी- अडोल-अकम्प होते हैं, उनके सम्पूर्ण योग निरोध हो जाते हैं, उनके आत्मप्रदेश सर्वथा निष्कंप होते हैं, उस समय उनके कोई क्रिया नहीं होती है अतः वे अयोगी-अक्रिय कहलाते हैं । उस अवस्था में उनके परप्रयोग--- परसंघात से किया हो सकती है, निजके शरीर से कोई क्रिया नहीं होती है । ( देखो क्रमांक -६३*५) चक्षुपक्ष्मनिपात जैसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रिया भी नहीं होती है । उनका शरीर भी बिल्कुल अडोल रहता है । पर जीव द्वारा परसंघात होने से या प्रचण्ड वायु, भूमिकम्प आदि के संघात से उनके शरीर में किया हो सकती है लेकिन सम्भवतः यह संघातक्रिया शरीर के सम्पूर्ण निश्चेष्ट होने से, उनके आत्म-प्रदेशों का परिस्पंदन नहीं करती है । यह अनुसंधान का विषय है । चतुर्दशगुणस्थानवर्ती जीव जब सर्व प्रकार की क्रियाओं का व्यवच्छेदसमुच्छेद करता है तब वह सर्व क्रिया रहित हो जाता है । ( देखो क्रमांक ६३'४ )। तदनन्तर जीव शरीर से छूटकर एक समय की देशान्तरगामिनी- मोक्षगामिनी गति करता है । ( देखो क्रमांक ७३.१० ) उस समय उसके एजनक्रिया होती है- ऐसा कहा जाता है । [ 27 ] "Aho Shrutgyanam" Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के सभी जीव सक्रिय होते हैं । ( देखो क्रमांक ८११ ) वे प्रतिक्षण कोई न कोई क्रिया करते रहते हैं, किसी भी क्षण में अक्रिय नहीं होते हैं, अतः उनके आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता रहता है । सशरीरी जीव शरीर से ही सर्व प्रकार की क्रिया करते हैं, ऐसा माना जा सकता है । विग्रहगति में भी जीव कार्मणकाययोग से किया करता है । जोव किया सभी शरीरों से करता है। ये सभी क्रियाएँ परिस्पंदनात्मक हैं । नरक-तिर्यच तथा देवगति के जीव नियम से क्रिया सहित होते हैं, मनुष्य क्रियासहित, क्रियारहित- - दोनों होते हैं, तेरहवें गुणस्थान तक के मनुष्य क्रियासहित होते हैं तथा चोदहवें गुणस्थान के मनुष्य क्रियारहित होते हैं; सिद्धगति के जीव क्रियारहित होते हैं । प्रथम समय के सिद्ध एजना क्रियासहित होते हैं । सक्रिय जीव में पाँचों इन्द्रियाँ पाई जाती हैं, अतीन्द्रिय जीव सक्रिय भी होते हैं, अक्रिय भी होते हैं । इन्द्रिय अपर्याप्त जीव तथा तेरहवें गुणस्थान के अतीन्द्रिय जीव क्रियासहित होते है। चौदहवें गुणस्थान के अतीन्द्रिय जीव तथा असंसारी अतीन्द्रिय सिद्ध जीव क्रियारहित होते हैं । जब तक जीव के कषाय होती है तब तक जीव क्रियासहित होता है । अतः दशवें गुणस्थान तक के जीव कषाय की अपेक्षा क्रियासहित होते है । उनके मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है । जिस जीव के कषाय नहीं है उसके कषाय की अपेक्षा क्रिया नहीं लगतो है, लेकिन ग्यारहवें बारहवें तेरहवें गुणस्थानवर्ती कषायरहित जीव को ऐर्यापथिको क्रिया लगती है तथा चौदहवें गुणस्थानवर्ती कषायरहित जीव क्रिया से रहित होता है जहाँ लेश्या है वहाँ किसी न किसी प्रकार की क्रिया अवश्य है । परिणाम नहीं है वहाँ किसी भी प्रकार की क्रिया सम्भव नहीं है ! सलेशी जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं, अलेशी जीव अक्रिय होते हैं, सक्रिय नहीं होते हैं । सलेशी नारकी सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं। सलेशी नारकी की तरह दण्डक के सभी सलेशी जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । जहाँ लेश्या - देखो भग० श ४१ । १ । प्र १२, १७, १६ / ०६३५ जो जीव सयोगी होता है वह क्रियासहित होता है, जो जीव अयोगी होता है वह कियारहित होता है । जहाँ योग है वहाँ क्रिया अवश्य है । मन-वचन-काययोगी की क्रियामों से कर्मबन्धन होता है । योग के साथ कषाय होती है तो सांपरायिकी क्रिया होती है, योग के साथ कषाय नहीं होती है तो ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । सूक्ष्मबादर कायवाङ मनोयोगनिरोधादक्रियाः xxx । सयोगित्वात् सक्रिया | - पण्ण० प २२ । सू १५७३ | टीका [ 28 ] "Aho Shrutgyanam" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मवादर काय वाङ्-मनोयोग का निरोध होने से जीव अक्रिय हो जाता है अर्थात अयोगी जीव अक्रिय होता है । सयोगी जीव योग के कारण सक्रिय होता है ! उपयोग जीव का मौलिक गुण है तथा उसका लक्षण है और यह सभी सक्रियअक्रिय जीवों में पाया जाता है। जो उपयोग इन्द्रियादि साधन के बिना होता है वह अपरिम्पंदनात्मक क्रियारहित होता है। जो उपयोग इन्द्रियादि साधनों के द्वारा होता है वह उन साधनों की क्रियासहित होता है । अवधिज्ञानोपयोग, मनःपर्यवशानोपयोग, केवलज्ञानोपयोग, विभंग-अज्ञानोपयोग, अवधिदर्शनोपयोग, केवलदर्शनोपयोग--ये आधार के बिना होते है अतः इन उपयोगों में साधन क्रिया नहीं होती है | अवधिज्ञानोपयोग-मनःपर्यवज्ञानोपयोग, विभंगअज्ञानोपयोग, अवधि दर्शनोपयोग-चार उपयोग वाले जीव सयोगी ही होते हैं अतः योग की अपेक्षा क्रियासहित होते हैं। केवलज्ञान तथा केवलदर्शनोपयोग वाले जीव सयोगी हो तो योग की अपेक्षा क्रिया वाले होते हैं तथा अयोगी हों तो सर्वथा क्रियाहित होते हैं । मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग,मतिअज्ञानोपयोग,श्रुतअज्ञानोपयोग, चक्षुदर्शनोपयोग, अचक्षदर्शनोपयोग-ये इन्द्रियादि साधनों के द्वारा होते हैं। इन साधनों से होनेवाली किया-सहित होते हैं तथा ये सब उपयोग स्योगी जीव के ही होते हैं अतः वे जीव योग की अपेक्षा क्रिया-सहित होते हैं। अलेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयोज्ञेयः-दृश्ययोः केवलं ज्ञानम्, दर्शनं च उपयुजानस्य योऽसौ अपरिस्पन्दोऽप्रतिरोधो जीवपरिणामविशेषस्तदकरणम् । -भग० श १ । उ ३ । प्र १३० । टीका __ अलेशी सर्वज्ञ का केवलज्ञानोपयोग तथा केवलदर्शनोपयोग सर्वथा अपरिस्पंदनात्मक अकरण वीर्यवाला अर्थात् सब प्रकार की क्रिया से रहित होता है। मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यवज्ञान वाले जीव क्रियास हित होते हैं, क्रियारहित नहीं होते हैं, केवलज्ञानी जीव क्रियासहित भी होते है, क्रियारहित भी होते हैं । अज्ञानी जीव क्रिया सहित ही होते हैं, क्रिया रहित नहीं होते हैं। अज्ञानी जीव के मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया भी लगती है, ज्ञानी जीव को मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं लगती है। मिथ्यादृष्टि तथा सममिथ्यादृष्टि जीव कभी क्रियारहित नहीं होते हैं। सम्यग्दृष्टि क्रियासहित भी होते हैं, क्रियारहित भी होते हैं। तेरहवें गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीव क्रिया सहित होते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान के सम्यगढष्टि जीव क्रियारहित होते हैं । मिथ्यादृष्टि तथा सममिथ्यादृष्टि जीवों के अन्य क्रियाओं के साथ मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी क्रिया लगती है ; समष्टि जीव के मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया नहीं लगती है । [ 29 ] "Aho Shrutgyanam" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सशरीरी जीव सक्रिय भी होते हैं, अक्रिय भी होते हैं । शैलेशी अवस्था के सशरीरी जीव अक्रिय होते हैं, अशैलेशी अवस्था के सशरीरी जीव सक्रिय होते हैं। मूल वैक्रिय शरीरी जीव, उत्तर वैक्रिय शरीरी जीव तथा आहारक शरीरी जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं। तेजस - कार्मण शरीर बाँधते हुए जोव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । श्वासोच्छ्वास लेता हुआ जीव सक्रिय होता है, अक्रिय नहीं होता है। श्वासोच्छ्वास क्रिया का तेरहवें गुणस्थान के शेष समय में व्यवच्छेद होता है । आहार करता हुआ जीव सक्रिय होता है । जीव सक्रिय होता है, केवली समुद्घात करता हुआ जीव है उतने समय में भी सक्रिय होता है। अयोगी केवली होते हैं । सवेदी जीव सब सकिय होते हैं । अवेदी जीव सक्रिय भी होते हैं, अक्रिय भी होते हैं । कोई एक अवेदी जीव सांपरायिक क्रिया भी करता है, कोई एक ऐर्यापथिकी क्रिया भी करता है । ऐatefeat किया अवेदी जीव को ही होती है, सवेदी जीव को नहीं होती है । विग्रहगति में वर्तता हुआ अनाहारक जितने समय में अनाहारक होता तथा सिद्ध-अनाहारक जीव अक्रिय तं ( इरियावहियं णं भंते ! कम्मं ) भंते ! किं इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, र्पु सगो बंध; इत्थीओ बंधंति, पुरिसा बंधंति, णपुंसगा बंधंति, णो इत्थी णो पुरिसो णो णपुंसगो बंध ? गोयमा ! णो इत्थी बंध, णो पुरिसो बंध, जाव णो णपुंसगो बंध, पुव्वपडिवण्णए पडुच्च अवगयवेदा वा बंध ति, पडिवज्जमाणए पडुच्च अवगयवेदो वा बंध, अवयवेदा वा बंधंति । -भग० श द उ ८ । प्र ११ । पृ० ५५७ ऐपथिक क्रिया से होनेवाला कर्मबंध अवेदी जीव के होता है, स्त्री-पुरुष नपुंसकवेदी जीव के नहीं होता है । कई एक अवेदी जीव अक्रिय भी होते हैं । कर्मों की उदीरणा में उत्थान - कर्म-बल-वीर्य पुरुषाकार- पराक्रम अवश्य होते हैं । यह वीर्य विशेष योगयुक्त होता है । तेरहवें गुणस्थान के जीव भी नाम और गोत्रकर्म की उदीरणा करते हैं और उत्थान-कर्म-बल-वीर्य पुरुषाकार- पराक्रम का उपयोग करते हैं । उदीरणा करता हुआ जीव सक्रिय होता है । ( देखो भग० श १ । ३ । प्र १३४ ) जीव क्रिया करता है तब उसकी प्रतिक्रिया में उसके कर्म का बन्धन होता है । इसीलिए क्रिया की परिभाषा में कहा गया है कि क्रिया कर्मबन्धन का निमित्तभूत है, कारण है । ( देखो क्रमाक ०६२ ) क्रिया करता हुआ ऐसा कोई जीव नहीं है जो कर्म का बन्धन न करता हो ? [ 30 ] "Aho Shrutgyanam" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्थि हु सकिरियाणं अबंधगं किंचि इह अणुट्ठाण---- ___-आव० मलय टीका उक्त भा० गा १४६ यहाँ क्रिया के दो भेद किये गये है--यथा----सदनुष्ठान क्रिया तथा असदनुष्ठान क्रिया। सदनुष्ठान क्रिया से निर्जरा के साथ-साथ पुण्यकर्म का बन्धन भी होता है। यह पुण्यकर्म लम्बी स्थिति का भी हो सकता है या दो समय की स्थिति का भी हो सकता है । ऐर्यापथिकी क्रिया में दो समय को स्थितिवाले ऐपिथिकी कर्म का ही बन्धन होता है ( देखो क्रमांक ३७.४ )! प्रशस्त योग-क्रिया से कमों की निर्जरा होती है । ( देखो उत्त० अ २६ । सू८) जोव कमों से बँधा हुआ है, उनसे छुटकारा पाने के लिए क्रिया करने की आवश्यकता होती है । इसी कारण कहा गया है कि 'ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः।' मोक्ष - ( कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः) कर्मों का सम्पूर्ण नाश करने के लिए शान के साथ-साथ क्रिया-सदनुष्ठान-प्रशस्त कियाओं का करना आवश्यक है । यद्यपि शेष समय में-- अन्तकिया करने के समय में - मोक्ष प्राप्त करने के समय में जीव को सर्वथा अक्रिय होना पड़ता है लेकिन उस अवस्था के आगे कर्म काटने के लिए सभी जीवों को प्रशस्त क्रिया करनी होती है बिना क्रिया किए-बिना कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम किये--बन्धे हुए कर्मों से छुटकारा नहीं हो सकता है । ___ सामान्यतः २५ कियाएँ ( पाँच-पाँच क्रियाओं के पाँच पंचक ) प्रसिद्ध है। (देखो क्रमांक ६६) लेकिन आगमों में अन्य क्रियाओं का भी यत्र-तत्र वर्णन मिला है । तथा टीकाकार अभयदेवसूरि ने भी एजनादि क्रियाओं का ( देखो क्रमांक ६३.४) वर्णन करके लिखा है कि इसी प्रकार अन्य क्रियाओं को भी सोच लेना चाहिए। जीव पुद्गल के सहयोग से जितने प्रकार की क्रिया कर सकता है उतने प्रकार की क्रियाएँ हो सकती हैं। कोश में ५३ क्रियाओं ( देखिये क्रमांक ११ से '६३ ) के पाठों का संकलन किया गया है। जीव के क्रियामात्र से कर्म का बन्धन होता है-चाहे पुण्यकर्म का बन्धन हो चाहे पापकर्म का--क्रिया से कर्म बन्धन अवश्य होता है। क्रिया को जो कर्मबन्धन का निमित्तभूत कहा गया है वह केवल पापकर्म के बन्धन की दृष्टि से नहीं कहा गया है। पाप या पुण्य दोनों कमों के बन्धन की दृष्टि से कहा गया है। कई क्रियाओं से पापकर्म का बन्धन होता है, यथा आरम्भिकी, कायिकी आदि कई क्रियाओं से पुण्यकर्म का बन्धन होता है, यथा-ऐर्यापथिकी, सम्यक्त्व क्रिया। समास में क्रियाओं का दो विभाग किया गया है-जीवक्रिया और अजीवक्रिया । जीवक्रिया अर्थात जीव अपने परिणामों और अध्यवसायों से जो क्रिया करे वह जीवक्रिया। सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्वक्रिया-जीवक्रिया के उदाहरण हैं। ( देखिये क्रमांक ११) [ 1 ] "Aho Shrutgyanam" Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव क्रिया--जिससे जीव पुद्गल समुदाय की कर्मरूप परिणति करे वह जीव को . अजीवक्रिया है। अजीव क्रिया के उदाहरण में ऐपिथिक और सांपरायिक क्रिया को बताया गया है । ( देखो क्रमांक १२) __शुद्ध देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा से समदृष्टि जीव जो विनयादि व्यापार–क्रिया करता है वह सम्यक्त्व क्रिया है तथा सिद्धसेन गणि की टीका के अनुसार मोह के क्षयोपशम से होने वाले मोहशुद्ध कर्मदलिक के अनुभव-वेदन से होनेवाली प्रवृत्ति सम्यक्त्व क्रिया है । (देखिये क्रमांक ३६) यह क्षयोपशम से होनेवाली सम्यक्त्व क्रिया चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीवों को ही होती है.-ऐसा समझना चाहिए । मिथ्या देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा से अथवा अतत्त्व-श्रद्धान से जीव के द्वारा किया गया व्यापार या क्रिया-मिथ्यात्वक्रिया है। यह क्रिया पहले व तीसरे गुणस्थान के जीवों को होती है । एक बात विशेष ध्यान में रखने की है कि सम्यक्त्वं और मिथ्यात्र क्रियाएँविरोधी क्रियाएँ हैं। एक समय में एक जीव के ये दोनों क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं । जिस समय सम्यक्त्व क्रिया होती है उस समय मिथ्यात्व क्रिया नहीं हो सकती, जिस समय मिथ्यात्व क्रिया होती है उस समय सम्यक्त्व क्रिया नहीं हो सकती है । (देखिये क्रमांक '६४.११) यद्यपि तीसरे गुणस्थान का अभिवचन सम्यग-मिथ्याष्टि गुणस्थान है फिर भी वहाँ एक समय में एक ही क्रिया होनी चाहिए, मिश्र क्रिया नहीं हो सकती है ।। सापरायिक और ऐर्यापथिकी क्रियायें भी विरोधी क्रियाएँ हैं। ये दोनों क्रियाएँ भी एक जीव के एक समय में नहीं होती है । जिस समय सांपरायिकी क्रिया होती है उस समय ऐपिथिकी क्रिया नहीं हो सकती है, जिस समय ऐापथिकी क्रिया होती है उस समय सांपरायिकी क्रिया नहीं हो सकती है। (क्रमांक ६४ २.१) सकषायी जीव के सांपरायिकी क्रिया होती है, अकषायी जीव के ऐापथिको क्रिया होती है । ऐपिथिक क्रिया से दो समय की स्थितिवाले कर्म का बन्धन होता है तथा सांपरायिकी क्रिया से अन्तर्महूर्त अथवा तदुअधिक स्थिति वाले कर्म का बन्धन होता है। मिथ्यात्व क्रिया का तीन प्रकार से वर्णन मिलता है -~एक आरम्भिकी क्रिया पंचक के अन्तर्गत मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी (मिच्छादसणवत्तिया ) रूप में मिलता है ( देखो क्रमांक -१७ ), दूसरा सम्यक्त्व क्रियापंचक के अन्तर्गत मिथ्यात्व (मिच्छत्त) क्रिया के रूप में मिलता है (देखो क्रमांक ४० ), तथा सम्यक्त्व-मिथ्यात्वद्वयक के रूप में भी मिलता है ( देखो क्रमांक ६४.१ ) तथा अठारह पापस्थान के अन्तर्गत मिथ्यादर्शनशल्य (मिच्छादंसणसल्ल) के रूप में मिलता है। (देखो क्रमांक ६२ ) आरम्भिकी क्रियापंचक (आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यान, मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी )-सबसे महत्वपूर्ण क्रियापंचक है। यह दण्डक के सभी [ 32 ] "Aho Shrutgyanam" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों में पाया जाता है। सभी मिथ्याष्टि जीवों के आरम्भिकी पंचक को पाँचों क्रियाएँ होती हैं तथा समदृष्टि जीवों के आरम्भिकी पंचक की प्रथम की चार कियाएँ होती हैं। गुणस्थान की अपेक्षा आरम्भिकी क्रिया प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीवों के होती है, पारिग्रहिकी क्रिया संयता यत गुण स्थान तक के जीवों को होती है, मायाप्रत्यायिकी क्रिया सराग अप्रमत्तसंयत दश गुणस्थान तक के जोंवों को होती है, अप्रत्याख्यान किया अविरत गुणस्थान तक के जीवों को होती है, मिथ्यादर्शन-प्रत्यायिकी क्रिया मिथ्याष्टि जीवों को होती है । वीतराग संयत अर्थात् ग्याहरवें तथा तदुपरि गुणस्थान के जीवों को आरम्भिको क्रियापंचक की कोई क्रिया नहीं होती है इस अपेक्षा से वे अक्रिय होते हैं । आरम्भिको क्रिया--कोई भी आरम्भ के करने से होती है। यह क्रिया छ? गुणस्थान के प्रमत्तसंयत के भी होती है लेकिन जब प्रमत्तसंयत के शुभयोग होता है तब वह अनारंभी होता है, अतः शुभयोग प्रवर्तते हुए अनारम्भी प्रमत्तसंयत के आरम्भ का अभाव होने से आरम्भिकी क्रिया नहीं होती है । मूल-xxxi तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच्च णो आयारंभा, णो परारंभा, णो तदुभयारंभा अणारंभा । -भग० श १ ! उ १ । प्र४८। पृ० ३८ आरंभिकी क्रियापंचक की नियमा-भजना औधिक जीव की अपेक्षा इस प्रकार है : जिस औधिक जीव के आरंभिकी क्रिया होती है उसको पारिग्रहिकी क्रिया कदाचित होती है, कदाचित नहीं होती है लेकिन जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके आरंभिकी क्रिया नियम से होती है। जिस जीव के आरंभिकी क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया नियम से होती है तथा जिसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके आरंभिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है ! जिस जीव के आरंभिकी क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया कदाचित होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिस जीव के अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके आरंभिकी क्रिया नियम से होती है। जिसके आरंभिकी क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके आरम्भिको क्रिया नियम से होती है। जिस जीव के पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया नियम से होती है तथा जिसके माया प्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके पारिग्रहिकी क्रिया कदाचित होती है, कदाचित नहीं होती है । जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया [ 33 ] "Aho Shrutgyanam" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचिते होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिसके अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके पारिग्रहिकी क्रिया नियम से होती है। जिस जीव के पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके पारिग्रहिकी क्रिया नियम से होती है। जिस जीव के मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया कदाचित होती है, कदाचित् नहीं होती है तथा जिसके अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी किया नियम से होती है। जिस जीव के मायाप्रत्यायिकी क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया नियम से होती है । जिस जीव के अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया नियम से होती है । (देखें क्रमांक ६५८) समदृष्टि नारकी, भवनपति-वाणव्यंतर-ज्योतिषी-वैमानिक देवों के आरंभिकी क्रियापंचक की प्रथम की चार क्रियाएँ नियम से होती हैं तथा मिथ्याष्टियों को पाँचों क्रियाएँ होती है। एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीवों को नियम से पाँचों क्रियाएँ होती है। तिर्य च चेन्द्रिययोनिक जीवों को प्रथम की तीन क्रियाएँ नियम से होती हैं, मिथ्यादृष्टि तिर्यंचपंचेन्द्रिययोनिक जीवों को पाँचों क्रियाएँ नियम से होती है, अविरत समदृष्टि तिर्येच पंचेन्द्रिययोनिक जीवों को प्रथम की चार क्रियाएँ नियम से होती हैं तथा देश विरत समदृष्टि तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिययोनिक जीवों को प्रथम को तीन क्रियाएँ नियम से होती है । मिथ्यादृष्टि मनुष्य के नियम से पाँच क्रियाएँ होती हैं, अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य को चार, देशविरत सम्यग्दृष्टि को तीन, प्रमत्तसंयत मनुष्य को आरम्भिकी और मायाप्रत्ययिकी-दो क्रियाएँ होती हैं, सराग अप्रमत्त मनुष्य को केवल मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है। वीत. राग संयत मनुष्य को आरंभिकी क्रियापंचक को कोई क्रिया नहीं होती है। ___ पाँचों ही चारित्र वाले जीवों के मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती है, पारिग्रहिकी क्रिया भी नहीं होती है, अप्रत्याख्यानक्रिया भी नहीं होती है। सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध चारित्र वाले जीवों को प्रमत्तयोग से आरम्भिकी क्रिया होती है तथा मायाप्रत्ययिकी क्रिया सराग अप्रमत्त अवस्था में भी होती है। सूक्ष्मसंपराय चारित्र वाले जीवों के केवल मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है ! यथाख्यातचारित्र वाले जीवों के आरम्भिकी पञ्चक की कोई क्रिया नहीं होती है। यथाख्यातचारित्र वाले कोई एक जीव के योगप्रत्यय से केवल ऐपिथिकी क्रिया होती है, कोई एक जीव के योग का अभाव होने से ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है। [ 34 ] "Aho Shrutgyanam" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंघाचारण या विद्याचारण लब्धि के अतिशय से आकाश में गमन करने वाले जीव ' को आरम्भिकी क्रिया होती है । पुलाकलब्धि वाला पुलाकसंयति किसी कारण से पुलाकलब्धि का प्रयोग करता है तो उसको आरम्भिको किया होती है । तेजोलब्धि फोड़ने वाले जोव को आरम्भिकी क्रिया होती है तथा कायिकी क्रियापंचक में से जघन्य तीन, उत्कृष्ट पाँच क्रियाएँ होती हैं । वैक्रिय लब्धि फोड़ने वाले जीव को आरम्भिकी क्रिया होती है तथा कायिकी क्रिया पञ्चक में से जघन्य तीन, उत्कृष्ट पाँच कियाएँ होती हैं । आहारकलब्धि फोड़ने वाले जीव को आरम्भिकी क्रिया होती है तथा कायिकी क्रियापञ्चक में से जघन्य तीन, उत्कृष्ट पाँच क्रियाएँ होती हैं । (देखें क्रमांक ६६-१३) जंघाचारण, विद्याचारण, पुलाक तथा आहारकलब्धि फोड़ने वाले जीव को मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती है क्योंकि ये जीव नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं । तेजोलब्धि तथा वैक्रियलब्धि फोड़ने वाले कोई एक जीव को मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है, कोई एक जीव को मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती है । आगमों में मनुष्य के दैनिक जीवन के कार्यक्रमों के उदाहरण देकर आरम्भिकी क्रियापञ्चक का विवेचन किया गया है :-- (१) यदि किसी व्यक्ति की कोई वस्तु चोरी चली जाय और वह व्यक्ति उस चोरी गयी हुई वस्तु की जब तक खोज करता रहे तब तक उस व्यक्ति के यदि सम्यग्दृष्टि है तो प्रथम की चार और यदि मिथ्यादृष्टि है तो पाँचों क्रियाएँ होती हैं । यदि खोई हुई वस्तु वापस मिल जाय तो क्रियाएँ प्रतनु-- हलकी हो जाती हैं । (२) विक्रेता से यदि कोई खरीददार माल खरीद ले और सौदा पक्का करके बयाना दे दे किन्तु माल की डिलेवरी न ले तब तक विक्रेता को चार या पाँच क्रियाएँ होती हैं, खरीददार को भी चार या पाँच क्रियाएँ होती हैं लेकिन वे हलकी होती हैं । इसके पश्चात् जब खरीददार माल उठाकर ले जाता है तब खरीददार की क्रियाएँ भारी हो जाती है तथा बेचवाल की क्रियाएँ प्रतनु- -हलकी हो जाती हैं। खरीददार जब तक माल की कीमत का भुगतान नहीं करता है तब तक धन की अपेक्षा खरीददार को महती क्रिया और बेचवाल को हलकी क्रिया होती है । बेचे हुए माल की कीमत प्राप्त हो जाने के पश्चात् विक्रेता को महती, ग्राहक को हलकी क्रिया होती है । कायिकी क्रियापंचक आरम्भिकी क्रिया का विश्लेषण है । जब जीव अन्य जीव की किसी भी प्रकार से हिंसा करता है तब उसको आरम्भिकी क्रिया होती है । जिस जीव के आरम्भिकी क्रिया होती है उस जीव के कायिकी क्रियापंचक की प्रथमतः तीन क्रियाएँ [ 35 ] "Aho Shrutgyanam" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवश्य होती है । जीव की परितापना होने से चार क्रियाएँ होती हैं तथा प्राण-वियोग होने से पाँचों क्रियाएँ होती है। जीव आरम्भिकी क्रिया कैसे और किस प्रकार करता है-यह कायिकी क्रियापञ्चक से समझाया गया है । कायिको क्रियापञ्चक में कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिको, प्राणातिपातको क्रिया होती है। जब जीव किसी जीव की हिंसा करने का विचार करता है तब सर्व प्रथम काया से समुत्थान करता है, फिर हिंसा करने के योग्य अधिकरण तैयार या ग्रहण करता है तथा साथ में प्रद्वेष की प्रबलता की वृद्धि करता है। तत्पश्चात् उद्दिष्ट जीव के ऊपर अधिकरण का निक्षेप या प्रहार करता है उससे उस जीव का प्रत्याघात होता है या उसके प्राण-काया जुदा होते हैं। काया के उत्थान या प्रयोग से क होती है, अधिकरण के निर्माण ग्रहण से आधिकरणिकी क्रिया होती है, प्रद्वेष की प्रबलता से प्राद्वेषिकी क्रिया होती है, जीव को परितापना कष्ट पहुँचाने से पारितापनिकी क्रिया होती है तथा जीव के प्राण का काया से जुदा हो जाने से प्राणातिपातकी क्रिया होती है। यदि कोई व्यक्ति किसी जीव को शस्त्र के आधात से गुरुतर घायल करे और वह घायल जीव यदि छः मास के भीतर मर जाय तो मारने वाले व्यक्ति को पाँच क्रियाएँ होती हैं और छः मास के बाद मरे तो उसको प्राणातिपातकी क्रिया नहीं होती है । शरीर, इन्द्रिय तथा योग का निर्माण करते हुए जीव के कायिकी क्रियापंचक की कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचिव पाँच क्रियाएँ होती है। स्थावर जीव के श्वासनिःश्वास में पाँचों प्रकार के स्थावर जीवों को ग्रहण करते हुए कायिकी क्रियापंचक की कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती है । ज्ञानावरणीय आदि आठों प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बंधन करते हुए जीव के कायिकी क्रियापंचक को कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रियाएँ होती है। जब जीव के प्रबल असाता वेदना उत्पन्न होती है तब वह जीव वेदना समुद्घात करता है 1 वेदना समुद्घात के द्वारा वह जीव अपने शरीरस्थ पुद्गलों को बाहर निकालता है और बहिर्गत युद्गल अनेक प्राण-भूत-जीव सत्त्वों के संपर्क में आते हैं और उनके संपर्क से उन जीवों में हलन चलन होता है, उनके वेदना उत्पन्न होती है, उससे वेदना समुद्घात करने वाले जीव को कायिको क्रियापंचक की कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रियाएँ होती हैं । उक्त हलन-चलन करने वाले जीवों से यदि अन्य जीवों को आघात पहुँचे तो उस वेदना समुद्घात करने वाले जीव के इन जीवों की अपेक्षा भी कदाचित् तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रियाएँ होती हैं। [ 36 ] "Aho Shrutgyanam" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय मारणांतिक, वैक्रिय तथा तैजस समुद्घात करने वाले जीव के वेदना समुद्घात करने वाले जीव की तरह कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती हैं । आहारक समुद्घात करने वाले जीव के भी निर्गत पुद्गलों के द्वारा जीव के हननादि के कारण कदाचित् तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रियाएँ होती हैं । केवलो समुद्घात करने वाले जीव के द्वारा निर्जरित पुद्गल सूक्ष्म होते हैं अतः उनके कायिकी क्रियापंचक की कोई क्रिया नहीं होती है, केवल ऐर्यापथिक क्रिया होती है । कायिकी कियापंचक का जिस सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है वह निम्न उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है (क) यदि कोई व्यक्ति यह जानने के लिए - वर्षा बरसती है या नहीं - अपने हाथ, पैर, बाहु और शरीर को बाहर फैलाता है या समेटता है तो उस व्यक्ति को कायिकी आदि पाँचों क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । (ख) यदि किसी वृक्ष का फल अपने गुरुभार से गिरे और नीचे गिरते हुए उस फल के द्वारा जब तक जीवों का हनन यावत् प्राणवियोग होता है तब तक जिन जीवों के शरीर से फल का वृक्ष बना उन जीवों को चार क्रियाएँ स्पष्ट होती हैं तथा जिन जीवों के शरीर से फल बना उन जीवों को पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं तथा स्वाभाविक रूप से अपने गुरुभार से गिरते हुए उस फल के जो जीव उपग्राहक - उपकारक होते हैं उन जीवों को भी कायिकी आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । कायिकी क्रियापंचक को भी दैनिक जीवन के उदाहरण देकर समझाया गया है – ये उदाहरण मननीय या धारणीय है । अन्य उदाहरणों के लिए क्रमाक ६६ १०, '६६ ११,६६ १२ तथा ३६१६ अवश्य पठनीय हैं । अप्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानक्रिया दार्शनिक तथ्यों पर आधारित है । जहाँ किसी भी पापस्थानिक कार्य के प्रत्याख्यान का अभाव होता है वहाँ अप्रत्याख्यान क्रिया होती है । क्रिया में यौगिक क्रिया की कल्पना नहीं है, मात्र प्रत्याख्यान का अभाव है अर्थात् कोई पापकर्म नहीं करूँगा- ऐसे संकल्प का अभाव है। अर्थात् किसी जीव को परितापना नहीं दूंगा, किसी जीव का प्राणातिपात नहीं करूँगा आदि-आदि संकल्पों के अभाव होने से ही अप्रत्यख्यान क्रिया होती है । अप्रत्याख्यान किया का दार्शनिक सिद्धांत कहता है कि यदि कोई व्यक्ति जीवहिंसा-प्राणातिपात नहीं कर रहा है लेकिन उसके हिंसा करने में कोई बाधा नहीं है, हिंसा करने का प्रत्याख्यान नहीं है, विरति नहीं है तो उस व्यक्ति को हिंसा की किया लगती है । कोई क्षुद्रातिक्षुद्र जीव जिसके मन वचन की शक्ति भी नहीं है, जिसकी चेतना स्वप्न जितनी भी नहीं है उस जीव के हिंसा नहीं करते हुए भी हिंसा सम्बन्धी क्रिया लगती है । यह क्रिया प्रत्याख्यान के अभाव होने से होती है । अप्रत्याख्यान क्रिया की [ 37 ] "Aho Shrutgyanam" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ी विशेषता यह है कि यह क्रिया भेदभाव रहित क्षुद्रकायी कुंथु-कीट या स्थूलकायी हाथी, सेठ या गरीब, राजा या रङ्क, सबको समान भाव से लगती है, यदि पाप कर्मों के नहीं करने का उनके प्रत्याख्यान नहीं हो। क्रमांक '१६६२ में अप्रत्याख्यान क्रिया का दर्शनिक दृष्टिकोण से विवेचन किया गया है। क्रिया से बन्धने वाले कर्म की स्थिति की अपेक्षा क्रिया के दो भेद किये गये है, यथा-ऐ-पथिकी क्रिया, साम्परायिकी क्रिया । ऐपिथिकी क्रिया की स्थिति दो समय की होती है। इस क्रिया से प्रथम समय में कर्म बद्ध और स्पृष्ट होते हैं, द्वितीय समय में वे कर्म उदीरित-वेदित होते है, तृतीय समय में निर्जरित होते हैं । टीकाकार के अनुसार यह क्रिया उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगी केवली गुणस्थान के जीवों के होती है। सयोगी जीव क्षण मात्र के लिए भी अग्नि में तपते हुए जलबिन्दु की तरह, निश्चल नहीं रह सकते हैं अतः यह ऐपिथिकी क्रिया सयोगी केवली के भी होती है ! जाने, पाने, उठने, बैठने आदि की स्थूल क्रिया से लेकर यावत् आँख की पलक हिलने मात्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रिया से ऐपिथिकी क्रिया होती है। ऐ-पथिकी क्रिया से केवलमात्र एक कर्मप्रकृति का बन्धन होता है। और वह कर्मप्रकृति-सातावेदनीय कर्मप्रकृति है । ऐपिथिकी क्रिया से सातावेदनीय कर्मप्रकृति व्यतिरिक्त अन्य किसी कर्मप्रकृति का बन्धन नहीं होता है । साम्परायिक क्रिया से जब सातावेदनीय कर्मप्रकृति का बन्ध होता है तब उसकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की होती है। जिस अनगार के क्रोध-मान-माया लोभ व्युच्छिन्न हो गये हैं उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती है तथा जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ व्युच्छिन्न नहीं हुए हैं उसके साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है। सूत्र के अनुसार चलते हुए अनगार के ऐयापथिकी क्रिया होती है तथा उत्सूत्र चलते हुए अनगार के सांपरायिकी क्रिया होती है । उपयोगपूर्वक गमनादि करते हुए, वस्त्रपात्र आदि लेते, रखते हुए संवृत अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती है । अनुपयोगपूर्वक गमनादि करते हुए, वस्त्र-पान लेते हुए अनगार को सांपयिकी क्रिया होती है, ऐपिथिको क्रिया नहीं होती है। ____ अगल-बगल युगप्रमाण भूमि को देखकर चलते हुए भावितात्मा अनगार के पैर के नीचे यदि कोई छोटा जानवर या सूक्ष्म जन्तु आकर कष्ट पावे या उसका प्राणवियोग हो जाय तो उस अणगार को ऐयोपथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है क्योंकि उस अनगार के राग-द्वेष क्षीण हो गये है। सामायिक करते हुए श्रमणोपासक को सांपरायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी किया नहीं होती है क्योंकि उसकी आत्मा अधिकरण होती है, उसकी आत्मा अधिकरण [ 38 ] "Aho Shrutgyanam"| Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं वर्तन कर रही है अतः उसको साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है। चूंकि ऐयांपथिकी क्रिया ग्यारहवें, बारहवे, तेरहवें गुणस्थान के जीवों को होती है अतः यह कहा जा सकता है कि सांपरायिकी क्रिया पहले से दशवें गुणस्थान तक के जीवों को होती है—इससे पुण्य-पाप दोनों प्रकार को कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । दशवें गुणस्थान के जीवों के आयुष्य और मोहनीय कर्म को बाद देकर छः कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। पहले, दूसरे तथा चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीवों के सांपरायिकी क्रिया करते हुए आठ या आयुष्य बाद सात कर्मप्रकृतियों का बन्धन होता है। तीसरे, आठवें, नववें गुणस्थान के जीव सांपरायिकी क्रिया करते हुए आयुष्य बाद सात कर्मप्रकृतियों का बंध करते हैं। सांपरायिकी क्रिया करने वाले जोव के कषाय अवश्य होती है ! टीकाकारों ने कषाय के हेतु से होने वाले कर्मबन्ध को सांपरायिक कहा है । सूत्रकृतांग में तेरह क्रियास्थानों का वर्णन है। उसमें प्रत्येक कियास्थान के शेष में "एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ" वाक्य का प्रयोग है। ऐयोपथिक क्रिया का तेरहवें क्रियास्थान में वर्णन किया गया है । इसके शेष में भी उक्त वाक्य का प्रयोग है। सावद्य शब्द का सामान्य अर्थ पापसहित किया जाता है, निरवद्य का अर्थ पापरहित किया जाता है। तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। अतीत के, वर्तमान के तथा भविष्यत् के अरिहन्तभगवंत ने ऐसा प्रतिपादन किया है, करते हैं, करेंगे। सावध का अर्थ पापकर्म का बन्धन ही लिया जाय तो पापकर्म से मुक्त होने का प्रश्न उपस्थित हो जाता है, अतः तेरहवें क्रियास्थान में जो सावध शब्द का प्रयोग हुआ है वह खटकता है। अतः सावध का अनेकान्त दृष्टि से या नय को अपेक्षा से अन्य कोई योग्य अर्थ भी होना चाहिए । एवंभूत नय से एक ऐसा ही अर्थ मिलता है। आचार्य मलय गिरि ने आवश्यक की टोका में एवंभूत नय की अपेक्षा से सावध का अर्थ केवल मात्र कर्मबन्ध किया है। वहाँ पाप-पुण्य की विवक्षा नहीं की गई है। ऐयापथिक क्रिया से कर्म का बंधन होता है ऐसा सिद्धान्त कहता है; अतः सावध का अर्थ एवंभूत नय की अपेक्षा से मात्र कर्मबन्धन की विवक्षा से किया जाय तो तेरहवे क्रियास्थान में 'सावद्य" शब्द का प्रयोग खलता नहीं है । जीव अठारह पापस्थानों से क्रिया करता है---यह किया भिन्न-भिन्न अपेक्षा से करता है। प्राणातिपात या पापस्थान की क्रिया वह छः जीवनिकाय की अपेक्षा से करता है: मृषावाद पापस्थान की क्रिया सब द्रव्यों की अपेक्षा करता है। अदत्तादान पापस्थान की क्रिया ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों की अपेक्षा ही करता है। मैथुन पापस्थान [ 39 ] "Aho Shrutgyanam" Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को क्रिया जीव रूप अथवा रूपवान् द्रव्यों को अपेक्षा करता है। परिग्रह पापस्थान की क्रिया जीव सर्व द्रव्यों की अपेक्षा स्व-स्वामिभाव से होने वाली मुर्छा से करता है। अवशेष पापस्थान--क्रोध यावत् मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थान की क्रिया जीव सब द्रव्यों की अपेक्षा करता है। पापस्थान को किया सभी दण्डक के जीव करते हैं। पापस्थान क्रियाओं से सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियों का बंधन होता है। हिंसा की क्रियाओं का निम्न प्रकार से वर्णन है। आरम्भिको कियापंचक में प्रारम्भिकी क्रिया का वर्णन है । ( देखें क्रमांक १४ ) कायिकी क्रियापंचक में हिंसा की सम्पूर्ण क्रिया का वर्णन है अर्थाव जोव किस प्रकार हिंसा करता है इसका यथाक्रम से वर्णन है। तेरहवें क्रियास्थान में पाँच प्रकार की हिंसा की क्रियाओं का वर्णन है, यथा-अर्थदण्डप्रत्य यिकी, अनर्थदण्डप्रत्ययिकी, हिंसादंडप्रत्ययिकी, अकस्मात दंडप्रत्य यिकी, दृष्टिविपर्यासप्रत्ययिकी । ( देखें क्रमांक ४३ से ४७ तक ) अठारह पापस्थान में पहला पापस्थान प्राणातिपात का है। ___ यद्यपि उपर्युक्त क्रियाओं में हिंसा का वर्णन विभिन्न दृष्टिकोण से किया गया है फिर भी सर्वत्र हिंसा की भावना स्पष्ट है । हिंसा की क्रिया को समास में दो भागों में विभक्त किया गया है, यथा--पारितापनिकी क्रिया तथा प्राणातिपातिकी क्रिया! पारितापनिकी क्रिया में जीव को पीड़ा होती है, असाता की उत्पत्ति होती हैं तथा प्राणातिपातिकी में प्राण का काय से वियोग होता है या जीव की पर्याय का विनाश होता है । चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक में 'इरियावहियं सुत्तं' में कुछ हिंसा की क्रियाओं का वर्णन है, यथा-अभिहया ( अभिहताः)-आघात पहुँचाना ; वत्तिया ( वर्तिताः)- रज आदि से आच्छादित करना; लेसिया (श्लेषिताः)-भूभि आदि पर मर्दन करना; संघाइया (संघातिताः)-जीवो का संग्रह करना ; संघटिया ( संघहिताः)-स्पर्श करना; परियाविया ( परितापिताः)-असाता उत्पन्न करना ; किलामिया (क्लामिताः )अधमरा-मृतप्राय करना ; उद्दविया (उपद्राविताः)-आतंकित करना; ठाणाओ ठाणं संकामिया ( संक्रामिताः)-एक स्थान से दुमरे स्थान पर अयत्न से रखना; जीवियाओ ववरोविया ( जीवितात् व्यपरो पिताः)-प्राण से रहित करना। ये क्रियाएँ सामान्य दैनिक जीवन में होनेवाली हिंसा की क्रियाएँ है । संरंभ, समारम्भ, आरम्भ-इन तीन शब्दों से हिंसा के क्रम का वर्णन -- आगमों में किया जाता है । संरम्भ अर्थात् हिंसा करने का संकल्प करना या हिंसा करने का आयोजन करना ; समारम्भ अर्थात् परिताप उत्पन्न करना ; आरम्भ अर्थात् प्राणातिपात करना-- इन तीनों का आरम्भिकी क्रिया में समावेश हो जाता है। [ 40 ] "Aho Shrutgyanam Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रिया शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग किया जाता है । ( एक) दुष्ट क्रियाओं को अक्रिया कहा जाता है, मिथ्यात्व से उपहत जीव का अमोक्ष-साधक अनुष्ठान अक्रिया कहलाता है । (दो) संवृत अणगार की निरवद्य क्रिया पापकर्म का बन्धन नहीं करनेवाली होने से अक्रिया कहलाती है तथा उस संवृत अणगार को अक्रिय कहा जाता है, (तीन) चतुर्दश गुणस्थानवी जीव का योग निरोध अक्रिया है ; व्यवदान ( कर्मक्षय ) से अक्रिया होती है तथा अक्रिया से जीव अन्तक्रिया करके मोक्ष को प्राप्त करता है । श्रमण निर्ग्रन्थ के भी क्रिया होती है ; उनके प्रमाद के कारण तथा योग- निमित्त से क्रिया होती है अर्थात् कर्म का बन्धन होता है [देखें १४.१ (छ)] प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि सायमिक क्रियाओं में अवहेलना करना, उनको नहीं करना, उनमें जल्दबादी करना, असावधानी करना, उनको समय पर नहीं करना-इत्यादि प्रमादों से श्रमण-निर्ग्रन्थ को कर्म का बन्धन होता है। जाना, आना, उठना, बैठना, वस्त्रपात्रादि लेना, रखना आदि यौगिक क्रियाओं को अयत्नपूर्वक करने से श्रमण-निर्ग्रन्थ को योगनिमित्त से क्रिया होती है । अयनपूर्वक गमनादि क्रिया करने से श्रमण-निर्ग्रन्थ को कायिकी क्रियापंचक को ३ या ४ या ५ क्रियाएँ होती हैं। टीकाकार के अनुसार दुष्प्रयुक्त शरीर की चेष्टाओं से श्रमण-निर्गन्ध को प्रमादप्रत्ययिकी क्रिया होती है । जिस श्रमण के प्रमाद भी नहीं है, कषाय भी नहीं है, केवल योग है, उस श्रमण-निर्ग्रन्थ के योग-निमित्त से केवल ऐपिथिको क्रिया होती है ! प्रतिक्रमण सूत्र में भिक्षु के द्वारा ‘क्रियाओं का प्रतिक्रमण करने का विधान है । इसमें क्रिया प्रतिक्रमण के दो पाठ हैं, एक, कायिकी क्रियापंचक के प्रतिक्रमण का पाठ है तथा दूसरा, तेरह क्रियास्थानों के प्रतिक्रमण का पाठ है । [ देखें क्रमांक ६३ ] यहाँ पर यह विचारणीय है कि इन तेरह क्रियास्थानों में ऐपिथिको क्रिया भी शामिल है तथा भिक्षु उसका भी प्रतिक्रमण करता है। श्रमण-निर्ग्रन्थ के साधुवृत्ति को पालन करते हुए कभीकभी प्रमादवश या अन्यथा साध्वाचार का अतिक्रमण हो जाता है तब उन अतिक्रमण की क्रियाओं से श्रमण के क्रिया होती है। ऐसी कितनी ही क्रियाओं का आचारांग सूत्र में वर्णन है, यथा-कालातिकम किया, उपस्थान क्रिया, अभिक्रांत किया, अनभिक्रांत किया, वर्ण्यक्रिया, महावर्य क्रिया, सावद्य क्रिया, महासावद्य क्रिया, अल्पसावध क्रिया, पर क्रिया, अन्योन्यक्रिया । अल्पमावद्य क्रिया को बाद देकर इन क्रियाओं से संयति के क्रिया-दोष लगता है। अल्पसावद्य क्रिया में टीकाकार ने अल्प शब्द का अभाववाची अर्थ किया है और कहा है कि इससे साधु को क्रिया नहीं होती है। [देखें क्रमांक ६४२] अहिंसा महाव्रत को दूसरी और तीसरी भावना में भी श्रमण-निर्ग्रन्थ को कायिकी आदि क्रियाओं में मन से तथा वचन से प्रवृत्ति न करने का उपदेश दिया गया है। [देखें E ] [ 41 ] "Aho Shrutgyanam" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव सदा एजन कंपन समूह की क्रिया करता रहता है । यहाँ जीव से सयोगी जीव का ही ग्रहण करना चाहिए। एजन समूह की कुछ क्रियाओं के नाम इस प्रकार हैं ; एजना, व्येजना, चलना, स्पन्दना, घना, छटपटाना, उदीरणा। टीकाकार अभयदेवसूरि ने कहा है कि इस प्रकार की अन्यान्य क्रियाओं का संग्रह कर लेना चाहिए । इन क्रियाओं को जीव सदा करता है-इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि इन क्रियाओं को जीव सदा एक साथ करता है बल्कि यह अर्थ लेना चाहिए कि इन क्रियाओं को क्रमवार करता है अर्थात् इन क्रियाओं में से किसी न किसी एक क्रिया को करता ही रहता है । इन क्रियाओं को करता हुआ जीव उन क्रियाओं के अनुरूप भावों में परिणमन करता रहता है । परिणमन का अर्थ टीकाकार ने यहाँ इस प्रकार किया है—जीव इन एजनादि क्रियाओं से उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण आदि परिणामों---पर्यायों को प्राप्त होता रहता है ; अर्थात् जीव के आत्मप्रदेश उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण आदि करता रहता है। अतः एजनादि क्रिया करता हुआ जोव सकलकर्मक्षयरूया अन्तक्रिया नहीं कर सकता है ; क्योंकि एजनादि क्रिया करता हुआ जोव तथा तदनुरूप भाव में परिणमन करता हुआ जीव आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ करता है । आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में वर्तन करता है तथा आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में वर्तन करता हुआ जीव बहु प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों को दुःख देता है, शोक उत्पन्न करता है, खेदित-पीड़ित करता है, त्रास उत्पन्न करता है, कष्ट देता है अतः एजनादि क्रिया करता हुआ जीव अंतक्रिया नहीं कर सकता है । जो जीव सदा एजनादि क्रिया नहीं करता है तथा तदनुरूप भावों में परिणमन नहीं करता है वह जीव अंत समय में अंतक्रिया करता है । सदनुष्ठान क्रियाओं के कई पर्यायवाची शब्द होते है, यथा-सदनुष्ठान, संयमानुष्ठान, सक्रिया, सम्यगनुष्ठान, धर्मानुष्ठान, चरण आदि। इन सब क्रियाओं से कर्मों का छेदन होता है, आस्रव रुकता है तथा पुण्यकर्म का बन्धन होता है । सदनुष्ठान क्रियाओं में छः क्रियाएँ आवश्यक-अवश्य करणीय बतलायी गई हैं और इनका वर्णन आवश्यक सूत्र में किया गया है। सामायिक आवश्यक क्रिया---अर्थात सर्वसावध योग निवृत्ति लक्षण होती है ; चतुर्विशतिस्तव आवश्यक क्रिया अर्थात् तीर्थङ्कर गुणानुकीर्तन रूप होती है ; वंदना आवश्यक क्रिया अर्थात मन, वचन, काय की शुद्धि-पूर्वक क्षमाश्रमण देव-गुरु के वंदन रूप होती है ; प्रतिक्रमण आवश्यक क्रिया अर्थात् अतीत दोष निर्वतन रूप होती है ; कायोत्सर्ग क्रिया अर्थात् परिमित काल के लिए शरीर के महत्त्व की निवृत्ति रूप होती है तथा प्रत्याख्यान आवश्यक क्रिया में अनागत काल के दोषों का अपोहन अर्थात् परित्याग होता है । [ 42 ] "Aho Shrutgyanam" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य सदनुष्ठान क्रियाओं का इस प्रकार वर्णन मिलता है । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति आदि क्रियायें । इन कियाओं को भावरुचि से करने वाले जीव को क्रियारूचि सम्यक्त्वी कहा गया है। दर्शन क्रिया अर्थात् दर्शन को विशोधि की चेष्टा, ज्ञान क्रिया अर्थात् स्वाध्याय आदि से सम्यग् ज्ञान की वृद्धि की चेष्टा, चारित्र क्रिया अर्थात सावद्य योगों से निवृत्त होने की चेष्टा, तपक्रिया अर्थात निर्जरा के द्वारा बंधे हुए कर्मों को काटने की चेष्टा, विनय क्रिया अर्थात सुगुरु आदि के विनय-वंदन आदि की चेष्टा, सत्य क्रिया अर्थात् मन, वचन, काय को सत्य में अभिनिविष्ट करने रूप चेष्टा, समितिक्रिया अर्थात अवश्य करने वाली ईर्या आदि क्रियाओं को संयम से करने की चेष्टा तथा गुप्तिक्रिया अर्थात् मन, वचन, काय योगों का सम्यग्दर्शन पूर्वक निग्रह करने की चेष्टा । । सदनुष्ठान क्रियाओं में अक्रिया उत्कृष्ट क्रिया है। शुक्लध्यान के चौथे पाद समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति ध्यान ही चरम सदनुष्ठान क्रिया है। इसके बाद जीव कोई क्रिया नहीं करता है। इसी से अक्रिया होती है । तत्पश्चात् जीव सिद्धगति को गमन करता है । कहा जा सकता है कि योगनिरोध ही अक्रिया है क्योंकि समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति ध्यान से जीव काययोग तथा अन्यान्य सूक्ष्म क्रियाओं का निरोध करता है और योग का निरोध होने से शैलेशीकरण की अवस्था में ऐपिथिक तथा एजनादि क्रियाएँ बंद हो जाती हैं और इन क्रियाओं का अभाव अक्रिया है । अक्रिया का योगनिरोध रूप एक हो भेद है । भगवती, स्थानांग तथा उत्तराध्ययन में थोड़ा भिन्न प्रकार से वर्णन है । वहाँ अक्रिया को व्यवदान ( कर्मक्षय ) का फल कहा गया है और क्रिया से जीव सिद्धगति रूप अंतिम फल को प्राप्त करता है । [ देखें क्रमांक '७२ ] जीव की वह अंतिम क्रिया, जिससे भव का व्यवच्छेद हो, सकल कर्म का क्षय हो, कर्मों से सर्वथा मुक्ति हो, सिद्धगति की प्राप्ति हो वह अंतक्रिया है । यह अंतिम पर्याय में योग निरोधित एजनादि रहित जीव के शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद से सकल कर्म के दाह रूप होती है | देखें क्रमाक ७३.१] 1 ___जीव अंतक्रिया विविध प्रकार से विभिन्न अवस्थाओं में प्रारंभ करता है । कहा जा सकता है कि जब जीव संसार को परीत कर लेता है अर्थात् देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन रूप मोक्ष जाने की सीमा बाँध लेता है तो एक दृष्टि से, तब से ही उसकी अंतक्रिया प्रारंभ हो जाती है। दूसरी दृष्टि से, जब जीव कुछ एक भव में मोक्ष जाने की सीमा कर लेता है तब से अंतक्रिया करना प्रारंभ करता है। तीसरी दृष्टि से, जीव जिस भव में मोक्ष जाता है उस भव में जब वह मुडित होकर अणगार बनता है तब से वह अन्तक्रिया प्रारंभ करता है । जिस भव में जीव मोक्ष जाते हैं उसी भव में मुण्डित होकर जो [ 43 "Aho Shrutgyanam" Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतक्रिया प्रारंभ करते हैं वह अंतक्रिया साधन भेद से चार प्रकार की होती है, यथा (१) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप भी नहीं होता है, परीषह उपसर्गादि की वेदना भी नहीं होती है लेकिन पुरुषार्थ वाली दीर्घकाल की दीक्षा पर्याय होती है ; तदनन्तर अंतक्रिया होती है, जैसे भरतचक्रवती की अंतक्रिया । (२) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप होता है, परीषह- उपसर्गादि को वेदना भी होती है लेकिन पुरुषार्थ वाली अल्पकाल की दीक्षा पर्याय होती है, तदनन्तर अंतक्रिया होती है, जैसे-श्रीकृष्ण रासुदेव के लघु भाई गजसुकमाल की अंतक्रिया । (३) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप होता है, परोषह---उपसर्गादि की वेदना भी होती है लेकिन पुरुषार्थ वाली दीर्घकाल की दीक्षा पर्याय होती है, तदनन्तर अंतक्रिया होती है, जैसे सनत्कुमार चक्रवर्ती की अंतक्रिया । (४) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप भी नहीं होता है, परीषह---उपसर्गादि की वेदना भी नहीं होती है और पुरुषार्थ वाली अल्पकाल की दीक्षा-पर्याय होती है, तदनन्तर अंत क्रिया होती है, जैसे भगवती मरुदेवी की अंतक्रिया। (देखें क्रमांक ७३२) कृत समुद्घात अथवा समुद्घात किये बिना सयोगी केवली जीव जब चतुर्दश गुणस्थान में प्रवेश करते हैं तब उनके अंतर्महर्त-स्थिति-सीमित-संसाररूपा तथा समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपातिध्यानरूपा अंत क्रिया होती है। निश्चय दृष्टि से, वही क्रिया अंतक्रिया है जो चतुर्दश गुणस्थानवी जीव के शेष समय की सकलकर्मक्षयरूपा होती है, तत्पश्चात वह जीव सिद्धगति को प्राप्त होता है । सब संसारी जीव अनादि काल से कर्मों से बंधे हुए हैं। इन कर्मों से छुटकारा पाने के लिए भगवान महावीर का कहना है कि उत्थान कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम करना आवश्यक है। बिना उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम किये जीव बन्धे हुए कर्मों से मुक्ति नहीं पा सकता है। क्रिया शब्द का प्रयोग उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकारपराकम के पर्यायवाची रूप में भी होता है । __ जिस प्रकार कर्म को बांधने में क्रिया-वीर्य की आवश्यकता होती है उसी प्रकार कर्म को काटने में भी क्रिया-वीर्य की आवश्यकता होती है। क्रिया का एक रूप कर्म-पुण्यपाप को बाँधने का है और दूसरा रूप कर्म को काटने का है। बिना क्रिया किये कर्म कट नहीं सकते हैं। इसलिए भगवान महावीर ने नियतिवाद का निरसन करने के लिए कियावाद का प्रतिपादन किया। इस सम्बन्ध में शक डाल पुत्र कुम्हार की जीवन-कथा सुप्रसिद्ध है जो नियतिवादी था तथा भगवान ने उसे समझाकर क्रियावादी बनाया था । भगवान अपने समय के आचार्यों में क्रियावादी आचार्य रूप में सुप्रसिद्ध थे। भगवान गौतम बुद्ध ने [ 44 ] "Aho Shrutgyanam" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुत्तरनिकाय में निरंगंठ नाययुत्त को क्रियावादी कहा है तथा अपने को क्रियावादीअक्रियावादी दोनों कहा है । यह भी बौद्ध धर्म के मध्यम मार्ग का एक लक्षण है । सूत्रकृतांग में क्रियावादी की एक सुन्दर परिभाषा है । जो अधोगति के जो जीव आत्मा को जानता है और लोक को जानता है; जो संसार परिभ्रमण रूप गति और स्थिरता - परिभ्रमण से मोक्ष रूप आगति को जानता है; जो शाश्वत तथा अशाश्वत भावों को जानता है; जो जन्म-मरण - उपपात को जानता है, दुःखों को जानकर जगत के सुख-दुःख को जानता है ; जो कर्मों के आस्रव - आगमन क्रिया तथा कर्मों के संवर --- आगमन के निरोध को जानता है ; दुःखादि वेदना रूप कर्म के फलों को जानता है तथा कर्म काटने की क्रिया रूप निर्जरा को जानता है वही क्रियावाद का सही कथन प्रतिपादन कर सकता है - वही क्रियावादी हो सकता है। ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि क्रियावादी होता है । जो जीव किसी एक एकांत दृष्टि से क्रिया की आवश्यकता स्वीकार करते हैं, अथवा तत्त्व के किसी एक पक्ष को स्वीकार करके क्रिया को स्वीकार करते हैं वे मिथ्यादृष्टि क्रियावादी हैं । जो जीव किसी भी कारण से कर्म काटने रूप क्रिया तथा पापकर्म के के बन्धन रूप अक्रिया को अस्वीकार करते हैं वे अक्रियावादी हैं । अक्रियावादी क्रिया अक्रिया दोनों को अस्वीकार करते हैं । जाटावास, जोधपुर विजयादशमी, वि० सं० २०२६ [ 45 ] "Aho Shrutgyanam" -जबरमल भण्डारी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrutgyanam" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '० ०१ ०११ ०१२ '०१३ ०२ ०२१ ०२२ ०२३ .०३ .०३.१ ०३२ ०३३ ४ •०५ विषय संकलन - सम्पादन में प्रयुक्त ग्रन्थों की संकेत सूची प्रकाशकीय सम्पादकीय विषय-सूची जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण कर्मवाद का वर्गीकरण क्रियावाद का वर्गीकरण भूमिका --- उपाध्याय अमर मुनि आमुख -- जबरमल भंडारी शब्द विवेचन शब्द- व्युत्पत्ति प्राकृत में 'किरिया' शब्द की व्युत्पत्ति पाली में 'किरिया' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत में 'क्रिया' शब्द की व्युत्पत्ति क्रिया शब्द के पर्यायवाची शब्द कर्मबन्धनिबन्धभूतार्थक्रिया के पर्यायवाची शब्द सदनुष्ठान क्रिया के पर्यायवाची शब्द परिस्पंदनार्थं क्रिया के पर्यायवाची शब्द विभिन्न भाषाओं में क्रिया शब्द के विभिन्न अर्थ प्राकृत भाषा में 'किरिया' शब्द के अर्थ पाली भाषा में 'किरिया' शब्द के अर्थ संस्कृत भाषा में क्रिया शब्द के अर्थ सविशेषण - ससमास -- सप्रत्यय 'किरिया' शब्दों की सूची परिभाषा 33 33 परिभाषा के उपयोगी पाठ 33 [ 47 ] >> " Aho Shrutgyanam" पृष्ठ 6724 T 9 14 17 18 19 26 १-३० १ १ १ २ २ ३ ३ ४ -२० २० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २१ २२-२८ YNNNNN UN"""S ururu. विषय प्राचीन आचार्यों द्वारा की गई क्रिया की परिभाषा -०७ क्रिया के भेद ०७.१ एक भेद .०७.२ दो भेद ०७.३ तीन भेद -०७.४ क्रिया के पाँच भेद •०७४.१ आरंभिया पंचक •०७.४.२ काइया पंचक .०७.४३ दिहिया पंचक .०७.४४ सत्थिया पंचक ०७.४५ पेजवत्तिया पंचक .०७.४६ सम्यक्त्व पञ्चक '०७५ तेरह भेद (क्रियास्थान) •०७६ अठारह भेद (पापस्थान) •०७७ क्रिया के पचीस भेद क्रिया पर विवेचन गाथा-संस्कृत पद्य .०६ क्रिया का नय और निक्षेपों की अपेक्षा विवेचन •०६१ नय की अपेक्षा '०६२ निक्षेप की अपेक्षा विभिन्न क्रियाओं का विवेचन जीवक्रिया-परिभाषा/अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा/अर्थ १२ अजीव क्रिया-- , आरम्भिकी क्रिया १४ पारिग्रहिकी क्रिया पारिग्रहिकी क्रिया और जीवदण्डक पारिग्रहिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्धन '१५ माया प्रत्य यिकी क्रिया (स्थान)-परिभाषा/अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा/अर्थ '१५.४ मायाप्रत्ययिकी क्रिया तथा जीवदण्डक [ 48 ] . . . ३१--१८८ ० "Aho Shrutgyanam" Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १५.५ ४० ४२ ४५ ५६ . १८ . विषय मायाप्रत्ययिकी क्रियारत व्यक्ति .१५.६ मायाप्रत्ययिकी क्रिया और कर्म प्रकृति का बन्ध '१६ अप्रत्याख्यान क्रिया-परिभाषा/अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा/अर्थ १६.४ जीव तथा अप्रत्याख्यान क्रिया की समानता निक्षेपों की अपेक्षा से अप्रत्याख्यान क्रिया का विवेचन १६.६ अप्रत्याख्यान क्रिया का दार्शनिक विवेचन १६.६.१ आत्मा और अप्रत्याख्यान १६.६२ अप्रत्याख्यानी जीव और पापकर्म का बन्धन '१७ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया-परिभाषा/अर्थ, भेद तथा भेदों को परिभाषा/अर्थ कायिकी क्रिया आधिकरणिकी क्रिया प्राद्वेषिकी क्रिया पारितापनिकी क्रिया प्राणातिपातिकी क्रिया “२२.४ प्राणातिपात क्रिया और जीवदण्डक '२२५ प्राणातिपात क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध '२३ दृष्टिका क्रिया-परिभाषा अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा/अर्थ '२४ पृष्टिका स्पृष्टिका क्रिया प्रातीत्यिकी क्रिया सामन्तोपनिपातिकी क्रिया स्वाहस्तिकी क्रिया '२८ नैसृष्टिको क्रिया आज्ञापनिका/आनायनिका क्रिया ,, वेदारणिको/वैचारणिकी क्रिया ,, अनाभोगप्रत्ययिकी क्रिया '३२ अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया रागप्रत्ययिकी क्रिया रागप्रत्ययिकी क्रिया और जीवदंडक [ 49 ] GGGG WW ० ० GAM M ७७ W AAP - MUM wW MOM . AM - "Aho Shrutgyanam" Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३३५ * ३४ '३४*४ *३४*५ ३५ ३६ ३७ '३७'४ ३८ ३६ ४० ४१ '४२ ४३ '४४ '४५ ४६ *४७ YC '४८२ '४८'३ '४८४ ४६ *YE'R '४६३ '४६४ *५० ५१ विषय . रागप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया - परिभाषा / अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा / अर्थ द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया और जीवदण्डक द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध प्रायोगिकी क्रिया -- परिभाषा / अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा / अर्थ सामुदानिको क्रिया ऐर्यापथिकी क्रिया ऐर्यापथिकी क्रिया किसके, कैसे, क्रियत्कालीन होती है साम्परायिकी क्रिया - परिभाषा / अर्थ सम्यक्त्व क्रिया - परिभाषा / अर्थ मिथ्यात्व क्रिया - परिभाषा / अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा / अर्थ अक्रिया (दुष्प्रयुक्त क्रिया) अज्ञान क्रिया ( अक्रिया का भेद) ,, अर्थदंड प्रत्ययिक क्रिया (स्थान) - परिभाषा / अर्थ अनर्थदंड प्रत्ययिक क्रिया (स्थान) हिंसादण्डप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) अकस्मात दंडप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) दृष्टिविपर्यास प्रत्ययिक क्रिया (स्थान) 72 "" 32 25 "" " मृषावाद क्रिया (स्थान) मृषावाद क्रिया और जीव मृषावाद किया और जीव दण्डक मृषावादक्रिया और कर्मप्रकृतिका बन्ध अदत्तादान क्रिया (स्थान) - परिभाषा / अर्थ अदत्तादान किया और जीव अदत्तादानक्रिया और जीवदण्डक अदत्तादान क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध अध्यात्म प्रत्ययिक क्रिया (स्थान) - परिभाषा / अर्थ मानप्रत्यविकी क्रिया (स्थान) 92 [ 50 ] "Aho Shrutgyanam" "" " पृष्ठ ८३ ८३ ८३ ८४ * & i v ≈ ≈ w x x w ८४ ८६ ८८ ६१ ६२ ६३ ૪ ६५ ६६ ६८ ६८ εε १०० १०१ १०१ १०१ १०२ १०२ १०२ १०३ १०३ १०४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *५१'२ *५१·३ '५१४ ५२ ५३ '५३२ ५३'३ ५३४ '५४ "५४३ ५४४ ५५ ५५.२ '५५'३ '५६ ५६२ '५६३ ५७ ५७.२ '५७.३ ५८ ५८ २ '५८३ ५६ ५६२ ५६३ '६० '६०२ ६०३ ६१ विषय भानप्रत्ययिकी क्रिया और प्रदर्शिक मानप्रत्ययिकी क्रिया और जीव मानप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध मित्रद्वेषप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) --- परिभाषा / अर्थ लोभप्रत्ययिक क्रिया ( स्थान ) लोभप्रत्ययिक किया और जीवदण्डक लोभप्रत्ययिक क्रिया का सदृष्टांत विवेचन लोभप्रत्ययिक क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध मैथुन (ब्रह्मचर्य) पापस्थान क्रिया - परिभाषा / अर्थ तथा भेद मैथुन (ब्रह्मचर्य) क्रिया और जीवदण्डक मैथुन (अब्रह्मचर्य) क्रिया और कर्मप्रकृतिका बंध क्रोधप्रत्ययिक पापस्थान क्रिया - परिभाषा / अर्थ कोप्रत्ययक क्रिया और जीवदंडक को प्रत्ययिक क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध कलह पापस्थान क्रिया - परिभाषा / अर्थ कलह क्रिया और जीवदंडक कलह किया और कर्मप्रकृति का बंध अभ्याख्यान पापस्थान क्रिया - परिभाषा / अर्थ अभ्याख्यानक्रिया और जीवदंडक अभ्याख्यान क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध पैशुन्य पापस्थान क्रिया -- परिभाषा / अर्थ पैशुन्य क्रिया और जीवदंडक पैशुन्यक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध परपरिवाद पापस्थान क्रिया परपरिवाद किया और जीवदंडक परपरिवाद किया और कर्मप्रकृति का बंध रति - अरति पापस्थान क्रिया - परिभाषा / अर्थ रति - अरतिक्रिया और जीवदंडक रति - अरतिक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध मायामृषा पापस्थान क्रिया - परिभाषा / अर्थ [51] " परिभाषा / अर्थ "Aho Shrutgyanam" पृष्ठ १०४ १०५ १०६ १०६ १०७ १०७ १०८ १०६ ११० ११० १११ १११ ११२ ११३ ११३ ११३ ११४ ११४ ११५ ११५ ११६ १.६ ११७ ११७ ११७ ११८ ११८ ११६ १२० १२० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ *६१३ ६२ '६२'२ '६२*३ '६३ '६३४ ६३.५ ६३.६ ६३७ विषय मायामृषा क्रिया और जीवदंडक मायामृषावाद क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध मिथ्यादर्शनशल्य (पापस्थान) क्रिया - परिभाषा / अर्थ मिथ्यादर्शनशल्य क्रिया और जीवदंडक मिथ्यादर्शशल्य क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध एजनादि क्रिया -- परिभाषा / अर्थ, भेद तथा भेदों की परिभाषा सयोगी जीव और एजनादि क्रिया शैलेशी जीव एजनादि क्रिया नहीं करता है चलना क्रिया - परिभाषा / अर्थ, भेद तथा भेदों को परिभाषा एजनक्रिया और जीव क्रियाद्वयक *६४ '६४१ सम्यक्त्व - मिथ्यात्व क्रियाद्वयक ‘६४.१·१ सम्यक्त्व और मिथ्यात्व - दोनों क्रियाएँ एक जीव के एक समय में नहीं होतीं '६४२ ऐर्यापथिकी-सांपरायिकी क्रियाद्वयक '६४'२१ ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी -- दोनों क्रियाएँ एक जीव के एक समय में नहीं होतीं '६४ २ २ ऐर्यापथिकी-सांपरायिकी क्रियाद्वयक और अनगार '६४ २३ ऐर्यापथिकी-सांपरायिकी क्रियाद्वयक और श्रमणोपासक आरम्भिकी क्रियापंचक ६५ *६५१ *६५२ ६५३ '६५४ '६५'५ '६५६ १३१ १३२ १३५ १३५ नाम १३६ आरम्भिकी क्रियापंचक और जीवदण्डक १३६ आरम्भिकी क्रियापंचक और मिथ्यादृष्टि जीव १३७ समदृष्टि जीव १३७ और गुणस्थान १३७ और प्राणातिपातादि विरमण १३६ '६५७ और जीवों में क्रिया-समानता १४० • ६५८ की नियमा भजना औधिक जीव की अपेक्षा १४७ १४८ ६५६ आरम्भिकी क्रियापंचक की नियमा-भजना जीवदण्डक की अपेक्षा '६५:१० आरम्भिकी क्रियापंचक की नियमा-भजना समय, देश और प्रदेश की अपेक्षा १४६ [ 52 J "" 39 " "" " पृष्ठ १२० १२१ १२२ १२२ १२३ १२३ १२५ १२७ १२७ "Aho Shrutgyanam" १२६ १३० १३० १३० १३१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय *६५११ आरम्भिकी क्रियापंचक और माल का क्रेता-विक्रेता ६५.१२ आरम्भिकी क्रियापंचक और अल्पबहुत्व कायिकी क्रियापंचक '६६ कायिकी क्रियापंचक की क्रियाओं के नाम दंडक के जीव और कायिकी क्रियापंचिक जीव की अन्य जीव या जीवों के प्रति कायिकी पंचक क्रियाएँ दण्डक के जीव का औधिक जीव के दण्डक के जीव के प्रति कायिकी पंचक की क्रिया परकीय औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी किया परकीय वैक्क्रिय शरीर की अपेक्षा जीव के कितनी क्रिया परकीय आहारक, तैजस, कार्मण शरीर की अपेक्षा जीव के कितनी क्रिया '६६८ कायिकी क्रियापंचक और शरीर, इन्द्रिय व योग का निर्माण करता हुआ जीव कायिकी क्रियापंचक और श्वास- निश्वास लेते हुए स्थावर जीव कायिकी क्रियापंचक और वृक्षादि को कंपाता- -- नीचे गिराता हुआ वायुकायिक जीव कायिकी क्रियापंचक और ताल वृक्ष को कंपाता तथा नीचे गिराता हुआ पुरुष तथा तालफल कायिकी क्रियापंचक और वृक्ष के मूल यावत् बीज को कंपाता तथा नीचे गिराता हुआ पुरुष '६६*१३ कायिकी क्रियापंचक और समुद्घात *६६ १४ जीव और कायिकी क्रियापंचक की पारस्परिक नियमा भजना ६६.१५ कायिकी आदि क्रियाओं को पारस्परिक नियमा-भजना- समय- देश-प्रदेश ६६.१ '६६२ ६६३ '६६४ '६६५ *६६६ *६६७ *६६६ ६६.१० ६६.११ *६६ १२ ६६ १६ *६६ १७ ६६ १८ ६६.१६ '६७ की अपेक्षा क्रियाओंकी स्पृष्टता की नियमा भजना जीव और समय की अपेक्षा कर्म बाँधता हुआ जीव और कायिकी क्रियापंचक आयोजिका विशेषण सहित कायिकी क्रियापंचक कायिकी क्रियापंचक के उदाहरण त्रय क्रियापंचक [53] "Aho Shrutgyanam" पृष्ठ १५० १५२ १५३ १५३ १५३ १५४ १५५ १५७ १५८ १५६ १६० १६१ १६२ १६२ १६४ १६६-१६६ १६६ १७३ १७३ १७५ १७६ १७६ १८५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७.१ ६७.२ ६७३ ६८ ६८१ ६८२ ६६. טי 19? सदनुष्ठान क्रिया ७१.१ सदनुष्ठान क्रिया के पर्यायवाची शब्द विभिन्न सदनुष्ठानक्रिया ७१२ ७१.२.१ सामायिक चतुर्विंशतिस्तव वंदना-प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग-प्रत्याख्यान षट्आवश्यक किया ७१.२२ दर्शन -ज्ञान- चारित्र-तप- विनय-सत्य- समिति गुप्ति-अष्टसंयमानुष्ठान क्रिया ·७२ *७२३ ·७२४ विषय दंडक के जीव और दृष्टिका क्रियापंचक दंडक के जीव और आज्ञापनिका क्रियापंचक दंडक के जीव और रागप्रत्ययिकी क्रियापंचक पापस्थान किया पापस्थान क्रियाओं की स्पृष्टता आदि पापस्थान क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध पचीस क्रियाओं का समवाय से विवेचन सदनुष्ठानक्रिया का विवेचन *७३ ७३.३ ७३४ *७३५ .७३६ अक्रिया (क्रिया का अभाव ) - परिभाषा / अर्थ, भेद अक्रिया - किसका फल और उसका क्या फल अयि भिक्षु अन्तक्रिया - परिभाषा / अर्थ, भेद अन्तक्रिया और जीवदंडक अनन्तर - परंपरभव में अन्तक्रिया और जीत्रदंडक दंडक के जीव अनन्तर भव में कितने एक समय में अंतक्रिया करते हैं एक भव से अनन्तरभव में अंतक्रिया नारक भव से अनन्तर मनुष्य भव में अंतक्रिया *७३६१ *७३६२ भवनपति देव से "3 *७३६३ पृथ्वी काय अप्काय वनस्पतिकाय से अनन्तर मनुष्य भव में अंतक्रिया '७३६४ अग्निकाय से अनन्तर मनुष्य भव में अंतक्रिया " *७३६५ वायुकाय से *७३·६·६ द्वीन्द्रिय-नीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय से अनन्तर मनुष्य भव में अंतक्रिया [ 54 ] 32 33 "Aho Shrutgyanam" पृष्ठ १८५ १८५ १८५ १८६ १८६ १८८७ १८८ १८८-२४० १८६ १८६ १६० १६० १६० १६१ १६१ १६२ १६२ १६५ १६६ १६७ १६८ १६८ १६६ १६६ २०० २०० २०० Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ७३६७ तिर्यच पंचेन्द्रिय भव से अनन्तर मनुष्य भव में अंतक्रिया *७३६८ मनुष्यभव से अनन्तर मनुष्य भव में अंतक्रिया ·७३·६'६ वाणव्यंत्तर - ज्योतिषी वैमानिक देवसे अनंतर मनुष्य भव में अंतक्रिया ७३७ सलेशी पृथ्वी - अप्-वनस्पतिक। यिक जीव और अनन्तर भव में अंतक्रिया ७३८ कहाँ से अनंतर मनुष्य भव में आकर जीव तीर्थंकरत्व पाकर अंतक्रिया करता है ७३६ कौन जीव अंतक्रिया करते हैं। *७३६१ दया-धर्म की प्ररूपणा करने वाला जीव अंतक्रिया करता है ७३६२ निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव अंतक्रिया करता है ७३६३ संवृत अनगार अंतक्रिया करता है ७३६४ एजनादि क्रिया नहीं करने वाला जीव अन्तक्रिया करता है ७३६५ अक्रिय जीव उसी भव में अन्तक्रिया करता है ७३६६ तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव अन्तक्रिया करता है ७३६७ केवली अन्तक्रिया करते हैं ७३.१० केवली जीव अन्तक्रिया कैसे करते हैं ? ७३.११ जीव किससे अन्तक्रिया करता है। ७३१११ सम्यक्त्व पराक्रम से जीव अन्तक्रिया करता है '७३११२ व्यवदान से जीव अन्तक्रिया करता है। - ७३.११ ३ सर्वभावप्रत्याख्यान से जीव अन्तक्रिया करता है *७३११४ कायसमाधारणता से ७३.११ ५ चारित्रसम्पन्नता से *७३*११*६ यथाख्यात चारित्र से ७३११७ केवली आराधना से ७३.११८ ज्ञान-दर्शन- चारित्र की आराधना से अंतक्रिया " ” ७३.१२ कौन जीव अंतक्रिया नहीं करते हैं ? ७३.१२१ हिंसा की प्ररूपणा करने वाले जीव ७३.१२२ प्रथम बारह क्रियास्थान में वर्तमान जीव अंतक्रिया नहीं करता है ७३१२३ असंवृत अणगार अंतक्रिया नहीं करता है ७३१२४ छद्मस्थ-अवधिज्ञानी परमावधिज्ञानी अंतक्रिया नहीं करते हैं। ७३.१२५ एजनादि से सक्रिय जीव अंतक्रिया नहीं करता है [ 55 ] "" 32 >> "" " " "Aho Shrutgyanam" पृष्ठ २०१ २०१ २०१ २०२ २०३ २०६ २०६ २०६ २०७ २०७ २०८ २०८ २०६ २०६ २१७ २१७ २१८ २१८ २१८ २१६ २१६ २१६ २२० २२१ २२१ २२२ २२२ २२३ २२४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ २२५ २२५ २२६ २२६ २२८ २२६ विषय ७३.१२.६ केवली समुद्घात करता हुआ जीव अंतक्रिया नहीं करता है विभिन्न जीव और अंतक्रिया क्षत्रिय और अन्तक्रिया '७३ १३२ श्रमणोपासक और अंतक्रिया •७३.१३.३ अणगार और अंत क्रिया •७३.१३.४ लत्रसप्तमदेव का जीव और अंतक्रिया •७३' १३.५ दक्षिणार्ध भरतवासी मनुष्य और अंतक्रिया उत्तरार्ध '७३.१३.७ भरतक्षेत्र की विद्याधरश्रेणी के मनुष्य और अन्तक्रिया '७३.१३८ सुषम-दुःषम काल में भरतवासी मनुष्य और अंत क्रिया '७३.१३.६ दुःषम-सुषम काल में '७३.१३.१० दुःषम काल में *७३.१३ ११ आचार्य-उपाध्याय कितने भव में अंतक्रिया करते हैं ७३.१३.१२ एकान्त पण्डित: अंतक्रिया ७३.१३ १३ भवसिद्धिक जीव और कितने भव में अंतक्रिया •७३.१५ अन्तक्रिया और अन्तकर का ज्ञान •७३.१५.१ छद्मस्थ अंतक्रिया करने वाले को नहीं जानता है '७३.१५२ केवली का अंत किया और अन्तकर को जानना और देखना •७३ १५.३ अरिहन्त-जिन-केवली का अंत क्रिया करने के पहले जीव तथा अजीव को जानना-देखना अन्तक्रिया में होने वाले सकलकर्मक्षय को समझाने के दृष्टांत '७४ सदनुष्ठान क्रिया का उपदेश २३५ २३५ २३६ ८ २३७ २३७ २३६ my mim जीव और क्रिया २४०-२५३ '८११ २४० . '८१२ ८१.३ २४१ २४१ जीव की सक्रियता/अक्रियता दण्डक के जीव की सक्रियता/अक्रियता उत्पल आदि वनस्पतिकायिक जीव की सक्रियता-अक्रियता जीव और आरम्भिकी क्रियापंचक जीव और कायिकी जीव और पापस्थानक्रिया [ 56 ] - mm ८४ "Aho Shrutgyanam" Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २४४ २५३ २५ २५६ विषय जीव और ऐर्यापथिकी क्रिया महायुग्म जीव और सक्रियता-अक्रियता २४५ राशियुग्म जीव और सक्रियता-अक्रियता ૨૪ક सक्रिय जीव २५० सकिय जीव के भेद २५२ '८८११ दो भेद-सम्यक्त्व किया वाला तथा मिथ्यात्व क्रिया वाला २५२ ८८.१२ दो भेद---ऐपिथिकी क्रिया वाला तथा सांपरायिकी क्रिया वाला। २५२ '८६ अक्रिय जीव क्रिया और विविध विषय २५३.३२७ ६१ किया और करण--करण की परिभाषा | अर्थ '६१२ काल की अपेक्षा करण-क्रिया के भेद '६१.३ मन, वचन तथा काय की अपेक्षा करण के ३ भेद २५५ ६१४ आरम्भ, संरंभ तथा समारंभ की अपेक्षा करण के ३ भेद २५५ '६२ किया और दर्शन ६२.१ -- विवेचन २५६ '६२२ दर्शनों के किया या अन्य आधार पर मूल विभाग २५७ ६२३ समवसरण और जीवदण्डक २५८ '६२४ क्रियावाद / क्रियावादी -- परिभाषा / अर्थ २५६-२७७ १ अस्ति के आधार पर क्रियावाद ૨૫૬ २ क्रिया-कर्म बन्धन के हेतु के आधार पर क्रियावाद ३ किया-मोक्ष की हेतु के आधार पर क्रियावाद '६२४२ क्रियावादी के भेद २६१ '६२४३ समदृष्टि क्रियावादी–परिभाषा/अर्थ ६२.४ ३.२ समष्टि क्रियावादी जीव और भव्यता तथा शुक्लपाक्षिकता ६२.४ ३.३ क्रियावादी (समदृष्टि) जीव और जीवदंडक ६२.४.३.४ क्रियावादी (ममदृष्टि) जीव और आयुष्य का बंधन ६२.४.३५ क्रियावादी (समदृष्टि) जीव और भवसिद्धकता ६२.४.३.६ अनंतरोपपन्नक क्रियावादी (समदृष्टि) और जीवदंडक '६२.४३७ आयुष्य का बंधन '६२.४३.८ भवसिद्धकता [ 57 ] २६० २६१ or m uxurww9999 orn "Aho Shrutgyanam" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय *६२·४'३'६ परंपरोपपन्नक क्रियावादी (समदृष्टि) जीव और जीवदंडक, आयुष्य बंधन और भवसिद्धिकता '६२'४'३·१० अनन्तरावगाढ़-अनन्तराहारक - अनंतर पर्याप्त क्रियावादी (समदृष्टि) जीव और जीवदंडक, आयुष्य का बंधन और भवसिद्धिकता '६२४'३'११ परंपरावगाढ- परंपराहारक परंपरपर्याप्त क्रियावादी (समदृष्टि ) जीव और जीवदंडक, आयुष्यका बंधन और भवमिद्धिकता *६२°४*३*१२ चरम- अचरम क्रियावादी (समदृष्टि) जीव और जीवदंडक, आयुष्य बंधन और भवसिद्धिकता क्रियावादी मिथ्यादृष्टि '६२५ *६२५.१ '६२५२ '६२'५'३ ६२.६ ६.२६ १ ·६२°६'२' ६२'६'३ " क्रियावादी मिथ्यादृष्टि के भेद क्रियाबादी मिथ्यादृष्टि के सिद्धान्त १ एकवादी २ अनेकवादी परिभाषा / अर्थ अक्रियावाद / अक्रियावादी परिभाषा / अर्थ अक्रियावादी के भेद-आठ भेद, चौरासी भेद, विशिष्ट भेद अक्रियावादी के भेदों की परिभाषा /अर्थ तथा मत का प्रतिपादन ३ मितवादी ४ निर्मितवादी - ईश्वरकारणिकवादी ५ सातवादी *६ समुच्छेदवादी ७. नित्यवादी 'नास्तिपरलोकवादी ६ वामलोकवादी • १० तज्जीवतच्छरीरवादी -- लोकायतिक *११ पंचस्कंधवादी *१२ धातुवादी * १३ पंचमहाभूतवादी [ 58 ] "Aho Shrutgyanam" पृष्ठ २७३ २७३ २७३ २७३ २७४ २७४ २७४ २७६ २७७-३०६ २७७ २७८ २८० २८० २८३ २८३ २८४ २८८ २८६. २६० २६ १ २६ १ २६१ २६४ २६५ २६५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय * १४ अक्रिय आत्मवादी * १५ नियतिवादी अक्रियावादी जीव और दंडक (६२६७,१०,१३, १६, १६ ) अक्रियावादी जीव और आयुष्य का बंधन अक्रियावादी जीव और भव - अभवसिद्धिकता किया और प्रतिक्रमण कायिकी क्रियापंचक और प्रतिक्रमण '६२६४ ६२.६५ ६२६६ ६३ ६३१ ६.३२ ६४ ६.४१ ६४२ *६४३ ६४°४ ६७ ६८ तेरह क्रियास्थान और प्रतिक्रमण क्रिया और भिक्षु ------ औधिक विवेचन साध्वाचार के अतिक्रमण से भिक्षु को लगने वाली क्रियाएँ १ कालातिक्रमक्रिया २ उपस्थान क्रिया ३ अभिक्रांत क्रिया ४ अनभिक्रांत क्रिया ५ वर्ज्य क्रिया ६ महावर्ज्यक्रिया ७ सावज्जकिरिया महासावज्ज किया अप्पसावज्ज क्रिया १० परक्रिया - ११ अन्योन्य किया * १२ भिक्षु और कृतक्रिया भिक्षु और अक्रिया भिक्षु और वैद्य की छेदन-क्रिया क्रिया संबंधी उपदेश जैनेतर ग्रन्थों में क्रिया के समतुल्य वर्णन १ गीता में कर्म संग्रह का कारण करण-किया • २ गीता में सर्वारम्भपरित्यागी आत्मा * ३ गीता में कर्मों से लिप्त न होने वाली आत्मा [ 59 ] "Aho Shrutgyanam" पृष्ठ २६७ २६८ ३००,७,८ ३००,७,८ ३०४,७,८ ३०६ ३०६ ३०६ ३०६ ३०६ ३११ ३११ ३१२ ३१२ ३१३ ३१३ ३१४ ३१५ ३१५ ३१६ ३१७ ३२३ ३२४ ३२४ ३२४ ३२५ ३२६ ३२६ ३२६ ३२६ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ३२७-३६२ ३२७ ३२७ ३२७ ३२८ الله الله الله النه ع الله. قدم له الم ANAND WANAPANuwal WWW. MMGMWWWM 11 اله विवय १६ क्रिया सम्बन्धी फुटकर पाठ ६४.१ क्रिया और स्याद्वाद ६६.२ आस्रव ६६३ वेदना '६६४ ६६.५ गुणस्थान ६६६ क्रिया और ज्ञान दर्शन ६६८ ध्यान RE , और अहिंसा महा त्रत की भावना ६६.१० और काल ६६.११ , और परिणाम '६६१२ ऐर्यापथिक क्रिया और 'सावद्य' ६६.१३ कर्म, क्रिया, आस्रव और वेदना की चौपदी १ अग्निकाय की अपेक्षा '२ महाकर्म-किया-आस्रव-वेदना वाले जीव की अपेक्षा •३ अल्पकर्म-क्रिया-आसव-वेदना वाले जीव की अपेक्षा '४ अग्नि जलाते-बुझाते पुरुष की अपेक्षा '५ नारकी जीवों में चौपदी की अपेक्षा तुलना .६ माथिमिथ्यादृष्टि तथा अमायिसम्यगटष्टि जीवों की अपेक्षा •७ जीवदण्डक की अपेक्षा •८ साध-साध्वी-श्रावक-श्राविका की अपेक्षा आसव-किया-वेदना और निर्जरा की अपेक्षा चौपदी हह.१५ दो क्रियावाद EE१६ दो क्रियावादी निहन की परभव में उत्पत्ति 'हह.१७ निश्चयनय और क्रियावाद ६६.१८ परस्पर विरोधी क्रियाएँ एक समय में युगपत नहीं होती हैं ६६.१६ सूर्य की क्रिया और जम्बूद्वीप ६.६२० भलावण प्रतिसंदर्भ के पाठ ६६.२१ छुटे हुए पाठ ६६.२२ श्रावक की त्रेपन क्रिया अध्ययन, गाथा, सूत्र आदि की संकेत-सूची संकलन-सम्पादन-अनुसंधान में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची संदर्भ ग्रन्थों की सूची [ 60 ] الا الله ३३८ اله اله ااب ३४५ ३४८ ३४६ ३४६ ३५४ ३५६-३५७ "Aho Shrutgyanam" Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '० शब्द विवेचन ०१ शब्द व्युत्पत्ति ०१.१ प्राकृत में 'किरिया' शब्द की व्युत्पत्ति रूप-किरिया, किरिआ, किया पद - संज्ञा लिंग-स्त्रीलिंग धातु-V कर ( V कृ)करना, बनाना । किरिया--'हश्रीहीकृत्स्नक्रियादिष्ट्यास्वित्' ( हेम ० ८८।२।१०४) 'ह' अन्तवाले तथा श्री, ह्री, क्रिया, कृत्स्न, दिष्ट्या आदि संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूप में संयुक्त व्यंजन के अन्त्य व्यंजन से पूर्व 'इ' का आगम होता है- 'एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः' ( स्वोपज्ञवृत्ति)। यथा--अर्ह > अरिहा ; श्री > सिरी; ह्री > हिरी; क्रिया > किरिया। अतः संस्कृत शब्द क्रिया का प्राकृत रूप किरिया बना-ऐसा समझना चाहिए। किरिआ--प्राकृत में 'य' का 'अ' भी हो जाता है ।। ___ किया—र्ष प्राकृत में किया शब्द का “किया' रूप भी मिलता है। 'आषेतु हयं नाणं किया-हीणं' ( स्वोपशवृत्ति ) '०१२ पाली में 'किरिया' शब्द की व्युत्पत्ति रूप-किरिया, किरिय, क्रिया पद-संज्ञा लिंग-स्त्रीलिंग धातु--/कर ( क ) प्राकृत 'किरिया' शब्द की व्युत्पत्ति की तरह इसकी भी व्युत्पत्ति समझनी चाहिए। "Aho Shrutgyanam" Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश '०१३ संस्कृत में 'क्रिया' शब्द की व्युत्पत्ति रूप--क्रिया पद-संज्ञा लिंग-स्त्रीलिंग धातु- > करोति-- कृ धातु में श+टाप् प्रत्ययों के योग से किया शब्द बनता है । -शब्द सागर । भावे करणादौ वा यथायथं "कृषःश च” । -वाच: ३।३।१०० '०२ क्रिया शब्द के पर्यायवाची शब्द ०२१ कर्मबन्धनिबन्धभूतार्थ क्रिया के पर्यायवाची शब्द :.०२.१.१ कम्मसमारम्भा अकरिस्सं चऽहं, कारवेसुं चऽहं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि । एयावंति सव्वावंति लोगंसि, कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति ।। --आय० श्रु १ । अ १ । उ १ । सू६,७ } पृ० १ .०२.१.२ अकिरिया ___ अकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा--पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, अण्णाणकिरिया। -- ठाण° स्था ३! ३। सू १८७। पृ० २१५ टीकाकार का नोट-'अकिरिय' त्ति नबिह दुःशब्दार्थों यथा अशीला दुःशीलेत्यर्थः' ततश्चाक्रिया--दुष्ट क्रिया। '०२.१.३ दंडसमादाण पढमे दंडसमादाणे अट्ठा-दंड-वत्तिए त्ति आहिजइ । ---सूय° श्रु २। अ २। सू २। पृ० १४५ टीका तथाभूतं स्वपरोपघातरूपं दंडं त्रसस्थावरेषु (प्राणिषु) स्वयमेव निस्सृजति निक्षिपति दंडमिव दंडमुपरि पातयति प्राण्युपमर्दकारिणी क्रियां करोतीत्यर्थः। तथा "Aho Shrutgyanam" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ऽन्येनापि कारयत्यपरं दंडं निसृजंतं समनुजानीते। एवं कृतकारितानुमतिभिरेव तस्याऽनात्मज्ञस्य तत्प्रत्ययिकं सावधक्रियोपात्तं कर्माधीयते संबध्यते इति । एतत्प्रथम दंडसमादनमर्थदंडप्रत्ययिकमित्याख्यातमिति । ०२२ सदनुष्ठान क्रिया के पर्यायवाची शब्द :१ चरण 'आहंसु विज्जाचरणं पमोक्ख' । ----सूय० $ 1 अ १२ । गा ११ । च ४) पृ० १२८ टीका-'आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ति, न ज्ञाननिरपेक्षायाः क्रियायाः सिद्धिः, अन्धस्येव, नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पङ्गोरिव, इत्येवमवगम्य 'आहु': उक्तवंतः, तीर्थकरगणधरादयः, कमाहुः १ मोक्षं, कथं विद्या च-ज्ञान, चरणंच - क्रिया, ते द्वे अपि विद्यते कारणत्वेन यस्येति विगृह्यार्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच, असौ विद्याचरणो मोक्षः-ज्ञानक्रियासाध्य इत्यर्थः, तमेवं साध्यं - मोक्षं प्रतिपादयन्ति । ०२.३ परिस्पंदनार्थ क्रिया के पर्यायवाची शब्द : एयइ < एजति--संज्ञा एजना = कम्पन करना वेयइ ८ व्येजते--संज्ञा वेजना = डोलना चलइ < चलति-संज्ञा चलना = चलना फंदइ ८ स्पन्दते संज्ञा स्पन्दन = स्पन्दन करना घट्टइ < घट्टयति-चतुर्दिक गति, संघर्ष ; स्पर्श-चतुर्दिक गति करना, संघर्ष करना, ___ अपर पदार्थ को स्पर्श करना । खुम्भ < क्षुभ्यति - संज्ञा क्षोभ = क्षुब्ध होना। उदीरइ < उदीरति-संज्ञा प्रेरण = प्रेरित करना । जीवे णं भंते ! सया समियं एयइ, वेयइ, चलइ, फंदइ, घट्टइ, खुन्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ ? हंता, मंडियपुत्ता ! xxx l -भग० श ३ । उ ३ ! प्र १० । पृ० ४५६ "Aho Shrutgyanam" Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ०३ विभिन्न भाषाओं में क्रिया शब्द के विभिन्न अर्थ .०३.१ प्राकृत भाषा में 'किरिया' शब्द के अर्थ :(क) संज्ञा-सामान्यार्थ- क्रिया, कृति, व्यापार, प्रयत्न ( पाइअ० ) करण, कर्म ( अभिधा० ) (ख) संज्ञा-विशेषार्थ-शिक्षा ( अभिधा० ) (ग) संज्ञा-पारिभाषिकार्थ धर्म-शास्त्रोक्त अनुष्ठान, धर्मानुष्ठान, ( पाइअ०), पूजा ( अभिधा०) दर्शन-सावध व्यापार (पाइथ०), आरम्भ (अभिधा०) निष्कृति (अभिधा०) विज्ञान-परिस्पन्दन, गति, (भग० श ३। उ। प्र १०! पृ० ४५६ ) .०३.२ पाली भाषा में किरिया' शब्द के अर्थ :-- (क) संज्ञा--सामान्यार्थ—कार्य, करना, कृत कार्य, करण । (ख) संज्ञा-विशेषार्थ-प्रतिज्ञा, वचनबद्धता, उद्देश्य । न्याय ( Justice )। (धर्म ) व्रत, समर्पण । (ग) संशा-पारिभाषिकार्थ । दर्शन--कार्य जो निष्फल हो, अकारण, स्वान्त कार्य, पश्चात्फल (नस्थिकिरियंनास्ति पश्चात्फलं )। (प) विशेषणअर्थ-भेद रहित करना, असीमित, व्यर्थ । -पाली आंग्ल कोश-रीस डेविडस ०३.३ संस्कृत भाषा में क्रिया शब्द के अर्थ: (क) संज्ञा-सामान्यार्थ-कार्य करना, कर्म, चेष्टा, श्रम । (ख) संज्ञा--विशेषार्थ-उपाय, शिक्षा, कला, ज्ञान, अभ्यास, कृति । (ग) संज्ञा-पारिभाषिकार्थ--( आयुर्वेद ) चिकित्सा, उपचार । (धर्म) प्रायश्चित, श्राद्ध, पूजन, अनुष्ठान, नित्य नैमित्तिककर्म, मृतक-आत्येष्टिक कर्म । (विज्ञान) गति । (दर्शन)-वैशेषिक सप्तगतियाँ । ( न्यायालय )-विचार । (न्यायशास्त्र)-सिद्ध करना । -आप्ते० "Aho Shrutgyanam" Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश - ससमास -- सप्रत्यय 'किरिया' शब्दों की सूची ४ सविशेषण १ अकिरिए २ अकिरिया '३ अकिरियआया ४ अकिरिया -५ अकिरिया ६ अकिरिया ७ अकिरियाकुसल ८ अकिरियावाई ६ अकिरियावाय १० अण्णमण्णकिरिया ११ अणभिक्कतकिरिया १२ अंतकिरिया १३ अहिगरण किरियापवत्तगा - १४ अप्पकिरिया -१५ अप्पसावज्जकिरिया • १६ अभिक्कंतकिरिया '१७ उच्चारपासवण किरिया -१८ उत्तर किरियं १६ उपायकिरिया २० वट्टा किरिया २१ कय करिए २२ कयकिरिए २३ कयपडिकिरिया २४ कालायकंतकिरिया २५ करणिज्जकिरिया २६ किरियाकुसल २७ किरियाठाण २८ किरिया ( अणच्चा सायणाविणए ) २६ किरियानय "Aho Shrutgyanam" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३० किरियाभावाई ३१ किरियाई ३२ किरियावरणे जीवे ३३ किरियावाई ३४ किरियावाय ३५ किरियावाइदरिसणं '३६ किरियाविसाल ३७ दव्वकिरिया ३८ पञ्चक्खाणकिरिया ३६ परकिरिय '४० भावकिरिया '४१ महाकिरिया ४२ महावज्जकिरिया "४३ महासावज्जकिरिया '४४ वज्जकिरिया '४५ सकिरिए ४६ सकिरियट्ठाणं "४७ सकिरिया ४८ समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टि ( अप्पडिवाई ) ४६ सावज्जकिरिया '५० सुहमकिरियं अपडिवाई ( अनियट्टि ) ५१ सुहुमा इरियावहिया किरिया .५२ सूरकिरियाविसिट्ठो सविशेषण-ससमास--सप्रत्यय 'किरिया' शब्दों की परिभाषा [निम्नोक्त शब्द आगमों में कई स्थलों पर आये हैं। हमने संदर्भ सामान्यतः एक ही स्थल का दिया है । ] .०४.१ अकिरिए-अक्रिय -सूय० श्रु २१ अ ४ सू ५ । पृ० १६६ मूल--से भिक्खू अकिरिए अलूसए xxx अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए भवइ । "Aho Shrutgyanam" Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश टीका - सावद्यक्रियायाअभावाद क्रियोऽक्रियत्वाञ्च प्राणिनामलूपकोऽव्यापादकोयावदेकांतेनेवासौ पंडितो भवति । सावध क्रिया का अभाव होने से भिक्षु को अक्रिय कहा गया है । .०४.२ अकिरिय · अक्रिय -पण्ण० प २२। सू १५७३ ! पृ० ४७६ टीका--तत्र ये असंसारसमापन्नकास्तेसिद्धाः, सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभावतोऽ क्रियाः Ixxxi तत्र ये शैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सूक्ष्मबादरकायवाङ्मनोयोगनिरोधादक्रियाः । जो जीव क्रिया रहित होते हैं ; क्रिया नहीं करते हैं वे अक्रिय हैं। असंसारसमापन्न्क सिद्ध जीव देह, मन आदि की वृत्ति के अभाव में अक्रिय होते हैं । शैलेशत्व को प्राप्त संसार समापन्नकजीव सूक्ष्म बादर काय-वचन-मन योग का निरोध होने से अक्रिय होते हैं । ०४३ अकिरियआया - अक्रिय आत्मा --सूय० श्र १ । अ १० । गा १६ । पृ० १२५ मूल-जे केई लोगंमि उ अकिरियआधा। टीका-ये केचन अस्मिन् लोके अक्रियआत्मायेषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मनः सांख्यास्तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निष्क्रयः पठ्यते । लोक में कई ऐसे पुरुष हैं जो आत्मा को अक्रिय मानते हैं। यथा --- सांख्यमतवादी। .०४.४ अकिरिया-अक्रिया -ठाण० स्था है ! उ ३ । सू १८७ । पृ० २१५ मूल-तिविहे मिच्छत्ते पन्नत्ते, तेजहा - अकिरिया अविणए अण्णाणे । अकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, अन्नाणकिरिया। जो क्रिया दुष्ट उद्देश्य में प्रयुक्त हो वह अक्रिया । जो किया भली नहीं है वह अक्रिया । मिथ्यात्व के तीन भेदों में अक्रिया एक भेद हैं। .०४५ अकिरिया अक्रिया -पण्ण ० प २२ । सू१५७३ ! पृ० ४७६ । मूल-जीवाणं भंते ! कि सकिरिया अकिरिया ? टीका--सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभावतोऽक्रियाः। शैलेशी प्रतिपन्नकास्ते सूक्ष्मबादरकायवाङ्मनोयोगनिरोधाद क्रियाः । क्रिया का अभाव-अक्रिया। मन-वचन-काय योगों के निरोध से होने वाला किया का अभाव- अक्रिया। अशरीरी सिद्धों के शारीरिक क्रिया नहीं होने से क्रिया का अभाव-अकिया। "Aho Shrutgyanam" Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश .०४.६ अकिरिया-अक्रिया -ठाण० स्था ८ उ३ । सू६०७ । पृ० २८८। मोक्ष आदि की प्राप्ति के हेतु धर्मानुष्ठानिक क्रिया को अनावश्यकता-एक प्रकार की नास्तिकता। .०४.७ अकिरियाकुसल - अक्रियाकुशल -सूय० श्रु २ । अ ४ । सू १ । पृ० १६६ । मूल-आया अकिरियाकुसले यावि भवइ । ____टीका-सदनुष्ठानं क्रिया तस्यां कुशलः क्रियाकुशलस्तत्प्रतिषेधाद क्रियाकुशलोप्यात्मा भवति। असदनुष्ठान क्रियाओं में कुशल-प्रवीण-अक्रियाकुशल । .०४८ अकिरियावाई-अक्रियावादी– सूय श्रु १ । अ १२ । गा ४ । पृ० १२८ । मूल -णो किरियमाहंसु अकिरियवाई। अक्रियावादी कहते है कि क्रिया नहीं है अतः तज्जनित कर्मबंधन नहीं है । क्रियां जीवादिपदार्थोस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः। एतद्विपर्यस्ता अक्रियावादिनः। -सूय० श्रु ११ अ १२ । गा १ । टीका जो जीवादि पदार्थों के अस्तित्व को नहीं मानते हैं वे अक्रियावादी । अक्रियावादी अनेक तरह के होते हैं और वे नाना प्रकार के दृष्टिकोण से उक्त मत की प्ररूपणा करते हैं ।। 'ठाणांग' में अक्रियावादियों के मुख्यतया आठ भेद बताये गये हैं, यथा मूल अट्ट अकिरियावाई पन्नत्ता, तंजहा-एगावाई, अणेगावाई, मितवाई, निम्मितवाई, सायवाई, समुच्छेदवाई, णियावाई, न सन्ति परलोगवाई। -ठाण० स्था ८ । उ ३ । सू.६०७ । पृ० २८८ (१) एकवादी, (२) अनेकवादी, (३) मितवादी, (४) निर्मितवादी, (५) सातवादी, (६) समुच्छेदवादी (क्षणिकवादी ), (७) नित्यवादी और (८) नास्ति मोक्ष-परलोकवादी । .०४.६ अकिरिया ( वाय)–अक्रियावाद -सूय० शु १ ! अ १२ ! सू१ 1 पृ० १२७ मूल-चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाई पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं अत्राणमासु चउत्थमेव ।। क्रिया के अस्तित्व तथा / अथवा आवश्यकता को नहीं मानने वाला मत–अक्रियावाद । विभिन्न दृष्टिकोण से क्रिया के अस्तित्व को नहीं मानने के कारण अक्रियावाद के अनेक रूप होते हैं। जीव-अजीवादि पदार्थों के अस्तित्व को नहीं मानने वाला मत अक्रियावाद । "Aho Shrutgyanam" Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ०४१० अण्णमण्णकिरिया -- अन्योन्यक्रिया हं -आया० अ २ । अ १३-१४१ सू ७७ ० ८७,८८ पारस्परिक अर्थात् एक दूसरे के प्रति शरीर-अंगोपांगादि सम्बन्धी क्रिया चेष्टा- कायव्यापार अन्योन्यक्रिया । ( अन्योन्यं परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योन्योन्यक्रिया - शीलांगाचार्य टीका ) । आयारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के पष्ठसप्तकक अर्थात् तेरहवें अध्ययन के प्रारम्भ में परक्रियाओं का एक वर्णन है । अन्त में "एवं यत्रा अण्णमण्णकिरिया वि” ऐसा पाठ दिया है, अतः जिस प्रकार परक्रियाओं का वर्णन किया गया है उसी प्रकार अन्योन्य क्रियाओं का भी वर्णन जानना चाहिए । साधु को जिस प्रकार परक्रियाओं की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए तथा दूसरों से नहीं करवानी चाहिए उसी प्रकार उन क्रियाओं की परस्पर में प्रतिदान की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए और न प्रतिदान रूप में करवानी चाहिए । -०४ ११ अणभिक्कंत किरिया -अनभिक्रांतक्रिया M. तथा चौदहवें अध्ययन में भी 'अण्णमण्णकिरिया' ( अन्योन्यक्रिया ) का संक्षेप में वर्णन करके "सेसं तं चेव" ( शेष उसी प्रकार ) पाठ दिया है । -- देखो भिक्षु और क्रिया ---आया० श्रु २२ अ २। उ २ सू ३७| पृ० ५४ यदि कोई भवन या वासस्थान - वसति ब्राह्मण श्रमण भिक्षु भिखारी आदि के रहने के उद्देश्य से बनाया गया हो और वह भवन या वासस्थान ब्राह्मण भिखारी आदि के द्वारा भोगा हुआ नहीं हो — ऐसे स्थान में यदि साधु आकर रहे तो उसे अनभिक्रांत किया होती है । -- देखो भिक्षु और क्रिया "Aho Shrutgyanam" ०४१२ अंतकिरिया -- अन्तक्रिया -- ठाण० स्था ४ उ १। सू २३५ पृ० २२२ जीव की वह शेष क्रिया -- प्रचेष्टा अर्थात् वह सदानुष्ठानात्मिक चारित्रात्मिक क्रिया जिसके द्वारा जीव कर्मों का संपूर्ण अन्त — अवसान करके उसी भव में सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । यह अन्तक्रिया चार प्रकार से होती है, यथा - (१) दीर्घकालीन लेकिन अल्पवेदना वाली, (२) अल्पकालीन लेकिन महावेदना वाली, (३) दीर्घकालीन लेकिन घोर तप तथा महावेदना वाली और (४) अल्पकालीन तथा अल्पवेदना वाली । एक अपेक्षा से चतुर्दश गुणस्थानवर्ती जीव की सूक्ष्म बादर मन-वचन-काय योग के निरोध की क्रिया को अंतक्रिया कहा जा सकता है क्योंकि उक्त योगनिरोध से जीव अक्रिय २ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० क्रिया - कोश होकर उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो निर्वाण को प्राप्त होता है तथा सर्व दुःखों का अन्त करता है । अभयदेवसूरि ने अंतक्रिया को योगनिरोधाभिधानशुक्लध्यानेन 'सकलकर्मध्वंसरूपा ' कहा है । (भग० श ३३ उ ३ । प्र ११ । टीका ) मूल --- जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्यंति - जाव बुज्यंति, मुखति, परिणिति, सव्वदुक्खाणं ) अंत करेंति ? हंता ! ( गोयमा ! ) सिज्यंति जाव अंत करेंति । -भग० श ४१| उ १ प्र १८ ० ६३५ जो जीव अक्रिय हो जाता है वह उसी भव में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त करता है और सर्वदुःखों का अंत करता है । मलयगिरि टीका- 'अन्तक्रिया' मिति अन्तः - अवसानं तत्र प्रस्तावादिह कर्मणासातव्यं अन्यत्रागमेऽन्त क्रियाशब्दस्य रूढत्वात् तस्य क्रिया- करणमन्तक्रियाकर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थ:, "कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः” इति वचनात् । अंत अर्थात् अवसान, किसका अवसान ? कर्मों का । कर्मों के अवसान से मोक्ष होता है अतः कर्मों का क्षयान्त- अवसान अंतक्रिया है । ०४१३ अहिगरण किरियापवत्तगा पन्हा अ २ १० १२०७ मूल -- पुणो वि अहिगरण किरियापवत्तगा बहुविहं अणत्थं अवमदं परस्स य करेंति । अधिकरण क्रिया का प्रवर्त्तक अर्थात् मिथ्याभाषण रूप अधिकरणों या शस्त्रों से क्रिया में प्रवृत्ति करने वाला व्यक्ति अपना और दूसरों का विनाश करता है । हिंसा के अधिकरणों में मिथ्याभाषण भी एक अधिकरण है । यहाँ असत्य का विवेचन होने से अधिकरण में मिथ्याभाषण को ग्रहण किया गया हैं । ०४१४ अप्पकिरिया - अल्पक्रिया -भग० श० ५। उ ६ । प्र । पृ० ४८१ थोड़ी –प्रतनु–स्तोक – अल्पक्रिया । अभयदेवसूरि टीका - अल्पशब्दः स्तोकार्थः । ०४१५ अपसावज्जकिरिया अल्पसावद्यक्रिया –आया० श्रु २१ अ २ । ३२ । सू ४२ | पृ०५५ सावद्य क्रिया का अभाव । साध्वाचार के वसति-विधान के अनुसार भवन-गृह- आवास उपाश्रय आदि भोगने से अल्प सावद्यक्रिया होती है अर्थात् उसमें सावद्यक्रिया का अभाव होता है, ( नवरं अल्पशब्दः अभाववाचीति - टीका ) । " Aho Shrutgyanam" Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश किसी गृहस्थ ने अपने स्वार्थ से-अपने रहने के लिए किसी भवन-गृह-धर्मशालाउपाश्रय आदि का निर्माण किया हो उसमें रहने से, उसको भोगने से साधु को अल्प सावद्यक्रिया अर्थात सावद्य क्रिया नहीं होती है। इस तरह के वासस्थान के भोगने वाले साधु को केवल एक पक्ष शुद्ध साधु-मार्ग का सेवन करने वाला कहा गया है। टीकाकार के अनुसार ऐसे साधु में सम्पूर्ण भिक्षुभाव होता है। -देखो भिक्षु और क्रिया .०४.१६ अभिक्कंतकिरिया- अभिक्रांतक्रिया -आया० श्रु २। अ २! उ २। सू ३६।पृ० ५४ यदि कोई भवन या वासस्थान ब्राह्मण-श्रमण-भिक्षु भिखारी आदि के रहने के उद्देश्य से बनाया गया हो और वहाँ ब्राह्मण भिखारी आदि रहते हों, उस स्थान को यदि साधु भोगे तो साधु को अभिक्रान्त क्रिया होती है । .. टीकाकार के अनुसार ( वसतिर्भवत्यल्पदोषाचेवा ) अभिकान्त क्रिया में अल्प दोष होता है । -देखो भिक्षु और क्रिया .०४.१७ उचारपासवणकिरिया--उत्चचारप्रस्त्रवणक्रिया -आया० श्रु २ । अ १०। सू१ । पृ० ८१ मल-मूत्रादि की प्रक्रिया अर्थात् मलमूत्रादि का वेग उठना। 'आयारांग' के द्वितीय श्रुतस्कंध, दशवें अध्ययन में साध्वाचार की उच्चारप्रस्रवण क्रिया का विवेचन है। उच्चारप्रस्त्रवण अर्थात् मल-मूत्रादि की क्रिया भिक्षु-साधु को कैसे, किस प्रकार करनी चाहिए-इस संबंधी विवेचन किया गया है । जब साधु को उच्चारप्रस्रवण अर्थात् मल-मूत्रादि को आवाधा उत्पन्न होती है तो अपना पात्र न हो तो अन्य साधार्मिक साधु का पात्र लेकर आवाधा को एकान्त में-निर्जीव स्थान में परठना या मलमूत्रादि करना चाहिए। •०४.१८ उत्तरकिरियं - उत्तरक्रिया -भग० श ५। उ २। प्र११। पृ० ४७२ मूल - कयाणं भंते ! ईसिंपुरेवाया ? गोयमा ! जया णं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ, तया णं ईसिंपुरेवाया जाव-वायंति। टीका--"उत्तरकिरियं" ति वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकम, उत्तरं तु वैक्रियम्, अतः उत्तरा उत्तरशरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियम् तद्यथा भवतीत्येवं रीयते गच्छति । "Aho Shrutgyanam" Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश उत्तर शरीर से होने वाली गमनादि क्रिया-उत्तरक्रिया। यथा--वायुकाय का मूल शरीर औदारिक है और उत्तर शरीर वैक्रिय है। वायुकाय का उत्तर शरीर-वैक्रिय शरीर द्वारा की गई गमनादि क्रिया को उत्तर क्रिया कहते हैं । .०४.१६ उपायकिरिया-उपाय क्रिया -सूय० श्रु २१ अ । सू १ नि । गा टोका-उपायक्रिया तु घटादिकं द्रव्यं येनोपायेन क्रियते । तद्यथा मृत्खननमर्दनचक्रारोपणदंडचक्रसलिलकुंभकारव्यापार्यावद्भिरूपायः क्रियते सा सर्वोपायक्रिया। घटादिक द्रव्यों को किसी उपाय से बनाना-उपाय क्रिया। यथा-मिट्टी को खोदना, मर्दन करना, चक्र में आरोपण करना, दण्ड-चक्रसे स्वरूप बनाना, जल का उपयोग करना-ये सब कंभकार के व्यापार (नियति से नहीं) उपाय से होते हैं अतः वे सब उपाय. क्रिया हैं। .०४.२० उवट्ठाणकिरिया - उपस्थानक्रिया -आया. श्रु २। अ२। उ २। सू ३५। पृ० ५४ किसी एक स्थान में कल्पकाल व्यतीत करने के वाद उसी स्थान में दो मास या दो चातुर्मास का व्यवधान किये बिना वापस आकर रहने से साधु को उपस्थानक्रिया होती है । -देखो भिक्षु और क्रिया ०४.२१ कयकिरिए–कृतक्रिया -आया० श्रु ११ अ५। उ ४। सू ८७। पृ० १८ मूल · से णो काहिए, जो पासणिए, णो संपसारए, णो समाए, णो कयकिरिए XXXI टीका--णो कयकिरिए- कृतातुष्टितातदुपकारिणी मंडनादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवंभूतो न भूयान्न स्त्रीणां वैयावृत्त्यं कुर्यात्काययोगनिरोध इति भावः।। किसी को सेवा-वैयावृत्त्य आदि के द्वारा तुष्ट करना--विशेष करके काययोग से । "आयारांग' में नारी सम्बन्धी प्रसंग रहने से वैयावृत्त्य आदि से उनको संतुष्ट करना ऐसा अर्थ किया गया है। शीलांगाचार्य ने "णो कयकिरिए" का भाव "काययोगनिरोध" कहा है। .०४.२२ कयकिरिए -- कृतक्रिया --सूय० श्रु १। अ २। उ २। गा २८ पृ० १०७ मूल--णचा धम्म अणुत्तरं, कयकिरिए ण यावि मामए । अपनी सक्रिया में दत्तचित्त होना-कृतक्रिया । 'सूयगडांग' में "कयकिरिए" की शीलांगाचार्य ने निम्न प्रकार से टीका की है। "कृता स्वभ्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियः ।" जो संयमानुष्ठानरूप क्रिया में प्रवृत्त हो वह कृत क्रिय । "Aho Shrutgyanam" Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १३ ०४ २३ कयपडिकिरिया कृतप्रतिक्रिया - ओ० सू २० | लोयोक्यारविषये । पृ० ११ मूल लोगोवयारविषय सत्तविहे पन्नते तंजहा - अभ्मासवत्तियं, परच्छंदाणुकज्जहेउ, कयपडिकिरिया, अत्तगवेसणया, देसकालण्णुया सव्वसु वत्तियं, अपडिलोमया । कृत प्रतिक्रिया लोकोपचार विनय का एक भेद है । उपकारी के प्रति कृतज्ञता से उसकी सेवा वैयावृत्त्य करना कृतप्रतिक्रिया है । ०४२४ कालरक्क तकिरिया कालातिक्रांतक्रिया - आया० श्रु । अराउ रा सू ३४/ पृ० ५४ किसी एक स्थान में कल्पकाल ( एक स्थान में ऋतु अनुसार उत्कृष्ट जितने समय रहने का विधान है - वह कल्पकाल ) के उपरान्त बिना कारण रहने से साधु को कालातिक्रान्तक्रिया होती है । -- देखो भिक्षु और क्रिया नोंध –'आयारांग' के द्वितीय श्रुतस्कंध, द्वितीय अध्ययन, द्वितीय उद्देशक में साध्वाचार के शय्या वसति वासस्थान का विवेचन है तथा वसति-विधान के अतिक्रमण आदि से होने वाली नव क्रियाओं का वर्णन है । यथा - कालइक्क तकिरिया, उबट्ठाणकिरिया, अभिक्कंतकिरिया, अणभिक्कंतकिरिया, वज्जकिरिया, महावज्जकिरिया, सावज्जकिरिया, महासावज्जकिरिया तथा अप्पसावज्जकिरिया । यहाँ पर शीलांगाचार्य ने क्रिया शब्द का भाव “ दोष" शब्द से व्यक्त किया है यथा "कालातिक्क तकिरिया वि भवइ" का अर्थ 'कालातिक्रमदोषः संभवति' किया है । ०४२५ कर णिज्जकिरिया - करणीयक्रिया --- सू० श्रु २ अ २। सू १। निगा टीका - करणीयक्रिया तु यद्येन प्रकारेण करणीयं तत्तेनैव क्रियते नान्यथा । तथाहि । घटोमृत्पिंडादिकयैव क्रियते न पापाणसिकतादिकयेति । जितने प्रकार से वस्तु करणीय है अर्थात् की जा सकती है उतनी ही प्रकार की करणीय क्रिया है, अन्यथा नहीं है । यथा घट मिट्टी के पिंड से किया या बनाया जा सकता है, पत्थर आदि से नहीं । ०४२६ किरिया कुसल - क्रियाकुशल - भग० श् २। उ ५ प्र ३४। पृ० ४२८ मूल - xxx तत्थ णं तंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति, xxx अभिगय जीवा ऽजीवा, उवलद्वपुण्णपावा, बंध - मोक्खकुसला ! ××× । आसव-संवर-निज्जर-किरियाऽहिकरण क्रियाकुशल- तुंगिका नगरी के श्रावकों के कई एक विशेषणों में से यह एक विशे "Aho Shrutgyanam" Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ क्रिया-कोश षण है अर्थात् क्रिया क्या है, कौन हेय है, कौन उपादेय है, कौन करणीय है, कौन अकरणीय है इत्यादि विषयों के वे निपुण जानकार थे। अतः उनको क्रियाकुशल कहा गया है । क्रियाकुशल उस व्यक्ति को कहते हैं जो क्रिया के सम्बन्ध में प्रवीण ज्ञाता हो। (देखो राय। सू १५१। पृ० ७६) .०४.२७ किरियाठाण-क्रियास्थान ---सूय ० श्रु २१ अ । सू ११ पृ० १४५ जिन स्थानों में जीव के क्रिया होती है अर्थात् कर्मबंध होता है वे क्रियास्थान है । क्रियास्थान १३ हैं । सामान्यतः इनके दो विभाग हैं-उपशान्त-धर्म और अनुपाशान्तअधर्म । अधर्म-अनुपशान्त विभाग में अर्थदंडादि १२ क्रियास्थान आते हैं। धर्म-उपशांत विभाग में केवल एक ऐापथिक कियास्थान आता है । बारह क्रियास्थान में गमन करता हुआ जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं होता है तथा ऐपिथिक क्रियास्थान में गमन करता हुआ जीव मोक्ष को प्राप्त करता है । देखो क्रियास्थान .०४.२८ किरियाणं ( अणच्चासायणाविणए ) -उव० सू २०, पृ० ११ ‘क्रियावान'-क्रिया-तपस्या-विशिष्ट तपस्या करने वाले संयमी की अशातना नहीं करना-अनत्याशातनाविनय के पैंतालीस भेदों में से एक भेद है। .०४.२६ किरियानय--- क्रियानय अभिधा० भाग ३ | पृ० ५५४ क्रियानय कहता है कि मोक्ष की साधना में क्रिया ही प्रधान है। क्रियानय दर्शन में क्रिया को प्रधान माना जाता है तथा ज्ञान को गौण माना जाता है । ०४.३० किरियाभावरुई.-- क्रियाभावरुचि -उत्त० अ २८। गा २५। पृ. १०२६ दर्शन-ज्ञान चारित्र-तप-विनय-सत्य-समिति और गुप्ति आदि सदनुष्ठानिक क्रियाओं में द्रव्यरुचि के विपरीत भावरुचि होती है वह क्रियाभावरुचि है ।। द्रव्यरुचि में केवल द्रव्यरूप अर्थात् वाह्य रूप से इन क्रियाओं का अनुष्ठान होता है । भावरुचि में मन-वचन-काया-तीनों से इन क्रियाओं का अनुष्ठान होता है तथा इन क्रियाओं में श्रद्धा भी होती है। .०४.३१ किरियारुई-क्रियारुचि . मूल-दसणनाणचरित्ते, तवविणएसञ्चसमिइगुत्तीसु । जो किरियाभावरुई, सो खलु किरियाई नाम || - उत्त• अ २८। गा २५/ पृ० १०२६ "Aho Shrutgyanam" Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश १५ क्रियारुचि सम्यक्त्व के दश भेदों में से एक भेद है । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति तथा गुप्ति आदि सदनुष्ठानिक क्रियाओं में भावरुचि अर्थात् वास्तविक रुचि क्रियारूचि सम्यक्त्व है । मल-दसविहे सरागसम्मइंसणे पन्नते, तंजहा निसरगुवएसरुई आणाई, सुत्तबीयरूईमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेयधम्मई ।। -~-ठाण० स्था १०! सू ७५१ । पृ० ३१० मूल-सर गर्दसणारिया दसविहा पन्नत्ता, तंजहा-- निसग्गुवएसरुई आणारुई सुत्तबीयरूईमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेवधम्मरुई ।। -पण्ण ० प ११ सू ११० । पृ. २८६ टीका-क्रिया सम्यकसंयमानुष्ठानम, तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारूचिः दर्शनार्थ भेदे। क्रियारूचि सरागदर्शनार्य के दश भेदों में से एक भेद है । सम्यग् संयमानुष्ठान में जिसकी रुचि हो वह क्रियारुचि । जिस सरागदर्शनार्य की क्रिया--सम्यग्संयमानुष्ठानों में रुचि हो वह क्रियारुचि सरागदर्शनार्य है। .०४.३२ किरियावरणेजीवे--क्रियावरणजीव ठाण ० स्था ७। सू ५४२। पृ० २७६ मूल- सत्तविहे विभंगणाणे पन्नत्ते, तंजहा—एगदिसिलोगाभिगमे, पंचदिसिलोगाभिगमे, किरियावरणे जीवे, मुदग्गे जीवे, अमुदग्गे जीवे, रूबी जीवे, सम्वमिणं जीवा। यह विभंगज्ञान का एक भेद है। किसी तथारूप श्रमण अथवा माण के विभंग-ज्ञान उत्पन्न होता है तथा उस विभंगज्ञान से वह श्रमण-माहण प्राणातिपातादि क्रियाओं को करते हुए जीवों को देखता है लेकिन तज्जन्य कर्मावरण को नहीं देखता है और अपने को अतिशय ज्ञान-दर्शन वाला समझता हुआ कहता है कि जीव क्रियावरण होते हैं, कर्मावरण नहीं । तथा कई विभंगज्ञानी श्रमण-माण ऐसा कहते हैं कि जीव क्रियावरण नहीं होते हैं, कर्मावरण होते हैं। इस तरह का विभंगशान 'क्रियावरणजीव' विभंगज्ञान है । .०४ ३३ किरियावाई-क्रियावादी ठाण स्था ४। उ ४। सू ३४५ । पृ० २४८ जीव अजीव आदि नव पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास रखने वाला-क्रियावादी । यह क्रियावादी ही वास्तविक क्रियावादी है । "Aho Shrutgyanam" Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ क्रिया कोश अन्य अपेक्षाओं से क्रियावादियों को १८० व्याख्याएँ की गई हैं। क्रिया शब्द से सम्बन्धित कुछ प्रमुख व्याख्याएँ यहाँ दी जाती हैं १-क्रियाओं से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है उसमें ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है-ऐसे क्रियाप्रधान मत को मानने वाले क्रियावादी। २-कोई भी क्रिया कर्ता के बिना संभव नहीं है अतः क्रिया के कर्ता के रूप में आत्मा के अस्तित्व को माननेवाला क्रियावादी। •०४.३४ किरियावाय-क्रियावाद -सूय शु १। अ १२१ गा २०,२१॥ पृ० १२८ मूल--अत्ताण जो जाणइ जो य लोग। गई च जो जाणइ णागई च ॥ जो सासयं जाण असासयं च । जाइं च मरणं च जणोववायं ।। अहो विसत्ताण विउट्टणं च। जो आसवं जाणइ संवरं च ॥ दुक्खं च जो जाणइ निजरं च । सो भासिउ-मरिहइ किरियवायं । जो आत्मा को जानता है, लोक-अलोक को जानता है, गति, आगति तथा अनागति को जानता है, शाश्वत-अशाश्वत भाव को जानता है, जन्म-मरण और उपपात को जानता है, आश्रव-संवर को जानता है तथा निर्जरा-बन्ध को जानता है वह क्रियावाद को जानता है । जीव-अजीवादि नव पदार्थों के अस्तित्व को माननेवाला मत या दर्शन क्रियावाद । .० ४.३५ किरियावाई दरिसणं---क्रियावादी दर्शन --सूय० श्र ११ अ१| उ२। गा २४। पृ० १०३ मूल---- अहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं । ___कम्मचिन्तापणहाणं संसारस्स पवणं ॥ टीका - क्रियेव चैत्यकर्मादिका प्रधानं मोक्षाङ्गमित्येवं वदि शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनमागमः क्रियावादिदर्शनम् । यहाँ क्रियावादी मिथ्या मतों का विवेचन किया गया है। मोक्ष की प्राप्ति में क्रिया ही प्रधान है—ऐसा मत मानने वाले क्रियावादी तथा उनका दर्शन क्रियावादी दर्शन है । उपर्युक्त गाथा के पश्चात की गाथाओं में इन क्रियावादियों की कुछ विचारधाराओं का वर्णन मिलता है । "Aho Shrutgyanam" Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ०४.३६ किरियाविसाल-क्रियाविशाल ----सम० सम १४ । सू १४ । पृ० ३२७ क्रियाविशाल-चतुर्दश पूओं में से एक पूर्व है जिसमें क्रिया के विषय में विशाल अर्थात विस्तृत वर्णन है । क्रियाविशाल पूर्व में तीस अध्याय हैं तथा पद का परिमाण नव क्रोड़ पदों का है। .०४.३७ दव्वकिरिया - द्रव्यक्रिया - सूय० श्रु २ । अ २ । सू १। नि । गा १५६ व्वे किरिए अएयण, पओगुवायकरणिज्जसमुदाणे । इरियावहसंमत्ते, सम्मत्त चेव मिच्छत्त। -अविधा भाग ३ पृ० ५३२ टोका-तत्र द्रव्यविषये या क्रिया एजनता। एज़ कंपने। जीवस्याजीवस्य वा कंपनरूपा चलनस्वभावा सा द्रव्यक्रिया। सापि प्रयोगाद्विस्रसया वा भवेत् । तत्राप्युपयोगपूर्विका वाऽनुपयोगपूर्विका वाऽक्षिनिमेषमात्रादिका वा सा सर्वा द्रव्यक्रियेति । जीव तथा अजीव की स्पंदन रूप-गति रूप किया द्रव्यक्रिया है ! .०४.३८ पच्चक्खाणकिरिया-प्रत्याख्यानक्रिया -सूय० श्र २ । अ४ । सू १ । पृ० १६६ टीका-प्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाद्यत्किंचनकारितया . तत्प्रत्ययिका तन्निमित्ताभावादुत्पद्यते प्रत्याख्यानक्रिया । सावद्यानुष्ठानक्रिया तत्प्रत्ययिकश्च कर्मबंधस्तन्निमित्तश्च संसार इत्यतः प्रत्याख्यानक्रिया मुमुक्षुणा विधेयेति । प्रत्याख्यान के अभाव में अनिश्चितता से जो कुछ किया जाता है उस निमित्त से होनेवाले भावों से प्रत्याख्यान क्रिया उत्पन्न होती है । सावद्यानुष्ठान के निमित्त से जो कर्मों का बंध होता है उससे संसार की वृद्धि होती है अतः मुमुक्षुओं ने प्रत्याख्यान क्रिया का वर्णन किया है। हमारी समझ में, सावद्यानुष्ठानिक क्रियाओं का जो प्रत्याख्यान किया जाय उससे होनेवाली क्रिया का निरोध अर्थात् कर्मों का संवरण---प्रत्याख्यान क्रिया है ! ०४.३६. परकिरियं-परक्रिया -आया० श्रु २ । अ १३ । सू.१। पृ० ८५ स्वकीय शरीरादि सम्बन्धी अपने से भिन्न अन्य व्यक्ति द्वारा की गई किया-चेष्टाकाय-व्यापार पर क्रिया (पर-आत्मनो व्यतिरिक्तान्यस्तस्य क्रिया चेष्टा कायव्यापाररूपांता (क्रियां )-परक्रियां-शीलांगाचार्य टीका।) साध्वाचार में पर क्रियाओं का निषेध है । परक्रिया अर्थात् साधु व्यतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति स्वमन से साधु के शरीरादि संबन्धी कोई क्रिया करे, यथा-व्रण, गुमड़े, फोड़े "Aho Shrutgyanam" Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ क्रिया - कोश आदि का शस्त्र से छेदन भेदन करे तो उन संश्लेषिका-कर्मबन्धन उत्पन्न करने वाली भिन्नभिन्न परक्रियाओं की साधु मन से अभिलाषा न करे तथा वचन काया से न करावे । ०४४० भाव किरिया - भावक्रिया - सू० २ । अ २ । स् १ | टीका भावक्रिया त्वियं तद्यथा प्रयोगक्रिया उपायक्रिया करणीयक्रिया समुदानक्रिया ईर्यापथक्रिया सम्यक्त्वक्रिया मिध्यात्वक्रिया चेति । भावक्रिया के अनेक भेद हैं, यथा- प्रयोगक्रिया, उपायक्रिया, करणीयक्रिया, समुदानक्रिया, ऐर्यापथिक क्रिया, सभ्यक्त्वक्रिया इत्यादि । जिस क्रिया से कर्मबंध होता हो वह भावक्रिया है । ०४४१ महाकिरिया - महाक्रिया -भग० श ५। उ ६ । जिस क्रिया से जीव के महाकर्म का बंधन होता है वह महाक्रिया है । 'भगवई' में उपर्युक्त स्थल में अग्निकाय के सम्बन्ध में महाक्रिया तथा अल्पक्रिया दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है । सय-प्रज्वलित अग्नि को महाक्रिया वाला कहा गया है। क्योंकि वह अनेक जीवों का दाह करती है । क्रमशः बुझती हुई, भस्मरूप होती हुई अग्नि को अल्प क्रियावाला स्तोक क्रियावाला कहा गया है क्योंकि वह अल्प - थोड़े जीवों को ही परिताप देती है । '०४*४२ महावज्जकिरिया - महावर्ज्यक्रिया प्र । पृ० ४८१ -आया श्रु २ अ २ । उ २ । सू ३६ / ० ५५ यदि साध्वाचार से अनभिज्ञ कोई गृहस्थ भिन्न-भिन्न श्रमण-ब्राह्मण- भिक्षुभिखारी आदि के रहने के उद्देश्य से भवन - वासस्थान आदि का अलग-अलग निर्माण करावे तथा इस तथ्य को जानते हुए उस उद्दिष्ट भवन - वासस्थान आदि में कोई साधु-श्रमण वास करे तो उस साधु-- श्रमण के महावर्ज्य क्रिया होती है । --देखो भिक्षु और क्रिया -०४४३ महासावज्जकिरिया - महासत्वद्यक्रिया - आया० श्रु २ । अ २ । उ २ | सू. ४१ । पृ० ५५ किसी श्रमण- साधु के रहने के उद्देश्य से यदि कोई भवन- गृह- धर्मशाला उपाश्रय आदि बनाया गया हो; जिसके बनाने में अनेक जीवों का महासभारम्भ -महासमरम्भमहारम्भ हुआ हो उसमें रहने से, उसको भोगने से साधु श्रमण को महासावय क्रिया होती है ।. - देखो भिक्षु और क्रिया -०४ ४४ वज्जकिरिया - वर्ज्यक्रिया - आया० श्रु २ । अ २ । उ २ । सू ३८ः । पृ० ५५ यदि कोई गृहस्थ यह जानता हुआ कि साधु-श्रमण उनके उद्देश्य से निर्मित भवनवासस्थान आदि में निवास नहीं करते हैं इसलिये अपने स्वार्थ से बनाये गये भवन आदि " Aho Shrutgyanam" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १६ को साधु श्रमण के रहने के निमित्त छोड़ दे --खाली कर दे तथा अपने लिए अन्यत्र अन्य भवनादि का निर्माण करे तो इस तथ्य को जानते हुए उस छोड़े हुए या खाली किये हुए भवन आदि में साध- श्रमण के रहने से भोगने से उनको वर्ज्यक्रिया होती है । - देखी भिक्षु और क्रिया ०४४५ सकिरिए - सक्रिय सूय० श्रु २ । अ ४ ] सू ४ / पृ० १६८ मूल -- XXX एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिश्यपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणवय काययक्के सुविणमवि न पास पावे य से कम्मे कज्जइ । सावद्यक्रिया - सावद्यानुष्ठान करता हुआ जीव- सक्रिय । टीका - क्रियादिदोषदुष्ट इति । ०४४६ सकिरियाणं -- सक्रियास्थानं -- ठाण० स्था ५ । उ १ । सू. ३६८ । पृ० २५.७ पंचहि ठाणेहिं समणे निम्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णाइक्कम, तंजा - सकिरियद्वाणं पडिसेवित्ता भवइ । xxx पाँच स्थान अर्थात् कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ, अपने सांभोगिक स्वधर्मी को विसभोगिक बनाते हुए अर्थात् अपने गण से बाहर करते हुए, जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं । यथा- - ( एक ) सक्रियस्थान अर्थात् अशुभ कर्म के बंध से युक्त स्थान को विशेष रूप से सेवन करने वाले साधु को 1 ०४४७ सकिरिया सक्रिय -पण्ण० प २२ । सू १५७३ | पृ० ४७६ जो जीव क्रिया सहित हैं, क्रिया करते हैं वे सक्रिय हैं । शैलेशत्व को अप्राप्त संसारसमापनक जीव सक्रिय होते है । अतः तेरहवें गुणस्थान तक के जीवों को सक्रिय कहा जाता है । ०४४८ समुच्छिन्नकिरिया अनियट्टी - ( अप्पडिवाई ) 'उत्तरायण' में समुच्छिन्नकिरियं अनियट्ठी तथा 'ठाणांग' में समुच्छिन्न किरिए अपडिवाई रूप मिलता है । यह शुक्लध्यान का चौथा भेद है । निर्वाणगामी जीव श्वासोच्छ्वासादि रूप सूक्ष्म क्रियाओं का निरोध करता हुआ सम्पूर्ण काययोग का निरोध करके शैलेशत्व को प्राप्त होता है । तब उस समय में उसके शुक्लध्यान का चौथा भेद समुच्छिन्न किरिया अनियट्टी ( अप्पडिवाई ) शुक्लध्यान होता है और इस ध्यान के द्वारा वह जीव श्वासोच्छ्वास का निरोध करता हुआ पाँच ह्रस्वस्वराक्षरों का उच्चारण किया जा "Aho Shrutgyanam" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० क्रिया-कोश सके उतने समय में वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मों का युगपत् क्षय करता है । इस ध्यान में समस्त यौगिक क्रियाओं का समुच्छेद करके जीव अक्रिय हो जाता है। -उत्तर अ २६ । सू ७३ । पृ० १०३६ ठाण० स्था ४ । उ १ । सू २४७ । पृ० २२४ ०४ ४६ सावज्जकिरिया - सावद्यक्रिया यदि कोई भवन - गृह धर्मशाला उपाश्रय आदि विभिन्न भिक्षु भिखारी इत्यादि के रहने के उद्देश्य से बनाया गया हो तो भोगने से साधु को सावद्य क्रिया होती है । — आया० श्रु २ । अ२ । उ२ । सू ४० | पृ० ५५ प्रकार के साधु श्रमणउसमें रहने से, उसको - देखो भिक्षु और क्रिया १० सुहुम किरिया अप्पडिवाई ( अनियट्टि ) 'उत्तरायण' में 'सुहुमकिरियं अप्पडिवाई' तथा ठाणांग में सुहुम किरिए अनियट्टि रूप मिलता है । यह शुक्लध्यान का तीसरा भेद है। निर्वाण गमन के समय केवली के मन तथा वचन- योगों का सम्पूर्ण तथा कायन्योग का अर्ध निरोध होता है । इस समय उनके सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ( अनियडि ) शुक्लध्यान होता है । ऐसी अवस्था में जीव इस ध्यान के द्वारा खासोच्छवासादि के सिवाय अन्य सूक्ष्म यौगिक क्रियाओं का निरोध कर देता है । - उत्त० अ २६ / सू० ७३ | पृ० १०३६ --- ठाण० स्था ४ । उ १ । सू २४७ | पृ० २२४ ०४५१ सुहुमा इरियावहिया किरिया - सूक्ष्म ऐर्यापथिक क्रिया -भग० श ३ । उ ३ । पृ० ४५८ जिसका कर्मबन्ध काल सूक्ष्म हो, दो समय मात्र हो तथा चलने-फिरने-बैठने यावत् आँख की पुतली के फड़कने मात्र से होती हो अर्थात् जो केवल योगप्रत्यय से होती हो वह मात्र सातावेदनीय कर्म का बंध करने वाली क्रिया-सूक्ष्म ऐर्यापथिक क्रिया होती है । -- देखो क्रमांक ३७ ऐर्यापथिकी क्रिया ०४५२ सूरकिरिया विसिद्धो -- ठाण० स्था ४ | उ १ | सू २६४ । टीका में उद्धृत सूर्य या सूर्य के प्रकाश के भ्रमण की वह क्रिया - विशिष्ट जिससे अद्धाकाल अर्थात् समयावलिका आदि का परिमाण सहज भाव से जाना जाता है । ०५ परिभाषा के उपयोगी पाठ क्रिया की परिभाषा के उपयोगी मूल पाठ उपलब्ध नहीं हुए हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ क्रिया कोश .०६ प्राचीन आचार्यों द्वारा की गई क्रिया की परिभाषा :.०६.१ नियुक्तिकार : (क) कर्मबन्धनिबन्धभूतार्थक्रिया :--नहीं मिला । (ख) सदानुष्ठानिकक्रिया : नहीं मिला। (ग) परिस्पन्दात्मिका क्रिया :-'दव्व किरिए अएयण' एजन-परिस्पंदन क्रिया को द्रव्य क्रिया कहते है । .०६.२ शीलांगाचार्य :-- (क) कर्मबन्धनिबन्धभूतार्थ क्रिया :-- (१) नियंत इति क्रियास्ताश्च कर्मबंधकारणत्वेनावश्यकांतर्वतिनि प्रतिक्रमणाध्ययने (पडिकमामि तेरसहि किरियाठाणेहिं ति ) अस्मिन्सूत्रेऽभिहिताः । -सूय° श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका (ख) सदानुष्ठानिक क्रिया :(१) क्रियां वा सदनुष्ठानात्मिकामक्रियां वा असदनुष्ठानरूपाम्। __ -सूय० श्र २ । अ १ । सू १७ 1 टीका (ग) परिस्पन्दात्मिका क्रिया :(१) क्रिया परिस्पंदलक्षणा तद्विपर्यस्तात्वक्रिया। -सूय० श्रु २ । अ ५ । गा १६ । टीका (२) क्रिया परिस्पंदात्मिका चेष्टारूपा क्रियते क्रिया वा निर्व्यापारतया स्थितिरूपा क्रियते। सूय० श्रु २ । अ १ । सू २१ । टीका .०६३ अभयदेवसूरि : (क) कर्मबन्धनिबन्धभूतार्थ क्रिया :(१) करणं क्रिया-कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा इति अर्थः । -भग० श ३ । उ ३ ! प्र१1 टीका (२) शरीरेन्द्रिययोगेषु क्रिया। भग० श १७ । उ १ । प्र ११ । टीका (३) क्रियानिष्पाद्य कर्मोक्तम्। -भग० श १ । उ ३ । प्र ११४ । टीका (४) क्रिया करणं तज्जन्यत्वात् कर्मापि क्रिया अथवा क्रियत इति क्रिया-- कमव। भग० श ३ । उ ३ . प्र ७ । टीका (५) अविवक्षितविशेषतया करणमात्रविवक्षणात् करणं क्रिया-कायिक्यादिकेति -ठाण ० स्था १ । सू ४ । टीका (६) करणं क्रिया क्रियत इति वा क्रिया -ठाण ० स्था २ । सू ६० । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश •०६४ मलयगिरि :--- (क) कर्मबन्धनिबन्धभूतार्थक्रिया :-... (१) करणं क्रिया, कर्मबन्धनिबन्धचेष्टा इत्यर्थः । पण्ण० प २२ । स १५६७ ! टीका ०७ क्रिया के भेद .०७ १ एक भेद (क) एगा किरिया। -सम० सम १ ! सू १ । पृ० ३१६ ---ठाण स्था १ ! स ४ । पृ० १८३ क्रिया एक है अतः कायिकी आदि (काया-वचन-मन सम्बन्धी) किया अथवा केवल आस्तिक्य (आस्तिकता) क्रिया कहलाती है; यह एक है। विशेष विवक्षा न करने से करण मात्र को विवक्षा होने से क्रिया एक है। जो किया जाय वह क्रिया । (ख) एगा अकिरिआ। -समः सम १ । स०१। पृ० ३१६ अक्रिया अर्थात् योग का निरोध- अतः अक्रिया भी एक है। ०७.२ दो भेद ०७.२.१ जीवक्रिया... अजीव क्रिया दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा--- जीवकिरिया चेव अजीवकिरिया चेव । ठाणा० स्था २ । उ १ । स ६० । पृ० १८५ किया के दो भेद - जीवक्रिया तथा अजीवक्रिया। ०७.२२ कायिकी क्रिया -- आधिकरणिकी क्रिया । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा--काश्या चेव अहिंगरणिया चेव । ठाण स्था २ । उ १ । स ६० । पृ० १८६ क्रिया के दो भेद--कायिकी क्रिया तथा आधिकरणिकी क्रिया । .०७.२.३ प्राषिकी क्रिया .. पारितापनिकी क्रिया दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- पाओसिया चेव पारियावणिया चेव । --ठाण स्था २ । उ १ ! सू ६० । पृ० १८६ क्रिया के दो भेद प्राद्वेषिकी क्रिया तथा पारिता पनिकी किया । ०७.२४ प्राणातिपातिकी क्रिया - अप्रत्याख्यान क्रिया दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा--- पाणावायकिरिया चेव अपञ्चक्वाणकिरिया चेव । -ठाण. स्था २ । उ १ । सू ६० । पृ० १८६ "Aho Shrutgyanam" Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश किया के दो भेद- - प्राणातिपातिकी क्रिया तथा अप्रत्याख्यान किया । ०७२५ आरंभिकी क्रिया-पारिग्रहिकी क्रिया दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा -- आरंभिया चेव परिग्गहिया चेव । ठाण० स्था २ । उ १ । सु ६० । पृ० १८६ क्रिया के दो भेद-आरम्भिकी क्रिया तथा पारिग्रहिकी क्रिया । - ०७२६ मायाप्रत्ययिकी क्रिया -मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया २३ दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा -- मायावत्तिया चेव मिच्छादंसणवत्तिया चेव ! -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० पृ० १८६ क्रिया के दो भेद – मायाप्रत्ययिकी क्रिया तथा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया । *०७२७ दृष्टिका क्रिया- स्पृष्टिका अथवा पृष्टिका क्रिया दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजा - दिट्टिया चेव मुट्ठिया चेव । उण० स्था २ । १ । सू ६० / ५० १८६ क्रिया के दो भेद- दृष्टिका क्रिया तथा स्पृष्टिका अथवा पृष्टिका क्रिया । ०७२८ प्रातीत्यिकी क्रिया -- सामन्तोपनिपातकी क्रिया । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- पाडुबिया चेव सामन्तोवणिवाइया चेव । -ठाण स्था २ । उ १ । सू ६० । ० १८.६ दो क्रिया के दो भेद - प्रातीत्यिकी क्रिया तथा सामन्तोपनिपातकी क्रिया । ०७ २६ स्वाहस्तिकी क्रिया - नैसृष्टिकी क्रिया । दो किरियाओ पन्नताओ, तंजहा- साहित्थिया चैव सत्थिया चैव । ठाण० स्था २ / उ १ । ६० । १० १८६ क्रिया के दो भेद - स्वाहस्तिको क्रिया तथा नैसृष्टिकी किया । '०७२१० आज्ञापनिका क्रिया- वैदारणिकी क्रिया दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा आणवणिया चेव देयारणिया चैव । ठाण स्था २ / ३१ / सू ६० १५० १८६ क्रिया के दो भेद - आज्ञापनिका क्रिया तथा वैदारणिकी क्रिया । -०७-२११ अनाभोगिकी क्रिया - अनवकांक्षिकी क्रिया दो करियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - अणाभोगवत्तिया चेव अणवखवत्तिया - ठाण० स्था २ । १ । सू. ६० / ० १८६ चेव । "Aho Shrutgyanam" Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश क्रिया के दो भेद-अनाभोगिकी क्रिया और अनवकांक्षिकी क्रिया । .०७.२.१२ रागक्रिया-द्वषिकी क्रिया दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पेज्जवत्तिया चेव दोसवत्तिया चेव । -ठाण० स्था२। उ १ 1 सू ६० । पृ० १८६ क्रिया के दो भेद-राग क्रिया और द्वेषिकी किया। .०७.२.१३ द्रव्यक्रिया-भावक्रिया । दव्वे किरिए अएयण, पओगुवायकरणिज्जसमुदाणे। इरियावहसंमत्तो, सम्मत्ते चेव मिच्छन्ते ।। -सूय श्रु २ । अ २ । सू १ । नि गा १५६ । अभिधा क्रिया के दो भेद-द्रव्य क्रिया तथा भावक्रिया । एजनादि यावत् चक्षुपद्मनिपात क्रियाओं को द्रव्यक्रिया कहते हैं। प्रयोग, उपाय, करणीय, समुदान, ऐपिथिको, सम्यक्त्व, सममिथ्यात्व तथा मिथ्यात्व आदि क्रियाओं को भावक्रिया कहते हैं । टीका के आधार पर । .०७.३ तीन भेद अकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, अन्नाणकिरिया। -ठाण० स्था ३ । उ ३ ! सू १८७ ! पृ० २१५ अक्रिया के तीन भेद-प्रयोग किया, समुदानक्रिया और अज्ञान क्रिया । '०७४ क्रिया के पाँच भेद .०७.४.१ आरंभिया पंचक (क) पंचकिरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया । ---ठाण० स्था ५। उ २ । सू ४१६ । पृ० २६२ (ख) कइ णं भंते। किरियाओ पन्नत्ताओ? गोयमा! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया। –पण्ण ० प २२ ! सू १६२१ । पृ० ४८२ (ग) आरम्भपरिग्रहमायामिथ्यादश प्रत्याख्यानक्रिया इति । -तत्त्वभा० अ०६। सू६ पृ० ३०१ (घ) आरम्भपरिग्रहमायामिथ्यादर्शनाप्रत्याख्यानक्रियाः पंच। -राज. अ६ ! सू ५। पृ० ५१० । ला० १० "Aho Shrutgyanam" Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २५ क्रिया के पाँच भेद- आरंभिकी क्रिया, पारिग्रहिकी क्रिया, मायाप्रत्ययिकी क्रिया, अप्रत्याख्यान क्रिया तथा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया । '०७४'२ काइया पंचक (क) पंच किरिया पन्नता, तंजहा - काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाश्वायकिरिया । -सम० सम ५ | सू ५ । पृ० ३१६ (ख) पंच किरिया ओ पन्नत्ताओ तंजहा - काश्या, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाश्वायकिरिया । -ठाण० स्था ५२ । सू ४१६ / पृ० २६२ (ग) क णं भंते! किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नताओ, तंजहा—काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाश्वायकिरिया । - भग० श८ | उ ४ प्र १ | पृ० ५४८ - पण्ण० प २२ । सू १५६७ / पृ० ४७८ - पण्ण० प २२ । सू १६०५ । पृ० ४८१ (घ) कइ णं भंते! किरियाओ पन्नत्ताओ ? मंडियपुत्ता ! पंच किरियाओ पन्नन्ताओ, तंजहा काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणावायकिरिया | - भग० श ३ । उ३ । प्र १ | पृ० ४५६ (ङ) करणं भंते ! आयोजियाओ किरियाओ पन्नताओ ? गोयमा ! पंच आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - काइया जाव पाणाश्वायकिरिया । - पण्ण० प २२ । सू । १६१७ । पृ० ४८२ ----- (च) कायाधिकरणप्रदोषपरितापनप्राणातिपाताः । -तत्त्वाभा अ ६ । सू ६ । पृ० ३०१ (छ) प्रदोषकायाधिकरणपरितापप्राणातिपातक्रियाः पंच ! - राज० अ ६ । सू ५ । पृ० ५०६ / ला २२ क्रिया के पाँच भेद - कायिकी क्रिया, आधिकरणिकी क्रिया, प्रादोषिकी क्रिया, पारितापनिकी क्रिया तथा प्राणातिपातिकी क्रिया । ०७ ४३ दिट्टिया पंचक (क) पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, संजहा दिट्ठिया, पुट्ठिया, पाडुचिया, सामंतोवणिवाइया, साहत्थिया । -ठाण० स्था ५। २ । सू ४१६ / पृ० २६२ ४ "Aho Shrutgyanam" -- Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ क्रिया-कोश (ख) दर्शनस्पर्शनप्रत्ययसमन्तानुपाताऽनाभोगाः । --तत्त्वाभा० अ६ ! सू ६ । पृ० ३०१ (ग) दर्शनस्पर्शनप्रत्ययसमन्तानुपाताऽनाभोगक्रियाः पञ्च । ---राज अ६ । सू५ । पृ० ५०६ । ला ३४ किया के पाँच भेद-दृष्टिका क्रिया, स्पृष्टिका अथवा पृष्टिका क्रिया, प्राती त्यिकी क्रिया, सामन्तोपनिपात निकी क्रिया तथा स्वास्तिकी क्रिया। .०७.४४ सित्थया पंचक (क) पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा--णेसत्थिया, आणवणिया, वेयारणिया, अणाभोगवत्तिया, अणवखवत्तिया । -ठाण स्था ५। उ २ । सू ४१६ ! पृ० २६२ (ख) स्वहस्तनिसर्गविदारणानयनानवकांक्षाः । --तत्त्वाभा० अ६ । सू६ । पृ० ३०१ (ग) स्वहस्तनिसर्गविदारणाज्ञाव्यापादनानाकांक्षाः क्रियाः पञ्च । --राज० अ६ ! सू ५ ! पृ० ५१० । ला ५ क्रिया के पाँच भेद--नैसृष्टिकी क्रिया, आज्ञापनिका क्रिया, वैदार णिकी अथवा वैचारणिकी क्रिया, अनाभोगकी क्रिया तथा अनवकांक्षिकी क्रिया। .०७.४.५ पेज्जवत्तिया पंचक पंच फिरियाओ पन्नताओ,तंजहा ---पेज्जवत्तिया, दोसवत्तिया, पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, ईरियावहिया । –ठाण ० स्था ५ । उ २ । सू ४१६. । पृ० २६२ क्रिया के पाँच भेद-रागप्रत्यया क्रिया, द्वपिको क्रिया, प्रायोगिकी क्रिया, सामु. दानिकी क्रिया तथा ऐपिथिकी क्रिया । •०७४.६ सम्यक्त्वपंचक (क) सम्यक्त्वमिथ्यात्वप्रयोगसमादानेर्यापथाः । -तत्त्वाभा० अ ६ ! सू६ । पृ० ३०१ (ख) सम्यक्त्वमिथ्यात्वप्रयोगसमादानेर्यापथक्रियाः पञ्च ! --राज० अ६ । सू ५ । पृ ५०६ । ला १६ क्रिया के पाँच भेद- सम्यक्त्व क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया, प्रायोगिकी क्रिया, सामुदानिकी क्रिया तथा ऐपिथिकी क्रिया ।। नोट :-पेजबत्तिया पंचक (०७.४.५) तथा सम्यक्त्व पंचक (०७.४.६) इन दोनों में प्रथम दो क्रियाओं के नामों में अन्तर है-अवशेष तीन क्रियाओं के नाम एक सरीखे हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ०७.५ तेरह भेद ( क्रियास्थान ) (क) तेसिं वि य णं इमाइ तेरस किरियाठाणाई भवंतीतिमक्खायं ; तंजहाअट्ठादंडे, अणहादंडे, हिंसादंडे, अकम्हादंडे, दिद्विविपरियासियादंडे, मोसवत्तिए, अदिन्नादाणवत्तिए, अज्झत्थवत्तिए, माणवत्तिए, मित्तदोसवत्तिए, मायावत्तिए, लोभवत्तिए, इरियावहिए। -सूय० श्रु २ । अ २ । सू १ ! पृ० १४५ (ख तेरस किरियाठाणा पन्नत्ता, तंजहा अट्ठादंडे, अणहादंडे, हिंसादंडे, अकम्हादंडे. दिट्ठिविररिआसियादंडे, मुसावायवत्तिए, अदिन्नादाणवत्तिए, अझथिए, मानवत्तिय, मित्तदोसवत्तिए, मायावत्तिर, लोभवत्तिर, इरियावहिए नामं तेरसमे । -सम० सम १३ । सू १३ । घृ० ३२६ (ग) से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा, अरिहंता भगवन्ता, सत्वे ते एयाई चेव तेरस किरियाणाई भास्सुि वा भासेंति वा भासिस्संति वा पन्नविंसु वा पन्नवेति वा पन्नविस्संति वा एवं चेव तेरसमं किरियाणं सेविंसु वा सेवंति वा सेविस्संति वा । -सूय० २ । अ२ । सू १४ 1 पृ० १४६ क्रियास्थान तेरह हैं----अर्थदण्ड, अनर्थदण्ड, हिंसादण्ड, अकस्मात् दण्ड, दृष्टिदोषदण्ड, मृपा प्रत्ययिक, अदत्तादानप्रत्ययिक, अध्यात्म ( मन ) प्रत्ययिक, मानप्रत्ययिक, मित्रद्वेषप्रत्ययिक, मायाप्रत्ययिक, लोभप्रत्ययिक तथा ऐपिथिक । अतीत के, वर्तमान के तथा भविष्यत् के सभी अरिहंत भगवंतों ने इन तेरह कियास्थानों का कथन तथा प्रतिपादन किया है, करते हैं और करेंगे। तेरहवें क्रियास्थान का सेवन अतीत के अरिहन्तों ने किया है, वर्तमान के अरिहन्त करते हैं, तथा भविध्यत् के अरिहंत करेंगे। उपर्यक क्रियाओं के उपभेदों का वर्णन हमने इन क्रियाओं के व्यक्तिगत विवेचन में लिया है (देग्ने ११६) ०७.६ अठारह भेद (पापस्थान) अस्थि णं भंते। जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ! हंता गोयमा ! अस्थि: xxxi अस्थि गं भंते ! जीवाणं मुसावायेणं किरिया कन्जइ ! हंता अत्थि। xxx । अस्थि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कजइ ! हंता ! अस्थि । xxx ! अत्थि भंते । जीवाणं मेहुगणं किरिया कज्ज३ । हता! अस्थि । xxx । अस्थि णं भंते । जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कज्ज ! हता! अस्थि । xxx । एवं कोहेणं,माणेणं, मायाए, लोभेणं, पेज्जेणं, दोसे, कलहेणं, अभक्खाणेणं, पेसुन्नेणं, परपरिवारणं, अरइरईए, मायामोसेणं, मिथ्यादसणसल्लेणं ।। -- पपण० प२२ । सू १५७४, १५७६-८० । पृ० ४७६ "Aho Shrutgyanam" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति-रति, मायामृषावाद और मिथ्यादर्शनशल्य इन अठारह पापस्थानों से जीव क्रिया करते हैं । ०७.७ क्रिया के पचीस भेद अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः । -तत्त्व० अ६ । सू६ । पृ ३०१ भा०–पञ्चविंशतिः क्रिया । तत्रेमे क्रियाप्रत्यया यथासंख्यं प्रत्येतव्याः । तद्यथा-सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-प्रयोग-समादानेर्यापथाः, कायाऽधिकरण-प्रदोष-परितापन-प्राणातिपाताः, दर्शन-स्पर्शन-प्रत्यय-समन्तानुपाताऽनाभोगाः, स्वहस्त-निसर्गविदारणानयनाऽनवकांक्षा, आरम्भ-परिग्रह-माया-मिथ्यादर्शनऽप्रत्याख्यानक्रिया इति। किया पचीस होती हैं। यथा-१-सम्यक्त्व, २-मिथ्यात्व, ३-प्रयोग, ४समादान, ५.-ईर्यायथ, ६-काय, ७-अधिकरण, ८-प्रदोष, ६-परितापन, १०प्राणातिपात, ११–दर्शन, १२–स्पर्शन, १३---प्रत्यय, १४-समन्तानुपात, १५-अनाभोग, १६ –स्वहस्त, १७—निसर्ग, १८-विदारण, १६----आनयन, २०--अनवकांक्षा, २१–आरम्भ, २२–परिग्रह, २३–माया, २४--मिथ्यादर्शन तथा २५-अप्रत्याख्यान किया। क्रिया के जितने साधन हैं उतने ही क्रिया के भेद हो सकते हैं ! '०८ क्रिया पर विवेचनगाथा--संस्कृत पद्य •०८.१ ज्ञानी क्रियापरः (उद्यतः) शान्तो,भावितात्मा जितेन्द्रियः । स्वयंती! भवांभोधेः, परं तारयितुं क्षमः ॥१॥ क्रियाविरहितं हंत! ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गतिं विना पथज्ञोऽपि. नाप्नोति पुरमीप्सितम् ।।२।। स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि, तैलपूादिकं यथा ॥३॥ बाह्यभावं पुरस्कृत्य, ये क्रियां व्यवहारतः ।। वदने कवलक्षेपं, विना ते तृप्तिकांक्षिणः ||४|| गुणवबहुमानादेनित्यस्मृत्या च सक्रिया । जातं न पातयेद्भावमजातं जनयेदपि ।।५।। "Aho Shrutgyanam"| Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश क्षायोपशमिके भावे या क्रिया क्रियते तया। पतितस्यापि तद्भाव . प्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥६॥ गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ।।७।। वचोऽनुष्ठानतोऽसंगा क्रिया संगतिमंगति । सेयं ज्ञानं क्रियाभेद · भूमिरानन्द . पिच्छला |८ -ज्ञान० अष्टक , ज्ञानी, क्रिया-चारित्र में तत्पर-उद्यत ; उपशान्त, भावितात्मा तथा जितेन्द्रिय जीव संसाररूपी समुद्र से स्वयं तिरने में समर्थ है तथा दूसरों को भी तारने में समर्थ है । क्रियारहित अकेला ज्ञान बिल्कुल निरर्थक है, जैसे चलने की क्रिया के बिना मार्ग का जानकार व्यक्ति भी अभीष्ट नगरी में पहुँच नहीं सकता । जिस प्रकार दीपक निज में स्वप्रकाशक है फिर भी तेल भरने आदि क्रिया की अपेक्षा रखता है ; उसी प्रकार पूर्णज्ञानी भी निज के स्वभाव के अनुरूप क्रिया की अपेक्षा रखता है अर्थात् वे भी समुचित धर्मोपदेश, विहार, योगनिरोध आदि क्रियाएँ अवसर के अनुसार करते हैं। व्यवहार क्रियाओं अर्थात सामायिक, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में निरत आत्मा का बाह्यभाव के कारण अर्थात् देवादि सुख लाभ हेतु के कारण निरादर नहीं करना चाहिए क्योंकि मुख में ग्रास दिये बिना क्षुधा की उपशांति की अभिलाषा नहीं मिट सकती है । गुली का बहुमान-सत्कारादि करना ; पश्चात्ताप, आलोचना आदि करना तथा गृहीत वत, नियम आदि का नित्य स्मरण करना-ये सब निरवद्य क्रियाएँ करणीय हैं—इससे पूर्व निष्पन्न--पूर्व उत्पन्न शुद्धभाव का पतन नहीं होता है और अनुत्पन्न उत्तम भाव समुत्पन्न होते हैं । क्षायोपशामिक भाव में सम्यग् ज्ञान, चारित्र, वीर्य के उल्लास रूप परिणाम से देवगुरु-वंदन तथा आवश्यकादि जो क्रिया की जाती है उनके द्वारा पतित अर्थात् शुभपरिणाम शिखर से नीचे गिरने वाले व्यक्ति के भी पुनः उन निरवय भावों की उत्पत्ति और प्रवृद्धि होती है। __मात्र केवलज्ञानी हो एक संयमस्थान में---संयम अध्यवसाय में अवसिष्ठ रहते हैं । जिनों के ही सदा, निरन्तर, अव्यवच्छिन्न परिणाम धारा होती है। अन्य सभी मुमुक्षुओं के गुणों की वृद्धि तथा हानि होती रहती है। अतः गुणों की वृद्धि के लिए तथा पतन से बचने के लिए कियाओं का करते रहना आवश्यक है। "Aho Shrutgyanam" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश भगवान की वाणी के अनुसार क्रिया करता हुआ जीव निरपरावलम्बी सहज संवेदन रूप क्रिया की योग्यता प्राप्त करता है । यह सहज संवेदन रूप प्रवृत्ति ज्ञान और किया की अभेद भूमि है और परमानंद से स्निग्ध है । ०६ क्रिया का नय और निक्षेपों की अपेक्षा विवेचन .०६.१ नय की अपेक्षा : __तत्र क्रिया संकल्पः नैगमेन संग्रहेण सर्व संसारजीवाः सक्रिया उक्ताः ! व्यवहारेण शरीरपर्याप्त्यनन्तरं क्रिया। ऋजुसूत्रनयेन कार्यसाधनाथ योगप्रवृत्तिमुख्यवीयपरिणामरूपा क्रिया । शब्दनयेन वीर्यपरिस्पन्दात्मिका । समभिरूढेन गुणसाधनानुरूप. सकलकर्तव्यव्यापारम्पा! एवंभूतनयेन तत्त्वैकत्ववीयतीक्ष्णतासाहाय्यगुणपरिणमनरूपा। -- अभिधा० भाग ३ । पृ० ५५१ _ नैगम तथा संग्रहनय की अपेक्षा सर्व संसारी जीव सक्रिय हैं । व्यवहारनय की अपेक्षा शरीर पर्याप्ति के पश्चात क्रिया होती है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा कार्य के साधन के लिये योगप्रवृत्ति को मुख्यता से वीर्य का जो परिणमन होता है वह क्रिया है। शब्दनय से वीर्य आत्मा का परिस्पंदन क्रिया है। समभिरूढ़नय से गुण की साधना के अनुरूप सर्व कर्तव्य का करना--किया है। एवंभूतनय से वीर्य आत्मा के तीन परिस्पंदन की सहायता से जो गुण परिणमन हो वह क्रिया है । .०६.२ निक्षेप की अपेक्षा [ नियुक्तकार ने निक्षेपों की अपेक्षा क्रिया का विवेचन करते हुए नाम तथा स्थापना का विवेचन नहीं किया है तथा द्रव्य-भाव की अपेक्षा किया है।] दव्वे किरिए एजणया य, पओगुवायकरणिजसमुदाणे । इरियावहसंमत्ते, सम्मामिच्छा य चेव मिच्छत्ते ।। -सूय° श्रु २ । अ २ । सू १ ! नि गा १५६ उपयुक्त मूल पाठ में 'अभिधा' में दिये गये पाठ से भिन्नता है । द्रव्य की अपेक्षा जीव तथा अजीव की परिस्पंदन रूप-चलन रूप क्रिया--- द्रव्य क्रिया है। द्रव्य क्रिया दो प्रकार की होती है--प्रायोगिक, वैससिका। वह चाहे उपयोगपूर्वक हो या अनुपयोगपूर्वक हो अथवा आँख की पलक झपकने मात्र जितनी हो वे सब द्रव्यक्रिया हैं। जिस क्रिया से कर्मबन्ध होता हो-वह भाव क्रिया है। भावक्रिया के अनेक भेद हैं । यथा--प्रयोगक्रिया, उपाय क्रिया, करणीयक्रिया, समुदानक्रिया, ऐर्यापथिकक्रिया, सम्यक्त्वक्रिया, मिथ्यात्वक्रिया इत्यादि । "Aho Shrutgyanam" Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १६ विभिन्न क्रियाओं का विवेचन ३१ कहते हैं । अतः कर्मबन्ध के क्रियाएँ भी होनी चाहिये । मिलता है । 'समवायांग' में 'ठाणांग' में एक भेद, दो [ सामान्यतः कर्मवन्ध के निबन्धभूत कार्यों को क्रिया निवन्वभूत जितने भी कार्य हो सकते हैं उतने ही प्रकार की आगमों में क्रियाओं के समग्र भेदों का एकत्र वर्णन नहीं 'किरिया' तथा 'अकिरिया' के एक-एक भेद का वर्णन है । भेद, तीन भेद तथा पाँच भेद करके वर्णन मिलता है | 'ठाणांग' तथा 'तत्त्वार्थसूत्र' में पाँच भेद करके पाँच पंचक मिलते हैं । 'वण्णवणा' तथा 'भगवई' में दो पंचक्रों ( काइया तथा आरंभिया ) का विवेचन मिलता है । 'समवायांग' में सिर्फ एक काइया पंचक का नामकरण मिलता है । 'सूपगडांग' तथा 'समवायांग' में 'किरियाठाण' के नाम से तेरह कियास्थानों का वर्णन मिलता है । 'भगवई', 'पण्णवणा' तथा अन्यत्र अठारह 'पापस्थान' का कियारूप में वर्णन मिलता है । अन्यत्र भी कुछ क्रियाओं का अलग से विवेचन मिलता है । इन क्रियाओं का हमने अलग-अलग विवेचन किया है तथा जहाँ द्वयक और पंचक के रूप में विवेचन है, वहाँ द्वयक और पंचक के रूप में भी विवेचन किया है । 'पापठाण' क्रियाओं का विवेचन सम्मिलित रूप में तथा अलग भी किया है। क्रियाओं का अनुक्रम हमने अकारादि क्रम से न करके इस प्रकार किया है -- प्रथम, जीव-अजीव दो क्रियाओं को लिया है । तत्पश्चात् क्रमशः पाँच पंचक की पचीस क्रियाओं को लिया है। पचीस क्रियाओं के शेष में 'इरियावहिया' किया के रहने से उसके युगल ' संपराइया' क्रिया को लिया है । तत्पश्चात् 'सम्मत्त-मिच्छत्त' युगल को लिया है । मिच्छत्त क्रिया के भेद होने के कारण तत्पश्चात् 'अकिरिया' तथा 'अण्णाण लिया है । क्रिया को उसके बाद तेरह क्रियास्थानों में जो क्रियाएँ पचीस क्रियाओं में नहीं आयी हैं उनको लिया है । 'हिंसा दंडवत्तिए' को हमने 'पाणाइवाय' क्रिया में नहीं लिया है ! क्रियास्थान की क्रियाओं के बाद 'पापठाण' की अवशिष्ट क्रियाओं को लिया है। सर्व शेष में 'एयण' ( कंपन- परिस्पंदन ) क्रिया को लिया है । क्रियाओं की परिभाषाएँ हमें आगमों में बहुत ही कम मिलीं । अतः हमने स्थानस्थान पर टीकाकारों की परिभाषाएँ संकलित की हैं । क्रिया का अर्थ जहाँ कर्म को काटने के साधनरूप में लिया गया है वहाँ हमने अलग विवेचन किया है । क्रियावाद, अक्रियावाद, अक्रिया तथा अन्तक्रिया का अन्यत्र ( देखो ·६२.४, १२५, ७२ तथा ७३ ) विवेचन किया T] " Aho Shrutgyanam" Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ . क्रिया-कोश विभिन्न क्रियाओं की सूची .११ जीव (जीव) .१२ अजीव ( अजीव ) '१३ आरंभिया (आरंभिकी) १४ परिग्गहिया (पारिग्रहिकी ) “१५ मायावत्तिया ( मायाप्रत्ययिकी) '१६ अपञ्चक्खाण ( अप्रत्याख्यान) .१७ मिच्छादसणवत्तिया (मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी ) १८ काइया ( कायिकी ) १६ अहिगरणिया ( आधिकरणिकी) “२० पाओसिया (प्राद्वेषिकी) २१ पारियावणिया ( पारितापनिकी) '२२ पाणाइवाय (प्राणातिपातिकी) .२३ दिटिया ( दृष्टिका ) '२४ पुठिया (पृष्टिका | स्पृष्टिका) २५ पाडुचिया (प्रातीत्यिकी) २६ सामन्तोवणिवाइया ( सामन्तोपनिपातिकी ) २७ साहत्थिया ( स्वाहस्तिकी) '२८ णेसत्थिया (नैसृष्टिकी) २६ आणवणिया ( आज्ञापनिका / आनायनिका ) '३० वेयारणिया (वैदारणिकी / वैचारणिकी ) .३१ अणाभोगवत्तिया ( अनाभोगप्रत्ययिकी ) ३२ अणवकखवत्तिया ( अनवकांक्षाप्रत्ययिकी) .३३ पेज्जवत्तिया (रागप्रत्ययिकी) ३४ दोसवत्तिया ( द्वषप्रत्ययिकी) ३५ पओग (प्रायोगिकी) '३६ समुदाण ( सामुदानिकी) '३७ इरियावहिया ( ऐर्यापथिकी) ३८ संपराइया ( साम्परायिकी ) ३६ सम्मत्त (सम्यक्त्व) "Aho Shrutgyanam" Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश -४० मिच्छत्त ( मिथ्यात्व ) -४१ अकिरिया ( अक्रिया - दुष्प्रयुक्त ) ४२ अण्णाण ( अज्ञान ) ४३ अट्ठादंडवत्तिए ( अर्थदंडप्रत्ययिकी ) '४४ अणादण्डवत्तिए ( अनर्थदण्डप्रत्ययिकी ) ४५ हिंसादण्डवत्तिए ( हिंसादंड प्रत्ययिकी ) ४६ अकमहादंडवत्तिए ( अकस्मात् दंडप्रत्ययिकी ) -४७ दिट्टिविपरियासिया दंडवत्तिए ( दृष्टि-विपर्यास-प्रत्ययिकी ) ४८ मोसावत्तिए ( मृषाप्रत्ययिकी ) *४६ अदिण्णादाणवत्तिए ( अदत्तादानप्रत्ययिकी ) ५० अकत्थवत्तिए ( अध्यात्म ( मन ) प्रत्ययिकी ) -५१ माणवत्तिए ( मानप्रत्ययिकी ) ५२ मित्तदोसवत्तिए ( मित्रद्वे पप्रत्ययिकी ) ५३ लोभवत्तिए ( लोभप्रत्ययिकी ) • ५४ मेहुण ( मैथुन ) .५५ कोह ( क्रोध ) ५६ कलह ( कलह ) ५७ अभक्खान ( अभ्याख्यान ) .५८ पैसुन्न (पैशुन्य ) -५६ परपरिवाय ( परपरिवाद ) *६० अरइरई ( अरति - रति ) -६१ मायामोस ( मायामृषा ) -६२ मिच्छादंसणसल्ल ( मिथ्यादर्शनशल्य ) • ६३ एयण ( एजना ) • ६४ क्रियाद्वयक - ६४.१ सम्मत्त - मिच्छत्त ( सम्यक्त्व- मिथ्यात्व ) क्रियाद्वयक - ६४२ इरियावहिया - संपराश्या ( ऐर्यापथिकी-सांपरायिकी ) क्रियाद्वयक -६५ आरम्भिया (आरम्भिकी ) क्रियापंचक '६६ काइया ( कायिकी ) क्रियापंचक '६७ त्रय - क्रियापंचक -६७१ दिट्टिया ( दृष्टिका ) क्रियापञ्चक "Aho Shrutgyanam" ३३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ क्रिया कोश ६७.२ आणवणिया ( आज्ञापनिका | आनयनिका ) क्रियापंचक ६७.३ पेज्जवत्तिया (रागप्रत्ययिकी ) क्रियापंचक '६८ पापठाण (पापस्थान ) क्रिया ११ जीवक्रिया ११.१ परिभाषा अर्थ-- जीवस्य क्रिया व्यापारो जीवक्रिया । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका जीव का व्यापार जीवक्रिया है। '११२ भेद जीवकिरिया दुविहा पन्नता, तंजहा--सम्मत्तकिरिया चेव मिच्छत्तकिरिया चेव। ---ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । पृ० १८५ जीवक्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-सम्यक्त्वक्रिया तथा मिथ्यात्वकिया। ११.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ '१ सम्यक्त्व क्रिया-देखो क्रमांक ३६ '२ मिथ्यात्वक्रिया- देखो क्रमांक ४० नोट-सम्यक्त्व और मिथ्यात क्रियाओं के द्वयक रूप में विवेचन के लिये—देखो कमांक '६४.१ १२ अजीवक्रिया १२.१ परिभाषा | अर्थअजीवस्य पुद्गलसमुदायस्य यत्कर्मतया परिणमनं सा अजीवक्रियेति । -ठाण ० स्था २ ! उ १ । सू ६० । टीका अजीव पुद्गलसमुदाय का जो कर्मरूप में परिणमन होता है वह अजीव क्रिया है । यहाँ विवक्षा क्रिया के कर्ता की अपेक्षा न होकर क्रिया से होने वाले कर्मबन्ध की अपेक्षा है। १२.२ भेदअजीवकिरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--इरियावहिया चेव संपराश्या चेव । –ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । पृ० १८६ अजीवक्रिया के दो भेद होते हैं, यथा--ऐपिथिको तथा साम्परायिकी। "Aho Shrutgyanam" Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १२.३ भेदों की परिभाषा । अर्थ--- .१ ऐर्यापथिकी-देखो क्रमांक ३७ । २ साम्परायिकी-देखो क्रमांक ३८ नोट---ऐ-पथिकी और साम्परायिकी क्रियाओं के द्वयक रूप में विवेचन के लियेदेखो क्रमांक ६४.२ .१३ आरम्भिकी क्रिया १३.१ परिभाषा / अर्थ(क) आरम्भणमारम्भः तत्र भवा आरम्भिकी। -ठाण० स्था २ । उ १ । सू६० । टीका (ख) 'आरंभई' त्ति आरभते पृथिव्यादीनि उपद्रवयति । -भग० श ३ । उ ३ । प्र १२ । टीका (ग) आरम्भः-पृथिव्याध पमईः, उक्तं च संरंभो संकप्पो परितावकरो भवे समारम्भो । आरम्भो उद्दवओ सुद्धनयाणं तु सव्वेसि ।। आरम्भः प्रयोजनं-- कारणं यस्याः सा आरम्भिकी। पण्ण° प २२ । सू १६२२ । टीका (घ) भूम्यादिकायोपधातलक्षणा शुष्कतृणादिच्छेदे लेखनादिका वाऽप्यारम्भक्रिया स्वपरभेदतः । __ --सिद्ध० अ ६ 1 सू ६ । पृ० १३ (ङ) छेदनभेदनविशसनादिक्रियापरत्वमन्येन वाऽऽरम्भे क्रियमाणे प्रहर्षः प्रारम्भक्रिया। -सर्व० अ६ । सू ५ । पृ० ३२२ । ला १२ (च, छेदनभेदनविसनादिक्रियापरत्वम्, अन्येन चारम्भे क्रियमाणे प्रहर्ष आरम्भक्रिया। --राज० अ६ 1 सू ५ । पृ ५१० । ला० १०-११ (छ) छेदनादिक्रियासक्तचित्तत्वं स्वस्य यद्भवेत् । परेण तत्कृतौ हर्षः सेहारम्भक्रिया मता ॥ ---इलोवा० अ६ । सू ५ पृ० ४४५ । गा २३ आरम्भ अर्थात् पृथिवी आदि जीवों का उपमर्दन अथवा उनके प्रति उपद्रव करना। जिसमें आरम्भ-प्रयोजन या कारण हो वह क्रिया आरम्भिकी क्रिया कहलाती है। '१३.२ भेद आरंभिया किरिया दुविहा पन्नता, तंजहा—जीव आरंभिया चेव अजीव आरंभिया चेव । -ठाण. स्था २। उ १ । सू६० । पृ० १८५६ "Aho Shrutgyanam" Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश आरम्भिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा---जीव आरम्भिको तथा अजीव आरम्भिकी। १३.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ जीव आरम्भिकी यज्जीवानारभमाणस्य–उपमृद्गतः कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिकी। -ठाण ० स्था २ । उ १ । सू६० । टीका जो जीव आरम्भ में रत हो–उपमर्दन करता हो उससे उस जीव के यदि कर्मवंध हो तो वह जीव-आरम्भिको क्रिया होती है । '२ अजीव आरम्भिकी। यच्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भिकीति। -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका अजीव वस्तु द्वारा जीव जो आरम्भ करे वह अजीव आरम्भिकी क्रिया कहलाती है । नोट :--आरम्भिकी क्रिया का विवेचन आरम्भिकी क्रियापंचक (क्रमांक ६५) में भी देखो। १४ पारिग्रहिकी क्रिया १४.१ परिभाषा | अर्थ---- (क) परिग्गहिया-परिग्रहे भवा पारिग्रहिकी । -~ठाण० स्था २ ! उ १ । सू ६० । टीका (ख) परिग्गहिय'-परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्ध्यवस्तुस्वीकारः धर्मोपकरणमूर्छा च ; स प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी । -भग० श १ । उ २! प्र७६-८० । टीका (ग) (१) स्वस्वामिभावेन मूर्छा, सा च प्राणिनामतिलोभात्सकलवस्तु विषयाऽपि प्रादुर्भवति । (२) 'परिग्गहिय'---परिग्रहो-धर्मोपकरणवयंवस्तुस्वीकारः धर्मोपकरणमूर्छा च परिग्रह एव पारिग्रहिकी परिग्रहेण निवृत्ता वा पारिग्रहिकी। -- पुण्ण ० प २२ । सू १६२३ । टीका (घ) बहूपायाजेनरक्षणमू लक्षणा परिग्रह किया। -सिद्ध० अ६ । सू ६ । पृ० १३ (ङ) परिग्रहविनाशार्था पारिवाहिकी। . सर्व० अ६ । सू ५। ३२३ ! ला १ ---राजा अ६ । सू५ । पृ० ५१० । ला ११ "Aho Shrutgyanam" Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश (च) परिग्रहाविनाशार्था स्यात् पारिग्रहिकी क्रिया । - श्लोवा अ ६ / सू ५ / गा २४ / ० ४४% परिग्रह अर्थात् धर्मोपकरण को छोड़ कर अन्य वस्तुओं को अपनाना तथा धर्मोपकरण में भी आसक्ति जिसका प्रयोजन हो वह पारिग्रहिकी क्रिया कहलाती है | '१४२ भेद एवं परिग्गहियावि ( परिग्गहिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा - जीवपरिग्गहिया चैव अजीवपरिग्गहिया चेव ) । --ठाण पारिग्रहिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, पारिग्रहिकी । ३७ '१४३ भेदों की परिभाषा / अर्थ— १ जीव पारिग्रहिकी जीवपरिग्रहप्रभवत्वात् तस्या इति भावः । -ठाण स्था र उ १ ! सू ६० । टीका जीव परिग्रह के निमित्त से होनेवाली किया जीव पारिग्रहिकी कहलाती है । '२ अजीव पारिप्रहिकी स्था २ । ३१ । सू ६० पृ० १८६ यथा— जीवपारिग्रहिको तथा अजीव अजीव परिग्रहप्रभवत्वात् तस्या इति भावः । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका अजीव परिग्रह के निमित्त से होने वाली किया अजीवपारिग्रहिकी कहलाती है । नोट :-- पारिग्रहिकी क्रिया का विवेचन आरम्भिकी पंचक ( क्रमांक ६५ ) में भी :― देखो । १४४ पारिग्रहिकी क्रिया और जीवदण्डक (क) अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? हंता अस्थि xxx | एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियच्चा जहा पाणाश्वाए तहा xxx परिग्गहे । (देखो २२४) भग० श १ । उ ६ । प्र २०६ से २१५ | पृ० ४०३ (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ ? हंता ! अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं । -- पण ० प २२ । सू ३ | १० ४७६ जीव परिग्रह की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं । परिग्रह की क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, " Aho Shrutgyanam" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ क्रिया-कोश कदाचित चार दिशाओं को और कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । परिग्रह की क्रिया कृत है, अकृत नहीं है; परिग्रह की क्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नही की जाती है । नारकी जीव भी परिग्रह की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है एवं औधिक जोव की तरह अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दण्डकों में नारकी के समान कहना चाहिये । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिये । -१४ ५ पारिप्रहिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्धन : जीवे णं भंते । पाणाश्वाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?' ( पूरे पाठ के लिये देखो क्रमांक २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । --- पण्ण० प २२ । सू १५८४ | पृ० ४७६-४८० पारिग्रहिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्म प्रकृति का बन्ध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बन्ध करता है । ( देखो क्रमांक २२५ ) • १५ मायाप्रत्ययिकी क्रिया ( स्थान ) * १५१ परिभाषा / अर्थ- (क) माया -- शाठ्यं प्रत्ययो - निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वासा ( मायाप्रत्ययिकी ) -ठान स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) 'मायावत्तिय' ति मायाऽनार्जवम्, उपलक्षणत्वात् क्रोधादिरपि च ; सा प्रत्ययः कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया । (ग) माया - अनार्जवमुपलक्षणत्वात् कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया । - भग० श १ | उ २ । प्र ८० । टीका क्रोधादेरपि परिग्रहः मायाप्रत्ययः - -- पण० प २२ । सू १६२४ । टीका (घ) मायाक्रिया तु मोक्षसाधनेषु ज्ञानादिषु मायाप्रधानस्य प्रवृत्तिः । सिद्ध‍ अ ६ । सू ६ । घृ० १३ (ङ) ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया । - सर्व ० ० अ ६ । सू ५ / पृ० ३२३ / ला १-२ -राज० अ ६ । सू ५ | पृ० ५१० । ला १२ (च) दुर्वक्तृकवचो ज्ञानादौ सा मायादिक्रिया परा । - श्लोवा० अ ६ । सू५ । गा २४ । पृ० ४४५ "Aho Shrutgyanam" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ क्रिया-कोश (छ) मायापरवञ्चनबुद्धिस्तया दण्डो मायाप्रत्ययिकः । -सूय० श्रु २ । अ २ । सू १० । टीका माया अर्थात् अनार्जव-शठता--कपट के निमित्त जो क्रिया होती है वह मायाप्रत्यायिकी किया है। उपलक्षण से क्रोध, मान तथा लोभ के निमित्त से होनेवाली क्रिया भी इसमें सम्मिलित कर लेनी चाहिए । १५.२ भेद मायावत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा—आयभाववंकणया चेव परभाववंकणया चेव ।। -ठाण० स्था २ । उ १ । सू६० । पृ० १८६ मायाप्रत्ययिकी किया के दो भेद होते हैं, यथा- आत्मभाववंकनता तथा परभाववंकनता। १५.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ-- १ आत्मभाववंकनता 'आयभाववंकणया चेव' ति आत्मभावस्याप्रशस्तवंकनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववंकनता, वंकनानां च बहुत्वविवक्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः, सा च क्रियाव्यापारत्वात् । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका जहाँ आत्मभाव अप्रशस्त हो लेकिन ऊपर से प्रशस्त भाव दिखलाया जाय ( विषकुम्भम् पयोमुखम् ) वहाँ आत्मभाववंकनता क्रिया होती है ; अर्थात झूठा प्रशस्त भाव दिखलाना आत्मभाववंकनता क्रिया है । वंकनता को बहुप्रकार की विवक्षा के कारण भावप्रत्यय विरुद्ध नहीं पड़ता है, क्योंकि वह वंकनता व्यापार रूप होने के कारण क्रिया है । २ परभाववंकनता 'परभाववंकणया चेव' त्ति परभावस्य वंकनता-वंचनता या कूटलेखकरणादिभिः, सा परभावकनतेति, यतो वृद्धव्याख्येयं.--"तं तं भावमायर जेण परो वंच्चिजइ कूडलेहकरणाईहिं" ति । -ठाण० स्था २ 1 उ १ । सू ६० । टीका परभाववंकनता क्रिया अर्थात् झूठे दस्तावेज आदि द्वारा दूसरों को ठगने के अभिप्राय से की गई क्रिया। एक वृद्धाचार्य कहते है--जो कूट लेखादि ( झूठे दस्तावेजों ) द्वारा दूसरों को ठगता है वह उन-उन ( पूर्व लिखित ) भावों में आचरण करता है । नोट :-मायाप्रत्ययिकी क्रिया का विवेचन आरम्भिकी पंचक (क्रमांक ६५) में भी देखो। "Aho Shrutgyanam Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० क्रिया - कोश * १५४ मायाप्रत्ययिकी क्रिया तथा जीवदंडक : (क) अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गद्देणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जोवा णं परिग्गणं किरिया कज्जर ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं एवं XXX मायाए xxx । सव्वैसु जीवनेरख्यभेदेसु (णं) भाणियव्वा निरंतरं जाव वैमाणियाणं ति । पण० प २२ / सू १५७६.८० पृ ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति छल-कपट भाव लाना माया है। ये भावकषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । मायाक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति माया से क्रिया करते हैं । (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाश्चाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसण सल्ले । ( देखो २२४ ) भग० श १ । उ ६ । प्र २१५ / पृ० ४०३ जीव माया से क्रिया करते हैं । मायाक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । माया- क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक भी की जाती है। जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की नारकी जीव भी माया - किया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । / एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडको में नारकी के समान कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । -१५५ माया प्रत्ययिक क्रियारत व्यक्ति : जे इमे भवंति गूढायारा तमोकसिया उलुगपत्त- लहुया पव्वय गुरुया ते आरिया वि संता अणारियाओ भासाओ वि पउज्ज ति; अन्नहासन्तं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति; अन्नं पट्टा अन्नं वागरंति; अन्नं आइविवयवं अन्नं आइक्खति । से जहानाम-केई पुरिसे अन्तोसल्ले तं सल्लं णो सयं निहरs, नो अन्नेणं निहरावे, नो पडिविद्धंसेइ एवमेव निण्हवे, अविउट्टमाणे अंतो- अंतो रियइ | "Aho Shrutgyanam" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ४१ एवमेव माई मायं कट्टु नो आलोएर, नो पडिक्कमेत्र, नो निन्दइ, नो गहरइ, नोविनो विसोहेऊ, नो अकरणाए अब्भुट्टो, नो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जर; माई अस्सिं लोए पञ्चाया, माई परंसि लोर पुणो पुणो पञ्चाया निंदर गर पसंसउ निच्चरइ न नियट्टर, निसिरियं दंड छाएर, माई असमाहउ - सुहलेस्से यावि भवः । एवं खलु तस्स तपत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । एक्कारसमे किरियडाणे मायावत्तिए त्ति आहिए । —सूत्र० श्रु २ । अ २ / सू १२ | पृ० १४८ कई व्यक्ति गूढाचारी होते हैं जो पहले विश्वास जमा कर पीछे धोखा देते हैं । कई व्यक्ति तमकाषिका मायाचारी --- बगुला भगत होते हैं जो अपने आचरण को छिपाकर लोगों को धोखे में रखते हैं । वे उल्लू के पंख के समान तुच्छ होने पर भी अपने को पर्वत के समान महान् बताते हैं । आर्य होते हुए भी वे अनार्य भाषा का प्रयोग करते हैं । वे जैसे हैं उससे अपने को अन्यथा भिन्न मानते हैं, यथा--नीम के पत्ते को आम का पत्ता मानना ! उनसे पूछा कुछ और ही जाता है और वे जवाब कुछ और ही देते हैं ! कहना चाहिए वहाँ उससे विपरीत कहते हैं । जहाँ जो जिस प्रकार किसी व्यक्ति के शल्य-शूल को आन्तरिक चोट लग गई हो और वह उस शल्य को न स्वयं निकालता है, न दूसरों से निकलवाता है, न औषधिदि के उपचार से उसका विनाश कराता है और जानता हुआ भी उस शूल की व्यथा को छिपाता है; पूछने पर बतलाता भी नहीं है-भीतर ही भीतर शुलजनित पीड़ा-व्यथा से दुःखी होता है । वैसे हो मायावी व्यक्ति छल-कपट करके या अकृत्य कार्य करके उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गह नहीं करता है, उन दोषों को मिटाता नहीं है, उनका विशोधन नहीं करता है, भविष्यत् में ऐसा नहीं करने का निश्चय भी नहीं करता है, उन दोषों के यथायोग्य तपादि प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता है। ऐसे मायावी व्यक्ति का इस लोक में भी कोई व्यक्ति विश्वास नहीं करता है; परलोक में भी बार-बार नीच गति या योनि में उत्पन्न होता है। मायावी व्यक्ति पर की निन्दा करता है, गर्हा करता है, अपनी सच्चीझूठी प्रशंसा करता है । वह अकार्य -- बुरे काम करता है, उनको छोड़ता नहीं है बल्कि छिपाता है । यदि ऐसे मायावी व्यक्ति के शुभलेश्या हो भी तो वह असमाहित-अशुद्ध होती है । ऐसे मायावी व्यक्ति को इस प्रकार मायाप्रत्ययिक सावद्यक्रिया लगती है । यह ग्यारहवाँ मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान है । '१५·६ मायाप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : -- ( पूरे पाठ के जीवे णं भंते! पाणाश्वाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?... लिये देखो २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । पण्ण० प २२ । सू १५७६-८० | पृ० ४७६-८० ६ "Aho Shrutgyanam" Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश मायाप्रत्ययिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है, जैसे प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । ( देखी क्रमांक २२५) । ४२ १६ अप्रत्याख्यान क्रिया * १६१ परिभाषा / अर्थ (क) अप्रत्याख्यानम् - अविरतिस्तन्निमित्तः चाविरतानां भवतीति । कर्मबन्धोऽप्रत्याख्यानक्रिया सा - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० | टीका (ख) 'अपचक्खाण किरिय' त्ति प्रत्याख्यानक्रियाया अभाव:, अप्रत्याख्यानजन्यो वा कर्मबन्धः । - भग० श १ | उ ६ । ३०१ | टीका अप्रत्याख्यातं - मनागपि विरतिपरिणामा-- पण ० प २२ । सू १६२५ । टीका (घ) संयमविघातिनः कषायाद्यरीन् प्रत्याख्येयान् न प्रत्याचेष्ट इत्यप्रत्याख्यान- सिद्ध० अ ६ । सू ६ | पृ० १३ क्रिया । संयमघातिकर्मोदयवशादनिवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया | (ग) अपचक्खाण किरिया' इति भावस्तदेव क्रिया अप्रत्याख्यानक्रिया । - सर्व ० अ ६ । सू ५ / पृ० ३२३ । ला ३ -राज० अ ६ । सू५ । पृ० ५१० । ला १३-१४ (च) वृत्तमोहोदयात्पुंसामनिवृत्तिः कुकर्मणः । अप्रत्याख्या क्रियेत्येताः पंच पंच क्रियाः स्मृताः ॥ - श्लोवा० अ ६ / सू५ । गा २६ | पृ० ४४६ अप्रत्याख्यान अर्थात् प्रत्याख्यान का अभाव, विरति का अभाव । जहाँ किंचित् भी विरति परिणाम का अभाव हो वहाँ अप्रत्याख्यानक्रिया होती है । यह क्रिया अविरतियों के होती है । '१६२ भेद अपचक्खाणकिरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा जीवअपचक्खाणकिरिया चेव, अजीव अपश्चक्खाणकिरिया चेव । ठाण० स्था २ । उ १ | सू ६० । पृ० १८६ अप्रत्याख्यानक्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-जीव-अप्रत्याख्यानक्रिया तथा अजीव अप्रत्याख्यानक्रिया । " Aho Shrutgyanam" Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश '१६३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ जीव अपश्चक्खाण किरिया क्रिया | जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिव्यापारः सा जीवाप्रत्याख्यान- ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका जीव के सम्बन्ध में प्रत्याख्यान के अभाव से होने वाली क्रिया जीव-अप्रत्याख्यानकिया होती है । २ अजीव - अपचक्खाणकिरिया क्रियेति । यदजीवेपु - मद्यादिष्वप्रत्याख्यानात् कर्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यान- ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका अजीव अर्थात् मद्य आदि अजीव वस्तुओं के सम्बन्ध में प्रत्याख्यान के अभाव से होने वाली क्रिया अजीव अप्रत्याख्यानक्रिया कहलाती J * १६४ जीव तथा अप्रत्याख्यानक्रिया की समानता :-- (क) से णू भन्ते । हल्थिस्स य कुंथुस्स य सभा चेव अपचक्खाणकिरिया कज्जइ ? कज्जइ । हंता, गोयमा ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य जाव कज्जइ । सेकेण्णं भंते ! एवं वुश्च्चइ जाव कज्जइ ? गोयमा ! अविर पडुच, से तेणटुणं जाव कज्जइ । - भग० श ७ । उ८ प्र ६ । प्र० ५२२ (ख) से पूर्ण भंते! सेट्ठियरस य, तणुयस्स य, किवणस्स य, खत्तियस्स य समं चैव अपचक्खाणकिरिया कजइ ? हंता, गोयमा ! सेट्ठियरस य, जाव ( खत्तियरस य समं चेव ) अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ । सेकेण भंते ! अविर डुच, से तेणणं गोयमा ! एवं कुञ्चर सेट्ठियम्स य, तगुयस्स य, जाव--भग० श १ । उ६ । प्र३०१-२ | पृ० ४१३ ४३ अविरति की अपेक्षा - सेठ, गरीब, कृपण, क्षत्रिय (राजा), हाथी तथा कुंथु-कीट सब को समान अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है । * १६५ निक्षेपों की अपेक्षा से अप्रत्याख्यान क्रिया का विवेचन णामंठवणादविए अइच्छ पडिसेहए य भावे य । एसो पश्चक्खाणस्स छव्विहो होइ नियखेवो ॥ "Aho Shrutgyanam" --: Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश मूलगुणेसु य पगयं पञ्चक्खाणे इह अहिगारो । होज हु तपचश्या अपचक्खाण किरिया - सूय निगा १७६८० प्रत्याख्यानस्यायं पोढा 3 11 टीका-नामस्थापनाद्रव्यादित्साप्रतिषेधभावरूपः । निक्षेपः । तत्रापि नामस्थापने सुगमे । द्रव्यप्रत्याख्यानं द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्याद्द्द्रव्ये द्रव्यभूतस्य वा प्रत्याख्यानम् । तत्र सचित्ता चित्तभेदमिश्रस्य प्रत्याख्यानं द्रव्यनिमित्तं वा प्रत्याख्यानं यथा धम्मिल्लस्य । एवमपराण्यपि कारकाणि स्वधिया योजनीयानि । तत्र दातुमिच्छा दित्सा न दित्सा अदित्सा तया प्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यानम् । सत्यपि देये सति च संप्रदानकारके केवलं दातुर्दातुमिच्छा नास्तीत्यतोऽदित्साप्रत्याख्यानं तथा प्रतिषेधप्रत्याख्यानमिदम्। तद्यथा--विवक्षितद्रव्याभावाद्विशिष्टसंप्रदानकारकाभावाद्वा सत्यामपि दित्सायां यः प्रतिषेधस्तत्प्रत्याख्यानम् । भावप्रत्याख्यानं तु द्विधांतःकरणशुद्धस्य साधोः श्रावकस्य वा मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं चेति । च शब्दाद्विविधमपि नोआगमतोभावप्रत्याख्यानं द्रष्टव्यं नान्यदिति । साम्प्रतं क्रियापदं निक्षेप्तव्यम् । तत्र क्रियास्थानाध्ययने निक्षिप्तमिति । न पुननिक्षिप्यते । इह पुनर्भावप्रत्याख्यानेनाधिकार इति दर्शयितुमाह । ४४ मूलगुणाः प्राणातिपातविरमणास्तेषु प्रकृतमधिकारः प्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं कर्तव्यमिति यावत् । वह प्रत्याख्यानक्रियाध्ययने नार्थाधिकारो यदि मूलगुणप्रत्याख्यानं न क्रियते तत्रोपायं दर्शयितुमाह । प्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाद्यत्किंचनकारितया तत्प्रत्ययिका तन्निमित्ताभावादुत्पद्यते प्रत्याख्यानक्रिया सावधानुष्ठानक्रिया तत्प्रत्ययिकश्च कर्मबन्धस्तन्निमित्तश्च संसार इत्यतः प्रत्याख्यानक्रिया मुमुक्षणा विधेयेति । नोट --अर्थ के लिए देखो पुस्तक के शेष में । *१६'६ अप्रत्याख्यान क्रिया का दार्शनिक विवेचन : [ जैन दर्शन का सिद्धान्त है कि यदि कोई व्यक्ति जीवहिंसा - प्राणातिपात नहीं कर रहा हो लेकिन उसके हिंसा करने में कोई बाधा नहीं हो, हिंसा करने के प्रत्याख्यान नहीं हो, विरति नहीं हो तो उस व्यक्ति को हिंसा की क्रिया लगती है । प्रतिफलित, कोई क्षुद्र जीव जिसके मन-वचन की शक्ति नहीं है, जिसकी चेतना स्वप्न जितनी भी नहीं है उस जीव के हिंसा नहीं करते हुए भी हिंसा सम्बन्धी अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है । यह क्रिया भेदभाव रहित क्षुद्रकायी कुन्थु-कीट या स्थूलकायी हाथी, सेठ या गरीब, राजा या रंक सबको समान भाव से लगती है । "Aho Shrutgyanam" Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश जिस प्रकार हिंसा--प्राणातिपात के सम्बन्ध में प्रतिपादन किया गया है उसी प्रकार मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य शेष पापकर्मों को नहीं करते हुए भी जीव के प्रत्याख्यान के अभाव में उन पापों की अपेक्षा अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है। यहाँ इस अप्रत्याख्यान अर्थात् प्रत्याख्यान के अभाव से लगने वाली क्रिया का दार्शनिक तर्कों के आधार पर विवेचन है । ] नोट:-अप्रत्याख्यान क्रिया का विवेचन आरम्भिकी क्रियापंचक (क्रमांक ६५) में भी देखो। १६.६.१ आत्मा और अप्रत्याख्यान :-- आया अपञ्चक्खाणीयावि भवइ। -सूय० श्रु २ । अ४ ! सू १ । पृ० १६६ आत्मा अप्रत्याख्यानी भी होती है। प्रत्याख्यान---त्याग देना, छोड़ देना । पाप कर्मों का प्रत्याख्यान करना--पाप कर्म नहीं करने का संकल्प----प्रतिज्ञाभावना---विचार करना । मैं पाप कर्म नहीं करूँगा--ऐसी भावना होना-पापकर्म का प्रत्याख्यान करना है । जिस आत्मा के 'पाप कर्म नहीं करूंगा'---ऐसा संकल्प-प्रतिज्ञा-भावना-विचार नहीं है वह आत्मा अप्रत्याख्यानी है । आत्मा प्रत्याख्यानी भी होती है, अप्रत्याख्यानी भी होती है । .१६.६.२ अप्रत्याख्यानी जीव और पापकर्मबन्धन : (क) स्थापना :--अप्रत्याख्यानी जीव पापकर्म का बंध करता है : सुयं मे आउसं । तेणं भगवया एवमक्खायं-- इह खलु पञ्चपखाण-किरिया--- णामझयणे तस्स णं अयम? पन्नत्ते --"आया अपञ्चक्खाणी याचि भवइ, आया अकिरिया कुसले यावि भवइ, आया मिच्छासंठिए यावि भवइ, आया एगंतदंडे यावि भवइ, आया एगंतबाले यावि भवइ, आया एगंतसुत्ते यावि भवइ, आया अवियार-मण-वयण-कायवक्के यावि भवइ, आया अप्पडिह्य अपञ्चक्खायपावकम्मे यावि भवर, एस खलु भगवया अक्वाए असंजए, अविरए, अप्पडियपच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतवाले, एगंतसुत्त से बाले अवियार-मण-वयण-कायवक्के सुविणमवि ण पस्सइ, पावे य से कम्मे कज्ज । -सूय० श्रु २ । अ ४ । सू १ । पृ० १६६ आचार्य ने स्थापना की कि आत्मा अप्रत्याख्यानी, अकर्तव्यकुशल, मिथ्याविश्वास वाली, दूसरों को एकान्त कष्ट पहुँचाने वाली, एकान्त अज्ञानी, सोई हुई या मूढ़, मन-वचन "Aho Shrutgyanam" Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ क्रिया - कोश काया और वाक्य से अविचारी या विचार- रहित और पापकर्म में किसी भी प्रकार की बाधा - रुकावट से रहित भी होती है । भगवान ने कहा है कि ऐसे जीव असंयमी, अत्रती, पापकर्म करने में किसी भी बाधा -- रुकावट से रहित, सक्रिय, असंवृत्त, एकान्त सावध प्रवृत्तिवाले, एकान्त बाल और एकान्त सुप्त हैं, मन-वचन और काया से विचार- रहित तथा स्वप्न जितनी चेतना से रहित हैं फिर भी वे जीव पापकर्म का बंध करते हैं । (ख) प्रतिस्थापना :- अविचारपूर्वक कर्म करने वालों को पापकर्म का बंध नहीं होता है । तत्थ चोयए पन्नवर्ग एवं वयासी- असंतपणं मणेणं पावपूर्ण असंतियाए वईए पाविया, असंतपणं कारणं पावएणं अहह्णन्तस्स, अमणक्खस्स, अवियार-मण-वयण कायरस सुविणमवि अपस्सओ पावकम्मे णो कज्जइ । कस्सणं तं हेउं ? चोयए एवं बची- अन्नयरेण मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरीe ase पावियाए ववत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरेणं कायेणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, हणंतरस, समणक्वस्स, सवियार-मण-वयण- कायवकास सुविणमवि पासओ एवं गुण जाइयास पावे कम्मे कजइ । पुनरवि चोयए एवं बवीइ-तत्थणं जे ते एवमाहंसु -- असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वइए पावियाए, असंतएणं कायेणं पावएणं, अहणंतस्स, अमणक्खरस, अवियार-मण-वयण- कायवक्करस सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ । तत्थणं जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु । - सूय० श्र २ । अ ४ । सू २ | पृ० १६६ आचार्य के उपर्युक्त कथन से प्रेरित होकर प्रवादी बोला - जिसके मन, वचन और काया पाप करने में लगे हुए न हों, जो हिंसा न करता हो, जिसके मन न हो या जिसके मन, वचन और काया की वक्रता या प्रवृत्ति अविचारपूर्वक होती हो या जो स्वप्नदर्शक जितनी भी चेतनावाला न हो वह पापकर्म का बंध नहीं करता है ? आचार्य ने पूछा -- इसका क्या कारण है ? प्रवादी बोला - जिसके मन, वचन और काया पापमय हो उसे ही मन, वचन और काया जनित पापकर्मों का बन्ध होता है। जो हिंसक है, मन वाला है और विचारपूर्वक मन, वचन और काया से प्रवृत्ति करता है अन्ततः स्वप्नदर्शक जितनी चेतना जिसमें है ऐसे गुणवाले व्यक्ति ही पापकर्म का संचय करते हैं । प्रवादी ने आगे कहा- जिसके मन-वचन काया पाप करने में लगे हुए नहीं हैं, जो हिंसा नहीं करता है, जिसके मन नहीं है, जो विचारपूर्वक मन-वचन-काया की प्रवृत्ति नहीं " Aho Shrutgyanam" Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ४७ करता है, जिसमें स्वप्नदर्शक जितनी चेतना भी नहीं है, वे जीव भी पापकर्म का बंध करते हैं--- ऐसा जो आप कहते हैं वह गलत है । (ग) स्थापना का समर्थन : ----- तत्थ पन्नवए चोयगं एवं वयासी- 'तं सम्मं जं मए पुठवं वृत्तं । असंतएण मणेणं पावएणं, असंतियाए वइए पावियाए, असंतएणं कायेणं पावएणं, अहणं तस्स अमणक्खस्स अवियार-मण वयण-कायवकास, सुविणमवि अपसओ पावे कम्मे कज्जइ, तं सम्मं ।' कस्सतं हे ! आयरिय आह- 'तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकायहेऊ पन्नता, तंजहा -- पुढविकाइया जाव तसकाइया ; इच्चेएहिं छहिं जीव- णिकाएहिं आया अपडिहय-पञ्चक्खाय - पावकम्मे निच्चं पसढ-विडवाय-चित्तदंडे, तंजहा - पाणइवाए जाव परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले । -सूय० श्रु २ । अ ४ । सू २ | पृ० १६६-६७ प्रत्युत्तर देते हुए आचार्य ने कहा- जैसा मैंने पूर्व में कहा है कि हिंसा में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के बिना भी अप्रतिहत - अप्रत्याख्यात आत्मा के पापकर्म का बन्ध होता है- यह कथन समुचित है । भगवान ने पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, सकाय — इन छः जीवनिकायों का प्रतिपादन किया है तथा इनको पापकर्मबन्ध का हेतु कहा है। जो जीव इन छः जीवनिकायों के प्रति पाप करने में, उनका हनन करने में बाधारहित है, अविरत है तथा सदा जिसका चित्त हिंसा करने में, दण्ड देने में खुला है उसके पापकर्म का बन्ध होता है । इसी प्रकार प्रत्याख्यान के अभाव में मृषावाद यावत् मिथ्या - दर्शनशल्य का भी बंध होता है । टीकाकार कहते हैं - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के अव्यक्त-विज्ञान, अस्वप्नादि अवस्था होते हुए भी पापकर्म का बन्ध होता है क्योंकि उनकी आत्मा पापकर्म से अप्रतिहतअविरत है । (घ) स्थापना के समर्थन में वधक का दृष्टान्त : आयरिय आह- 'तत्थ खलु भगवया वहए दिनं ते पन्नत्ते । से जहानामएवहए सिया गाहावइम्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसरस वा खर्ण निहाय पविसिरसामि, खणं लद्धणं वहिस्सामि ( सं ) पहारमाणे, से किं नु हु नाम से बहुए तस्स गाहावइरस वा गाहावरपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसरस वा खणं निद्दाय " Aho Shrutgyanam" Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश पविसिस्सामि, खणं लद्वणं वहिस्सामि, पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए नित्र पसद विश्वाय चितदंडे भवइ ?' एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए हंता, भवइ । आयरिय आह 'जहा से वहए तम्स गाह्रावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्तरस वा रण्णो वा रायपुरिसम्स वा स्वणं निहाय परिसिस्सामि, स्वणं लद्धणं वहिस्सामि त्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निरुचं पसढ विउवाय चित्तदंडे, एवमेव बाले वि सव्वेसि पाणाणं जाव सव्वेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढ विश्वाय चित्तदण्डे, तंजहा- पाणाश्वाए जाव मिच्छादंसणसल्ले । एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए, अविरए, अपडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते यावि भवइ, से बाले अवियार-मण-वयण- कायवक सुविणमवि ण परसर पावे य से कम्मे कज्जइ । जहा से वहए तरस वा गाहावइस्स जाव तरस वा रायपुरिसम्स पत्तेयं पत्तयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्त वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निश्च पसढ - विउवाय-चित्तदंडे भवइ । ४८ एवमेव बाले सव्वेसि पाणाणं जाव सन्वेसि सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निबं पसढ-विडवाय-चित्तदंडे भवइ ।' -- सूय० श्रु २ । अ ४ । सू २ । पृ० १६७ आचार्य ने आगे कहा- “ इस विषय को समझने के लिये अरिहन्त भगवान् ने वधक का दृष्टान्त प्रतिपादन किया I जैसे कोई वधक किसी कारण से गृहपति, गृहपति के पुत्र, राजा या राजपुरुषों पर कुपित होकर यह विचार करता है--" अवसर पाकर उनके घर में प्रवेश करूँगा और कोई मौका पाकर या अवसर देख कर उनको मार डालूँगा ।" "ऐसा विचार करने वाला वह वधक रात में या दिन में, सोते हुए या जागते हुए गृहपति आदि का अमित्र, बुरे विचार वाला, नित्यमूढ़ और हिंसक चित्तवृत्ति वाला होता है । क्या वह ( जीव का विनाश नहीं करते हुए भी ) वधक है ?" ऐसा पूछनेपर प्रवादी ने 'आपने समुचित कहा है, वह वधक है।" कहा वधक के दृष्टान्त से बाल अज्ञानी जीव की तुलना करते हुए आचार्य ने प्रवादी से कहा~~~“जिस प्रकार वह वधक रात में या दिन में, सोते हुए या जागते हुए --गृहपति आदि का अमित्र, मिथ्याभाव में स्थित, हिंसा अवसरापेक्षी है, उसी प्रकार बाल अज्ञानी जीव भी रात में या दिन में, सोते हुए या जागते हुए सर्व प्राण-भूत- जीव-सत्त्वों के प्रति अमैत्री व बुरे भाव वाले, नित्यमृढ़, हिंसा अनुगत चित्तवृत्ति वाले हैं।" "Aho Shrutgyanam" Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ क्रिया-कोश अतः भगवान ने कहा है कि ऐसे जीव असंयमी, अवती. पापकर्म करने में किसी भी बाधा-रुकावट से रहित, सक्रिय, असंवृत्त, एकान्त सावध प्रवृत्ति वाले, एकान्तबाल और एकान्त सुप्त है, मन-वचन-काया से विचाररहित तथा स्वप्न जितनी भी चेतना से रहित हैं फिर भी वे जीव ( हिंसा नहीं करते हुए भी प्रत्याख्यान के अभाव में ) पापकर्म का बन्ध करते हैं। जैसा प्राणातिपात सम्बन्धी दृष्टान्त दिया वैसे मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के दृष्टान्त भी समझ लेने चाहिये। जिस प्रकार वधक दिन में या रात में, सोये हुए या जागते हुए गृहपति, गृहपति के पुत्र, राजा या राजपुरुषों में से प्रत्येक के प्रति प्राणघात का विचार करता है तथा प्राणघात का विचार रखने वाला वह वधक उन गृहपति आदि प्रत्येक का अमित्र, दुष्ट विचार वाला, नित्यमूढ और हिंसक चित्तवृत्ति वाला है ; उसी प्रकार बाल अज्ञानी एकेन्द्रियादिक जीव दिन में या रात में, सोते हुए या जागते हुए सर्व प्राण भूत जीव-सत्त्वों में से हर एक के प्रति अमैत्री भाव वाले, दुष्ट विचार वाले, निरन्तर शठ और हिंसक चित्तवृत्ति वाले होते हैं। अतः उनको भी पापकर्म का वन्ध होता है। (च) प्रतिस्थापक की आपत्ति : णो ण? सम? ( चोयए) इह खलु बहवे पाणा० (भूया-जीवा-सत्ता) जे इमेणं सरीर-समुत्सएणं णो दिट्ठा वा सुया वा नाभिमया का वन्नाया वा जेसि णो पत्तेयं पत्त य चित्तसमायाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निचं पसढ-विउवाय-चित्तदण्डे, तंजहा-पाणइवाए जाच मिच्छादंसणसल्ले । सूय० श्रु २१ अ ४ । सू ३ ! पृ० १६७ प्रवादी ने कहा कि आपका कथन यथार्थ नहीं है क्योंकि यह संभव नहीं है कि प्रत्येक प्राणी प्रत्येक का अमित्र-शत्रु हो! इस विशाल लोक में अनन्त प्राणी हैं उनमें से बहुत से प्राणी ऐसे हैं जिनका परस्पर में शरीर से संसर्ग नहीं हुआ है, आँखों से एक दूसरे को देखा नहीं है, कानों से सुना नहीं है, परिचय नहीं हुआ है तथा एक दूसरे के सम्बन्ध में विशेष जानकारी भी नहीं है। अतः एक दूसरे के प्रति विनाश का चिन्तन संभव नहीं है तथा रात्रि-दिवस, सोते, जागते वे परस्पर में अमित्र, बुरे विचार वाले, निरन्तर शठ, हिंसक चित्तवृत्ति वाले नहीं हो सकते हैं और इस कारण उनको पापकर्म-प्राणातियात यावत्-मिथ्यादर्शनशल्य का वन्ध नहीं हो सकता है। (छ) आपत्ति के निराकरण के लिये संज्ञी व असंज्ञी दृष्टान्त : आयरिय आह–'तत्थ खलु भगवया दुवे दिटुंता पन्नत्ता । तंजहा--- सन्निदिट्टते य असन्निदिढते य।' --सूय० श्रु २ 1 अ ४ 1 सू ४ । पृ० १६७ "Aho Shrutgyanam" Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश आचार्य ने कहा --इस सम्बन्ध में ( तुम्हारी इस आपत्ति का निराकरण करने के लिये ) भगवान ने संशी दृष्टान्त और असंज्ञी दृष्टान्त-ये दो दृष्टान्त कहे हैं । टीकाकार :- यद्यपि सर्व देश-काल-स्वभाव में सब जीवों के प्रति हिंसा के परिणाम, वधक-चित्तवृत्ति नहीं उत्पन्न होती है तथापि अविर ति के सद्भाव से मुक्तवैर नहीं होने से पापकर्म का बंध होता है। इसके समर्थन में भगवान ने दो दृष्टान्त बतलाये हैं । १ संज्ञी दृष्टान्त :--- से किं तं सन्निदिते :: जे इमे सन्निपंचिदिया एज्जत्तगा एसिं गं जीवनिकाए पडुम, तंजहापुढवीकार्य जाव तसकायं । ऐ एगइओ पुढवोकाएणं किच्छ करेइ वि, कारवेइ वि, तस्स णं एवं भवइ--एवं खलु अहं पुढवीकापणं किच्च करेमि वि, कारवेमि वि । णो चेव णं से एवं भव ... इमेण वा इमेण बा! से एएणं पुढवीकाएणं कि करेइ वि, कारवई वि! से गं तओ पुढवीकायाओ असंजय अविरय-अप्पडिहय-पञ्चक्खायपावकम्मे यावि भव । एवं जाब तसकाए ति भाणियवं ! से एगइओ छजीवनिकाएहिं किच्चं करेइ वि, कारवेद वि! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु छजीवनिकाएहिं किञ्च करेमि वि, कारवेमि वि । णो चेव णं से एवं भवतु । इमेहिं वा इमेहिं वा। से य तेहि छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेइ वि । से य तेहि छहिं जीवनिकाएहिं असंजय-अविरयअप्पडिहय-पञ्चक्खाथ-पाधकम्मे, तंजहा-पाणाश्वाए जाव मिच्छादंसणसल्ले । एस खलु भगवया अक्वाए असंजए, अविरए, अप्पडिय-पचक्खाय-पावकम्मे सुविणमवि अपस्सओ । पावे य से कम्मे कजइ । से तं सन्निदिट्ठन्ते । -सूच० २२ । अ४ । सू४ । पृ० १६७-६८ प्रवादी ने पूछा-वह संज्ञी दृष्टान्त क्या है? आचार्य ने कहा-प्रत्यक्षसंज्ञी (जो सब प्रकार से पर्याप्त हो तथा जिसमें ऊहापोह अर्थात् विचार-विमर्श करने की पर्याप्त शक्ति हो ) ऐसे प्रत्यक्ष संज्ञी पचेंद्रियों में से कोई जीव छः जीवनिकाय के जीवों में से एक पृथ्वी काय के द्वारा कोई कार्य करता है, कराता है, तव वह यही बात कहता है कि मैं पृथ्वीकाय के द्वारा कार्य करता हूँ और कराता हूँ। तब उसके विषय में ऐसा नहीं कह सकते हैं कि वह अमुक-अमुक पृथ्वी काय के द्वारा कार्य करता है और कराता है लेकिन यही कहना होगा कि वह ..वी काय के द्वारा कार्य करता है, कराता है, अतः वह सभी पृथ्वो कायिक जीवों के विषय में असंयत, अभिरत और पापकर्म के प्रत्याज्यान से रहित होता है। इसी प्रकार अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा उसकाय के सम्बन्ध में भी एक एक करके निवेचन कर लेना चाहिये । "Aho Shrutgyanam" Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ क्रिया-कोश यदि वह प्रत्यक्षसंज्ञो जीव छहों जीवनिकायों द्वारा कोई कार्य करता है, कराता है तब वह यही बात कहता है कि मैं छहों जीवनिकायों के द्वारा कार्य करता हूँ और कराता हूँ। तब उसके विषय में ऐसा नहीं कह सकते हैं कि वह अमुक अमुक छहों जीवनिकायों के द्वारा कार्य करता है और कराता है लेकिन यही कहना होगा कि वह छहों जोधनिकायों के द्वारा कार्य करता है और कराता है । अतः वह सभी षड्जीवनिकायिक जीवों के विषय में असंयत, अविरत और पापकर्म के प्रत्याख्यान से रहित होता है । ___ उपर्वक्त विवेचन प्राणातिपात यावत् मिश्यादर्शनशल्य अठारह पापों पर ही घटा लेना चाहिये। अतः भगवान् ने कहा कि असंयत, अविरत, पापकर्म के प्रत्याख्यान से रहित जीव जो स्वप्न में भी पापक्रम नहीं देखता है उसको भी पापकर्म का (अप्रत्याख्यान की अपेक्षा) बंध होता है। २ असंज्ञी दृष्टान्त :से किं तं असन्निदिहन्ते ? जे इमे असन्निणो पाणा,तंजहा---पुढवीकाझ्याजाव वनस्सइकाइया छट्ठा वेगइया तसा पाणा, जेसि नो तक्का इ वा सन्ना ३ वा पन्ना इ वा मणा इ वा वई इ वा सयं वा करणाए, अन्नेहिं वा कारवेत्तर, करतं वा समुणजाणित्तर, ते वि णं बाले सव्वेर्सि पाणाणं जाव सव्वेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूया मिच्छासंठिया निच्चं पसढ विउवाय चित्तदंडा, तंजहा...-पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले । इच्चेव जाव णो चेव मणो णो चेव वई पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए, जूरणयाए, तिप्पणयाए, पिट्टणयाए, परित्तप्पणयाए, ते दुक्खण सोयण जाव परितप्पण-वह बंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरिया भवंति। ___ इति खलु से असन्निणो वि सत्ता अहोनिसिं पाणाइवाए उवक्खाइज्जति जाव अहोनिसि परिग्गहे उवक्खा इज्जति जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति । [ एवं भूयवाई ] सव्व जोणिया वि खलु सत्ता सन्निणो हुचा असन्निणो होति, असन्निणो हुच्चा सन्निणो होति । होच्चा सन्नी अदुवा असन्नी, तत्थ से अविविचित्ता, अविधूणित्ता, असंमुच्छित्ता, अणणुतावित्ता असन्निकायाओ वा सन्निकाए संकमंति, सन्निकायाओ वा असन्निकायं संकमंति । सन्निकायाओ वा सन्निकायं संकमंति, असन्निकायाओ वा असन्निकायं संकमंति। जे एए. सन्नि वा असन्नि वा सव्वे ते मिच्छायारा निच्चं पसढ-विउवाय-चित्तदंडा, तंजहा-- पाणाश्वाए जाव मिच्छा'सणसल्ले। -- सूब० श्र २ | अ ४ । सू४ । पृ० १६८ "Aho Shrutgyanam" Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश प्रवादी ने पूछा- असंज्ञी दृष्टान्त क्या है ? आचार्य ने कहा- यद्यपि संसार में जो असंज्ञी प्राणी यथा-- पृथ्वीकाय अप्कायअग्निकाय-वायुकाय-वनस्पतिकाय — विकलेन्द्रिय तथा संमुच्छिम पंचेन्द्रिय हैं, उनके तर्क शक्ति नहीं है, संज्ञा अर्थात् पर्यालोचना शक्ति नहीं है, प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि नहीं है, मन नहीं है, वचन नहीं है, वे स्वयं कोई कार्य नहीं करते हैं, दूसरों से करवाते भी नहीं हैं तथा करते हुए के अनुमोदन के भाव भी उनमें नहीं है तथापि वे बाल, अज्ञानी जीव सर्व प्राण-भूत- जीव-सत्त्वों के प्रति अमित्रभृत हैं, बुरे विचारवाले हैं, निरन्तर शठ हैं, तथा हिंसक चित्तवृत्ति वाले हैं । यद्यपि वे प्राणतिपात यावव मिथ्यादर्शनशल्य अठारह पापों को नहीं करते हैं तो भी अविरति की अपेक्षा उनके पापकर्म का बंध होता है । यद्यपि वे असंज्ञी जीव मन और वचन के व्यापार से रहित हैं तथा वे सर्व प्राण-भूत जीव-सत्त्वों को दुःख-शोक-जूरण नहीं उपजा सकते हैं - मन-वचन-काया से पीड़ा नहीं दे सकते हैं, यष्टि-मुष्टि से प्रहार नहीं कर सकते हैं, परिताप नहीं दे सकते हैं तथापि प्रत्याख्यान के अभाव में वे सर्व प्राण- भूत-जीव सत्त्वों को दुःख-शोक-जूरण- पीड़ा-पीटन-परिताप-वध-वन्धन इत्यादि परिक्लेश उपजाने से अविरत होते हैं । ५३ अतः वे पृथ्वीकायिक आदि जीव असंज्ञी होते हुए भी रात-दिन प्राणतिपात यावत् परिग्रह यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अठारह पापकर्मों का बन्ध ग्रामघातक की तरह करते हैं । प्रवादी ने पूछा- एवंभूत वेदान्तवादियों का प्रतिपादन है कि पुरुष मर कर पुरुष रूप में जन्म लेता है, पशु मर कर पशु रूप में जन्म लेता है, जो योनि है उसमें मर कर उसी योनि में जन्म लेता है, तो क्या असंजी मर कर असंज्ञी होता है ? आचार्य ने कहा- सर्वयोनिक जीव संज्ञी होकर असंज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी होकर संज्ञी भी होते हैं । वे संज्ञी या असंज्ञी होकर पापकर्मों को पृथक् किये बिना, खपाये बिना, छेदे बिना, तपाये बिना, कर्मवशीभूत असंज्ञी की काया से संज्ञी की काया में, संज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में, संज्ञी की काया से संज्ञी की काया में, असंज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में संक्रमण करते हैं । इसलिये सब संज्ञी या असंज्ञी जीव मिथ्या आचरण वाले, निरन्तर शठ, हिंसक चित्तवृत्तियों वाले यावत् प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य दोषों से सहित हैं । उपर्युक्त दो दृष्टान्तों का निष्कर्ष : एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए, अविरए, अप्पडिह्य-पच्चक्खाय- पाव - कम्मे, सकिरिए, असंबुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते से बाले अवियारमण-वयणं-कायवक्क े सुविणमवि न पासइ, पावे य से कम्मे कज्जइ । --सूय० श्र २ । अ ४ । सू ४ / पृ० १६८ "Aho Shrutgyanam" Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश अतः भगवान ने उनका असंयत, अविरत, पापकों के प्रत्याख्यान से रहित, सक्रिय, असंवृत्त, एकान्तहिंसक, एकान्त-अज्ञानी, एकान्तसुप्त कहा है तथा वे बाल अज्ञानी अविचारित मन-वचन-काया के परिणाम वाले तथा स्वप्न में भी पापकर्म नहीं देखने वाले होते हुए भी पाप कर्म का बंध (प्रत्याख्यान के अभाव में) करते हैं । __(ज) क्या करने से जीव के पापकर्म का बंध नहीं होता : -- चोयए–'से किं कुठवं, किं कारवं, कहं संजयविरयप्पडिय-पच्चरवाय-पाव कम्मे भवइ ? आयरिय आह—'तत्थ खलु भगवथा छजीवनिकायहेऊ पन्नत्ता, तंजहा-पुढवी. काश्या जाव तसकाइया। से जहानामए मम अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आतोडिजमाणस्स वा जाव उवद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आतोडिजमाणे वा हम्ममाणे वा तजिज्जमाणे वा तालिज्जमाणे वा जाव उवदविजमाणे वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति । एवं णच्चा सब्चे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा जाव ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे धुवे णिइए सासए समिञ्च लोगं खेयन्नेहि पवेइए । एवं से भिक्खू विरए पाणावायाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ। xxxi' एस खलु भगवया अक्खाय संजय-विरय-पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे, अकिरिए, संवुडे, एगतपडिए भवइ त्ति बेमि । ---सूथ २ अ ४ । सू ५। पृ० १६८-६६ प्रवादी ने पूछा-क्या करने से, क्या कराने तथा कैसे जीव संयत, विरत होता है तथा पापकर्मों से प्रत्याख्यानी बनता है अर्थात् कर्म के बंध से बचता है ? आचार्य ने कहा-भगवान ने पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय रूप छः जीवनिकाय को पापकर्मबंध का हेतु कहा है। यदि कोई मुझको दंड से, अस्थि से, मुष्टि से, पत्थर से, कंकड़ से असाता--दुःख उत्पन्न करे-ताड़ना यावत् उद्वेग उत्पन्न करे यावत् जीव-काया से जुदा करे यावत् रोम उखाड़ने मात्र जितना कष्ट दे उससे जितना दुःख और भय मुझे अनुभूत होता है उसी प्रकार यह जानना चाहिए कि सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों को मेरी तरह दंड यावत् कंकड से, ताड़ना करने से यावत् उद्वेग पैदा करने से यावत् जीव-काया से जुदा करने से यावत् रोम उखाड़ने मात्र की हिंसा से उनको दुःख-भय अनुभूत होता है । ऐसा जान करके सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वों का हनन नहीं करना चाहिए. यावत् उप "Aho Shrutgyanam" Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ क्रिया-कोश द्रव नहीं उपजाना चाहिए। यह अहिंसाधर्म ध्र व, नित्य, शाश्वत है जो खेदज्ञों, सर्वज्ञों, तीर्थकर भगवानों ने सर्वलोक के स्वभाव को जानकर प्रतिपादन किया है ! [ ऐसे धर्म को जानकर भिक्षु प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से विरत हो, निवृत्त हो तथा वह भिक्षु दन्त प्रक्षालन से दाँत परिष्कार नहीं करे ; अंजन, वमन, विरेचन आदि क्रियाएँ न करे ; वस्त्रादि को धूप न दे। वह भिक्षु अक्रिय, अहिंसक, पड़ जीवनिकाय का रक्षक, क्रोध-मान-माया-लोभ रहित, उपशान्त, समाधिवन्त परिनिवृत्त होता है। ] ऐसे भिक्षु को भगवान ने संयत, घिरत, पापकर्म का प्रत्याख्यान करने वाला, अक्रिय, संवृत्त, एकांतपंडित कहा है । (झ) अप्रत्याख्यान क्रिया और दृष्टान्त :..... (क) मलयगिरि अस्य चेयं पूर्वाचार्योपदर्शिता भावना---'इह संसार-अडवीए परिव्भमंतेहिं सव्वजीवेहिं तेसु तेसु ठाणेसु सरीरोवहाइणो विष्पमुक्का तेहि य सत्थभूएहि जया कासइ स्वतः परितापनादयो भवंति तया तस्सामिणो भवंतरगयस्सवि तत्रानिवृत्तत्वात् किरियासंभव इति, व्युत्सृष्टेषु तु न भवति निवृत्तत्वात्, एत्थ उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे अजियसेणस्स रण्णो पडिचारगा दुवे कुलपुत्तगा, तत्थेगो समणसट्टो इयरो मिच्छदिट्टि, अण्णया रयणीए रणो निस्सरण संभमतुरंताण तेसिं घोडगारूढाणं खग्गा पटभट्टा, सण जणकोलाहलो मग्गिओ न लहइ, इयरेण हसियं-किम्मणं ण होहि ? सण अहिगरणंति कट्टु वोसिरियं, इयरे च खम्गम्गाहिणो बंदिग्गहसाहसिएहिं लद्धा, गहिओ अण्णेहिं रायवल्लहो पलायमाणो वावाइओ, तओ आरक्खिएहिं गहिऊग रायसमीवं नीया, कहिओ वुत्तंतो, कुविओ राया, पुच्छियं चणेणकस्स तुभे ? तेहिं कहियं-अगाहा, कल्लं चिय, कप्पडिया, एए तुम्ह खम्गा कहिं लद्धत्ति, पुच्छिएहिं कहियं पडिया इति, तओ सामरिसेण रणा भणियं-गवेसह तुरियं मम अणबद्धवेरिणं ईसरपुत्ताणं महापमत्ताणं केसि इमे खग्गेत्ति ?, तओ तेहिं निउणं गवेसिऊग विण्णत्तं रणगो-सामि ! गुणचंदबालचंदाणमिति, ततो रण्णा पिह पिहं सद्दावेऊण भणिया-- लेह नियखग्गे, एक्केणगहियं, पुच्छिओ रण्णा कहं ते पणट्ठति ? तेण कहियं जहावित्तं, कीस न गविट्ठ? भगइ सामि ! तुम्ह पसाएण एदहमेत्तमवि गवेसामि ? सड्ढो नेच्छइ, रणगा! पुच्छिओ-कीस न गेण्हसि ? तेण भणियं-सामि ! अम्हाणमेस ठिई चेव नस्थि जमेवं गेण्हिज्जइ अगिरणत्तणओ, परं संभमेण मगंतेण वि न लद्धंति वोसिरियं अतो न कप्पर मे गिहिउ, तओ रण्णा पमायकारी अणुसासिओ, इयरो विमुक्को, एस दिट्ठतो इमो य से अत्थोवणओ "Aho Shrutgyanam" Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश जहा सो पमायगभेग अवोसिरियदोसेग अवराह पत्तो एवं जीवोवि जम्मतरत्थं देहोवहाइ अवोसिरंतो अणुमयभावतो पावेइ दोसं ? श्रूयते च जातिस्मरणादिना विज्ञाय पूर्वदेहमतिमोहात (केचित् सुरनदी प्रत्यस्थिशकलानि नयन्तीति । ---.. पपण० प २२ । सू १५८८ । टीका पूर्वाचार्यों द्वारा बताई हुई भावना इस प्रकार है-इस संसाररूपी अटवी में परिभ्रमण करते हुए सभी जीवों ने स्थान-स्थान पर शरीर-आयुधादि अधिकरण छोड़े हैं और उन शस्त्रों द्वारा जिस किसी को स्वतः भी पीड़ा आदि होती है तो भवान्तर में गये हुए उन शरीर-आयुधादि के स्वामी को यदि वह उससे निवृत्त नहीं हुआ है तो किया का होना संभव है । परन्तु यदि उनका त्याग करे तो क्रिया का होना संभव नहीं है क्योंकि वह उससे निवृत्त हो चुका है । उदाहरण को एक कथा है :---- बसन्तपुर नगर में अजितसेन राजा की सेवा करने वालों में दो कुलपुत्र थे। उनमें से एक श्रमणोपासक था और दूसरा मिथ्यटष्टि था । किसी रात को राजा को बाहर जाना हुआ । जल्दी में घोड़े पर चढ़ते हुए श्रावक कुलपुत्र की तलवार नीचे पड़ गयी । श्रावक कुलपुत्र ने उसकी खोज की परन्तु मनुष्यों की भीड़ और कोलाहल में तलवार नहीं मिली। दसरा कुलपुत्र हँसा कि क्या दूसरी तलवार नहीं मिल सकती। शस्त्र को अधिकरण समझ कर श्रावक कुलपत्र ने वोसरा दिया-परित्याग कर दिया। उस तलवार को कुछ लोगों ने उठा लिया। लन तलवार उठाने वालों ने राजा के एक प्रिय आदमी को पकड़ा था और जब वह भागने लगा तो उसको मार दिया। उसके बाद आरक्षक लोग उनको पकड़ कर राजा के पास ले गये और सारा वृत्तान्त कहा। राजा कोधित हो गया। उसने पूछा कि तुम कौन हो ? उन्होंने कहा--"हम अनाथ हैं, एक समय हम कार्प टिक भिक्षुक थे !” “यत तलवार तुमको कहाँ मिली ४" उन्होंने उत्तर में कहा"पड़ी हुई थी।" इसके बाद राजा ने क्रोधपूर्वक कहा कि जिनके साथ मेरा बैर नहीं है-ऐसे महाप्रमादी कुलपुत्रों की खोज करो और पता लगाओ कि यह तलवार किसकी है । इस पर राजपुरुषरों ने अच्छी तरह खोज की और राजा को जनाया कि यह गुणचन्द्र और बालचन्द्र की तलवार है। इसके बाद राजा ने दोनों को अलग-अलग बुलाया और कहा--- "यह तुम्हारी तल. वार लो"। एक कुलपुत्र ने तलवार ले लो। राजा ने पूछा "तुम्हारी तलवार के से खोई' ! उमने जैसा हुआ था वैसा कहा । पूछा गया कि तुमने खोज क्यों नहीं की ? उसने जबाब दिया---"आपको हमारे पर अत्यन्त कृपा है अतः इस तलवार मात्र की खोज क्यों करू?"। "Aho Shrutgyanam" Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ क्रिया-कोश लेकिन श्रावक कुलपुत्र ने तलवार ग्रहण करने की अनिच्छा दिखाई । राजा ने पूछा कि तुम क्यों नहीं ग्रहण करते हो ? उसने कहा--"हमारी ऐसी स्थिति-मर्यादा है कि मैं इसे इस प्रकार ग्रहण नहीं कर सकता हूँ क्योंकि यह अधिकरण है ।" अत्यन्त शीघ्रता होने से--- खोज करने पर भी जब तलवार हाथ न लगो और अधिकरण होने के कारण मैंने उसका परित्याग कर दिया अतः इसको अब लेना मुझे कल्पता नहीं है। इस पर राजा ने प्रमाद करने वाले--तलवार की खोज नहीं करने वाले कुलपुत्र को शिक्षा दी और दूसरे को मुक्त कर दिया । इस कथा का उपनय इस प्रकार है-वह प्रमादी कुलपुत्र परित्याग नहीं करने के दोष से अपराध को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार जीव भी जन्म-जन्मान्तर में प्राप्त हुए शरीर और शस्त्रादि का यदि परित्याग नहीं करता है तो अनुमोदन के भाव से दोष को प्राप्त होता है। ऐसा सुना जाता है कि कितने जीव जातिस्मरणा दि ज्ञान के द्वारा पूर्वभव के शरीर को पहिचान कर अति मोह से अपनी अस्थियों को गंगानदी में ले जाकर डाल देते हैं। १७ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया १७.१ परिभाषा अर्थ (क) “मिच्छादंसणवत्तिया” त्ति मिथ्यादर्शन -मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति। ठाण० स्था २ । उ १ । सू६० । टीका __(ख) 'मिच्छादसणवत्तिया' इति । मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो---हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया । -भग° श १ । उ २ । प्र८० । टोका --पण्ण० प २२ 1 सू १६२१ । टीका (ग) विरुद्धफललिप्सया मिथ्यादर्शनमागंण सन्ततप्रयाणमन्यं साधयामीत्यनुमोदमानस्य मिथ्यादर्शनक्रिया। -..सिद० अ६। सू६ । पृ० १३ । (घ) अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभिद्र ढयति यथा साधु करोषीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया । . सर्व १६ । सू. ५, पृ०३२३ । ला २-२ -राज अ६ । सू । ०५१० । १२१३ (ङ) मिथ्यादिकारणाविष्टदृष्टीकरणमत्र यत् ।। प्रशंसादिभिरुक्तान्या सा मिथ्यादर्शनक्रिया ॥ -इलोवा० अ६। सू ५ । गा २५ ! पृ० ४४६ "Aho Shrutgyanam" Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश मिथ्यात्वनिमित्त से जो क्रिया होती है वह मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है । *१७२ भेद ५७ मिच्छादंसणवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंत्रा- ऊणाइरित्तमिच्छादंसणबत्तिया चेव तव्वरितमिच्छादंसणवत्तिया चेव । -ठाण स्था २ । उ १ । सू ६० । पृ० १८६ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी किया के दो भेद होते हैं, यथा---ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी तथा तद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी । * १७३ भेदों की परिभाषा / अर्थ — १ ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी ऊणाइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया चेव' त्ति ऊनं - स्वप्रमाणाद्धीनमतिरिक्त-- ततोऽधिकमात्मादिवन्तु तद्विषयं मिथ्यादर्शनमूनातिरिक्तमिथ्यादर्शनं तदेव प्रत्ययो यस्याः सा ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्ययेति, तथाहि कोऽनि मिध्यादृष्टिरात्मानं शरीरव्यापकमपि अंगुष्ठपर्वमात्रं ( यवमात्रं ) श्यामाकतन्दुलमात्रं वेति हीनतया वेति तथाऽन्यः पञ्चधनुःशतिकं सर्वव्यापकं वेत्यधिकतयाऽभिमन्यते । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० | टोका आत्मादि वस्तुओं के प्रमाण से अधिक या कम मानने या कहने रूप जो मिथ्यादर्शन है उम्र मिथ्यादर्शन निमित्त से जो क्रिया होती है यह मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है। यथा प्रमाण बात तो यह है कि आत्मा शरीरव्यापक है, फिर भी यदि कोई उसे अंगुष्ठपर्वमात्र, यवमात्र या श्यामाक जाति के चावल के कणमात्र छोटी कहे अथवा कोई पाँच सौ धनुष प्रमाण बड़ी कहे अथवा सर्वव्यापक कहे तो उसे जो किया लगती है वह ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है । २ तद्व्यतिरिक्त- मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी 'तव्यइरित्तमिच्छादंसणवतिया चेव' त्ति तस्माद् ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शनं नास्त्येवात्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति । --ठाण स्था २ । उ १ । सृ ६० ३ टीका उपर्युक्त ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शन से भिन्न मिथ्यादर्शन निमित्त से -- यथा 'आत्मा नहीं है' इत्यादि मान्यता रूप मिथ्यादर्शन निमित्त से जो क्रिया होती है वह तद्व्यतिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी किया कहलाती है । नोट :-- मिथ्या दर्शनप्रत्ययकी का विवेचन आरम्भिकी क्रियापंचक (कमांक ६५) में भी देखो । ( क्रमांक ४० तथा ६२ ) भी देखा | "Aho Shrutgyanam" Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ १८ कायिकी क्रिया * १८१ परिभाषा / अर्थ--- क्रिया-कोश (क) 'काइयाचेव' ति कायेन निर्वृत्ता कायिकी कायव्यापारः । -- ठाण० स्था २ । उ १ । सु. ६० । टीका (ख) 'काव्य'त्ति चीयते इति कायः शरीरम्, तत्र भवा तेन वा निर्वृत्ता --भग० श ३ । उ ३ । प्र १ । टीका शरीरं काये भवा कायेन निर्वृत्ता - पण० प २२ / सू १५६८ । टीका (घ) प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया । कायिकी । (ग) 'काइया' इत्यादि चीयते इति कायः वा कायिकी । (ङ) इत्यनिमित्तः क्रोधः, कायिकी क्रिया । सर्व अ ६ । सू ५ । ०३२२ । ला २ निमित्तवान् प्रदोषः । प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः राज अ ६ । खू ५ । पृ० ५०६ | ला ३१ (च) तत्कार्यत्वात्सहेतुत्वात् क्रोधादन्या हानीहशात् । प्रदुष्टस्योद्यमो हन्तुं गदिता कायिकी क्रिया || तोवा काय राम्यन्धी या काय द्वारा की गई क्रिया । अथवा शरीर के द्वारा हुई किया कायिकी क्रिया कहलाती है । १८८२ भेद (क) काइया किरिया दुबिहा पन्नत्ता, तंजा - अणुवस्यकायकिरिया चैव दुप्पउत्तकायकिरिया चैव । अ ६ । सू ५ । गा ८-६ | पृ० ४४५ प्रदुष्ट काय शरीर के निमित्त से हुई ठाण स्था २ । उ १ । सू. ६० / ५० १८६ (ख) काइया णं भंते! किरिया काविहा पन्नता ? मंडअपुत्ता ! दुविहा पन्नता, तंजहा अणुत्ररयकायकिरिया य, दुप्पउत्त काय किरिया य । - भग० श २। ३ ३ । २ । ०४५६ (ग) काच्या णं भंते । किरिया करविहा पन्नत्ता ! गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- अनुवरयकाच्या य दुष्पउत्तकाश्या य । पण० प २२ । सू १५६८ | एक (घ) कायक्रिया द्विविधा, प्रदुष्टस्य मिथ्यादृष्टेरुयमो यः पराभिभवात्मको वाङ्मनोनिरपेक्षः सा तु परतः कायक्रिया, प्रमत्तसंयत्तस्यानेककर्तव्यतासु बहुप्रकारा दुष्प्रयोगकायक्रिया | -सिद्ध‍ अ ६ सू ६ | पृ० १२ कायिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-- अनुपरतकायिकी तथा दुष्प्रयुक्तकायिकी । "Aho Shrutgyanam" Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० क्रिया-कोश १८.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ-.. "१ अणुवरयकायकिरिया (क) 'अणुवरयकायकिरिया चेव' त्ति अनुपरतस्य अविरताय सावद्यात् मिथ्याटपटेः सम्यग्दष्टेर्वा कायक्रिया उत्पादिलक्षणा कर्मबन्धनिबन्धनमनुपरतकायक्रिया। -~~-ठाश• स्था २ । उ १ ! सू ६० । टोका (ख) 'अनुवरयकायांकरिया य' त्ति अनुपरतोऽविरतः, तस्य कायक्रिया-अनुपरतफायक्रिया, झ्यम् - अविरतस्य भवति । ..-भग श ३ । उ ३ । प्र२ । टीका (ग) उपरतो --देशतः सर्वतो वा सावायोगाद्विरतः नोपरतोऽनुपरतः कुत श्चिदम्यनिवृत्त इत्यर्थः तस्य कायिकी अनुपरतकायिकी क्रियेति वर्तते, इयं प्रतिप्राणिनि वर्त्तते, इयमविरतस्य वेदितव्या, न देशविरतस्य सर्वविरतम्य वा। -पण्ण प २२ । सू१५६८। टीका देश से या सर्व से जो सावध योग—पापकारी प्रवृत्ति से निवृत्त नहीं हुया है उसकी कायिकी क्रिया अनुपरत कायिकी क्रिया कहलाती है। यह क्रिया अविरति के समझनी चाहिये, लेकिन यह देशविरति या मर्व विरति के नहीं होती है। १८'३२ दुप्पउत्तकायकिरिया (क) 'दुप्पउत्तकायकिरिया चेव' ति दुष्प्रयुक्तस्य-दुष्टप्रयोगवतो दुष्प्रणिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्येष्टानिष्ट विषयप्राप्तौ मनाक् संवेगनिर्वेदगमनेन तथा अनिन्द्रियामाश्रित्याशुभमनःसंकल्पद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुव्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रियेति । ---ठाण° स्था२ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) 'दुप्पउत्तकायकिरिया य' त्ति दुष्टं प्रयुक्तो दुष्प्रयुक्तः, स चासौ कायश्च दुष्प्रयुक्तकायः तस्य क्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया अथवा दुष्टं प्रयुक्त प्रयोगो यस्य स दुष्प्रयुक्तः, तस्य कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, विरतिमतः प्रमादे सति कायदुष्टप्रयोगस्य सद्भावात् ।-भग० श ३ । उ ३ ! प्र २ । टीका (ग) दुष्टं प्रयुक्तं--प्रयोगः कायादीनां यस्य स दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायिकी दुष्प्रयुक्तकायिकी, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, प्रमत्ते सति कायदुष्प्रयोगसम्भवात् । -पण्ण० प २२ । सू १५६८ । टीका जिनका काया दि व्यापार दुष्प्रयुक्त है ; अथवा जिनकी इन्द्रियों के आश्रय से इष्टअनिष्ट विषय की प्राप्ति में किंचित् भी संवेग-निवेद की भावना हो उनको कायिकी क्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया होती है। यह प्रमत्तसंयतों के भी होती है, क्योंकि प्रमत्त अवस्था में काया का दुष्प्रयोग--अशुभ व्यापार सम्भव है तथा ठाणांग टीकाकार के अनुसार अनि. "Aho Shrutgyanam" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० क्रिया-कोश न्द्रिय अर्थात् मन के आश्रय से अशुभ संकल्प द्वारा मोक्षमार्ग के प्रति उपेक्षाभाव रखने वाले प्रमत्तसंयत की कायिकक्रिया भी दुष्प्रयुक्तकायिक क्रिया कहलाती है । नोट :- कायिकी क्रिया का विवेचन कायिकी क्रियापंचक ( क्रमांक ६६ ) में भी देखो । * १६ अधिकरणिकी १६१ परिभाषा / अर्थ - (क) 'अहिगरणिया चेव' त्ति अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम् – अनुष्ठानं वाह्यं वा वस्तु, इह च बाह्यं विवक्षितं खङ्गादि, तत्र भवा आधिकरणिकीति । - ठाण० स्था २ । १ । सू६० । टीका (ख) अधिक्रियते - स्थाप्यते नरकादिष्वात्माऽनेनेति अधिकरण- -- अनुष्ठानविशेषो बाह्यं वा वस्तु चक्रखङ्गादि तत्र भवा तेन वा निवृत्ता आधिकरणिकी। - पण्ण० प २२ / स् १५६६ / टीका (ग) अधिक्रियते येनात्मा दुर्गतिप्रस्थानं प्रति तदधिकरणं परोपघाति कूटगलपाशादिद्रव्यजातं तद्विषयाऽधिकरणक्रिया । - सिद्ध० अ ६ । सू ६ | पृ० १२ (घ) हिंसोपकरणादानादाधिकरणिकी क्रिया । सर्व अ ६ । सू५ । ३२२ । ला २ -राज० अ ६ । सू५ । ५० ५०६ / ला ३१.३२ (ङ) हिंसोपकरणादानं तथाधिकरणक्रिया । -श्लोवा० अ ६ | सू५ । गा । पृ० ४४५ जिसके द्वारा नरकादि गति में आत्म-स्थापन हो वह अधिकरण--- क्रियाविशेष, अथवा खङ्ग, चक्र आदि वस्तु, उनके निमित्त से हुई या उनके द्वारा हुई क्रिया अथवा अधिकरणों ( हिंसा की साधन वस्तुओं ) से होने वाली किया अधिकरणिकी क्रिया कहलाती है । - १६२ भेद (क) अहिगरणिया किरिया दुबिहा पन्नत्ता, तंजहा- संजोयणाहिगरणिया चेव निव्वत्तणाहिगरणिया चेव । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० पृ० १८६ (ख) अहिगरणिया णं भंते ! किरिया क३विहा पन्नता ? मंडियपुत्ता ! दुविहा पन्नत्ता, संजहा- संजोयणा हिगरण किरिया य, निव्वतणाहिगरण किरिया य । - भग० श ३ । उ ३ । प्र ३ । पृ० ४५६ "Aho Shrutgyanam" Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश (ग) अहिगरगिया णं भंते ! किरिया क३विहा पन्नता ? गोयमा ! दुबिहा पन्नता, तंजहा संजोयणाहिगरणिया य निव्वत्तणाहि गरणिया य । पण्ण० प २२ । सृ १५६६ । ०४७ (घ) सा ( अहिगरणिया किरिया ) द्विधा निवंतने संयोजने च । -सिद्ध० अ ६ | सू ६ । ५० १२ अधिकरणिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा संयोजनाधिकरणिकी तथा निर्वर्तना धिकरणिकी | ६१ १६३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ संयोजनाधिकरणिकी (क) 'संजोयणाहिगरणिया चेव' ति यत्पूर्व निर्वर्तितयोः खङ्गतन्मुष्ठ्यादिकयोरथंयोः संयोजनं क्रियते सा संयोजनाऽधिकरणिकी । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) ' संजोयणाहिगरणकिरिया य' त्ति संयोजनम् हल-गर- विप- कूट-यन्त्राचङ्गानां पूर्वनिर्वर्तितानां मीलनम् - तदेव अधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया | --- भग० श ३ । उ ३ । प्र ३ । टीका (ग) तत्र संयोजनं - पूर्वनिर्वर्त्तितानां हलगर विपकूटयन्त्राद्यङ्गानां मोलनं तदेव संसारहेतुत्वादाधिकरणिकी संयोजनाधिकरणिकी, इयं हलायङ्गानि पूर्वनिर्वन्तितानि संयोजयितुर्भवति । -- पण प २२ । सू० १५६६ | टीका संयोजन अर्थात् पूर्व में बनाए हुए हलगर, कूट, यंत्रादि रखना अधिकरण है । संसार का हेतु होने के कारण उसके निमित्त से होनेवाली क्रिया संयोजनाधिकरणिकी क्रिया कहलाती है । यह क्रिया पूर्व में बनाए हुए हलादि के अवयव – जोड़ी तैयार करने वाले के होती है । *१६:३२ निर्वर्तनाधिकरणिकी- (क) 'णिव्त्रत्तणाहिगरणिया चेव' त्ति यच्चादितस्तयोनिर्वर्तनं सा निर्वर्तनाधिकरणिकीति । -ठाण स्था २ । उ १ / सू ६० | टीका (ख) 'निव्वत्तणा हिगरण किरिया यत्ति निर्वर्तनम् - असि-शक्ति-तोमरादीनां निष्पादनम्, तदेव अधिकरणक्रिया निर्वर्तनाधिकरणक्रिया । - भग० श ३ । ३ । प्र ३ । टीका (ग) निर्वर्त्तनं असिशक्तिकुन्ततोमरादीनां मूलतो निष्पादनं तदेवाधिकरणिकी निर्वर्त्तनाधिकरणिकी, पंचविधस्य वा शरोरस्य निष्पादनं निर्वत्र्त्तनाधिकरणिकी, देहस्यापि दुष्प्रयुक्तस्य संसारवृद्धिहेतुत्वात् । -- पण प २२ | सू १५६६ | टीका "Aho Shrutgyanam" Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश तलवार, २.क्ति, भाला, तोमर आदि शस्त्रों को मूल से बनाना अथवा पाँच प्रकार के औदारिकादि शरीर को उत्पन्न करना भी गिर्वर्तनाधिरणि की क्रिया कहलाता है, क्योंकि अशुभ प्रवृत्ति वाला शरीर भी संशार वृद्धि का कारण है। अभयदेव सूरि ( ठणांग-भगवई टीकाकार ) के अनुसार खङ्गादि शरत्रों के निर्माण का आदि करना निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया कहलाती है। सामान्यतः कहा जा सकता है कि बने हुए अधिकरणों से ... माधनभूत वस्तुओं से संयोजनाधिकरणिकी क्रिया होती है तथा निर्माण हो रहे अधिकरणों से निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया होती है। २० प्रार्द्व पिकी क्रिया .२० १ परिभाषा / अर्थ (क) प्रवषो-- मत्सरस्तेन निवृत्ता प्राव पिको। . -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) प्रपो—मत्सरः तत्र भवा, तेन वा निवृत्ता, स एव वा प्राषिकी ।। --भग श ३ । उ ३ । प्र १ । टीका (ग) असुभं मणं पहारेइ (संपधारेइ), से तं पाओसिया किरिया। पण्ण० पा २२ । सू १५७० । पृ. ४७८ टोका---'पाउसिया' इति प्रवषो-मत्सरः कर्मबन्धहेतुरकुशलो जीवपरिणामविशेष इत्यर्थः तत्र भवा तेन वा निवृत्ता स एव वा प्राषिकी । (घ) क्रोधावेशात्प्राद्वेषिकी क्रिया। -सर्व० अ६ । सू ५। पृ० ३३२ ला १-२ ___-राज० अ६ । सू ५। पृ० ५०६ । ला २२ (ङ) क्रोधावेशात्प्रद्वषो यः सातप्रद्वेषिकी क्रिया । -इलोवा० अ६ । सू५ । गा ८ । पृ० ४४५ प्रद्वेष-मत्सर, कर्मबन्ध का कारण जीव का अशुभ परिणाम विशेष- उसके निमित्त हुई अथवा उसके द्वारा की गई अथवा मत्सररूप क्रिया प्राद्वेषिकी क्रिया कहलाती है। “२००२ भेद - (क) पाओसिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--जीवपाउसिया चेव अजीवपाउसिया चेव । ---ठाण ० स्था २ । उ १ । सू. ६० । पृ० १८६ (ख) पाओसिया णं भंते । किरिया काविहा पन्नत्ता ? मंडियपुत्ता ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा---जीवपाओसिया य अजीवपाओसिया य। -भग० श ३ । उ ३. प्र ४ । पृ० ४५६ "Aho Shrutgyanam" Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश (ग) पाओसिया णं भंते ! किरिया करविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा पन्नत्ता, संजहा जे णं अपणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभं मणं पहारेइ (संपधारेइ, से तं पाओसिया किरिया। -पण्ण • प २२ । सू १५७० । पृ० ४७८ (घ) प्राद्वेषिकी द्विविधा--जीवाजीव विध्यात् । -सिद्ध अ६ । सू६ । पृ० १२ प्राद्वेषिकी क्रिया के दो भेद ह ते हैं, यथा--जीवप्राद्वेषिकी तथा अजीवप्राव षिकी। २. भेदो की परिभापा । अर्थ - १ जीवप्राषिकी (क जोवे प्रवषाजोवप्रापिकी। -ठाण• स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) जीवमा ओसिया य' त्ति जीवस्य आत्मनः, परस्य, तदुभयरूपस्य उपरि प्रव पाद् या क्रिया, प्रेद्वपकरणमेव वा । -भग० श ३ । उ ३ । प्र ४ ! टीका (ग) जीवप्राषिकी तावत् पुत्रकलत्रादिस्वपर जनविषया। -सिद्ध० अ ६ । सू६ पृ० १२ जीव के अपने पर, दूसरे पर अथवा दोनों पर प्रद्वेष से ; या जीव के जीव के प्रति प्रद्वेष करने मात्र से होने वाली क्रिया जीव प्राद्वेषिकी क्रिया कहलाती है । २ अजीवप्राषिकी (क) अजीवे-पाष गादौ स्खलितस्य प्रवपादजीवप्राद्वेषिकीति । --ठाणा ० स्था २ । उ १ । सू ६० । टोका (ख) अजीवपाओसिया यत्ति अजीवस्योपरि प्रद्वपाद्या क्रिया, प्रदुषकरणमेव वा, इति । --भग• श ३ | उ ३ । प्र४ । टोका (ग) अजीवप्राव पिकी तु क्रोधोत्पत्तिनिमित्तभूतकण्टकशर्करादिविषया। 'सिद्ध० अ६ । सू६ । पृ० १२ निर्जीव पदार्थ पर जो प्रद्वप भाव उत्पन्न हो वह अजीव प्राद्ध षिकी क्रिया, यथा पत्थर से ठोकर खाकर असावधानी के कारण गिरने से पत्थर पर जो प्रद्वेषभाव उत्पन्न होता है। २१ पारितापनिको क्रिया २१.१ परिभाषा अर्थ (क) परितापनं ताडनादिदुःख विशेपलक्षणं तेन निवृत्ता पारितापनिकी । -ठाण ० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश (ख) परितापनं परितापः -- पीडाकरणम्, तत्र भवा, तेन वा निवृत्ता, तदेव वा पारितापनिकी। -भग० श ३ । उ ३ । प्र५ । टीका (ग) अस्सायं वेयणं उदीरेइ से त्तं पारियावणिया किरिया । -पण्ण० प २२ । सू १५७१ । पृ० ४७८ टीका-'पारियावणिया' इति परितापनं परितारः पीड़ाकरणमित्यर्थः तस्मिन् भवा तेन धा निर्धत्ता परितापनमेव वा पारितापनिकी । (ध दुःखोत्यत्तितन्त्रत्वात् पारितापनिकी क्रिया। --सर्व अ६ । सू ५। पृ० ३२२३ ला ३ -राज० अ६ । सू ५ । पृ० ५०६ । ला ३२ (ङ) दुःखोत्पादनतन्त्रत्वं स्याक्रिया पारितापिकी । -इलोवा० अ६ । सू ५। गा १० । पृ० ४४५ जोय का परिताप, पोड़ा अथवा क.प्ट उत्पन्न करने वाली किया पारितापनिकी क्रिया कहलाती है। २१ २ भेद क) पारियावणिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा -सहत्थपारियावणिया चेव, परहत्थपारियावणिया चेव । -ठाण स्था २। उ १ । सू.६० 1 पृ० १८६ (ख) पारियावणिया णं भंते ! किरिया कइविहा पन्नत्ता ? मंडियपुत्ता ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा -सहत्थपारियावगिया य, परहत्थपारियावणिया य । -भग० श ३ । उ ३। प्र५ । पृ० ४५६ (ग) पारियावणिया णं भंते। किरिया कइविहा पन्नता ? गोयमा ! तिविहा पन्नत्ता, तंजहा -जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अस्सायं वेदणं उदीरेइ, से पारियावणिया किरिया। ---पण्ण० प २२ । सू १५७१ । पृ० ४७८ (घ) परितापिका तु द्विविधा परितापप्रधाना स्वारपरितापप्रधाना स्वपरपरितापजननी। सिद्ध० अ६ । सू६ । पृ० १२ पारितापनिको क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा स्वहस्तपारितापनिको तथा परहस्तपारितापनिको; अथवा अन्य अपेक्षा से इसके स्व, घर व दोनों को पड़ा पहुँचाने के कारण तीन भेद होते हैं। २१.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ स्वहस्तपारितापनिकी (क) स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुवतः स्वहस्तपारितापनिकी । -~-ठाण० स्था २ । उ १। सू ६० । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ क्रिया-कोश (ख) 'सहत्थपारियावणिया य' त्ति स्वहस्तेन स्वस्य, परस्य, तदुभयस्य वा परितापनाद् असातोदीरणाद् या क्रिया, परितापनाकरणमेव वा सा स्वहस्तपारितापनिकी। --भग० श ३ । उ ३ । प्र५ । टीका (ग) येन प्रकारेण कश्चित् कुतश्चित् हेतोरविवेकत आत्मन एवासात--- दुःखरूपां वेदनामुत्पादयति । -पण्ण० प २२ । सू१५७१ । टीका (घ) तत्र स्वदेहपरितापकारिणी पुत्रकलत्रादिवियोगदुःखभाराद्यतिपीड़ितस्यात्मनस्ताड़नशिररकोटनादिलक्षणा। -सिद्ध० अ ६ । सू६ । पृ० १२ अपने हाथ से अपने को, दूसरों को अथवा दोनों को दुःख-कष्ट अथवा पीड़ा पहुँचाना स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया है । सिद्धसेनगणि के अनुसार स्त्री-पुत्रादि स्वजन के 'वियोगजनित शोक से संतप्त होकर अपनी छाती पीटने अथवा शिर फोड़ने आदि की क्रिया स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया कहलाती है। २ परहस्तपारितापनिकी ---- (कः परहातेन तथैव ( स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः ) च तत्कारयतः परहस्तपारितापनिकी। -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६०1 टीका (ख) एवं परहस्तपारितापनिकी अपि ( परहस्तेन स्वस्य, परस्य, तदुभयस्य वा परितापनाद् असातोदीरणाद् या क्रिया, परितापनाकरणमेव वा सा परहस्तपारितापनिकी) --भग° श ३ । उ ३ । प्र५ ! टीका (ग) परपरितापकारिणी पुत्रशिष्यकलत्रादिताड़नम् । -सिद्ध० अ ६ । सू६ । पृ० १२ जिस क्रिया द्वारा दूसरे के हाथ से अपने को, दूसरे को अथवा दोनों को परिताप-- दुःख-कष्ट पहुँचे अथवा जो किया उनके दुःख-कष्ट आदि का कारण बने वह परहस्तपारितापनिकी क्रिया कहलाती है। सिद्धसेनमणि के अनुसार स्त्री-पुत्र-शिष्यादि को मारने की क्रिया परहस्तपारितापनिकी क्रिया कहलाती है । .२२ प्राणातिपातिकी क्रिया २२.१ परिभाषा | अर्थ [ प्राणातिपातिकी क्रिया के दो रूप है, एक है कायिको क्रियापंचक के अंगरूप तथा दूसरा है अठारह पापस्थान के अंगरूप । कायिकी क्रियापंचक वाली प्राणातिपातिकी क्रिया जीव-काया के जुदा होने से अर्थात् जीव की मृत्यु होने से ही होती है, जैसे किसी जीव पर खङ्गादि का प्रहार किया गया लेकिन उससे उस जीव की प्राणहानि नहीं हुई "Aho Shrutgyanam" Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ क्रिया - कोश केवल चोट - आघात पहुँचा तो उस प्राहारिक कार्य से प्रहार करने वाले जीव को प्राणातिपातिकी क्रिया न लग कर पारितापनिकी क्रिया तक की चार क्रिया लगती है । पापस्थान के अंग रूप प्राणातिपातिकी क्रिया में पाँच इन्द्रिय, तीन वल, उच्छ्वास- निःश्वास तथा आयुष्य इन दस प्राणों में कोई एक या अनेक या करना प्राणातिपात है । सबका वियोग तप्पज्जायविणासो, दुक्खप्पाओ य संकिलेसो य । एस वही जिणभणिओ, वज्जेयवो पयत्तेणं ॥ जीव की पर्याय का विनाश, जीव को दुःख देना, उसको संक्लेश - खेद उपजानावध - प्राणातिपात है । “अभिया-वत्तिया - लेसिया संघाइया संघट्टिया परियाविया - किलामियाउद्दविया ठाणा ओठाणं-संकामिया-जीवियाओ-ववरोविया ।" जीव को सामान्य से सामान्य कष्ट पहुँचाने से लेकर प्राण-काय को जुदा करने तक सब कार्यों के निमित्त प्राणातिपातिकी पापस्थान क्रिया लगती है । ] (क) 'पाणाश्वायकिरिय' त्ति प्राणातिपातः प्रसिद्धः, तद्विषया क्रिया, प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया । -- भग० श ३ । उ ३ । प्र ६ । टीका (ख) जीवियाओ ववरोवेइ, से त्तं पाणाश्वायकिरिया । - पण्ण० प २२ । सू १५७२ / पृ० ४७८-४७६ टीका- 'पाणाश्वायकिरिया' इति प्राणा---: -- इन्द्रियादयस्तेषामतिपातो विनाशस्तद्विषया प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया । वियोगकरणात् प्राणाति - सर्व ० अ ६ । सू५ । पृ० ३२२ । ला ३४ (घ) आयुरिन्द्रियबलप्राणानां वियोगकरणात् प्राणातिपातिकी ( क्रिया ) । (ग) आयुरिन्द्रियबलोछ्वासनिःश्वासप्राणानां पातिकी क्रिया । -राज० अ ६ / सू ५ ० ५०६ । ला ३२-३३ जिससे जीव के प्राण - इन्द्रियादि, आयु, बल, श्वास- निःश्वास का अतिपात-नाश हो वह प्राणातिपातिकी क्रिया कहलाती है । *२२*२ भेद (क) पाणावाय किरिया दुबिहा पन्नत्ता, तंजहा - सहत्थपाणाश्वायकिरिया चेव, परहत्थपाणाश्वायकिरिया चैत्र । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० पृ० १८६ (ख) पाणाश्वायकिरिया णं भंते! किरिया कइविहा पन्नत्ता ? मंडियपुत्ता ! दुविहा पन्नता, तंजहा सहत्थपाणाश्चायकिरिया य परह्त्थपाणाश्वायकिरिया य । [---- - भग० श ३ । उ ३ । प्र ६ । ४५६ "Aho Shrutgyanam" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ६७ (ग) पाणावायकिरिया णं भंते! कडविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा पन्नत्ता, तंजहा— जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियाओ ववरोवेइ, से तं पाणाश्वायकिरिया । (घ) प्राणातिपातक्रियाऽपि द्विविधा -- स्वपरव्यापादनभेदात् । - सिद्ध ० अ ६ । सू. ६ / पृ० १२ प्राणातिपातिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा स्वहस्तप्राणातिपातिकी तथा परहस्तप्राणातिपातिकी । अन्य अपेक्षा से स्व, पर व दोनों के प्राण हनन के कारण इसके तीन भेद होते हैं । २२३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ स्वहस्तप्राणातिपातिकी क्रिया (क) स्वहस्तेन स्वप्राणान् निर्वेदादिना परप्राणान् वा क्रोधादिना अतिपातयतः स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका गिरिशिखरप्रपातज्वलनप्रवेशजलप्रवेशास्त्रपाट - पण्ण० प्र २२ । सू १५७२ । ०४७८ (ख) स्वप्राणातिपातजननी नादिका । - सिद्ध० अ ६ । सू ६ । पृ० १२ निराश होकर अथवा क्रोधावेश में गिरिशिखर से गिरकर अग्नि अथवा जल में प्रवेश कर अथवा शस्त्रों के आघात से अपने हाथों अपने अथवा दूसरों के हाथों से प्राणहनन करना स्वहस्तप्राणातिपातिकी क्रिया कहलाती है । २ परहस्तप्राणातिपातिकी क्रिया (क) परहस्तेनापि तथैव ( स्वप्राणान् निर्वेदादिना परप्राणान् वा क्रोधादिना अतिपातयतः ) परहस्तप्राणातिपातक्रिया | --ठाण स्था २ । उ १ । सू ६० | टीका मोहलो भक्रोधाविष्टा प्राणव्यपरोपणलक्षणा - सिद्ध अ ६ । सू ६ | पृ० १२ लोभ, मोह, क्रोध अथवा निर्वेद के वशीभूत होकर दूसरे के हाथ से अपने अथवा दूसरे के प्राण का हनन करना परहस्तप्राणातिपातिकी क्रिया कहलाती है । (ख) परप्राणातिपातजननी तु क्रियते । २२४ प्राणातिपातक्रिया और जीवदंडक (क) अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि | खा भंते ! किं पुट्ठा कज्जर, अपुट्ठा कज्जइ ? जाव निव्वाघापणं छद्दिसिंवाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं । सा भंते! किं कडा कज्जइ अकडा कज्जइ ? गोयमा ! कडा कजइ, नो अकडा कज्जइ । सा भंते! किं अन्तकडा कज्जइ, परकडा कज्जइ, तदुभयकडा कज्जइ ! गोयमा ! अत्तकडा कज्जइ, णो परकडा "Aho Shrutgyanam" Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश कज्जइ, णो तदुभयकडा कज्जइ । सा भंते ! किं आणुपुष्विं कडा कज्जइ, अणाणुपुव्विं कडा कज्जइ ? गोयमा ! आणुपुव्विं कडा कज्जइ, नो अणाणुपुष्विं कडा कज्जइ, जा य कडा जा य कज्जइ जा य कज्जिस्सइ सव्वा सा आणुपुषिवं कड़ा, नो अणाणुपुटिव कड त्ति वत्तव्वं सिया । अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाश्वायकिरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि। सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ, अपुट्ठा कन्जइ ? जाव नियमा छदिसिं कज्जइ । सा भंते ! किं कडा कज्जइ, अकडा कज्जइ ? तं चेव जाव नो अणाणुपुव्विं कडत्ति वत्तव्वं सिया, जहा नेरच्या तहा एगिदियवज्जा भाणियव्वा जाव वेमाणिया । एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा । -भग० श १ । उ ६ । प्र २०६ से २१४ । पृ० ४०२-३ (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया काज ? हंता गोयमा ! अस्थि । कम्हि ( कम्हि ) णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! छसु जीवनिकाएसु। ___ अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! एवं चेव । एवं जाव निरंतरं वेमाणियाणं । -पण्ण० प २२ । सू १५७४-५ । पृ० ४७६ (क) जीव प्राणातिपात के द्वारा क्रिया करते हैं तथा वह क्रिया स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती है। यदि वह क्रिया नियाघात हो तो छओं दिशाओं से और सव्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित चार दिशा से तथा कदाचित पाँच दिशा से स्पृष्ट होती है। वह क्रिया कृत है, अकृत नहीं है। आत्मकृत है, परकृत तथा तदुभयकृत नहीं है । वह क्रिया अनुकमपूर्वक कृत है, अननुक्रमपूर्वक कृत नहीं है, जो क्रिया की जा रही है तथा जो की जायेगी वह सर्व क्रिया अनुक्रमपूर्वक है, अननुक्रमपूर्वक नहीं है । नरक के जीव प्राणातिपात के द्वारा किया करते हैं तथा वह क्रिया स्पृष्ट होती है तथा वह क्रिया नियम से छों दिशाओं से स्पृष्ट होती है। अवशिष्ट विवेचन जीवों के विवेचन की तरह जानना । जैसा नारकी जीवों का कहा वैसा एकेन्द्रिय जीवों को वाद देकर वैमानिक तक दंडक के सभी जीवों के लिये कहना। जैसा औधिक जीवों का कहा वैसा संपूर्ण एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में कहना । (ख) जीव प्राणातिपात के द्वारा क्रिया करते हैं तथा जीव प्राणातियात की क्रिया छ: जीवनिकाय के विषय में करते हैं। दंडक के सभी जीवों के सम्बन्ध में ऐसा ही जानना। "Aho Shrutgyanam" Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २२ ५ प्रााण तिवात क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे vi भंते ! पाहावारण कर कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविहबंधए वा ! एवं गेरवाए जाव निरंतरं वेमाणिए । जीवा गं भंते ! पाणाइवाए का कम्मरगडीओ बंधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधगा वि अकृविहबंधगा वि । नेर या गं भंते ! पाणावाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सव्वे वि नाव होना सत्तविहबंधगा. अहवा सत्तविहबंधगा य अठविहबंधए य, अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य ! एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। पुढविआउते वा उवणस्सइकाइया य एए सब्वे वि जहा ओहिया जीवा, अवसेसा जहा नेरच्या एवं प्रा. जीवेगिदियबाजा तिण्णि तिण्णि भंगा सव्वत्थ भाणियव्व त्ति। -पण्ण प २२ । सू १५८१-४ । पृ० ४७६.८० ____ जीव प्राणातिपात { क्रिया) द्वारा सात कर्मप्रकृति बांधता है या आठ कर्मप्रकृति बांधता है । इसी प्रकार नारकी से लेकर वैमानिक तक ( एकवचन की अपेक्षा ) जानना । जिस समय आयुष कर्म का बंधन नहीं होता तव सात कर्मप्रकृति का बंधन होता है तथा जव आयुष कर्म का भी बंधन होता है तब आठ कर्म प्रकृति का बंधन होता है । जीवों की अपेक्षा अनेक जीव प्राणातिपात ( क्रिया) द्वारा सात कर्मप्रकृति बांधते हैं अनेक जीव आठ कर्मप्रकृति बांधते हैं । नारकियों की अपेक्षा--(१)- सर्वनारको जीव सात कर्मप्रकृति बांधते हैं या (२) कोई एक आठ कर्मप्रकृति बांधता है तथा शेष सब मात कर्म प्रकृति बांधते हैं, (३) या अनेक नारकी सात कर्मप्रकृति बांधते हैं तथा अनेक आठ कर्मप्रकृति बाँधते है। नारकियों की तरह असुरकुमारों से यावत् स्तनितकुमारों तक जानना । एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में औधिक जीवों की तरह जानना। अवशेप दंडक के जीवों को बहुवचन की अपेक्षा नारकियों की तरह जानना । जीव और एके न्द्रिय जीवों को बाद देकर सभी के तीन-तीन भंग विकल्प जानना । दंडक अर्थात (१) सभी सात कर्मप्रकृति बांधते हैं, (२) या कोई एक आठ कर्मप्रकृति बांधता है तथा शेष सब सात कर्मप्रकृति वांधते हैं, (३) या अनेक सात तथा अनेक आठ कर्मप्रकृति बांधते हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २३ दृष्टिका क्रिया २३.१ परिभाषा / अर्थ क) 'दिट्ठिया चेव' त्ति दृष्टे र्जाता दृष्टिजा अथवा दृष्टं ---दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिका - दर्शनार्थ या गतिक्रिया, दर्शनाद् वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका वा। -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) रागाीकृतत्वात् प्रमादिनः रमणीयरूपालोकनाभिप्रायो दर्शनक्रिया। -सर्व० अ६ ! सू ५ । पृ० ३२२ । ला ४-५ -राज० अ६ । सू ५ । पृ० ५०६ । ला ३४-३५ (ग) रागाद्रस्य प्रमत्तस्य सुरूपालोकनाशयः स्यादर्शनक्रिया। -श्लोवा० अ६ । सू ५ । गा १२ । पृ० ४४५ दृष्टि से उत्पन्न 'दृष्टिजा' अथवा वस्तु को देखने के निमित्त से जो क्रिया होती है वह दृष्टिका--दर्शन के लिये जो गति को जाय, दर्शन से या दर्शन के लिये जो क्रिया होती है वह दृष्टिजा अथवा दृष्टिका । '२३.२ भेद (क दिट्टिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा जीवदिट्टिया चेव अजीवदिहिया चेव । -ठाण ० स्था २ । उ १ ! सू ६० 1 पृ० १८६ (ख) दर्शनक्रिया द्विधा जीवाजीवविषयत्वात् । —सिद्ध० अ६ । सू ६ । पृ० १२ दृष्टिका क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा जीव ष्टिका तथा अजीयदृष्टिका । २३.भेदों की परिभाषा । अर्थ १ जीवदृष्टिका क्रिया (क) जीवदिठ्ठिया चेव' त्ति या अश्वादिदर्शनार्थ गच्छतः (या सा जीवदृष्टिकेति)। -ठाण० स्था २ । उ १ ! सू ६० । टीका (ख) तत्र प्रमादिनो नृपनिर्याणप्रवेशस्कन्धावारसन्निवेशनटनर्तकमल्लमेषवृषयुद्धादिष्वालोकनादरो यः सा जीवधिपया शिक्रिया। --सिद्ध० अ६ । सू ६ पृ० १२ अश्वादि सजीव प्राणियों को देखने के लिए जाने की क्रिया जीवट ष्टिका क्रिया होती है। सिद्धसेनगणि के अनुसार राजा के राजमहल से बाहर निकलते अथवा उसमें प्रवेश करते समय उसके निकट नट, नर्तक, मल्ल, मेष, वृष आदि के युद्ध वगैरह को देखने की "Aho Shrutgyanam" Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश तीव्र इच्छा अथवा चेष्टा करना जीव सम्बन्धी दृष्टिका अर्थात् जीवदृष्टिका क्रिया कहलाती है । .२ अजीवदृष्टिका क्रिया-.. (क) 'अजीवदिहिया चेव' त्ति अजीवानां चित्रकर्मादीनां दर्शनार्थ गच्छतो या सा अजीवष्टिकेति । ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) देवकुलसभाप्रपोदकाशपत्रपुस्तकाद्यालोकनलक्षणा रागाचेतसो ऽजीवविषया दर्शनक्रिया । -~-सिद्ध अ६ । सू६ । पृ० १२ अजीव पदार्थों, यथा--चित्रकर्म आदि को देखने के लिये जाने की क्रिया को अजीव-दृष्टिका क्रिया कहते हैं। २४ पृष्टिका | पृष्टिका क्रिया '२४ १ परिभाषा / अर्थ (क) पुट्ठिया चेव'त्ति पृष्टि:...पृच्छा ततो जाता पृष्टिजा प्रश्नजनितो व्यापारः, अथवा पृष्टं प्रश्नः वस्तु वा तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिकेति, अथवा स्पृष्टिः स्पर्शनं ततो जाता स्पृष्टिजा, तथैव स्पृष्टिकाऽपीति । ठाण स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) प्रमादवशात् स्पृष्टव्यसंचेतनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया। -सर्व० अ०६ ! सू५ । पृ० ३२२ ला ५-६ ----राज. अ ६ । सू ५ 1 पृ० ५०६ । ला ३५ (ग) स्पर्श स्पृष्टधीः स्पर्शनक्रिया। -श्लोवा० अ६ । सू ५ । गा १२ । पृ० ४४५ ठाणांग टीकाकार ने 'पुट्टिया' के पृष्टि तथा स्पृष्टि की दृष्टि से पृष्टिजा, पृष्टिका, स्पृष्टिजा तथा स्पृष्टिका ये चार अर्थ ग्रहण किये हैं। पुट्ठिया अर्थात् प्रश्न से उत्पन्न होनेवाली क्रिया अथवा प्रश्न के निमित्त से होनेवाली क्रिया पृष्टिजा-पृष्टिका । पुट्ठिया अर्थात् स्पर्श से उत्पन्न होने वाली क्रिया अथवा स्पर्श के निमित्त से होने वाली क्रिया स्पृष्टिजा-स्पृष्टिका ।। २४२ भेद (क) एवं पुट्ठियावि (पुट्ठिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--जीवपुट्टिया चेव अजीवपुट्टिया चेव )। - ठाण. स्था २ । उ ६ । सू ६० । पृ० १८६ (ख) स्पर्शनक्रिया द्विविधा-जीवाजीवभेदात् । -सिद्ध० अ६ । सू६ । पृ० १२ "Aho Shrutgyanam" Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश पृष्टिका / स्पृष्टिका क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा जीवष्टिका / जीवस्पृष्टिका तथा अजीव पृष्टिका / अजीवस्पृष्टिका । ७२ * २४३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ जीवपृष्टिका / स्पृष्टिका--- (क जीव xxx रागद्वेोपाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपृष्टिका ! जीवस्पृष्टिका वा । ---ठाण स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) तत्र जीवस्पर्शन क्रिया योषित्पुरुषनपुंसकाङ्गस्पर्शनलक्षणा रागद्वे पमोहसिद्ध० अ ६ । सू. ६ | पृ० १२ भाजः । राग-द्वेष तथा मोह के वशीभूत होकर जीव अर्थात् स्त्री-पुरुष नपुंसकों के अंगों का स्पर्श करना अथवा उनसे प्रश्न करना जीवपुष्टिका / जीवस्पृष्टिका क्रिया कहलाती है । २ अजीवपुष्टिका ! स्पृष्टिका (क) अजीवं रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा xxx अजीव पृष्टिका अजीवस्पृष्टिका बेति । -ठाण ० स्था २ । १ । सू ६० । टीका (२) अजीवस्पर्शनक्रिया मृगरोमकुतवपट्टशाटकनील्युपधानादि विषया । - सिद्ध० अ ६ | सू६ | पृ० १२ राग-द्वेषवश पशुओं के रोम से बने हुए कम्बल तथा अन्य वस्त्र, यथा पट्ट, शाटक, नीली और तकिया आदि के स्पर्श से होनेवाली क्रिया अजीवस्पृष्टिका क्रिया कहलाती है । - २५ प्रातीत्यिकी क्रिया '२५१ परिभाषा / अर्थ (क) 'पाडुबिया चेव' त्ति बाह्य वस्तु प्रतीत्य- आश्रित्य भवा प्रातीत्यिकी । - टाप स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) प्रत्ययक्रिया तु यदपूर्वस्य पापादानकारिणोऽधिकरणस्योत्प्रेक्ष्य स्वबुद्धया - सिद्ध० अ ६ । सू ६ । पृ० १२ निष्पादनम् । (ग) अपूर्वाधिकरणोत्पादनात्प्रात्ययिकी क्रिया । ० अ ६ | सू ५ । पृ० ३२२ । ला ६ (घ) ननु इन्द्रियग्रहणादेव सिद्धेर्देर्शन सर्शनग्रहणमनर्थकमिति ; नैष दोषः ; इह तत्पूर्वपरिस्पन्दग्रहणम् । अपूर्वाधिकरणोत्पादनात् -राज० अ ६ / सू ५ / ४० ५१० ला १-२ पूर्वत्रेन्द्रियविज्ञानप्रहणम्, प्रात्ययिकी क्रिया । " Aho Shrutgyanam" Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश (ङ) अपूर्वप्राणिघातार्थोपकरणप्रवर्तनम् । क्रिया प्रात्ययिकी ज्ञया हिंसा हेतुस्तथा परा || -- श्लोवा० अ ६ । सू५ । गा १४ । ५० ४४५ वाह्य वस्तु के आश्रय से होने वाली किया प्रातीत्यिकी किया होती है। नये-नये पापादानकारी अधिकरणों के उत्पन्न करने से उनके द्वारा प्रातीत्यिकी ---- प्रात्ययिकी किया होती है । *२५२ भेद पानिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा जीवपाडुनिया चेव अजीवपाडुचिया चैव । -- ठाण० स्था २ । उ १ | सु ६० पृ०१८६ प्रातीत्यिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-जीवप्रातीत्यिकी तथा अजीव प्रातीत्यिकी । २५३ भेदों की परिभाषा / अर्थ - १ जीव प्रातीत्यिकी ७३ 'जीवपाडुच्चिया चेव' त्ति जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा । - ठाण० स्था २ | उ १ | सू ६० | टोका अन्य जीव के आश्रय से होने वाली क्रिया जीवप्रातीत्यिकी । २ अजीवप्रातीत्यिकी— 'अजीवपाडुच्चिया चेव' त्ति अजीवं प्रतीत्य यो रागद्वे पोद्भवस्तज्जो वा बन्धः सा अजीवप्रातीत्यिकी । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू६० | टीका अजीव के आश्रय से उत्पन्न रागद्वेष से होने वाली किया अजीवप्रातीत्यिकी क्रिया होती है । '२६ सामन्तोपनिपातिकी क्रिया *२६१ परिभाषा / अर्थ (क) 'सामन्तोव णिवाइया चेव' त्ति समन्तात् सर्वत उपनिपातो -- जनमीलक - स्तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपातिकी । -ठाण स्था २ । उ १ । सू ६० | टीका (ख) समन्तानुपातक्रिया स्त्री-पुरुषनपुंसकपशुसम्पातदेशे उपनीय वस्तुत्यागः । - सिद्ध० अ ६ । सू ६ । ० १२ (ग) स्त्रीपुरुषपशुसंपातिदेशे अन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातक्रिया | --सर्व ० अ ६ । सू ५ । पृ० ३२२ । ला ६-७ राज० अ ६ | सू ५ । पृ० ५१० १ ला २-३ १० "Aho Shrutgyanam" Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ क्रिया-कोश (घ) स्च्यादिसंपातिदेशंतमलोत्सर्गः ( देशेऽतमलोत्सर्गः १) प्रमादिनः । शक्तस्य यः क्रियेष्टेह सा समन्तानुपातिकी ॥ --इलोवा० अ६ । सू ५ । गा १५ । पृ० ४४५ चारों तरफ से एकत्र जन-समुदाय में होने वाली क्रिया सामन्तोपनिपातिकी क्रिया होती है। ___ वार्तिककारों ( राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, तत्त्वार्थसिद्ध, सर्वार्थ सिद्ध ) के अनुसार स्त्री पुरुष से भरे-जनाकीर्ण स्थान में मलोत्सर्ग करने से प्रमादियों को लगनेवाली क्रिया सामन्तोपनिपातिकी क्रिया होती है । '२६२ भेद ___ एवं सामन्तोवणिवाइयावि ( सामन्तोवणिवाइया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा जीवसामन्तोवणिवाझ्या चेव अजीवसामन्तोवणिवाइया चेव )। -ठाण० स्था २ । उ १ । स ६० । पृ० १८६ सामन्तोषनिपातिकी क्रिया के दो भेद होते है, यथा जीवसामन्तोपनिपातिकी तथा अजीवसामन्तोपनिपातिकी। .२६.३ भेदों की परिभाषा अर्थ १ जीवसामन्तोपनिपातिकी कस्यापि पण्डो रूपवानस्ति तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तोपनिपातिकी! –ठाण० स्था २ । उ १ । स ६० । टीका यदि किसी का कोई पशु सुन्दर हो तथा जनता उसकी जैसे-जैसे प्रशंसा करे उस प्रशंसा को सुन कर उस पशु का स्वामो वैसे-वैसे यदि हर्षित होता है इस निमित्त से उस पश-स्वामी को जो क्रिया होती है वह जीवसामन्तोपनिपातिकी क्रिया कहलाती है। २ अजीवसामन्तोपनिपातिकी-- रथादौ तथैव हृष्यतोऽजीवसामन्तोपनिपातिकीति । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका यदि किसी के रथादि सुन्दर हो तथा जनता उनकी जैसे-जैसे प्रशंसा करे उस प्रशंसा को सुनकर उन रथादि वस्तुओं का स्वामी वैसे-वैसे हर्षित होता है । इस निमित्त से उस रथा दि के स्वामी को जो क्रिया होती है वह अजीवसामन्तोपनिपातिकी क्रिया कहलाती है। "Aho Shrutgyanam Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २७ स्वाहस्तिकी क्रिया २७.१ परिभाषा / अर्थ (क) 'साहत्थिया चेव' न्ति स्वहस्तेन नियुत्ता स्वाहस्तिकी । -ठाण० स्था २ । उ १। सू ६० । टोका (ख) स्वहस्तक्रिया अभिमानारूपितचेतसाऽन्यपुरुषप्रयत्न-निर्वृत्या या स्वहस्तेन क्रियते। -- सिद्ध० अ ६ । सू ६ । पृ० १३ (क) यां परेण निवर्त्या क्रियां स्वयं करोति सा स्वहस्तक्रिया । -सर्व अ६ । सू ५ । पृ ३२२ । ला ८ -राज० अ६ । सू ५ ! पृ० ५१० । ला ५६ (घ) परनिर्वहँकार्यस्य स्वयं करणमत्र यत् । सा स्वहस्तक्रियावद्यप्रधाना धीमतां मता ॥ ---श्लोवा अ६ । सू ५। गा १७ । पृ० ४४५ क्रोध, अभिमान अथवा रुष्ट होने के कारण दूसरों को काम से हटा स्वयं अपने हाथों से काम करने से जो किया लगती है वह स्वाहस्तिकी क्रिया कहलाती है। .२७२ भेद साहथिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा----जीवसाह त्थिया चेव अजीवसाहत्थिया चेव । ठाण° स्था २ । उ १ । सू ६० । पृ० १८६ स्वास्तिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा जीवस्वास्तिकी तथा अजीबस्वाहस्तिकी। २७.३ भेदों की परिभाषा अर्थ १. जीवस्वास्तिकी-- यत् स्वहस्तगृहीतेन जीवेन जीवं मारयति सा जीवस्वास्तिकी xxx अथवा स्वहस्तेन जीवं ताडयतः एका। ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका जहाँ अपने हाथ में धारण किये हुए जीव द्वारा किसी जीव को मारा जाय अथवा अपने हाथ से किसी जोव को मारा जाय तो उस निमित्त से हई क्रिया जीवस्वास्तिकी क्रिया होती है। '२ अजीवस्वाहस्तिकी यच्च स्वहस्तगृहीतेनैवाजीवेन खङ्गा दिना जीवे मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकी xxx स्वहस्तेन xxx अजीवं ताडयतः अन्येति । -ठण स्था । २ । उ १ । स ६० । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश जहाँ अपने हाथ में धारण किये हुए अजीव अर्थात् खङ्गादि शस्त्रों द्वारा किसी जीव को मारा जाय तो उस निमित्त से हुई क्रिया अजीवस्वाहस्तिकी क्रिया होती है । ७६ - २८ नैसृष्टिकी क्रिया २८१ परिभाषा / अर्थ (क) 'सत्थिया चेव' त्ति निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थं तत्र भवा तदेव सृष्टिकी, निजतो यः कर्मबन्ध इत्यर्थः, निसर्ग एव वेति । -ठाण० स्था २ । उ १ | सू ६० | टीका (ख) चिरकालप्रवृत्तपरदेशिनि पापार्थे भावतो यदनुज्ञानं सा निसर्गक्रिया । - सिद्ध० अ ६ । सू ६ ! पृ० १३ (ग) पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया । - सर्व० अ ६ । सू ५ । पृ० ३२२ । ला ८६ - राज० अ ६ । सू ५ । पृ० ५१० । ला ६ (घ) पापप्रवृत्तावन्येषामभ्यनुज्ञानमात्मना । स्यान्निसर्गक्रियालस्यादकृतिर्वा सुकर्मणाम् ॥ - श्लोवा अ ६ । सू५ । गा १८ । ४० ४४५ किसी वस्तु को फेंकने के निमित्त से होनेवाली अथवा फेंकने से उत्पन्न होनेवाली अथवा फेंकने का जो कर्मबन्ध है अथवा जो स्वभाव अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न हो वह सृष्टिकी क्रिया कहलाती है । २८२ भेद एवं सत्थियाचि ( सत्थिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा - जीवणेसत्थिया चेव अजीवणेसत्थिया चेव ) । --ठाण स्था २ । उ १ । सू ६० पृ. १८८६ नैसृष्टिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा जीवनेसृष्टिकी तथा अजीवसृष्टि की। '२८३ भेदों की परिभाषा / अर्थ · १ जीवनै सृष्टिकी राजादिसमा देशाद्यदुदकस्य यन्त्रादिभिर्निसजनं सा जीवनैसृष्टिकीति xxx अथवा गुदौ जीवं-शिष्यं पुत्रं वा निस्सृजतो ददतः एका । – ठाण० स्था २ । उ १ | सू ६० | टीका " Aho Shrutgyanam" Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश राजा आदि की आज्ञा से यंत्रादि को सहायता से जल के उत्क्षेपण अथवा गुरु आदि के समीप शिष्य अथवा पुत्र को ( शिक्षार्थ ) छोड़ने के निमित्त से उत्पन्न होने वाली क्रिया जीवसृष्टिकी क्रिया कहलाती है । २ अजीवनेसृष्टिकी- यत्तु काण्डादीनां धनुरादिभिः निसर्जन ) सा अजीव नैसृष्टिकीति, xxx अथवा ( गुर्व्वादौ ) अजीवं पुनरेषणीय भक्तपानादिकं निस्सृजतो - ऽत्यजतः अन्येति । ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका धनुष आदि द्वारा वाणादि फेंकने के निमित्त से होने वाली अथवा गुरु आदि को शुद्ध भक्त पानादि का दान देने के निमित्त से होनेवाली क्रिया अजीव सृष्टिकी क्रिया कहलाती है । *२६ आज्ञापनिका / आनायनिका क्रिया *२६१ परिभाषा / अर्थ (क) 'आणवणिया चेव' त्ति आज्ञापनस्य - आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी सैवाज्ञापनिका तज्जः कर्मबन्धः, आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी । -- ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) स्वयं (आ) नयनक्रिया अन्यैर्वाऽऽनायनं स्वच्छन्दतो (आ) नयनक्रिया ! -- सिद्ध० अ ६ । सू ६ । पृ० १३ (ग) यथोक्ताभाज्ञामावश्यकादिषु चारित्रमोहोदयात् कर्तुमशक्नुवतोऽन्यथा प्ररूपणात् आज्ञाव्यापादिका (की) क्रिया । ७७ सर्व० अ ६ । सू ५ । पृ० ३२२ । ला ६-१० - राज० अ ६ । सू ५ / ० ५१० । ला ७-८ ख्यातामहदाज्ञामुपासितुम । (घ) आवश्यकादिषु अशक्तस्यान्यथा ख्यानादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया ।। श्लोवा० अ ६ | सू५ । गा २० पृ० ४४५ आज्ञापन अर्थात् आदेश करने से जो क्रिया हो वह अथवा आज्ञा- हुक्म देने से जो कर्मबन्ध हो अथवा कोई वस्तु मँगवाने के निमित्त से जो कर्मबन्ध हो अथवा कोई वस्तु मँगवाने के निमित्त से जो क्रिया हो वह आज्ञापनिका / आनायनिका क्रिया होती है । २६२ भेद जव सत्थियाओ (आणवणिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- जीवआणवणिया चेव अजीव आणवणिया चेव ) । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू. ६० | पृ० १८६ "Aho Shrutgyanam" Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश आशापनिका | आनायनिका क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा--जीवआशापनिका | जीवआनायनिका तथा अजीव आज्ञापनिका | अजीव आनायनिका। '२६ ३ भेदों की परिभाषा अर्थ १ जीव-आज्ञापनिका : जीव-आनायनिका जीयमाज्ञापयत अनाययतो वा परेण जीवाज्ञापनी जीवानायनी वा। -ठाण० स्था २। उ १ । सू ६० । टीका जीव के आशा करने अथवा लाने के निमित्त से होने वाली अर्थात् दूसरे द्वारा जीव को आज्ञा करने अथवा लाने के निमित्त से होने वाली क्रिया जीवाशापनिका / जीवआनायनिका क्रिया कहलाती है । '२ अजीव-आज्ञापनिका | अजीव आनायनिका-- एवमेवाजीवविषया अजीवाऽऽज्ञापनी अजीवानायनी वेति । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका इसी प्रकार अजीव से सम्बन्धित अजीव-आज्ञापनिका अथवा अजीव-आनायनिका क्रिया होती है। .३० चैदारणिकी । वैचारणिकी क्रिया '३०१ परिभापा अर्थ (क) 'वेयारणिया चेव' त्ति विदारणं विचार वितारणं वा स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद् वैदारिणीत्यादि वाच्यमिति । ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) पराचरिताप्रकाशनीयसावधप्रकाशीकरणं विदारणक्रिया! भापाद्वयाभिज्ञः पुण्यो यथैकं विचारयति अर्हत्प्रणीताझोल्लंघनेन वमनीपया जीवितादिपदार्थप्ररूपणं (वा) -सिद्ध० अ६ । सू ६ । पृ० १३ (ग) पराचरितसावद्यादिप्रकाशनं विदारणक्रिया । __-- मर्व अ६ । सू ५ । पृ० ३२२ । ला ६ घ) आल याद्वा प्रशस्तक्रियाणामकरणं पराचरितसावद्यादिप्रकाशनं विदारणकिया। -राज° अ६ । सू ५ । पृ० ५१० । ला ६-७ (ङ) पराचित सावधप्रकाशनमिह स्फुटम् । विदारण क्रिया त्वन्या स्यादन्यत्र विशुद्धितः ।। श्लोवा० अ६ । सू ५। गा १६ । पृ० ४४५ किसी चीज को फाड़ने से या विचारने से अथवा दूसरों के द्वारा की गई सावधादि "Aho Shrutgyanam" Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ह क्रियाओं को प्रकाशन करने के निमित्त से होने वाली क्रिया वैदारणिकी अथवा वैचारणिकी क्रिया कहलाती है । * ३०२ भेद जद्देव सत्थियाओ ( वेयारणिया किरिया दुबिहा पन्नत्ता, तंजहा - जीववेयारगिया चेव अजीववेयारणिया चेव ) ! -ठाण० स्था २ । उ १ । स ६० / पृ० १८६ वैदारणिकी अथवा वैचारणिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा जीव-वैदारणिकी / जीव- वैचारणिकी तथा अजीव-वैदारणिकी / अजीव-वैचारणिकी । ३०.३ भेदों की परिभाषा अर्थ · १ जीव-वैदारणिकी / जीव-वैचारणिकी- २ अजीव-वैदारणिकी / अजीव-वैचारणिकी - जीवम जीवं वा विदारयति—स्फोटयतीति, अथवा जीवमजीवं वाऽऽसमानभाषेषु विक्रीणति सति भाषिको विचारयति परियच्छावेत्ति भणितं होति, अथवा जीवं पुरुषं वितारयति--प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थ असद्गुणैरेतादृशः तादृशस्त्वमिति, पुरुषादिविप्रतारणबुद्ध्यैव वाऽजीवं भणत्येतादृशमेतदिति यत्सा जीववेयारणिआऽ जीववेयारणिया वा । – ठाण० स्था २ 1 उ १ | सू ६० । टीका 1 किसी जीव अजीव वस्तु का फाड़ना --- विदारण करना--- जीव- अजीव-वेदारणिकी किया है । किसी जीव ( घोड़ा, गाय इत्यादि ) या अजोव ( मूर्ति-शंख इत्यादि ) वस्तु को बेचते हुए ठगने के अभिप्राय से उनमें न होने वाले गुणों का वर्णन करना — जीव अजीववैचारणिकी क्रिया है । '३१ अनाभोगप्रत्ययिकी क्रिया *३११ परिभाषा / अर्थ (क) अनाभोगः -- अज्ञानं प्रत्ययो निमित्तं यस्याः सा । -- ठाण० स्था २ । १ । सू ६० । टीका (ख) अनाभोगक्रिया अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जिते देशे शरीरोपकरणनिक्षेपः । -- सिद्ध० अ ६ । सू ६ । पृ० १३ (ग) अप्रसृष्टादृष्टभूमौ कायादिनिक्षेपोऽनाभोगक्रिया | - सर्व० अ ६ । स ५ । पृ० ३२२ । ला ७ -राज अ ६ | सू ५। पृ० ५१० । ला ३ " Aho Shrutgyanam" No ܘ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० क्रिया - कौश (घ) अदृष्टे यो प्रमृष्टे च स्थाने न्यासो यतेरपि । कायादेः सा त्वनाभोगक्रिया सैताश्च पंच ताः ॥ ---2 - श्लोवा ० अ ६ । सू ५ । गा १६ | पृ० ४४५ अनाभोग अर्थात् अज्ञान जिस क्रिया का निमित्त हो वह अनाभोगप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है अथवा अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित स्थान में शरीरोपकरण फेंकना आदि अनाभोगक्रिया है । '३१२ भेद अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा अणाउत्तआश्यणया चेव अणा उत्तपमज्जणया चेव । -ठाण स्था २ । उ १ । स ६० । पृ० १८६ अनाभोगप्रत्ययिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा— अनायुक्तआदानी तथा अना युक्तप्रमार्जनी | *३१३ भेदों को परिभाषा / अर्थ १ अनायुक्त आदानी क्रिया ‘अणाउत्तआइयणया चेव' त्ति अनायुक्तः - अनाभोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः तस्या ssदानता - वस्त्रादिविषये ग्रहणता अनायुक्तादानता । -ठान स्था २ । उ १ | सू. ६० । टीका जीव द्वारा अनुपयोगी वस्तुओं या वस्त्रादि के उपयोग रहित ग्रहण करने के निमित्त से होनेवाली क्रिया अनायुक्त आदानी क्रिया कहलाती है । २ अनायुक्तप्रमार्जनी क्रिया 'अणा उत्तपमज्जणया चेव' त्ति अनायुक्तस्यैव पात्रादिविषया प्रमार्जनता अनायुक्तप्रमार्जनता । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका जीव द्वारा अनुपयोगी वस्तुओं या पात्रादि के उपयोग रहित प्रमार्जन करने के निमित्त से होने वाली क्रिया अनायुक्तप्रमार्जनी क्रिया कहलाती है । ____ '३२ अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया *३२.१ परिभाषा / अर्थ (क) अनवकांक्षा-स्वशरीराद्यनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकांक्षा - ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० | टीका (ख) शाठ्यालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरः अनाकांक्षाक्रिया । प्रत्ययेति । - सर्व ० अ ६ । सू ५ | पृ० ३२२ । ला ११ - राज० अ ६ / सू ५ / पृ० ५१० । ला ८०६ "Aho Shrutgyanam" Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO क्रिया-कोश (ग) शाठ्यालस्यवशादहत्प्रोक्ताचारविधौ तु यः । अनादरः स एव स्यादनाकांक्षक्रिया विदाम् ॥ श्लोवा० अ६ । सू ५ । गा २१ । पृ० ४४५ आलस्य तथा प्रमाद के वश होकर अपने शरीर की अपेक्षा नहीं करने अथवा शास्त्रोक्त विधि-व्यवहारों को नहीं करने से जो क्रिया लगती है वह अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है। ३२२ भेद अणवखवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-आयसरीरअणवकखवत्तिया चेव, परसरीरअणवकंखवत्तिया चेव । --ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० [ पृ० १८६ अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा--आत्मशरीर-अनवकांक्षाप्रत्यायिकी क्रिया तथा परशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया। ३२.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ आत्मशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया --- (क) तत्रात्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वतः । __ --ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) तत्र स्वानवकांक्षा जिनोक्तेषु कर्तव्यविधिषु प्रमादवशवर्तितानादरः । -सिद्ध अ६ । सू ६ । पृ० १३ अपने शरीर के नाश करने वाले कार्यों को करने में अपने शरीर की अनपेक्षा के निमित्त से होने वाली क्रिया आत्मशरीर-अनवकांक्षा क्रिया कहलाती है । २. परशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया (क) परशरीरक्षतिकराणि तु कुर्वतः । -ठाण° स्था २१ उ १ । सू.६० ! टीका (ख) अनाद्रियमाणः परमपि नावकांक्षतीति परानवकांक्षा क्रियेति । —सिद्ध अ६ । सू६। पृ० १३ दूसरों के शरीर को नष्ट करनेवाले कार्यों को करने के निमित्त से जो क्रिया होती है वह परशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है । '३३ रागप्रत्ययिकी क्रिया ३३.१ परिभाषा / अर्थ प्रेम-रागो मायालोभलक्षणः। ठाण० स्था २ । उ १ । सू. ६० । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश माया तथा लोभ प्रेम अर्थात राग के लक्षण हैं। इनके निमित्त से होनेवाली क्रिया रागप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है । '३३.२ भेद पेज्जवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- मायावत्तिया चेव, लोहवत्तिया चेव। -----ठाण° स्था २ । उ १ । सू ६० । पृ० १८६-८७ रागप्रत्ययिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-मायाप्रत्ययिकी क्रिया तथा लोभप्रत्ययिकी क्रिया। '३३'३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ मायाप्रत्ययिकी क्रिया-- देखिये क्रमांक........"( १५) '२ लोभप्रत्ययिकी क्रिया देखिये क्रमांक ..." ( ५३) '३३.४ रागप्रत्ययिकी क्रिया और जीवदंडक (क) (अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । कम्हि पं भंते ! जीवाणं परिम्गहेणं किरिया कन्जन ? गोयमा ! सव्वदठवेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ) एवं xxx पेज्जेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरक्यभेदेणं (सु) भाणियव्वा निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । ---पपण० प २२ । सू० १५८० । पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति प्रेम-स्नेहभाव लाना राग है । ये भावकषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं, रागक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं । नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति राग से क्रिया करते हैं । (ख अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएर्ण किरिया कजइ ? हता, अस्थि । xxx एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । (देखिये क्रमांक २२.४ ) जीव राग से क्रिया करते हैं। राग-क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। राग-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रम-पूर्वक की जाती है विना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारकी जीव भी रागक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओ दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है। "Aho Shrutgyanam" Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ८३ एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडको में नारकी के समान कहना चाहिये। एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिये ! '३३.५ रागप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध : जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? .........."( पूरे पाठ के लिये देखो २२.५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्लेणं । -पण्ण० प २२ । सू१५८४ । पृ० ४७६.८० रागप्रत्ययिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बन्ध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बन्ध करता है । '३४ द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया '३४'१ परिभाषा । अर्थ द्वेषः क्रोधमानलक्षण इति । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० टीका क्रोध और मान द्वेष के लक्षण हैं। इनके निमित्त से होने वाली क्रिया द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है। "३४२ भेददोसवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-कोहे चेव माणे चेव । -ठाण० स्था २ ! उ १ ! सू ६० । पृ० १८७ द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-क्रोधप्रत्ययिकी तथा मानप्रत्ययिकी । ३४.३ भेदों की परिभाषा ! अर्थ १ क्रोधप्रत्ययिकीकोध के निमित्त से होने वाली क्रिया क्रोधप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है । नोट :----टीकाकारों ने सुगमता के कारण इसकी व्याख्या नहीं की है। __ ......... ( देखिये क्रमांक ५६ ) '२ मानप्रत्ययिकी ......( देखिये क्रमांक ५१ ) ३४४ द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया और जीवदंडक (क) ( अस्थि णं भंते : जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हता, अस्थि । कम्हि णं भंते ? जीवाणं परिम्गहेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! सव्वदन्वेसु, एवं नेरइ. "Aho Shrutgyanam" Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश याणं जाव वेमाणियाणं ) एवं xxx दोसेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरच्यभेदेणं (सु) भाणियव्वा निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति। -पण्ण ० प २२ । सू १५८० । पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति राग-द्वेष-अहं भाव लाना द्वेष है। ये भावकषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं। वे पक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं । नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति द्वेष से क्रिया करते हैं । (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवारणं किरिया कज्जइ १ हंता, अस्थि । xxx । एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्या, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले। (देखो क्रमांक २२.४ ) जीव द्वेष से क्रिया करते हैं । द्वेष-क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । द्वेष-किया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुकमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारको जीव भी द्वेषक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह किया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है। एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दडकों में नारकी के समान कहना चाहिये। ___एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिये। '३४.५ द्व पप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध : जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बन्धय ?..... ( पूरे पाठके लिये देखो २२५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्लेणं । -पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । .३५ प्रायोगिकी क्रिया '३५१ परिभाषा | अर्थ (क) तत्र प्रयोगक्रिया मनोवाकायलक्षणा विधा । तत्र स्फुरद्भिर्मनोद्रव्यरात्मन उपयोगो भवत्येवम् । वाकाययोरपि वक्तव्यम् । -सूय० श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ८५ (ख) वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रयुज्यते- व्यापार्यत इति प्रयोगो मनोवाकायलक्षणस्तस्य क्रिया करणव्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगैः मनःप्रभृतिभिः क्रियते बध्यत इति प्रयोगक्रिया। -ठाण० स्था ३ । उ३। सू १८७ । टीका (ग) आत्माधिष्ठितकाया दिव्यापारः प्रयोगः, तत्र योगत्रयकृता ( तं) पुद्गलानां ग्रहणं प्रयोगक्रिया धावनवलनादिः कायव्यापारो वा, हिंस्रपुरुपानृतादि वाम्न्यापारो वा, अभिद्रोहाभिमानेादिव्यापारो वा प्रयोगक्रिया। --सिद्ध० अ६ । सू६ । पृ० १२ (घ) गमनागमनादिप्रवर्तनं कायादिभिः प्रयोगक्रिया। -सर्व० अ६ । सू ५। पृ० ३२१ । ला १२-१३ (ड) गननागमनप्रवर्तनं कायादिभिः प्रयोगक्रिया । -राज० अ६ । सू ५। पृ० ५०६ । ला १८ (च) कायादिभिः परेषां यद्गमनादिप्रवर्तनम् । सदसत्कार्यसिद्ध्यर्थ सा प्रयोगक्रिया मता ।। —इलोवा० अ६ । सू ५ । गा ४ । पृ० ४४५ वीर्यान्तराय-क्षयोपशम से आविर्भत वीर्य के द्वारा होने वाले मन-वचन-काय योग के व्यापार अर्थात् प्रवर्तन से होने वाली क्रिया प्रायोगिकी क्रिया कहलाती है । .३५.२ भेद पओगकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-मणपओगकिरिया, वइपओगकिरिया कायपओगकिरिया। -ठाण स्था ३ । उ ३ । सू. १८७ । पृ० २१५-१६ प्रयोग किया के तीन भेद होते हैं। यथा---मन-प्रयोगकिया, वचन-प्रयोगक्रिया तथा काय-प्रयोगक्रिया।। '३५३ भेदों की परिभाषा ! अर्थ १ मनप्रयोगक्रियामनःप्रभृतिभिः क्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया कर्मेत्यर्थः । -ठाणा० स्था ३ । उ ३ । सू १८७ । टीका मन द्वारा होने वाली प्रयोगक्रिया मन-प्रयोगक्रिया कहलाती है । २ वचनप्रयोगक्रिया-- वाक --अर्थात् वचन से होने वाली प्रयोग किया वचन-प्रयोगक्रिया कहलाती है। '३ कायप्रयोगक्रियाकाय-शरीर द्वारा होने वाली क्रिया काय प्रयोगक्रिया कहलाती है । "Aho Shrutgyanam" Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ '३६ सामुदानिकी क्रिया '३६१ परिभाषा / अर्थ- क्रिया - कोश (क) 'समुदाणं' त्ति प्रयोगक्रिययैकरूपतया गृहीतानां कर्मवगणानां समितिः :- सम्यक् प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदानं स्त्रीकरणं समुदाननिपातनात्तदेव क्रिया-कर्मेति समुदानकियेति । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८८७ । टीका (ख) अपूर्वा पूर्वविरति प्रत्याभिमुख्यमुत्पद्यते यत् तपस्विनः सा समादानक्रिया | -सिद्ध अ ६ । सू ६ | ५० १२ (ग) संयतस्य सतः अविरतिं प्रत्याभिमुखं (ख्यं ) समादानक्रिया | - सर्व ० ● अ ६ । सु ५ / ३२१ | ला १३ - राज० अ ६ । सू ५ । पृ ५०६ । ला १६-२० (घ) नो कायवाङ्मनोयोगान्नो निवर्तयितुं क्षमाः । पुद्गलास्तदुपादानं स्वहेतुद्वयतोऽन्यथा ॥ संयतस्य सतः पुंसोऽसयमं प्रति यद्भवेत् । आभिमुख्यं समादानक्रिया सा वृत्तघातिनी ॥ प्रयोगक्रिया के द्वारा एक रूप में प्रकृतिबंधादि भेदों द्वारा देशघाति, समुदानक्रिया कहलाती है । ३६२ भेद - श्लोवा० अ ६ । सू ५ । गा० ५६ । पृ० ४४५ ग्रहण की गई कर्मणा को समुचित रूप से सर्वघाति रूप में आदान अर्थात् ग्रहण करना समुदाणकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- अनंतरसमुदाणकिरया, परंपरसमुद्राण किरिया तदुभयसमुदाणकिरिया : -ठाण स्था३ । उ ३ । सू २८७ । पु० २१६ समुदानक्रिया के तीन भेद होते हैं, यथा-- अनन्तरसमुदानक्रिया, परम्परसमुदानक्रिया तथा तदुभयसमुदानक्रिया । - * ३६३ भेदों की परिभाषा / अर्थ १ अनंतरसमुदानक्रिया - २ परंपरसमुदानक्रिया ३ तदुभयसमुदानक्रिया नास्त्यन्तरं व्यवधानं यस्याः साऽनन्तरा सा चासौ समुदानक्रिया चेति " Aho Shrutgyanam" Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश विग्रहः प्रथमसमयवतिनीत्यर्थः द्वितीयादिसमयवर्तिनी तु परम्परसमुदानक्रियेति, प्रथमाप्रथमसमयापेक्षया तु तदुभयसमुदानक्रियेति । -- ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८७ । टीका अनन्तर अर्थात् प्रथम समय की समुदानक्रिया अनन्तर समुदानक्रिया । परम्पर अर्थात् प्रथम समय को छोड़कर द्वितीयादि समय की समुदानक्रिया परस्पर ८७ समुदानक्रिया । प्रथम तथा अप्रथम अर्थात् दोनों समयों की अपेक्षा से होने वाली समुदानक्रिया तदुभय-समुदानक्रिया । - ३७ ऐर्यापथिकी क्रिया '३७.१ परिभाषा ! अर्थ रणमर्या तस्यास्तया वा पंथा ईर्यापथस्तत्र भवमीर्थापथिकमेतच्च शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तम् । प्रवृत्तिनिमित्तं त्विदं सर्वत्रोपयुक्तस्य निकषायस्य समीक्षितमनोवाक्कायक्रियस्य या क्रिया तया यत्कर्म तदीर्यापथिकं सैव वा क्रिया ईर्यापथिकेत्युच्यते । - सूप ० श्रु २ । अ २ । सू १४ । टीका (ख) ईरणं ईर्ष्या तस्यास्तया वा पन्था ईर्यापथः स विद्यते यस्य तदीर्यापथिकम् । एतच शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तम् । प्रवृत्तिनिमित्तं तु इदम् । सर्वत्रोपयुक्तस्य निकषायस्य समीक्षितमनोवाक्कायक्रियस्य या क्रिया तथा यत्कर्म तदीर्यापथिकं सैव वा क्रिया ईर्यापथिका । सूर्य २ । अ २ । सू १४ । दीपिका (ग) रियावहिय' त्ति ईरणमीर्या गमनं तद्विशिष्टः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी, व्युत्पत्तिमात्रमिदम् । प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्म्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐर्यापथिकी क्रिया | कर्मविशेषो इह जीवव्यापारेऽप्यजीव प्रधानत्वविवक्षयाऽजीव क्रियेयमुक्ता, वैर्यापथिक क्रियोच्यते । -- ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टोका (घ) ' इरियावहियं' त्ति ईर्या गमनम् तद्विषयः पन्था मार्गः - ईर्यापथः, तत्र भवा ऐर्यापथिकी- केवलकाययोगप्रत्ययः कर्मबन्ध इत्यर्थः । -भग० श १ । उ १० । प्र ३२५ । टीका (ङ) ईर्यापथकर्मणो याऽति ( हि ? ) निमित्तभूतावव्यमानवेद्यमानस्य सेर्यापथक्रिया । अत्र च काश्चित् साम्परायिककर्मणः आश्रवः, काश्चिच्च न (?) । - सिद्ध ० अ ६ । सू ६ । पृ० १२ "Aho Shrutgyanam" Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ क्रिया-कोश (च) ईर्यापथनिमित्तेर्यापथक्रिया । - सर्व ० अ ६ । सू ५ । पृ० (छ) ईर्यापथकर्मनिमित्ता ईर्यापथक्रिया । जो ऐर्यापथिक क्रिया प्रथम समय में क्रिया है । ३२२ । ला १ - राज० अ ६ / सू ५ / ० ५०६ । ला २ (ज) ईर्यापथक्रिया तत्र प्रोक्ता तत्कर्महेतुका । - श्लोवा० अ ६ । सू ५ । गा७ । पृ० ४४५ 'ईरणमीय' गमन का विशिष्ट पथ या तरीका वह ईर्यापथ उससे होनेवाली क्रियाऐर्यापथिकी क्रिया - यह शाब्दिक—व्यौत्पत्तिक अर्थ होता है । जहाँ केवल योगनिमित्त से सातावेदनीय कर्म का वन्ध होता है वहाँ ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। अजीव - कर्मपुद्गल का बन्ध होता है। अतः इसको अजीवक्रिया का भेद कहा है यद्यपि यह जीव का व्यापार है । कर्मविशेष के बन्ध की प्रधानता की अपेक्षा इसको अजीव ऐर्यापथिकी क्रिया कहा गया है । ( देखो अजीव क्रिया १२ ) दूसरे शब्दों में योगनिमित्त - जाने, खड़े होने, सोने, बैठने तथा वत्र पात्रादि के लेने रखने यावत् आँखों के पलक के हिलाने मात्र से जो किया होती है वह ऐर्यापथिकी क्रिया । इस क्रिया से सातावेदनीय कर्म का बंध होता है । - ३७२ इरियावहिया किरिया दुविहा- बज्झमाणा वेइज्जमाणा य । -ठान स्था २ । ७१ । सू. ६० । टोका ऐपथिकी क्रिया दो प्रकार की होती है --- बध्यमान तथा वेद्यमान | ३७.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ * १ बज्झमाणा ऐर्यापथिकी क्रिया, जा (व) पढमसमये बद्धा ! - ठाण० स्था २ । उ १ । सृ ६० । टीका वध्यमान हो वह वध्यमान- ऐर्यापथिकी '२ वेइज्जमाणा ऐर्यापथिकी क्रिया, बीयसमये वेश्या । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका जो ऐर्यापथिकी क्रिया द्वितीय समय में वेद्यमान हो वह वेद्यमान-देर्यापथिको क्रिया है । ३७४ ऐर्यापथिकी क्रिया किसके, कैसे, कियत्कालीन होती है : -- (क) अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिए त्ति आहिज्जइ । इह खलु अत्त ता संवुडस् अणगारस्स ईरियासमियास भासासमियरस एसणासमियस्स आयाणभंडमत्तनिक्वणास मियस्स उच्चारपासवगखेलसिंघाणजल्लपारिठ्ठाबणियासमियरस "Aho Shrutgyanam" Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश मणसमियरस वयसमियास कायसमियस्स मणगुत्तस्स वयगुत्तरस कायगुत्तस्स गुत्तिदियस्स गुत्तभयारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं निसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस आउत्तं भुंजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं गिण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हनिवायमवि अस्थि विमाया सुहमा किरिया ईरियावहिया नाम कजइ। सा पढमसमए बद्धा पुट्ठा बिईयसमए वेझ्या तश्यसमए निजिण्णा सा । बद्धा, पुट्टा, उदीरिया, वेश्या, निज्जिण्णा सेयकाले अकम्मे या वि भव । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं ( सावज्जं) ति आहिज्जइ, तेरसमे किरियट्ठाणे ईरियावहिए त्ति आहिज्जइ । -सूय ० श्रु २ । अ २ । सू १४ । पृ० १४६ टीका- आत्मनो भाव आत्मत्वं तदर्थमात्मत्वार्थ संवृतस्य मनोवाक्कायः । परमार्थत एवंभूतस्यैवात्मभावोऽपरस्य त्वसंवृतस्यात्मतत्त्वमेव नास्ति सद्भूतात्मकार्यकारणात् । तदेवमात्मा) संवृतस्यानगारस्येर्यापथिकादिभिः पंचभिः समितिभिमनोवाक्कायैः समितस्य तथा तिमृभिगुप्तस्य । पुनर्गुप्तिग्रहणमेताभिरेव गुप्तिभिर्गुप्तो भवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनायात्यादरख्यापनार्थ वेति । तथा गुप्तेन्द्रियस्य नवब्रह्मचर्यगुप्त्युपेतब्रह्मचारिणश्च । सतस्तथोपयुक्त गच्छतस्तिष्ठतो निषीदतो मुनेस्त्ववर्तनांकुर्वाणस्य तथोपयुक्तमेव वस्त्रं पतद्ग्रहं कंबलं वा पादपुंछनकं वा गृह्णतो निक्षिपतो वा यावञ्चक्षुःपक्ष्मनिपातमप्युपयुक्त कुर्वतः सतोऽत्यंतमुपयुक्तस्याप्यस्ति विद्यते विविधा मात्रा विमात्रा तदेवं विधा सूक्ष्माक्षिपक्षमसंचलनरूपादिकेर्यापथिकानामक्रिया केवलिनापि क्रियते । तथाहि । सयोगी जीवो न शक्नोति क्षणमप्येकं निश्चलः स्थातुमग्निना ताप्यमानोदकवत्कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तयन्नेवास्ते । xxx। तदेवं केवलिनोपि सूक्ष्मगात्रसंचारा भवन्तीह च कारणे कार्योपचारात्तया क्रियया यद्बध्यते कर्म तस्य कर्मणो या अवस्थास्ताः क्रियाः । ता एव दर्शयितुमाह । ___ या सावकाषिणः क्रिया तया यद्बध्यते कम तत्प्रथमसमयएव बद्धं स्पृष्टं चेति कृत्वा तक्रियैव बद्धस्पृष्टत्युक्ता तथा द्वितीयसमये वेदितेत्यनुभूततृतीयसमयेऽतिजीर्णा । एतदुक्त भवति । कर्मयोगनिमित्तं बध्यते तस्थितिश्च कषायायत्ता तदभावान न तस्य सांपरायिकस्येव स्थितिः किन्तु योगसद्भावाद्वध्यमानमेव स्पृष्टतां संश्लेषं याति । द्वितीयसमये त्वनुभूयते तच्च प्रकृतितः सातावेदनीयं स्थितितो द्विसमयस्थितिकमनुभावतः शुभानुभावं अनुत्तरोपपातिकदेवसुखातिशायि देशतो बहुप्रदेशमस्थिरबंधं बहुव्ययं च तदेवं सेर्यापथिका क्रिया प्रथमसमथे बद्धस्पृष्टा द्वितीयसमये उदिता वेदिताऽतिजीर्णा १२ "Aho Shrutgyanam" Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश भवति । (सेयं काले त्ति) आगामिनि तृतीयसमये तत्कर्मापेक्षया कर्मतापि च भवति । एवं तावद्वीतरागस्यर्याप्रत्ययिकं कमीधीयते संबध्यते । ___ (ख) अत्तत्ता संवुडस्स अणगारस्स ईरियासमियस्स जाव गुत्तबंभयारियस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, चिट्ठमाणस्स, निसीयमाणस्स, तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणं गेहभाणस्स, णिक्खिवमाणस्स, जाव चक्खुपम्ह निवायमवि वेमाया सुहमा ईरियावहिया किरिया कजइ, सा पढमसमयबद्धपुठ्ठा, बिइयसमयवेड्या तइयसमयनिजरिया, सा बद्धा, पुट्ठा, उदीरिया, वेश्या, निजिण्णा, सेयकाले अकम्म वा वि भव। --भग० श ३ । उ ३ । प्र १५ । पृ० ४५७-५८ टीका--... 'अत्तत्ता संवुडस्स' आत्मनि आत्मना संवृतस्य प्रतिसंलीनस्य इत्यर्थः । एतदेव 'ईरियासमियस्स' इत्यादिना प्रपंचयति ! 'आउत्तं' ति आयुक्तम् - उपयोगपूर्वकमित्यर्थः। 'जाव चक्खुपम्हनिवायमवि' त्ति किं बहुना आयुक्तगमनादिना स्थूलक्रियाजालेनोक्तन ? यावच्चक्षुःपक्ष्मनिपातोऽपि -- प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः-- उन्मेषनिमेषमात्रक्रियाऽप्यस्ति, आस्तां गमनादिका तावदिति शेषः । 'वेमाय' त्ति विविधमात्रा अन्तर्मुहूर्तादेदेशोनपूर्वकोटीपर्यन्तस्य क्रिया, कालस्य विचित्रत्वात् । वृद्धाः पुनरेवमाहुः-- "यावता चक्षयोनिमेषोन्मेषमात्राऽपि क्रिया क्रियते, तावताऽपि कालेन विमात्रया स्तोकयाऽपि मात्रया इति । क्वचित् 'विमात्रा' इत्यस्य स्थाने 'सपेहाए'त्ति दृश्यते। तत्र च स्वप्रेक्षया -स्वेच्छया चक्षःपक्ष्मनिपातः, न तु परकृतः । 'सुहुम' त्ति सूक्ष्मबंधादिकाला, 'ईरियावहिय' ति ईर्यापथो गमनमार्गः: तत्र भवा ऐापथिकीकेवलयोगप्रत्यया इति भावः। 'किरिय' त्ति कर्म सातवेदनीयमित्यर्थः। 'कज्जई' त्ति क्रियते भवति–इत्यथः। उपशान्तमोह-क्षीणमोह-सयोगिकेवलि-लक्षणगुणस्थानकत्रयवर्तिवीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात् सातवेद्य कर्म बध्नाति-- इति भावः । 'से' त्ति ईर्यापथिकी क्रिया 'पढमसमयबद्धपु?' ति बद्धा कर्मतापादनात्, स्पृष्टा जीवप्रदेशैः सर्शनात्, ततः कर्मधारये, तत्पुरुषे च सति ---प्रथमसमयबद्धस्पृष्टा। तथा द्वितीये समये वेदिता अनुभूतत्वरूपा - द्वितीयसमयवेदिता। एवं तृतीयसमये निर्जीर्णा-अनुभूतस्वरूपत्वेन जीवप्रदेशेभ्यः पारिशाटिता- इति । एतदेव वाक्यान्तरेणाऽऽह सा बद्धा स्पृष्टा प्रथमे समये, द्वितीये तु उदीरिता-उदयमुपनीता । किमुक्त भवति ? बेदिता, नहि एकस्मिन् समये उदीरणा, उदयश्च संभवति–इत्येवं व्याख्यातम् । तृतीये तु निर्जीर्णा ततश्च 'सेयकाले' त्ति एष्यत्काले, 'अकम्मं वा वि' त्ति अकर्म अपि च भवति । इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्म अकम भवति, तथापि तत्क्षण एव अतीतभावकर्मत्वेन द्रव्यकर्मत्वात् तृतीये निर्जीर्णकर्म - इति व्यपदिश्यते, चतुर्थादिसमयेषु तु अकर्म इति । "Aho Shrutgyanam" Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ६१ युक्त, ईर्या, भाषा, एषणा, आदानभंड निक्षेपण, उच्चारप्रस्रवण आदि परिष्ठापन समिति से मन-वचन-काया से समित, मन-वचन-काया- इन्द्रिय से गुप्त, तथा गुप्त ब्रह्मचारी अर्थात विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, उपयोग सहित चलने वाला, खड़ा होने वाला, बैठने वाला, भोजन करने वाला, बोलने वाला तथा उपयोग सहित वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन -- रजीहरण आदि को ग्रहण करने वाला या रखने वाला यावत् चक्षु की पलक को भी उपयोग से हिलाने वाला जो आत्मार्थी संवृत अणगार - साधु है उसके योग मात्र सेविविध मात्रा वाली सूक्ष्म ऐर्यापथिक क्रिया लगती है । यह क्रिया टीकाकार के अनुसार उपशान्तमोह-- क्षोणमोह – सयोगी केवली के लगती है । सयोगी जीव क्षणमात्र के लिये भी अग्नि में तपते हुए जल की तरह निश्चल नहीं रह सकते हैं अतः यह क्रिया सयोगी केवली के भी लगती है । जाने, आने, चलने आदि स्थूल क्रिया यावत् आँख की पलक हिलने मात्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्मयौगिक क्रिया से ऐर्यापथिक क्रिया लगती है । यह क्रिया प्रथम समय में बद्ध और स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में वेदित और अनुभूत होती है, तृतीय समय में निजीर्ण होती हैं, वह बद्धस्पृष्ट- उदीरित-वेदित-निर्ज्जरित किया उसी तीसरे समय में अकर्म हो जाती है । इस प्रकार सदा जाग्रत संयमी -मुनियों के भी ऐर्यापथिक क्रियास्थान से लगने वाला ( सावद्य ) का वर्णन किया गया है। यह तेरहवाँ ऐर्यापथिक क्रियास्थान है । टीकाकार के अनुसार ऐर्यापथिक क्रिया से सातावेदनीय स्थिति से दो समय की स्थिति वाला, अनुभाव से शुभानुभाव वाला तथा अनुत्तरोपपातिक देवों के सुखातिशय के समान तथा प्रदेश से बहुप्रदेश से अस्थिर बन्ध तथा बहुव्यय वाले कर्म का बन्ध होता है । ऐर्यापथिक क्रिया से मात्र योग निमित्त से कर्म का बंध होता है तथा कषाय के अभाव में साम्परायिक स्थिति वाला बंध नहीं होता है किन्तु योग के सद्भाव से बद्धस्पृष्ट होकर संश्लेष को प्राप्त होता है । ऐर्यापथिक क्रिया जीव के ज० अन्तर्मुहूर्त उ० देशोनपूर्व कोटि कालपर्यन्त लगती रहती है । '३८ साम्परायिकी क्रिया ३८१ परिभाषा / अर्थ (क) सम्परायाः – कषायास्तेषु भवा साम्परायिकी, सा ह्यजीवस्य पुद्गलराशेः कर्मतया परिणतिरूपा जीवव्यापारस्याविवक्षणादजीव क्रियते सा च सूक्ष्मसम्परायातानां गुणास्थानकवतां भवतीति । ठाण० स्था २ । उ १ | सू ६० । टीका " Aho Shrutgyanam" Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ क्रिया कोश (ख) 'संपराइयं च' त्ति सम्परैति भ्रमति प्राणी भवे एभिरिति सम्परायाः कषायाः, तत्प्रत्यया या सा साम्परायिकी-कषायहेतुकः कर्मबन्ध इत्यर्थः । --भग० श १ ! उ १० । प्र ३२५ । टीका (ग) सम्परायः संसारः । तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकम् । --सर्व० अ६। सू ४ । पृ० ३२१ । ला १ (घ) समन्तात्पराभव आत्मनः सम्परायः। कर्मणि समन्तादात्मनः पराभवोऽभिभवः सम्पराय इत्युच्यते। तत्प्रोजनं साम्परायिम् । तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते यथा ऐन्द्रमहिकमिति । –राज० अ ६ । सू ४ । पृ० ५०८ । ला १३-१६ (ङ) सम्परत्यस्मिन्नात्मेति सम्परायः चातुर्गतिकः संसारः । समित्ययं समन्ताद्भावे संकीर्णादिवत् परा भृशार्थे सम्परायते च, स सम्परायः प्रयोजनमस्य कर्मणः साम्परायिकः-संसारपरिभ्रमणहेतुः। -सिद्ध ० अ ६ । सू ५ । पृ०८ (च) समन्ततः पराभूतिः संपरायः पराभवः। जीवस्य कर्मभिः प्रोक्तस्तदर्थ साम्परायिकम् ॥ -श्लोवा० अ६ । सू ४ । गा ४ | पृ० ४४ सम्पराय अर्थात् भव--संसार में भ्रमण : जिस क्रिया से भव--संसार में प्राणी भ्रमण करे वह साम्परायिकी क्रिया । 'सम्परायाः अर्थात् कषायाः कषायों के निमित्त से जो क्रिया हो वह साम्परायिकी क्रिया। ऐ-पथिकी क्रिया की तरह अजीवकर्मवन्ध की विवक्षा से इसे अजीवक्रिया का भेद कहा है। '३६ सम्यक्त्व क्रिया ३६.१ परिभाषा / अर्थ (क) सम्यक्त्वं तत्त्वं श्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया सम्यक्त्वक्रिया। -सर्व० अ० ६ । सू ५ । पृ० ३२१ । ला:१२ -राज० अ ६ । सू ५ । पृ० ५०६ । ला १६-१७ (ग) तत्र चैत्यश्रुताचार्यपूजास्तवादिलक्षणा।। सम्यक्त्ववर्धनी ज्ञ या विद्भिः सम्यक्त्वसक्रिया ॥ ----श्लोवा० अ६ । सू ५ । गा २ । पृ०४४५ "Aho Shrutgyanam" Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश (घ) तत्र सम्यक्त्वक्रिया -- सम्यक्त्वकारणम् । सम्यक्त्वं च मोहशुद्धदलिकानुभवः प्रायेण तत्प्रवृत्ता क्रिया सम्यक्त्व क्रिया । - सिद्ध० अ ६ । सू ६ । पृ० ११ सम्यक्त्व अर्थात् तत्त्वश्रद्धान से जीव के व्यापार द्वारा होने वाली किया को सम्यक्त्वक्रिया कहते हैं । -४० मिध्यात्वक्रिया '४०१ परिभाषा / अर्थ ६३ (क) मिध्यात्वं अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एवेति । -- ठाण• स्था २ । (ख) अतो विपरीता मिध्यात्वक्रिया तत्त्वार्थाऽश्रद्धानलक्षणा | -- - सिद्ध० अ ६ / सू. ६ । पृ० ११ १२ (ग) अन्य देवतास्तवनादिरूपा मिथ्यात्वहेतुका (की) प्रवृत्तिमिध्यात्वक्रिया | - सर्व ० अ ६ । सू ५ । पृ० ३२१ | ला १२-१३ - राज० अ ६ । सू ५ । पृ० ५०६ । ला १७-१८ मिथ्यात्वप्रवर्धनी । १ । सू ६० । टीका (घ) कुवैत्यादिप्रतिष्ठादिर्या सामिध्यात्वक्रिया बोध्या मिथ्यत्वोदयसंसृता ॥ श्लोवा० अ ३ । सू ५ । गा ३ । पृ० ४४५ अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान से जीव के व्यापार द्वारा अथवा अन्य देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा अथवा उनके पूजनादि रूप से होनेवाली क्रिया मिथ्यात्व क्रिया है । नोट : देखिए १७ तथा ६३ । ४०२ भेद तिविहे मिच्छत्ते पन्नत्त, तंजहा -- अकिरिया, अविणए, अण्णाणे । -ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू. १८८७ । पृ० २१५ मिथ्यात्व के तीन भेद हैं यथा-अक्रिया, अविनय, तथा अज्ञान । "Aho Shrutgyanam" ४०३ भेदों की परिभाषा / अर्थ 'अकिरिय' त्ति नहि दुःशब्दार्थो यथा अशीला दुःशीलेत्यर्थः, ततश्चाक्रिया- दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाद्य ुपहतम्यामोक्षसाधकमनुष्ठानं यथा मिथ्यादृष्टेर्ज्ञानमप्यज्ञानमिति एवमविनयोऽपि, अज्ञानम् - असम्यग्ज्ञानमिति । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८७ । टीका Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ क्रिया - कोश मिथ्यात्व आदि से उपहत की अमोक्षसाधक अनुष्ठानरूप दुष्टक्रिया अक्रिया है । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि का विनय अविनय किया है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञानक्रिया है । ४१ अक्रिया ( दुष्प्रयुक्तक्रिया ) '४११ परिभाषा / अर्थ 'अकिरिय' त्ति नहि दुःशब्दार्थो यथा अशीला दुःशीलेत्यर्थः, ततश्चाक्रिया -- दुष्टक्रिया मिध्यात्वाद्युपहतस्यामोक्षसाधकमनुष्ठानम्। -- ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८७ । टीका यहाँ नकारात्मक 'अ' उपसर्ग दुःशब्द का द्योतक है जैसे अशील को दुःशील कहा जाता है अतः अक्रिया अर्थात् मिथ्यात्व आदि से उपहत व्यक्ति का मोक्षसाधक अनुष्ठान-दुष्टक्रिया अर्थात् अक्रिया । ४१२ भेद अकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा - पओगकिरिया, समुदानकिरिया, अन्नान किरिया । ठाण० स्था३ । ३ । सू १८७ पृ० २१५ अक्रिया के तीन भेद होते हैं, यथा प्रयोगक्रिया, समुदानक्रिया तथा अज्ञानक्रिया । *४१३ भेदों की परिभाषा / अर्थ ४१.३१ प्रयोगक्रिया तत्र वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रयुज्यते - व्यापार्यत इति प्रयोगो - मनोवाक्कायलक्षणस्तस्य क्रिया -- करणं व्यावृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगः - मनःप्रभृतिभिः क्रियते - बध्यत इति प्रयोगक्रिया कर्मेत्यर्थः, सा च दुष्टत्वादक्रिया । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८० । टीका वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उद्भुत वीर्य से आत्मा जो व्यापार करती प्रयोग है । मन, वचन, काय का प्रयोग प्रयोगक्रिया | दुष्टत्व से प्रवर्त्तित प्रयोग क्रिया प्रयोग अक्रिया । वह ४१३२ समुदानक्रिया- 'समुदाणं' ति प्रयोगक्रिययैकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां समितिःसम्यक् प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदानं - खीकरणं समुदान निपातनात्तदेव क्रिया-कर्मेति समुदानक्रियेति । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८८७ । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश हंदू प्रयोगक्रिया की एकरूपता से गृहीत कर्मवर्गणाओं का सम्यक् रूप से देशसर्वोप धाति रूप से - आदान—स्वीकरण समुदानक्रिया । *४१३३ अज्ञान क्रिया अज्ञानात् वा चेष्टा कम्मे वा सा अज्ञानक्रियेति । -- ठाण० स्था ३ अज्ञान से जो कर्म अथवा चेष्टा हो वह अज्ञानक्रिया | ४२ अज्ञानक्रिया ( अक्रिया का भेद ) ४२१ परिभाषा / अर्थ अज्ञानम् -- असम्यग्ज्ञानमिति, अक्रिया हि अशोभना क्रियैवातोऽक्रिया | xxx अज्ञानात् वा चेष्टा कर्म वा सा अज्ञानक्रियेति । उ २ । सू १८७ । टीका -- ठा० स्था ३ । ३ । सू १८७ । टोका असम्यग्ज्ञान-अज्ञान । अज्ञान में जो कर्म अथवा चेष्टा हो वह अज्ञानक्रिया है । ४२.२ भेद अण्णाणकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा मइअण्णाणकिरिया, सुयअण्णाणकिरिया विभंगअण्गाणकिरिया । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू. १८७ । पृ २१६ अज्ञानक्रिया के तीन भेद होते हैं, यथा-मतिअज्ञानक्रिया, श्रुतअज्ञान क्रिया, तथा विभंगअज्ञानक्रिया । ४२३ भेदों की परिभाषा / अर्थ *४२३१ मतिअज्ञानक्रिया- 'अन्नागकिरिय' त्ति अविसेसिया मश्चिय सम्मद्दिट्ठिस्स सा मइन्नाणं । म अन्नाणं मिच्छादिट्टिश्स सुयंपि एमेव ॥ १॥ ति । मत्यज्ञानात् क्रिया- अनुष्ठानं मत्यज्ञानक्रिया एवमितरे अपि । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८७ । टीका सम्यष्टि वाली मति अर्थात् मतिज्ञान | मिथ्यादृष्टि वाली मति मतिअज्ञान हुआ । मतिअज्ञान अर्थात् मिध्यादृष्टि वाली मति द्वारा की गई क्रिया मतिअज्ञान क्रिया है । *४२३२ श्रुतअज्ञान क्रिया अन्नाणं मिच्छादिट्टिश्स सुर्यपि एमेव । - ठाण० स्था ३ । ३ । सू १८७ । टीका । मतिअज्ञान अर्थात् मिथ्यादृष्टि वाली मति से होने वाली मतिअज्ञान क्रिया की तरह ही श्रुतअज्ञान से होने वाली क्रिया भुतअज्ञान क्रिया होती है। I "Aho Shrutgyanam" Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ '४२'३'३ विभंगअज्ञानक्रिया --- क्रिया - कोश विभंगो मिथ्यादष्टेरवधिः स एवाज्ञानं विभङ्गाज्ञानमिति । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८८७ | टोका मिथ्यादृष्टि का अवधिज्ञान विभंग है । मिथ्यादृष्टि की अवधि वाला अज्ञान विभंगअज्ञान है । इस विभंग अज्ञान से होनेवाली क्रिया विभंग अज्ञान क्रिया होती है । - ४३ अर्थदंडप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) *४३१ परिभाषा / अर्थ भूल से जहानामए के पुरिसे आयहेडं वा नाइहेडं वा अगारहेडं वा परिवारहेड वा मित्तहेउ वा नागहेडं वा भूयहेडं वा जक्लहेडं वा तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहि सयमेव निसिरइ अन्नेण वि निसिरावेइ अन्नंपि निसिरंतं समणुयाणइ, एवं खलु तर तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिए । - सूय० श्रु २ । अ २ । सू २ | पृ० १४५ समादानं ग्रहणं - ( दण्ड- समादानं) | टोका दण्डः पापोपादानसंकल्पस्तस्य × × × । आत्मार्थाय स्वप्रयोजनकृते दण्डोऽर्थदण्डः पापोपादानम् । - सूय० श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका यदि कोई व्यक्ति अपने लिए, जाति, घर, परिवार, मित्र, नाग, भूत और यक्ष के लिए किन्हीं बस-स्थावर प्राणियों के प्राण का घात स्वयं करे, दूसरे से करावे और घात करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करे, तो उसको अर्थदंडप्रत्ययिक सावद्यक्रिया लगती है । यह १३ क्रियास्थानों में पहला अर्थदंड प्रत्ययिक दंडसमादान है । प्रथम पाँच क्रियास्थानों को दंड-समादान नाम दिया गया है क्योंकि इनमें प्रायः दूसरे जीवों का उपघात होता है । -४४ अनर्थदण्डप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) '४४१ परिभाषा / अर्थ से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते नो अचार नो अजिणाए नो मंसाए नो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए बसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए नहाए व्हारुणिए अट्ठीए अट्ठिमंजाए नो हिंसिस मेत्ति, नो हिंसंति मे त्ति, नो हिसिस्संति मे त्ति ; नो पुत्त पोसणाए नो पसुपोसणाए नो अगार- परिवहणयाए नो समण माहण-वत्तणाहेउ नो तस्स सरीरगस्स "Aho Shrutgyanam" Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश हज किंचि विपरियाइत्ता भवंति ; से हांता छेत्ता भेत्ता लुम्पइत्ता विलुम्पइत्ता उद्दवइसा afts बाले वेरस्स अभागी भवइ अणट्ठादंडे । से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवंति । तंजहा -- इक्कडाइ वा कडिणा इवा, जंतुगा इवा, परगा ३ वा, मोक्खा इवा, तणा इवा, कुसा इवा, कुच्छगा इवा, पव्वगा इवा, पलाला इवा, ते नो पुत्त-पोसणाए, तो पसुपोसणाए, नो अगार- परिवूहणयाए, नो समण-माहण-पोसणयाए, नो तरस सरीरगस्स किंचि विपरियाइत्ता भवंति ; से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवत्ता उज्झिउ बाले वेरस्स आभागी भवइ, अणट्ठादंडे | से जहानामए के पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उद्गंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा नूमंसि वा गहणंसि वा गहण - विदुरगंसि वा वर्णसि वा वणविदुगांसि वा पव्वयंसि वा पव्वय-विदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय ऊसविय सयमेव अगणिकार्य निसिरइ अन्नेण वि अगणिकायं निसिरावेश, अन्नं पि अगणिकार्य निसितं समणुजाण अणट्टा दंडे ! एवं खलु तर तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । दोच्चे दंड- समादाणे अणट्टादंडवत्तए त्ति आहिए । - सूय० श्रु० २ । अ २ / सू ३ | पृ० १४५-४६ कोई एक व्यक्ति शरीर, चमड़ी, मांस, खून, हृदय, पित्त, वसा (चरबी), पंख, पूँछ, बाल, सींग, दाँत, दाढ़, नख, स्नायु, हड्डी और अस्थि मजा आदि के लिए त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता है या इसने मुझे पहले मारा था, मारता है या मारेगा - यह विचार कर या पुत्र - पशु के पालन के लिए, गृहस्थाश्रम की उन्नति के लिए, श्रमण-ब्राह्मण का पालन करने के लिए या अपने शरीर की रक्षा के लिए, हिंसा नहीं करता है परन्तु विवेक के अभाव में व्यर्थ कोड़ार्थ - व्यसनार्थ ही त्रस प्राणियों को छेदता है, भेदता है, काटता है, उनकी चमड़ी उधेड़ता है और उन्हें उद्वेग पहुँचाता है वह अज्ञानी उनके वैर का भागी बनता है । यह त्रस की अपेक्षा अनर्थदंड है । कोई एक व्यक्ति संसार में जो स्थावर प्राणी होते हैं यथा - इक्कड, तृण, वंशग, जंतुरा, परग, मोक्ख, तृण, कुश, कुच्छ्रग, पर्वक, पलालादि (पत्र, फल, पुष्पादि ) प्राणियों का उपर्युक्त की तरह पुन्नादि के पोषण के लिए यावत् स्वशरीररक्षार्थ नहीं परन्तु विवेक के अभाव में क्रीड़ा आदि निमित्त दंडादि के प्रहार से हनन करता है, छेदता है, भेदता है, अंग - - अवयव काटता है, छाल उतारता है, नाना प्रकार की पीड़ा उपजाता है वह अज्ञानी केवल वैर का भागी होता है। यह स्थावर - वनस्पतिकाय की अपेक्षा अनर्थदंड है । कच्छार, जलाशयादि, झीलादि, जल से परिवेष्टित स्थान, घास से परिपूर्ण स्थान, अटवी, गहन अटवी, उतारभूमि, वन, वन के दुर्गमस्थल, पर्वत, पर्वत के दुर्गमस्थलों पर १३ "Aho Shrutgyanam" Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश तृण के ढेर एकत्रित करके स्वयं उनको अकारण—निरुद्देश्य अग्नि से प्रज्ज्वलित करता है, दूसरे से प्रज्ज्वलित करवाता है तथा प्रज्ज्वलित करने वालों का अनुमोदन करता है—यह अग्निकाय की अपेक्षा अनर्थदंड है । उपर्युक्त तीनों व्यक्तियों को अनर्थदंडप्रत्यायिक सावद्य क्रिया लगती है । यह दूसरा अनर्थदंड प्रत्ययिक दंड-समादान है । टीका-निष्प्रयोजनमेव सावधक्रियानुष्ठानमनर्थदण्डः । -सूय० श्रु २ । अ । २ सू १ । टीका '४५ हिंसादण्डप्रत्ययिक क्रिया ( स्थान ) '४५१ परिभाषा / अर्थ से जहानामए केइ पुरिसे ममं वा ममि वा अन्नं वा अन्निं वा हिंसिसु वा हिंसइ वा हिंसिस्सइ वा तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव निसिर३, अन्नेण वि निसिरावेइ, अन्नं पि निसिरंत समणुजाणइ हिंसादंडे! एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज ति आहिज्जइ । तच्चे दंड-समादाणे हिंसा-दंड-वत्तिए त्ति आहिए । -सूय० श्रु २ । अ २ । सू ४ । पृ० १४६ टोका-हिंसनं हिंसा-प्राण्युपमर्दरूपा तया सैव वा दण्डो हिंसादण्डः । __ -सूय० श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका यदि कोई व्यक्ति यह सोचकर कि अमुक त्रस या स्थावर प्राणी ने मुझको या मेरे परिवार को या स्वजन को या अन्य किसी को मारा है, मारता है तथा मारेगा उस त्रस या स्थावर जीव के प्राण का स्वयमेव हनन करता है, दूसरे से करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है उस व्यक्ति को हिंसादंड-प्रत्ययिक सावधक्रिया लगती है। यह तीसरा हिंसादंडप्रत्यायिक दंड-समादान है। '४६ अकस्मात् दंडप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) ४६.१ परिभाषा/अर्थ __ से जहानामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा जाव वण-विदुग्गंसि वा मियवत्तिए मिय-संकप्पे मिय-पणिहाणे मिय-वहाए गंता एए मिय त्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसु आयामेत्ताणं निसिरेजा ; 'समियं वहिस्सामि'-त्ति कटु तित्तिरं वा वट्टगं वा चडगं वा लावगं वा कवोयगं वा कवि वा कविंजलं वा विधित्ता भवइ, इह खलु से अन्नरस अट्ठाए अन्नं फुसइ अकम्हा दंडे । "Aho Shrutgyanam" Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ξε से जहानामए केइ पुरिसे सालीणि वा वीहीणि वा कोहवाणि वा कंगूणि वा परगाणि वा रालाणि वा निलिज़माणे अन्नयरस्स तणस्स वहाए सत्थं निसिरेज्जा, से सामगं तणगं कुमुदुगं वीही-ऊसियं कलेसुयं तणं छिंदिस्सामित्ति कट्टु सालिं वा वी वा कोहवं वा कंगु वा परगं वा रालयं वा द्विदित्ता भवइ, इति खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्नं कुसर अकम्हा दंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं आहिज्जइ । चउत्थे दंड - समादाणे अम्हा दंड वत्तिए आहिए । सू० श्रु २ : अ २ । सू ५ | पृ १४६-४७ टीका -- अकस्मादनुपयुक्तस्य दण्डोऽकस्माद्दण्डः, अन्यस्य क्रिययाऽन्यस्य व्यापादनमिति । - सूप ० श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका यदि कोई बहेलिया - शिकार से आजीविका चलाने वाला व्यक्ति मृग को मारने के संकल्प से मृग की खोज में, शिकार के लिए कछार यावत् दुर्गम वनस्थलों में जाकर वहाँ किसी मृग - पशु को देखकर उसको मारने के विचार से धनुष से तीर छोड़े लेकिन बीच में ही अचानक वह तीर किसी तीतर, बटेर, चिड़िया, लावक, कबूतर, बन्दर, चातक पक्षी आदि को बींध दे -- यह किसी एक को मारने के उद्देश्य से हठात् किसी अन्य को मारने वाला अकस्मात् दंड है । यह त्रस की अपेक्षा अकस्मातुदंड है । यदि कोई व्यक्ति-किसान शाली, वीहि, कोद्रव, कंग, परक, राल आदि धान्य के खेत में निरान करते हुए श्यामादिक तृण विशेष को उखाड़ने के लिए दांती - हँसिया चलावे लेकिन बीच में ही अचानक वह शस्त्र शालि, त्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक, राल आदि धान्य को भी काट दे । श्यामादिक तृणाविशेष को छेदने के उद्देश्य से हठात् शालि आदि धान्य को छेदने वाला यह स्थावर - वनस्पतिकाय की अपेक्षा अकस्मात् - दंड है । उपर्युक्त दोनों व्यक्तियों को अकस्मात् - दंडप्रत्ययिक सावद्यक्रिया लगती यह चौथा अकस्मात् - दंड प्रत्ययिक दंड-समादान है । ४७ दृष्टिविपर्यास प्रत्ययिक क्रिया ( स्थान ) '४७१ परिभाषा/अर्थ से जहानामए के पुरिसे माईईि वा पिईहिं वा भाईहिं वा भगिणीहिं वा जाहिं वा पुत्तर्हि वा धूयाहिं वा सुण्हाहिं वा सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमित्त मेव मन्नमाणे मित्ते हय पुग्वे भवइ दिट्ठि विपरिया सियादंडे | से जहानामए - केइ पुरिसे गाम-वायंसि वा नगर- घायंसि वा खेड-घायंसि कब्बड़-घायंसि मडंब-घायंसि वा दोण-मुह-घायंसि वा पट्टण घायंसि वा आसमघायंसि वा संनिवेस घायंसि वा निग्गम घायंसि वा रायहाणि-घायंसि वा अतेणं " Aho Shrutgyanam" Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश तेणमिति मन्नमाणे अतेणे हय-पुव्वे भवइ दिद्विविपरियासियादंडे। एवं खलु तस्स तम्पत्तियं सावज ति आहिजइ । पंचमे दंड-समादाणे दिट्ठि-विपरियासिया-दंडवत्तिए त्ति आहिए। - सूय ० श्रु २ । अ २ । सू ६ । पृ० १४७ .. टीका- दृष्टविपर्यासो रज्जुमिव सर्पबुद्धिस्तया दंडो दृष्टि विपर्यासोऽबुद्धिदण्डः । तद्यथा लेष्टुकादिबुद्ध या शराद्यभिघातेन चटकादिव्यापादनम् । . -सूय श्रु २ ! अ २! सू १ । टीका ___ यदि कोई व्यक्ति माता, पिता, भाई, वहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि के सहवास में रहता हुआ ज्ञातिका परिपालन करने के लिये अपने मित्र को शत्रु समझ कर, भ्रम से उसे मारता है । यह मिन को शत्रु के भूम से मारने वाला दृष्टिविपर्यासदंड है । यदि कोई व्यक्ति गाँव, नगर, खेड ( नदी से परिवेष्टित ), खर्वट ( पहाड़ियों के बीच में बसा हुआ गाँव), मंडब ( जिसके आस-पास कोसों की दूरी पर कोई गाँव न हो), द्रोणमुख ( बंदरगाह), पट्टण ( रत्न आदि की खदान वाला गाँव ), आश्रम (तापसों का निवासस्थान ), सन्निवेश ( कटकादि का वास या मंडी), निगम (व्यापार का मुख्य केन्द्रस्थल ), राजधानी पर डाकूदल या अन्य के द्वारा धावा होने पर मार-काट के समय जो चोर नहीं है उसे चोर के भ्रम में मार देता है। यह अचीर को चोर के भ्रम में मारने वाला दृष्टि-विपर्यासदंड है। उपर्युक्त दोनों व्यक्तियों को दृष्टिविपर्यासदंडप्रत्ययिक सावध क्रिया लगती है। यह पाँचवाँ दृष्टिविपर्यासदंड-प्रत्यायिक दंडसमादान है। “४८ मृषावाद क्रिया ( स्थान ) ४८.१ परिभाषा / अर्थ--- (क) सतोऽपलापोऽसतश्च प्ररूपणं मृषावादः, स च लोकालोकगतसमस्तवस्तुविषयोऽपि घटते। -~-पग्ण० प २२ । सू १५७६ । टीका (ख) मृषावादप्रत्ययिकः स च सद्भूतनिहवासद्भूतारोपणः । -सूय० श्रु २ । अ २ ! सू १ । टीका (ग) मृषा-मिथ्यावदनं वादो मृषावादः, स च द्रव्यभावभेदात् द्विधा, अभूतोद्भावनादिभिश्चतुर्धा वा । - ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका - झूठ बोलना मृषावाद है। सत्य वस्तु का अपलाप करना तथा असत्य का प्रतिपादन करना मृषावाद है । लोकालोक में स्थित समस्त वस्तु के विषय में मृषावाद क्रिया हो सकती है। "Aho Shrutgyanam" Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १०१ '४८२ मृषावाद क्रिया और जीव -- से जहानामए– केइ पुरिसे आयहेउ' वा नाइहेडंवा अगारहेङ वा परिवारहे वा सयमेव मुसं वयइ, अन्नेणं पि मुसं वाएइ, मुसं वयंतं पि अन्नं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिजइ। छठे किरिय-ट्ठाणे मोसावत्तिए त्ति आहिए। -सूय० श्रु२ । अ २ । सू ७ । पृ० १४७ कोई व्यक्ति अपने लिए, जाति, गृहस्थी या परिवार के लिए स्वयं झूठ बोले, दूसरे से झूठ बुलवाए या झूठ बोलते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करे तो उसको मृषावादप्रत्यायिक सावद्य क्रिया लगती है। यह छहा मृषावादप्रत्ययिक क्रियास्थान है । ४८३ मृषावाद क्रिया और जीवदंडक : (क) अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ?....." एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए । ( देखो क्रमांक २२४) -भग श १ । उ ६ । प्र २०६ से २१५ । पृ० ४०३ __ (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कन्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं निरंतरं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । -पण्ण ० प २२ । सू १५७६ । पृ० ४७६ जीव मृषावाद की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं। मृषावाद की क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को और कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । मृषावाद की क्रिया कृत है, अकृत नहीं है, मृषावाद की क्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है। यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारकी जीव भी मृषावाद की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा वह किया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औघिक जीव की तरह अनुकमपूर्वक की जाती है। एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए। एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । .४८४ मृषावाद क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध : जीवे गं भंते ! पाणाइवाएवं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? ....." ( पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२.५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले । —पण्ण० प २२ । सू १५८१ से १५८४ । पृ०.४७६-८० "Aho Shrutgyanam" Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश मृषावादक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात किया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है - [ देखो क्रमांक २२५] १०२ • ४६ अदत्तादान क्रिया ( स्थान ४६१ परिभाषा / अर्थ - (क) अदत्तस्य परकीयस्याऽऽदानं स्वीकरणमदत्तादानं स्तेयम् । - सूय० २ । अ २। सू १ । टीका (ख) यद् वस्तु ग्रहीतुं धारयितुं वा शक्यते तद्विषयमादानं भवति न शेषविषयम् अतोऽदत्तादानसूत्रे 'गहणधारणिज्जे दव्वेसु' इत्युक्तम् | -- पण ० प २२ । सू १५७७ । टीका (ग) अदत्तस्य - स्वामिजीवतीर्थंकर गुरुभिरवितीर्णस्याननुज्ञतस्य सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य वस्तुनः आदानं - ग्रहणमदत्तादानं चौर्यमित्यर्थः तच विविधोपाधिवशादनेकविधमिति । - ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका दूसरे की वस्तु को उसके स्वामी आदि की आज्ञा के बिना ग्रहण करना, स्वीकार करना, धारण करना अदत्तादान - चोरी करना अदत्तादान है । अदत्तादान जो द्रव्य या वस्तु ग्रहण की जा सकती है या धारण की जा सकती है उसीके विषय में हो सकता है। अन्य विषयों में नहीं । अदत्तादान के निमित्त से होने वाली क्रिया - अदत्तादानक्रिया । ४६२ अदत्तादानक्रिया और जीव : से जहानामए के पुरिसे आयहेउ' वा जाव परिवारहेड' वा सयमेव अदिष्ण आदिय, अन्नेण वि अदिष्ण आदियावेइ, अदिण्णं आदियंत अन्नं समगुजाणइ, एवं खलु तस्स तम्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । सत्तमे किरिय-हाणे अदिण्णादाणवत्तिए त्ति आहिए । - सू० श्रु० २ । अ २ | सू ८ । पृ० १४७ यदि कोई व्यक्ति अपने लिए, जाति, गृहस्थी या परिवार के लिए स्वयं अदत्तादान ग्रहण करे अर्थात् चोरी करे, दूसरे से करवाए और चोरी करते हुए का अनुमोदन करे तो उस व्यक्ति को अदत्तादानप्रत्ययिक सावद्यक्रिया लगती है । यह सातवाँ अदत्तादानप्रत्ययिक क्रियास्थान है । *४६३ अदत्तादानक्रिया और जीवदण्डक : +-- (क) अत्थि णं भंते! जीवाणं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा । जहा पाणाइवाए XXX तहा अदिन्नादाणे (देखो क्रमांक १ | उ ६ | प्र० २०६ से २१५ / पृ० ४०३ *२२४) भग "Aho Shrutgyanam" Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियां-कोश १०३ (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कज्जइ ? हता, अत्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! गहणधारणिज्जेसु दव्वेसु, एवं नेरझ्याणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं । –पण्ण० प २२ । सू१५७७ । पृ० ४७६ जीव अदत्तादान क्रिया ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में करते हैं । अदत्तादानक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को और कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। अदत्तादान क्रिया कृत है, अकृत नहीं है ; अदत्तादानक्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है। यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपर्वक नहीं की जाती है। जो क्रिया की जा रही है तथा की जायेगी---यह सब अनुकमपर्वक की जाती है किन्तु विना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारकी जीव भी अदत्तादानक्रिया ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छौं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारको के समान कहना चाहिए। एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । ४६.४ अदत्तादानक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे णं भंते ! पाणइवाएणं कल् कम्मपगडीओ बंधइ ? ................ " ( पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले। -पण्ण० प २२ । सू १५८१ से १५८४ । पृ० ४७६.८० अदत्तादानक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्म-प्रकृति का बन्ध करता है जैसा प्राणातिपातक्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । (देखो क्रमांक '२२५) .५० अध्यात्म-प्रत्ययिक क्रिया ( स्थान ) ५०१ परिभाषा | अर्थ :. से जहानामए - केइ पुरिसे नत्थि णं केइ किंचि विसंवादेइ सयमेव हीणे दीणे दु? दुम्मणे ओय-मणसंकप्पे चिंता-सोग-सागर-संपविढे करयल-पल्हथ-मुहे अट्टझागोवगए-भूमि-गय-दिट्ठिए झियाइ, तस्स णं अज्झत्थया आसंसझ्या चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जंति, तंजहा-कोहे, माणे, माया, लोहे, अज्झत्थमेव कोह-माण माया "Aho Shrutgyanam" Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ क्रिया-कोश लोहे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज ति आहिज्जइ । अट्टमे किरियट्ठाणे अज्झत्थवत्तिए त्ति आहिए। -सूय० श्रु २ । अ २ । सू ६ । पृ० १४७ टीका- आत्मन्यध्यध्यात्म, तत्र भव आध्यात्मिको दण्डस्तद्यथा--निनिमित्तमेव दुर्मना उपहतमनःसंकल्पो हृदयेन ह्रियमाणश्चिन्तासागरावगाढः सन्तिष्ठते । --सूय ० श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका __यदि कोई व्यक्ति विषाद का कोई कारण न होने पर भी होन-दीन-दुष्ट और बुरे विचार करता रहता है ; अनवस्थित-अस्थिर संकल्प वाला होता है ; चिन्ता-शोकसागर में डूबता रहता है; हथेली में मुँह रखकर, आर्तध्यान में लीन होकर भूमि की ओर एकाग्रचित्त से देखता रहता है। उसकी आत्मा में क्रोध-मान-माया-लोभ के भाव स्वचित्त से उत्पन्न होते रहते हैं तथा इस प्रकार स्वतः उत्पन्न क्रोध-मान-माया-लोभ की भावना से विना निमित्त उसका अध्यात्म दुष्ट होता रहता है ऐसे अपने आपमें शोक मग्न व्यक्ति के अध्यात्मप्रत्ययिक सावधक्रिया लगती है। यह आठवाँ अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान है । बुरे विचार उस व्यक्ति की आत्मा में स्वतः बिना किसी बाह्य निमित्त के उत्पन्न होते रहते हैं तथा उसकी आत्मा में ही रमण करते हैं इसलिए इनको अध्यात्म कहा है तथा इनके कारण से होनेवाली क्रिया अर्थात् कर्मबंध को अध्यात्मप्रत्ययिक सावध क्रिया कहा है। •५१ मानप्रत्ययिकी क्रिया ( स्थान ) ५१.१ परिभाषा | अर्थ जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य, प्रज्ञा आदि के मद-अहंकार-अभिमान-गर्व-घमंड के निमित्त से होने वाली क्रिया मानप्रत्यायिकी क्रिया है। सर्व द्रव्यों के विषय में मानप्रत्ययिकी क्रिया हो सकती है। जाति, कुलादि मद के कारण अन्य के प्रति अवहेलना, निन्दा, घृणा, भर्त्सना, पराभव और तिरस्कार-अपमान के भाव होना या अन्य की अवहेलना आदि करना मानप्रत्ययिकी क्रिया के लक्षण है । ५१.२ मानप्रत्ययिकी क्रिया और जीवदंडक : (क) अत्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि ! कम्हि णं भंते ! जीवाणं परिम्गहेणं किरिया कन्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव बेमाणियार्ण। एवं xxx माणणं xxxl सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं ) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । पण्ण० प २२ । सू १५७६ । पृ० ४७६ "Aho Shrutgyanam" Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १०५ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति अहंकार, अभिमान या मद के भाव लाना मान है। ये भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । मान की क्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति मान की क्रिया करते हैं । (ख) अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि xxx। एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियत्रा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो क्रमांक २२.४ ) -भग० श १ । उ ६ । प्र २१५। पृ० ४०३ जीव मान से क्रिया करते हैं। मानक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। मानक्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारकी जीव भी मानक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं ! यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करतो है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है। एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए ! एकेन्द्रियों का कथन औधिक जोवों की तरह कहना चाहिए ! "५१.३ मानप्रत्ययिक क्रिया और जीव (क) से जहानामए-केइ पुरिसे जाइ-मएण वा, कुल-मएण वा, बल-मरण वा, रूव-मएण वा, तव-मएण वा, सुय-मएण वा, लाभ-मएण वा, इस्सरिय-मएण वा, पन्नामएण वा, अन्नयरेण वा, मय-ठाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेइ, निंदेइ, खिसइ, गरहइ, परिभवइ, अवमन्नेइ, इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिट्ठ-जाई-कुल-बलाइ-गुणोववेए --एवं अप्पाणं समुकत्से, देह-च्चुए कम्म-बिइए अवसे पयाइ । तंजहा-गब्भाओ गम्भं, जम्माओ जम्मं, माराओ मारं, नरगाओ नरगं, चंडे, थद्ध चवले माणी यावि भवइ । एवं खलु तस्स तपत्तियं सावज ति आहिज्जइ। नवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिए त्ति आहिए। -सूय० श्रु २ । अ२ ! सू १० । पृ० १४७-४८ . यदि कोई व्यक्ति जातिमद, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य, प्रज्ञामद आदि के मद में उन्मत्त होकर दूसरे मनुष्यों की अवहेलना, निन्दा, घृणा, भर्त्सना, पराभव और तिरस्कार करता है तथा मन में सोचता है कि ये व्यक्ति इतर--नीच पामर हैं तथा मैं विशिष्ट जाति, कुल, बलादि गुणों से युक्त हूँ। इस प्रकार अहंकार में चूर वह व्यक्ति देह को छोड़कर १४ "Aho Shrutgyanam" Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ क्रिया-कोश कर्म के वशीभूत संसार में परवश परिभ्रमण करता है यथा गर्भ के पश्चात् गर्भ को, जन्म के पश्चात् जन्म को, मृत्यु के पश्चात् मृत्यु को, नरक के पश्चात् नरक को प्राप्त होता रहता है । ऐसे रौद्र अहंकारी, विनयहीन, चपल, अभिमानी व्यक्ति को मानप्रत्ययिक सावद्य क्रिया लगती है । यह नववाँ मानप्रत्ययिक क्रियास्थान है । टीका-जात्याधष्टमदस्थानोपहतमनाः परावमदर्शी तस्य मानप्रत्ययिको दण्डो भवति । ---सूय० श्र२ । अ२। सू.१ टीका ५१.४ मानप्रत्ययिक क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे गं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?........... ( पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२.५) (एवं) जाव मिच्छादसणसल्ले। -पण्ण० प २२ । सू १५८४ ! पृ० ४७६-८० मानप्रत्ययिक क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जोव कर्मप्रकृति का बंध करता है (देखो क्रमांक २२५) .५२ मित्रद्वेषप्रत्ययिक क्रिया ( स्थान ) ५२.१ परिभाषा/अर्थ : से जहानामए–केइ पुरिसे माईहिं वा पिईहिं वा भाईहिं वा भइणीहिं वा भजाहिं वा धूयाहिं वा पुत्तेहिं वा सुण्हाहि वा सद्धिं संवसमाणे तेसिं अन्नयरंसि अहा-लहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं निवत्त इ, तंजहा--सीओदगवियडंसि वा कायं उच्छोलित्ता भवइ, उसिणोदगवियडेण वा कार्य ओसिंचिता भवइ, अगणिकायेणं कायं उवडहित्ता भवइ, जोत्तेण वा वेत्तेण वा नेत्तण वा तयाइ वा ( कण्णण वा छियाए वा) लयाए वा ( अन्नयरेण वा दव-रएण वा ) पासाई उद्दालित्ता भवइ, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेखूण वा कवालेण वा कार्य आउट्टित्ता भवइ । तहप्पगारे पुरिसजाए संवसमाणे दुम्मणा भवइ, पवसमाणे सुमणा भवइ । तहप्पगारे पुरिसजाए दंड-पासी दंड-गुरुए, दंड पुरकडे अहिए, इमंसि लोगंसि अहिए, परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्ठिमंसी-यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । दसमे किरियट्ठाणे मित्त-दोस-वत्तिए त्ति आहिए । -सूय० २ २ । अ२ । सू ११ । पृ० १४८ यदि कोई व्यक्ति माता, पिता, भाई, भगिनी, स्त्री, पुत्री, पुत्र, पुत्रवधू आदि अन्य परिजनों के साथ रहते हुए उनमें से किसी के थोड़े से अपराध के बदले क्रोधित होकर भारी "Aho Shrutgyanam" Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १०७ या कठोर दंड देता है, जैसे कि शीतकाल में ठण्डे पानी में डुबोना, गर्मी के दिनों में गरम जल छिड़कना, आग से शरीर को दागना, बेंत, छड़ी, रस्सी, चाबुक, कोड़े आदि से मार-मार कर पीठ की खाल उधेड़ देना और डंडे से, हाड़ से, मुष्टि से, पत्थर से, ठीकरे से शरीर पर प्रहार करना । क्षुद्र अपराध के लिए कठोर दंड देने वाले इस प्रकार के व्यक्ति के साथ रहने से मन में बड़ी अशान्ति होती है तथा उसको छोड़कर अलग रहने से शान्ति मिलती है। छोटे अपराध के लिए बड़ा दंड देने वाला ऐसा व्यक्ति छोटी सी बात पर अत्यन्त कोधित होता है, झूर दंड देता है तथा सदा दंड देने के लिए तत्पर रहता है । वह व्यक्ति इस लोक में भी अपना अहित करता है, परलोक में भी अहित करता है क्योंकि वह जीव क्षण-क्षण में ईर्ष्या से जलता है, कोधित होता है, पीठ पीछे निन्दा करता है। ऐसे व्यक्ति को मित्रद्वेषप्रत्यायिक सावधक्रिया लगती है। यह दशवाँ मित्रदूषप्रत्ययिक क्रियास्थान है। टीका---मित्राणामुपतापेन दोषो मित्रदोषस्तत्प्रत्ययिको दण्डो भवति । __ ---सूय श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका '५३ लोभप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) ५३.१ परिभाषा | अर्थ(क) लोभप्रत्ययिको लोभनिमित्तो दण्ड इति । --सूय० श्रु २ । अ २ । सू१ । टीका किसी जीव-अजीव द्रव्य की कामना-लिप्ता-लालसा-आसक्ति-मुच्छी से होनेवाली क्रिया लोभप्रत्ययिक क्रिया है। .५३.२ लोभप्रत्ययिक क्रिया और जीवदण्डक : (क) अस्थि णं भंते! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवा णं परिगाहेणं किरिया कजइ ? गोयमा! सव्वदम्वेसु, एवं नेरक्याणं जाव वेमाणियाणं एवं xxx लोभेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति। --पण्ण० प २२ । सू० १५७६-८० । पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति कामना-लालसा-लिप्सा-मूच्र्छा भाव लाना लोभ है । ये भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं ! लोभ से क्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति लोभ से क्रिया करते हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश (ख) अत्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाए णं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणा इवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले | ( देखो क्रमांक २२ ४ ) १०८ -भग० श १ । उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ जीव लोभ से क्रिया करते हैं। लोभक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । लोभक्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह किया अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारकी जीव भी लोभक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दण्डकों में नारकी के समान कहना चाहिए | एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिए । ५३.३ लोभप्रत्ययिक क्रिया का सदृष्टान्त विवेचन : जे इमे भवति, तंजहा- आरणिया आवसहिया गार्मतिया कण्हुई- रहस्सिया नो बहु-संजया नो बहु-पडि - विरया सब्व पाण-भूय-जीव-सतेहिं ते अप्पणी सच्चामोसाईं एवं विज्जंति । अहं न हंतव्यो, अन्ने हंतव्वा, अहं न अज्जावेयव्वो, अन्ने अज्जावेयव्वा, अहं न परिघेयव्वो, अन्ने परिघेयव्वा, अहं न परितावेयव्वो, अन्ने परितावेयव्वा, अहं न उहवेयव्वो, अन्ने उद्दवेयव्वा । एवमेव ते इत्थि कामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढ़िया गरहिया अज्कोववन्ना जाव वासाईं चउ-पंचमाई, छ-इसमाई अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुंजित्तु भोग भोगाइ काल-मासे कालं किश्वा अन्नयरेसु किब्बिसिए ठाणेसु उबवत्तारो भवंति । तओ विप्पमुच्चमाणे भुज्जो भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइ - मूयत्ताए पञ्चायति । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । दुवालसमे किरिट्ठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिए । - सूय० श्र २ । अ २ । स् १३ । १० १४८-४६ कई व्यक्ति अरण्यवासी हैं, कई पर्णकुटीवासी हैं, कई ग्राम के समीप रहने वाले हैं, कई रहस्यवादी- -- गुप्त साधना करने वाले हैं। ऐसे श्रमण-ब्राह्मण पूरे संयत नहीं होते हैं, सर्वत्र पालक भी नहीं होते हैं तथा सर्वप्राण- भूत-जीव सत्त्व की हिंसा से निवृत्त नहीं होते हैं वे अधूरे संयति सत्यासत्य मिश्रभाषा बोलते हैं -- यथा - वर्णोत्तम को नहीं मारना चाहिए, उन पर आज्ञा नहीं चलानी चाहिए, उनका परिघात नहीं करना चाहिए, उनको परिताप "Aho Shrutgyanam" Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १०६ नहीं देना चाहिए, उन पर उपद्रव नहीं करना चाहिए, लेकिन शूद्र-क्षुद्र आदि को मारना चाहिए, उनपर आज्ञा चलानी चाहिए, उनका परिघात करना चाहिए, उनको परिताप देना चाहिए, उन पर उपद्रव करना चाहिए । इस प्रकार परपीड़ा के उपदेश से उनके प्राणातिपात से विरति नहीं होती है। स्त्री और अन्य कामभोग में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त, अत्यन्त आसक्त तथा एकाग्रचित्त--रंगे हुए व्यक्ति, चार, पाँच, छः या दस वर्ष या अल्पकाल या बहुकाल तक गृहवास को छोड़ देते हैं तथा तपस्या करते है लेकिन लोभ के वशीभूत भोगों को नहीं छोड़ सकते हैं और वे भोगों को भोगते हुए यथासमय काल आने से मरकर असुर या किल्विषी देषों में उत्पन्न होते हैं और उस देवस्थान से निकलकर यदि वे मनुष्यभव पते भी हैं तो वे बारबार गूंगे, बहरे, जन्मान्ध, जन्मसे गूंगे होते हैं। ऐसे व्यक्ति को लोभप्रत्ययिक सावधक्रिया लगती है । यह बारहवाँ लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान है । यद्यपि उपर्युक्त वर्णित भिक्षु, ऋषि, तापसादि अल्पकालीन या बहुकालीन गृहत्यागी होते हैं तथा कठिन तपस्या करते हैं लेकिन लोभ के प्राबल्य से सर्व परिग्रह का परित्याग नहीं कर सकते हैं अतः काम-भोगों से निवृत्त नहीं हो सकते हैं । ऐसे भोगी, अधुरे संयतियों के लोभ के कारण से लोभप्रत्ययिक सावद्य क्रिया लगती है ! सामान्य व्यक्ति परिग्रह का त्याग नहीं कर सकते हैं अतः लोभ से भी उनको छुटकारा नहीं मिलता है । इसलिए यहाँ सामान्य व्यक्तियों का विवेचन नहीं करके आगमकार ने अन्यतीथीं- गृहत्यागी तपस्वी व्यक्तियों का विवेचन किया है। वे गृहत्यागी होकर, प्रवजित होकर, कठिन तपस्या करते हुए भी कतिपय परिग्रहों का त्याग नहीं कर सकते हैं अतः भोगों से और लोभ से मुक्ति नहीं पा सकते हैं । ५३.४ लोभप्रत्ययिक क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे णं भंते ! पाणइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?............ ( पूरे पाठ के लिये देखो क्रमांक २२.५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले। -पण्ण० प २२ । सू १५८१ से १५८४ ! पृ० ४७६-८० लोभप्रत्ययिक क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात किया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है। "Aho Shrutgyanam" Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० क्रिया - कोश • ५४ मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) पापस्थान क्रिया -५४ १ परिभाषा / अर्थ :-- (क) मैथुनाध्यवसायोsपि चित्रलेपकाष्ठादिकर्मगतेषु रूपेषु रूपसहगतेषु वायादिषु ततो मैथुनसूत्रे उक्तम्- 'वेसु वा रूवसहगएसु वा' इति । - पण्ण० प २२ । सू १५७८ । टीका (ख) तथा मिथुनस्य - स्त्री-पुंसलक्षणस्य कर्म मैथुनम् - अब्रह्म । -ठाण० स्था १। सू ४८ । टीका अध्यवसाय से अथवा रूपवान् द्रव्य नारकी से लेकर वैमानिक देवों तक चित्रित अथवा दारु कार्यादिगत रूप में ( स्त्र्यादि ) के विषय में जीव मैथुनक्रिया करता है । के जीव इसी प्रकार मैथुनक्रिया करते हैं । ५४२ भेद (क) पडिक्कमामि XXX अट्ठारसविहे अभे । --आव ० आ ४ । सू ६ | पृ० ११६८-६६ (ख) तथा मिथुनस्य - स्त्रीपुंसलक्षणस्य कर्म मैथुनम् - अब्रह्म, तत् मनोवाक्कायानां 'कृतकारितानुमतिभिरौदारिकवैक्रियशरीरविषयाभिरष्टादशधा विविधोपाधितो बहु विधतरं वेति । -ठाण० स्था १ । सू ४८ | टीका स्त्री-पुरुष के सम्पर्क से मैथुनक्रिया होती है। यह मन-वचन-काय की अपेक्षा से तीन प्रकार की तथा इन तीनों की कृत-कारित अनुमोदित ( करता हूँ, कराता हूँ, किये हुए का अनुमोदन करना की अपेक्षा से नौ भेद हुए । फिर इन नौ भेदों के औदारिक तथा वैकिय शरीर के भेद की अपेक्षा मैथुन क्रिया के कुल अठारह भेद हुए । अथवा अन्य नामों से ( उपाधि से ) इसके अनेक भेद हैं या हो सकते हैं । ५४३ मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) क्रिया तथा जीवदंडक (क) अत्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? xxx | एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा परणाश्वाए तहा xxx मेहुणे । ( देखो २२४ ) -- - भग० श १ । ३६ । प्र २१५ | पृ० ४०३ (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! रूवेसु वा रूवसहगएसु या दव्वे एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव वैमाणियाणं । "Aho Shrutgyanam" - पण्ण० प २२ । सू १५७८ | पृ० ४७६ जीव मैथुन की क्रिया रूप अथवा रूपवान् द्रव्य ( स्त्र्यादि ) के विषय में करते 1 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १११ मैथुनक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को और कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । मैथुन की क्रिया कृत है, अकृत नहीं है, मैथुन की क्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारकी जीव भी मैथुन की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा वह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक नारकी की तरह कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिए । -५४४ अब्रह्मचर्य क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :-- जीवे णं भंते! पाणाइवाणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? (पूरे पाठ के लिये देखो क्रमांक *२२°५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । -पण्ण० प २२ ! सू १५८४ । पृ० ४७६-८० मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । ( देखो क्रमांक २२५ ) ' ५५ क्रोधप्रत्ययिक पापस्थान क्रिया *५५१ परिभाषा / अर्थ किसी वस्तु — द्रव्य के प्रति किसी कारण प्रद्वेष-- अप्रीति हो जाने से उस वस्तु - द्रव्य के प्रति क्रोध कोप- रोष - गुस्सा - रोस उग्रता - अक्षमा भाव होने के निमित्त से होनेवाली क्रिया क्रोध किया है। यह क्रिया सब द्रव्यों के प्रति हो सकती है । 'स्वपरात्मनोऽप्रीतिलक्षणः क्रोधः' अर्थात् स्व-पर या सर्व द्रव्यों के प्रति अप्रीति भाव होना कोध का लक्षण है । ५५२ क्रोधप्रत्ययिक क्रिया और जीवदण्डक (क) अत्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गद्देणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं परिग्गणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं " Aho Shrutgyanam" Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ क्रिया-कोश नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं कोहेणं xxx| सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु ( भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति xxx ! --पण्ण० प २२ । सू १५७६-८० । पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति उग्र या रोष भाव लाना क्रोध है । ये भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । क्रोधक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करता है। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति क्रोध से क्रिया करते हैं। (ख) अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कजइ ? जाव निव्वाधाएणं छदिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसिं । सा भंते ! किं कडा कज्जइ, अकडा कजइ ? गोयमा ! कडा कजइ, नो अकडा कज्जइ । सा भंते ! किं अत्तकडा कज्जइ, परकडा कजइ, तदुभयकडा कजइ १ गोयमा ! अत्तकडा कन्जइ, नो परकडा कज्जइ, नो तदुभयकड़ा कज्जइ । सा भंते ! किं आणुपुव्वि कडा कज्जइ, अणाणुपुर्दिव कडा कन्जइ ? गोयमा ! आणुपुवि कडा कज्जइ, णो अणाणुपुव्वि कडा कज्जइ, जा य कडा जा य कज्जइ जाय कज्जिसइ सव्वा सा आणुपुश्विकडा नो अणाणुपुब्धि कडत्ति वत्तव्वं सिया। अत्थि णं भंते ! नेरझ्याणं पाणाइवायकिरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । सा भंते! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कज्जइ ? जाव नियमा छहिसिं कज्जइ, सा भंते ! किं कडा कज्जइ अकडा कज्जइ ? तं चेव जाव नो अणाणुपुब्धि कडत्ति वत्तव्वं सिया। जहा नेरइया तहा एगिदियवज्जा भाणियन्वा, जाव वेमाणिया, एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियबा, जहा पाणाइवाए तहा xx कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले। -भग० श १ । उ ६ । प्र२०६ से २१५ । पृ० ४०२-३ जीव क्रोध से क्रिया करते हैं। क्रोध-क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । क्रोध-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है। यह किया अनुक्रमपूर्वक की जाती है विना अनुकमपूर्वक नहीं की जाती है। नारकी जीव भी क्रोध-क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह किया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है। "Aho Shrutgyanam" Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ क्रिया-कोश एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए। एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । .५५३ क्रोधप्रत्ययिक क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध : जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बन्धइ ?......( पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२५) एवं (जाव) मिच्छादसणसल्ले । ---पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० क्रोधप्रत्ययिक क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बन्ध करता है। [ देखो क्रमांक २२५] .५६ कलह पापस्थान क्रिया :.५६.१ परिभाषा / अर्थ(क) तत्र कलहो-राटी। –ठाणा० स्था १ । सू ४८ । टीका (ख) कलहो-राटिः।। –पण्ण० प २२ । सू १५८० । टीका कलह अर्थात् लड़ाई-झगड़ा-विग्रह-राड़-कजिया। '.५६२ कलहक्रिया और जीवदण्डक (क) अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिम्गहेणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं परिगहेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं xxx कलहेणं xxx । सव्वेसु जीवनेरड्यभेदेसु (भेदेणं ) भाणियव्वं ( भाणियव्वा) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । -पण्ण० प २२ । सू१५७६ । पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के साथ राग-द्वेष वश लड़ाई-झगड़ा-विग्रह-राड-कजिया आदि करना कलह है। कलह करने के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदारणा से उत्पन्न होते हैं। कलह की क्रिया अजीव-जीव सभी द्रव्यों के साथ जीव करता है। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के साथ कलह की क्रिया करते हैं। (ख) अस्थि णं भंते! जीवा णं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि xxx एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो क्रमांक २२४) -भग० श १। उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ "Aho Shrutgyanam" Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश जीव कलह से क्रिया करते हैं । कलह-क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छऔं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । कलह-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुकमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । ११४ नारकी जीव भी कलह-क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह थावत अनुक्रमपूर्व की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए | एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । *५६३ कलहक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंध ? (पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२५) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । : - पण्ण० प २२ । सू १५८४ | पृ० ४७६८० कलहक्रिया करता हुआ जीष उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । • ५७ अभ्याख्यान पापस्थान क्रिया -५७१ परिभाषा / अर्थ (क) अभ्याख्यानं– प्रकटम सदोषारोपणम् । - ठाण० स्था १ । सू ४८ | टीका (ख) अभ्याक्खानं - असदोषारोपणं यथा - अचौरेऽपि चौरस्त्वमपारदारिकेऽपि पारदारिकत्वमित्यादि, इदं मृषावादेऽप्यन्तर्गतं परमुत्कृष्टोऽयं दोष इति पृथगुपात्तम् । - पण ० प २२ । सू ३ । टीका खोटे झूठे दोष का आरोपण करना - लगाना - अभ्याख्यान है । जैसे जो चोर नहीं है उसको चोर कहना, जो परस्त्री गमन नहीं करता है उसको परस्त्री- लम्पट कहना । अभयाख्यान का मृषावाद में समावेश हो जाता है लेकिन यह महान् दोष है अतः इसको अलग ग्रहण किया गया है । " Aho Shrutgyanam" Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ५७.२ अभ्याख्यानक्रिया और जीवदंडक (क) अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं परिग्गहेण किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइया जाव वैमाणियाणं । एवं xxx अब्भक्खाणेणं xxx । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु ( भेदेणं ) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । -- पण्ण० प २२ / सू १५८० | पृ० ४७६ : किसी जीव या अजीव वस्तु के ऊपर द्वेषवश झूठा कलंक लगाना, झूठा दोषारोपण करना-अभ्याख्यान है । अभ्याख्यान के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । अभ्याख्यानक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं ! नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति अभयाख्यान से क्रिया करते हैं । (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जर ? हंता, अस्थि । xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाब मिच्छादंसण सल्ले । ( देखो २२४) ११५ --भग० श १ | उ ६ । प्र २१५ पृ० ४०३ जीव अभ्याख्यान से क्रिया करते हैं। अभयाख्यान- क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो ओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। अभयाख्यान किया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रपूर्वक नहीं की जाती है। नारकी जीव भी अभयाख्यान - किया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए । एकैन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । -५७ ३ अभ्याख्यानक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? देखी २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । ———— "Aho Shrutgyanam" ( पूरे पाठ के लिए -- पण ० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ क्रिया-कोश अभ्याख्यानक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है। .५८ पैशुन्य पापस्थान क्रिया .५८१ परिभाषा | अर्थ(क) पैशुन्यं-पिशुनकर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविर्भावनम् । -ठाण स्था १ । सू ४८ । टीका (ख) पैशुन्यं-परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनम् । -पण्ण० प २२ । सू १५८० । टीका पीठ पीछे किसी के ऊपर झूठा या सच्चा दोष लगाना या चुगली खानापैशुन्य है। .५८२ पैशुन्यक्रिया और जीवदंडक : (क) अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता, अत्थि । कम्हि णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरक्याणं जाव वेमाणियाणं। एवं xxx पेसुन्नेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । -पण्ण० प २२ । सू १५८० ! पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के ऊपर द्वेषवश पीठ पीछे चुगली खाना-पैशुन्य है । पैशुन्य के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं। पैशुन्य की क्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के विषय में जीव करता है। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के विषय में पैशुन्य की क्रिया करते है। (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । xxx| एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो २२४) -भग० श १ । उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ जीव पैशुन्य से क्रिया करते हैं। पैशुन्य क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। पैशुन्य-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है। यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है। "Aho Shrutgyanam" Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ११७ नारकी जीव भी पैशुन्यक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सत्र दंडको में नारकी के समान कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । ५८३ पैशुन्यक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे णं भंते! पाणाश्वाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ' देखो २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । - पण्ण० प २२ । सू. १५८४ / पृ ४७६-८० पैशुन्यक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । -५६ परपरिवाद पापस्थान क्रिया *५६१ परिभाषा /अर्थ (क) परेषां परिवादः परपरिवादो विकत्थनमित्यर्थः । (ख) परपरिवादः प्रभूतजनसमक्षं परदोषविकत्थनम् । ( पूरे पाठ के लिए - ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका - पण० प २२ । सू ३ | टीका दुनिया के सामने या जनसमूह के समक्ष दूसरे पर दोष लगाना - निन्दा करना, बुराई करना -- परपरिवाद है । --- ५६२ परपरिवादक्रिया और जीवदंडक (क) अत्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि । कम्हि णं भंते ! जीवा णं परिग्गद्देणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं एवं xxx परपरिवारणं xxx । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वैमाणियाणं ति । "Aho Shrutgyanam" - पण्ण० प २२ । सू १५८० पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु की द्वेषवश जन-समूह के सामने या लोगों या जन-जन में निन्दा करना, बुराई करना - परपरिवाद है । परपरिवाद के भाव कषाय मोहनीय कर्म Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश उत्पन्न होते हैं । परपरिवाद - क्रिया जीव-अजीव सभी द्रव्यों के नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के विषय ११८ के उदय या उदीरणा से विषय में जीव करते हैं. 1 में परपरिवाद क्रिया करते हैं । (ख) अत्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि । xxx | एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाश्वाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले । ( देखो २२४ ) -भग० श १ । उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ जीव पर परिवाद से क्रिया करते हैं । परपरिवाद - क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। परपरिवाद क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । • नारकी जीव भी परपरिवाद क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । *५६·३ पर-परिवादक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे णं भंते! पाणांश्वाएणं कर कम्मपगडीओ बंधइ ?........( पूरे पाठ के लिये देखो '२२*५) (एवं) जाव मिच्छादंसणसल्ले । - पण्ण० प २२ । सू १५८४४७६८० पर-परिवाद किया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात किया करता हुआ जीव कर्म प्रकृति का बंध करता है । ६० रति- अरति पापस्थानक्रिया ६०१ परिभाषा / अर्थ (क) अरतिश्च तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद् गलक्षणो रतिश्च तथाविधानन्दरूपा अरतिरति इत्येकमेव विवक्षितं यतः क्वचन विषये या रतिस्ताभव "Aho Shrutgyanam" Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश विषयान्तरापेक्षया अरति व्यपदिशन्त्येवमरतिमेव रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयो रस्तीति । - ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका (ख) यदुदयाद् बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रमोदमाधत्ते तत् रतिमोहनीयं, यदुदयवशात् पुनर्बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिं करोति तदरतिमोहनीयम् । - पण्ण० प २३ । उ२ । सू १३६१ | टीका किसी द्रव्य के विषय में विकार अप्रोति उद्वेग आना अरति है तथा किसी द्रव्य के विषय में आनन्द-प्रमोद सुख अनुभूत होना रति है । रति-अरति का विवेचन एक साथ है क्योंकि जिस द्रव्य के विषय में कभी अरति होती है उसी द्रव्य के विषय में कालान्तरविषयान्तर से रति भी होती । यद्यपि नोकषायमोहनीय के भेदों में अरति रति की अलगअलग गणना की गई है । यथा--- नोकसायवेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कहविहे पन्नत्ते ? गोथमा ! नवविहे पन्नत्ते, तंजा - इत्थीवेए (वैयणिज्जे) पुरिसवेर (वेयणिज्जे) नपुंसगवेए (वेयणिज्जे), हासे, रई, अरई, भए, सोगे, दुर्गुछा । - पण्ण० प २३ । २ । सू १६६१ / ५० ४६० ११६ ६०२ रति- अरतिक्रिया और जीवदंडक : :-- } (क) ( अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि कम्हि णं भंते! जीवा णं परिग्गणं किरिया कव्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरयाणं जाव वैमाणियाणं ) एवं xxx अरइरईए × × × । सव्वेसु जीवनेरश्यभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वैमाणियाणं ति । -- पण्ण० प २२ । सू १५६० पृ० ४७६ बाह्य आभ्यन्तर वस्तु में प्रमोद आनंद-सुख की अनुभूति होना रति है तथा बाह्यआभ्यंतर वस्तु में अप्रीति उद्वेग आना अरति है । रति - अरति के भाव नोकषायमोहनीय के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । रति अरति की क्रिया जीव तथा अजीव सभी द्रव्यों में जीव करता है । नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों में रति-अरति की क्रिया कहते हैं । (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणावाएणं किरिया कज्जर ? हंता, अत्थि | xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसण सल्ले । (देखो क्रमांक २२४)। -भग० श १ । उ ६ । प्र० २१५ । पृ० ४०३ जीव रति- अरति से क्रिया करते हैं । रति-अरति क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार "Aho Shrutgyanam" Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० क्रिया-कोश दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। रति-अरति-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुकमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है। नारकी जीव भी रति-अरतिक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए। एकेन्द्रियों का कथन औघिक जीवों की तरह कहना चाहिए। ६०.३ रति-अरतिक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :-- जीवे गं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?............( पूरे पाठ के लिए देखो २२.५) ( एवं) जाव मिच्छादसणसल्ले। —पण्ण० प २२ । सू१५८४ । पृ० ४७६-८० - रति-अरतिक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । '६१ मायामृषा पापस्थान क्रिया ६१.१ परिभाषा | अर्थ. (क) 'मायामोसं' त्ति माया च --निकृतिमृषा च . मृषावादो मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्वान्मायामोसं दोषद्वययोगः। - ठाण° स्था १ सू ४८ । टीका (ख) 'मायामोसेण' मिति माया च मृषा च समाहारो द्वन्द्वः, द्वन्द्वकत्वे नपुंसकत्वमिति 'क्लीबे' इति ह्रस्वत्वं तेन इह समुदायो विवक्षितो, महाकर्मबन्धहेतुश्चेति मृषावादमायाभ्यां पृथगुपात्तम् । -पष्ण ० प २२ ! सू १५८० । टीका किसी द्रव्य के विषय में माया-कपट सहित असत्य बोलना मायामृषा है। इसमें माया तथा मृषा दोनों का योग है । महाकर्म के बंध का हेतु होने से इसका माया तथा मृषा से अलग विवेचन किया गया है। ६१.२ मायामृषाक्रिया और जीवदंडक :--- (क) अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कन्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि "Aho Shrutgyanam" Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १२१ णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरझ्याणं जाव वेमाणियाणं एवं xxx मायामोसेणं xxx । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति।। -पण्ण० प २२ । सू १५८० । पृ० ४७६ - किसी द्रव्य के विषय में रागद्वेषवश माया-कपट सहित असत्य बोलना-मायामृषा है। मायामृषा के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते है । मायामृषाक्रिया अजीव-जीव सभी द्रव्यों के साथ जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जोव सभी द्रव्यों के विषय में मायामृषा से क्रिया करते हैं । (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । xxx! एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो '२२.४) -भग श १ । उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ जीव माया-मृघा से क्रिया करते हैं । माया-मृषाक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशओं को स्पर्श करती है । माया-मृषा किया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक को जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है। नारको जीव भी माया-मृषाकिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह किया यावत् नियमपूर्वक छों दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमयूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए। एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । '६१.३ माया-मृषावादक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंध ? ....." ( पूरे पाठ के लिए देखो ‘२२५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले। -पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० माया-मृषाक्रिया करता हुआ जीव उसो प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । "Aho Shrutgyanam" Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ क्रिया - कोश - ६२ मिथ्यादर्शनशल्य (पापस्थान) क्रिया *६२१ परिभाषा / अर्थ :― (क) मिथ्यादर्शनं - विपर्यस्ता दृष्टिः, तदेव तोमरादिशल्यमित्र शल्यं दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति । - ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका (ख) 'मिच्छादंसणसल्लेणं' ति मिथ्यादर्शनं मिध्यात्वं तदेव शल्यं मिथ्यादर्शन----पण० प २२ | सू ३ । टीका शल्यम् । यथातथ्य वस्तु तत्त्व से विपरीत दृष्टि-- मिथ्यादर्शन है । शल्य अर्थात् कांटा; मिथ्यादर्शन रूप शल्य मिथ्यादर्शनशल्य । मिथ्यादर्शन शल्य के समान, अत्यन्त दुःखदायी होता है --- जिस प्रकार किसी अंग में शल्य- कांटा चुभ जाने से घनी वेदना होती है उसी प्रकार शल्य रूप मिथ्यादर्शन आत्मा के महान् कष्ट का कारण होता है । मिथ्यादर्शन के भेदों के अनुसार मिथ्यादर्शनशल्य के भी पाँच या अनेक भेद हो सकते हैं । • ६२.२ मिथ्यादर्शनशल्यक्रिया और जीवदंडक : - (क) अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा । सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं xxx मिच्छादंसणसल्लेणं । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं (भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । - पण ० प २२ । सू १५८० | पृ० ४७६ जीवादि द्रव्यों या तत्वों के विषय में मिथ्या - विपरीत - गलत दृष्टिरूप शल्य होना — मिथ्यादर्शनशल्य है । यथातथ्य वस्तुतत्त्व से विपरीत दृष्टि जीव के आत्मप्रदेशों में शल्य की भाँति चुभती है । मिथ्यादर्शनशल्य दर्शनमोहनीयकर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होता है । मिथ्यादर्शनशल्यक्रिया सभी द्रव्यों-तत्त्वों के विषय में जीव करते हैं । नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों-तत्त्वों के विषय में मिथ्यादर्शनशल्य से क्रिया करते हैं । (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि | xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसण सल्ले । (देखो २२४) --भग० श १ । उ६ । प्र २१५ | पृ० ४०३ जीव मिथ्यादर्शनशल्य से क्रिया करते हैं। मिथ्यादर्शनशल्यक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । मिथ्यादर्शनशल्य क्रिया "Aho Shrutgyanam" Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १२३ आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है। नारकी जीव भी मिथ्यादर्शनशल्य-क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह किया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है। एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए। नोट : क्रमांक १७ तथा ४० भी देखिये । ६२.३ मिथ्यादर्शनशल्यक्रिया और कर्मप्रकृति का बंधः जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? ........"(पूरे पाठ के लिये देखो २२५) (एव) जाव मिच्छादसणसल्ले। -पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० मिथ्यादर्शनशल्यक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है। (देखो क्रमांक २२५) ६३ एजनादिक्रिया ६३.१ परिभाषा / अर्थ-- योग के कारण आत्मप्रदेशों का कम्पन होना, परिस्पंदन होना, क्षुब्ध होना, चंचल होना आदि में एजनादि क्रियाओं का समावेश होता है । एजना - कंपन करना । व्येजना--विविध रूप में कम्पन करना । चलना स्थानान्तर जाना । स्पंदना-किंचित् चलना । घट्टना-सब दिशाओं में चारों तरफ चलना तथा अन्य पदार्थों को स्पर्श करना । क्षुब्ध होना-किसी वस्तु में चंचलता से प्रवेश करना । उदीरणा---प्राबल्य से ढकेलना । ऊपर में आत्मप्रदेशों के परिस्पंदन करने की कुछ क्रियाओं का नामोल्लेख किया "Aho Shrutgyanam" Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ क्रिया - कोश गया है लेकिन परिस्पंदन अनेक प्रकार से हो सकता है अतः एजनादि क्रियाओं के परिस्पंदन के प्रकार के अनुसार अनेक भेद हो सकते I '६३ २,३ भेद तथा भेदों की परिभाषा : विहाणं भंते ! एयणा पन्नता ? गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा१ दव्वेयणा, २ खेत्तेयणा, ३ कालेयणा, ४ भावेयणा, ५ भवेयणा । दव्वेयणा णं भंते ! कबिहा पन्नत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - १ नेरइयदव्वेयणा, २ तिरिक्खजोणियदव्वेयणा, ३ मणुह्सदव्वेयणा, ४ देवदव्वेयणा | सेकेणणं भंते! एवं वुश्चइ – 'नेरइयदव्वेयणा' २ १ गोयमा ! जं णं नेरइया नेरइदव्वे वहिं वा, वहति वा, वहिस्संति वा ते णं तत्थ नेरइया नेरइयदव्वे वट्टमाणा नेरइयदव्वेयणं एयंसु वा, एयंति वा, एइस्संति वा, से तेणट्टणं जाव दव्वेयणा । से केणट्टणं भंते! एवं वुश्चइ - तिरिक्खजोणियदव्वेयणा एवं चेव, नवरं तिरिक्खजोणियदव्वे भाणियव्वं, सेसं तं चेव, एवं जाव देवदव्वेयणा | खेत्यणा णं भंते! कइविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! चडव्विहा पन्नत्ता, तंजहा नेरइयखेत्यणा जाव देवखेत्तेयणा से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चर - नेरइयखेत्यणा नेरइयखेत्तेयणा ? एवं चेव नवरं 'नेरश्यखेत्तेयणा' भाणियव्वा, एवं जाव देवखेत्तेयणा । एवं कालेयणावि, एवं भवेयणावि, एवं भावेयणावि ( एवं ) जाव देवभावेयणा । - भग० श १७ । उ ३ । प्र २ से ७ । पृ० ७५७ टीका- 'कई' - त्यादि, 'दव्वेयण' त्ति द्रव्याणां नारकादिजीव संपृक्तपुद्गलद्रव्याणां नारकादिजीवद्रव्याणां वा एजना - चलना द्रव्यैजना 'खेत्तयण' त्ति क्षेत्रेनारकादिक्षेत्रे वर्त्तमानानामेजना क्षेत्रजना 'कालेयण' त्ति काले-नारकादिकाले वर्त्तमानानामेजना कालेजना' भवेयण' त्ति भवे - नारकादिभवे वर्त्तमानानामेजना भवैजना 'भावेयण' त्ति भावे - औदयिकादिरूपे वर्तमानानां नारकादीनां तद्गतपुद् गलद्रव्याणां वैजना भाबैजना, 'नेरइयदव्वेसु वट्टिसु' त्ति नैरयिकलक्षणं यज्जीवद्रव्यं द्रव्यपर्याययोः कथंचिदभेदान्नारकत्वमेवेत्यर्थः तत्र 'वहिंसु' त्ति वृत्तवन्तः 'नेरइयदव्वेयण'त्ति नैरयिकजीवसंपृक्तपुद् गलद्रव्याणां नैरयिकजीवद्रव्याणां वैजना नैरयिकद्रव्यैजना ताम् ' एवं सु' त्ति ज्ञातवन्तोऽनुभूतवन्तो वेत्यर्थः । एजना ( परिस्पंदन ) पाँच प्रकार की होती है--यथा-१- द्रव्य एजना, २क्षेत्र एजना, ३ - कालएजना, ४ भावएजना और ५- भवएजना । द्रव्यएजना के चार भेद होते हैं—यथा—१ नारकी द्रव्यएजना, २ तिर्य'चयोनिक द्रव्यएजना, ३ मनुष्यद्रव्यएजना तथा ४ देवद्रव्य एजना | जिस गति के शरीर से जो एजना होती है वह उस गति "Aho Shrutgyanam" Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १२५ के शरीर की एजना कहलाती है, यथा-नारकीय द्रव्य (शरीर) से एजना-नारकीय द्रव्यएजना । नारकी नारकीय द्रव्य ( शरीर ) में वर्तते थे, वर्तते हैं, वतेंगे, अत्तः नारकी नारकीय द्रव्य में वर्तमान नारकीय द्रव्य में एजना-परिस्पंदन करते थे, करते हैं, करेंगे । अतः नारकी द्रव्यएजना का प्रतिपादन किया गया है । तिर्यचयोनिक जीव इसी प्रकार तिर्यच योनिक द्रव्य ( शरीर ) में वर्तते थे, वर्तते है, वतेंगे। अतः तिर्यचयो निक जीव तिर्यच योनिक द्रव्य में वर्तमान तिर्यचयोनिक द्रव्य से एजना ( परिस्पंदन ) करते थे, करते हैं, करेंगे। इसी प्रकार मनुष्य मनुष्यद्रव्य से परिस्पन्दन करते थे, करते हैं, करेंगे। देवता देवद्रव्य से परिस्पन्दन करते थे, करते हैं, करेंगे। क्षेत्रए जना के चार भेद होते हैं- यथा-१-नारकीक्षेत्रएजना, २-तिर्यचयोनिकक्षेत्रएजना, ३--मनुष्यक्षेत्रएजना तथा ४– देवक्षेत्रएजना। इसी प्रकार कालए जना, भावएजना तथा भवएजना के चार-चार भेद होते हैं । जिस गति के क्षेत्र में रहकर उस गति के शरीर से जो एजना होती है वह उस गति को क्षेत्रीय एजना, यथा-नारकीय क्षेत्र में होने वाली नारकी जीवों की एजना-- नारकीय क्षेत्रएजना । जिस गति में जिस काल में वर्तमान हो उस काल में जो उस गति के शरीर के पुद्गल को एजना होती है वह उस गतिकाल की एजना है, यथा जिस काल में जीव नरक गति में वर्तता है उस काल में जो एज ना होती है वह नारकीय कालएजना । जिस गति में औदयिकादि भावों से जो एजना होती है वह उस गति की भावएजना, यथा-नरक गति में वर्तते हुए औदयिक आदि भावों के कारण जो एजना होती है वह नारकीय भावएजना। जिस भव में वर्तते हुए जो एजना हो वह उस भव की एजना है यथा नरकभव में वर्तते हुए जीव के जो एजना होती है वह नारकीय भवएजना है । ६३ ४ सयोगी जीव और एजनादि क्रिया : __ जीवे शं भंते ! सया समियं एयइ, वेयइ, चलइ, फंदइ, घट्टइ, खुब्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ ? हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं एयइ--जावतं तं भावं परिणमइ। -भग० श ३। उ ३ । प्र १० । पृ० ४५६ जीव सदा समभाव से कम्पन करता है, विविध भाव से कम्पन करता है, देशान्तर गति करता है, स्पन्दन-परिस्पन्दन करता है, सभी दिशाओं में गति करता है, क्षुब्ध होता "Aho Shrutgyanam" Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ क्रिया-कोश है अर्थात प्रबल रूप से हलचल करता है तथा उदीरण करता है अर्थात् प्रबलतापूर्वक प्रेरणा करता है तथा जीव उस-उस भाव में परिणमन करता है ।। ___ टीका--'जीवे ' इत्यादि, इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवाऽसौ ग्राह्यः, अयोगस्य एजनादेरसंभवात् । सदा नित्यम्, 'समिअं' ति सप्रमाणम्, 'एयई' त्ति एजते कम्पते, "एजु कम्पने” इति वचनात् 'वेयइ' त्ति व्येजते विविधं कम्पते, 'चलइ' त्ति स्थानान्तरं गच्छति, 'फंदई' त्ति स्पन्दते किञ्चिञ्चलति । “पदि किञ्चिञ्चलने” इति वचनात् । "अन्यमवकाशं गत्वा पुनस्तत्रैव आगच्छति”- इति अन्ये। 'घट्टई' त्ति सर्वदिक्षु चलति, पदार्थान्तरं वा स्पृशति । 'खुब्भई' त्ति क्षुभ्यति - पृथिवीं प्रविशति, क्षोभयति वा पृथ्वीम्, बिभेति वा । 'उदीरई' त्ति प्राबल्येन प्रेरयति, पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा। शेषक्रियाभेदसंग्रहार्थमाह- 'तं तं भावं परिणमई' त्ति उत्क्षेपणा-ऽवक्षेपणाऽऽकुञ्चन-प्रसारणादिकं परिणाम यातीत्यर्थः । एषां च एजनादिभावानां क्रमभावित्वेन सामान्यतः सदेति मन्तव्यम्, न तु प्रत्येकापेक्षया--क्रमभाविनां युगपदभावादिति। यहाँ जीव से सयोगी जीव का ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि अयोगी जीव के एजनादि क्रियाएँ नहीं होती हैं । 'समिरं एयइ' सप्रमाण कम्पन करना, 'वेयइ' विविध प्रकार से कम्पन करना, 'चलइ' एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना, 'फंदइ' स्पन्दन करना अर्थात् किंचित् चलायमान होना, 'घट्टइ' सभी दिशाओं में गति करना अथवा दूसरे पदार्थों को स्पर्श करना, 'खुब्भइ' क्षोम करना, पृथ्वी में प्रवेश करना अथवा पृथ्वी का भेद करना, तथा 'उदीरई' प्रबलतापूर्वक प्रेरणा करना अथवा बलपूर्वक किसी दूसरी वस्तु को प्रतिष्ठित करना । एजनादि क्रियाओं के और भी अनेक भेद होते हैं। बाकी के सभी क्रियाभेदों को संग्रह करना चाहिए ऐसा टोकाकार कहते है । "तं तं भावं परिणमइ' उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण इत्यादि पर्यायों को प्राप्त होता है। ये एजनादि क्रियाएँ क्रमपूर्वक होती हैं इसलिए सदा होती हैं । यह बात सामान्य रूप से समझनी चाहिए । परन्तु प्रत्येक की अपेक्षा से नहीं समझनी चाहिए ; क्योंकि क्रमपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ एक समय में एक साथ नहीं हो सकती हैं । एजनादि क्रिया करता हुआ जीव अन्तक्रिया नहीं कर सकता है अर्थात उसकी मुक्ति नहीं हो सकती है क्योंकि जब तक जीव एजनादि क्रिया करता है तब तक वह जीव आरम्भ करता है, सरंभ करता है, समारंभ करता है । आरम्भ-सरंभ-समारम्भ में वर्तमान जीव अनेक प्राण-भूत-जीव-सत्त्व को दुःख-परितापादि उपजाता है अतः उस जीव की मरण के समय मुक्ति नहीं हो सकती है। (देखो अंतक्रिया '७३)। "Aho Shrutgyanam" Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश *६३'५ शैलेशी जीव एजनादि क्रिया नहीं करता है सेलेसि पडिवन्नाए णं भंते ! अणगारे सया समियं एयइ, वेयइ, जाव-- तं तं भावं परिणमइ ? णो इण्ठ्ठे समट्ठ, गण्णत्थ एगेण परप्पओगेणं । - भग० श १७ । उ ३ । प्र १ । पृ० ७५७ शैलेशी अवस्था को प्राप्त जीव एजनादि किया नहीं करता लेकिन परप्रयोग से स्यात् एजनादि किया हो सकती है अर्थात् शैलेशी अवस्था में आत्मा अत्यन्त स्थिरता को प्राप्त होने से परप्रयोग के अतिरिक्त नहीं कम्पता है । शैलेशत्व को प्राप्त संसारी जीव निष्कंप होते हैं । अशैलेशी संसारी जीव सकंप होते हैं तथा वे देशतः भी सकंप होते हैं तथा सर्वतः भी सकंप होते हैं। यथा-ईलिका गति से उत्पत्ति स्थान को जाते हुए जीव देशतः सकंप होते हैं क्योंकि उनके पूर्व के शरीर में रहा हुआ अंश गतिक्रिया रहित होने के कारण निष्कंप होता है । नारकी जीव देशतः भी सकम्प होते हैं, सर्वतः भी सकंप होते हैं—जो नारकी जीव विग्रहगति को प्राप्त होते हैं वे सर्वतः सकंप होते हैं तथा जो नारकी जीव विग्रहगति को प्राप्त नहीं होते हैं वे देशतः सकंप होते हैं । इसी प्रकार दंडक के सभी जीवों के सम्बन्ध में यावत वैमानिक जीवों तक जानना | *६३६ चलना क्रिया ६३.६१ परिभाषा / अर्थ 'चलण' प्ति एजना एव स्फुटतरस्वभावा । - भग० श १७ । उ ३ । प्र ८ | ठीका १२७ चलना-क्रिया एजना से स्फुटतर स्वभाव वाली होती है--चलना का कंपन—परिस्पंदन चलना-क्रिया के परिस्पंदन के भेदों के एजना के कंपन—परिस्पंदन से स्फुटतर होता है । अनुसार मूलतः तीन भेद किये जाते हैं । परन्तु उपभेद अनेक हो सकते हैं । ६३*६*२,३ भेद / भेदों की परिभाषा - विहाणं भंते ! चलणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा चलणा पण्णत्ता, तंजहा -- सरीरचलणा, इंदियचलणा, जोगचलणा । सरीरचलणा णं भंते! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा ओरालियसरीरचलणा जाव कम्मगसरीरचलणा । इं दियचलणा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा- सोइ दियचलणा जाव फासिंदियचलणा | जोगचलणा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- मणजोगचलणा, वइजोग "Aho Shrutgyanam" Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ क्रिया - कोशं 'चलणा, कायजोगचलणा । से केणट्टणं भंते! एवं वुश्चइ-ओरालिय सरीरचलणा ओरालियसरीरचलणा ? गोयमा ! जं णं जीवा ओरालियसरीरे वट्टमाणा ओरालिय सरीरपाओम्गाई दव्वाई ओरालियसरीरत्ताए परिणामेमाणा ओरालियसरीरचलणं चलिंसु वा, चलति वा, चलित्संति वा से तेणट्टेणं जाव ओरालियसरीर चलणा २ । भंते! एवं वुश्च३ - वेडव्वियसरी चलणा वेडव्वियसरीरचलणा ? एवं वेव, नवरं - वेडव्वियसरीरे वट्टमाणा, एवं जाव कम्मगसरीरचलणा । सेकेट्टे भंते! एवं वुश्चइ – 'सोइ दियचलणा सोइ दियचलणा ? गोयमा ! जं णं जीवा सोइ दिये वट्टमाणा सोइंदियपाओग्गाई' दव्वाइ सोइ दियत्ताए परिणामेमाणा सोइ दियचलणा चलिंसु वा, चलति वा, चलिस्संति वा, से तेणटुणं जाव सोइ दियचलणा २ । एवं जाव फासिंदियचलणा । सेकेट्टे भंते! एवं वुञ्चइ-मणजोगचलणा मणजोगचलणा ? गोयमा ! जं णं जीवा मणजोए वट्टमाणा मणजोगपाओग्गाई दव्वाई मणजोगत्ताए परिणामेमाणा मणजोगचलणं चलिसु वा, चलति वा, चलित्संति वा से तेणणं जाव-मणजोगचलणा २ एवं वइजोगचलणा वि, एवं कायजोगचलणा वि । - भग० श १७ । ३ । प्र ८ से १५ । पृ० ७५७-७५८ टीका – 'कई' त्यादि, 'चलण' त्ति एजना एव स्फुटतरस्वभावा 'सरीरचलण' त्ति शरीरस्य -- औदारिका देश्चलना - तत्प्रायोग्यपुद्गलानां तद्रूपतया परिणमने व्यापारः शरीरचलना, एवमिन्द्रिययोगचलने अपि, 'ओरालिय सरीरचलणं चलिस' त्ति औदारिकशरीरचलनां कृतवन्तः । चलना-क्रिया एजना से स्फुटतर स्वभाव वाली होती है अर्थात् चलना का परिस्पंदन एजना के परिस्पंदन से स्पष्टतर- स्थूलतर होता है । चलना तीन प्रकार की होती है, यथा - १ शरीरचलना, २ इन्द्रियचलना तथा ३ योगचलना । शरीर चलना पाँच प्रकार की होती है, यथा-१ औदारिकशरीरचलना, २ वैक्रियशरीरचलना, ३ आहारिकशरीरचलना, ४ तैजसशरीरचलना तथा ५ कार्मणशरीरचलना । औदारिक शरीर चलना अर्थात् औदारिक शरीर में वर्तमान जीव औदारिक शरीर के योग्य प्रायोगिक द्रव्यों को औदारिक शरीर रूप में परिणमन करता हुआ चलना करता था, करता है, करेगा | इसी प्रकार वैक्रियशरीर में वर्तमान जीव वैकिय शरीर के योग्य प्रायोगिक द्रव्यों को वैक्रिय शरीर रूप में परिणमन करता हुआ चलना करता था, करता है, "Aho Shrutgyanam" Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश करेगा। इसी प्रकार आहारिकशरीर चलना, तेजसशरीर चलना तथा कार्मणशरीर. चलना के विषय में समझ लेना चाहिए । इन्द्रिय चलना पाँच प्रकार की होती है, यथा-१ श्रोत्रेन्द्रियचलना, २ चक्षुरि. न्द्रियचलना, ३ घाणेन्द्रिय चलना, ४ रसेन्द्रियचलना तथा ५ स्पर्शेन्द्रिय चलना । श्रोत्रेन्द्रियचलना अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय में वर्तमान जीव श्रोनेन्द्रिय के योग्य प्रायोगिक द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रिय रूप में परिणमन करता हुआ चलना करता था, करता है, करेगा। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रियचलना, घ्राणेन्द्रियचलना, रसेन्द्रियचलना तथा स्पर्शेन्द्रियचलना के विषय में समझ लेना चहिए। योगचलना तीन प्रकार की होती है, यथा --- मनोयोगचलना, वचनयोगचलना तथा काययोगचलना। मनोयोग अर्थात मनोयोग में वर्तमान जीव मनोयोग के योग्य प्रायोगिक द्रव्यों को मनोयोगरूप में परिणमन करता हुआ चलना करता था, करता है, करेगा। इसी प्रकार वचनयोगचलना तथा काययोगचलना के विषय में समझ लेना चाहिए। ६३.७ एजन क्रिया और जीव जीवा णं भंते ! कि सेया, णिरेया ? गोयमा ! जीवा सेया वि, निरेया वि । से केण?णं भंते ! एवं वुझ्चइ–'जीवा सेया वि निरेया वि' ? गोयमा! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य, तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा। सिद्धा णं दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-अणंतरसिद्धा य परंपरसिद्धा य, तत्थ णं जे ते परंपरसिद्धा ते णं निरेया, तत्थ पां जे ते अणंतरसिद्धा ते णं सेया, ते णं भंते! किं देसेया, सव्वेया? गोयमाणो देसेया, सव्वेया। तत्थाजे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सेलेसिपडिवन्नगा य असेलेसिपडिवन्नगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसीपडिवन्नगा ते णं निरेया, तत्थ णं जे ते असेलेसीपडिवन्नगा ते णं सेया, ते णं भंते ! कि देसेया, सव्वेया ? गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि, से तेण?णं जाव निरेया वि। नेरइया भंते ! किं देसेया, सव्वेया ? गोयमा ! देसेयावि, सव्वेया वि, से केण?णं जाव--सब्वेया वि ? गोयमा ! नेरक्या दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-विश्गहराइसमावन्नगा य अविग्गहगइसमावन्नगा य । तत्थ णं जे ते विग्गहगइसमावन्नगा ते णं सव्वेया, तत्थ णं जे ते अविग्गहगइसमावन्नगा ते णं देसेया, से तेण?णं जाव- सव्वेया वि, एवं जाव वेमाणिया । --भग० श २५.! उ ४ । प्र० ३५ से ३७ । पृ० ८६३-६४ १७ "Aho Shrutgyanam" Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश जीव एजनक्रिया — कंपन सहित भी होते हैं, निष्कंप भी होते हैं । जो अनन्तर सिद्ध होते हैं वे सकंप होते हैं जो परंपर सिद्ध होते हैं वे निष्कंप होते हैं । सिद्धत्व की प्राप्ति के प्रथम समय में सिद्ध अनंतर सिद्ध कहलाते हैं क्योंकि उनके एक समय का भी अंतर नहीं होता है अत. सिद्धत्व के प्रथम समय में जो वर्तमान सिद्ध जीव हैं उनमें कंपन होता है । सिद्धिगमनसमय तथा सिद्धत्व प्राप्ति का समय एक ही होने से तथा सिद्धगमन के समय में गमनक्रिया होने से अनंतरसिद्ध सकंप होते हैं । और वे अनंतर सिद्ध देशतः सकँप नहीं होते हैं, सर्वतः सकंप होते हैं । सिद्धत्व प्राप्ति होने के बाद जिनके समयादि का अन्तर पड़ता है वे परंपरसिद्ध कहलाते हैं और वे निष्कम्प होते हैं । १३० *६४ क्रियाद्वयक '६४१ सम्यक्त्व - मिध्यात्व क्रियाद्वयक *६४'१'१ सम्यक्त्व और मिथ्यात्व - दोनों क्रियाएँ एक जीव के एक समय में नहीं होत : :――― (क) अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्वंति एवं भार्सेति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति - एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तंजहा - सम्मत्तकिरयं च मिच्छत किरियं च जं समयं सम्मत्त किरियं पकरे, तं समयं मिच्छन्तकिरियं पकरेश, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरे, तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ, सम्मत्त किरियापकरणयाए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छत्तकिरियापकरणयाए सम्मत्तिकिरियं पकरेश एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेश, तंजहा - सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्त किरियं च । से कहमेर्य भंते ! एवं ? गोयमा ! जन्नं ते अन्न उत्थिया एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति - एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तहेव जाव सम्मत्तकिरियं चमिच्छत्तकिरियं च जे ते एवमाहंसु तं णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि - एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेश, तंजहा -- सम्मत्त किरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा, जं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ णो तं समयं मिच्छत्त किरियं पकरेइ, तं चैव जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेह नो तं समयं सम्मत्तरियं पकरेs, सम्मत्त किरियापकरणयाए नो मिच्छत्त किरियं पकरेइ, मिच्छत्तकिरियापकरणयाए णो सम्मत्त किरियं पकरेइ, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं . किरियं पकरेइ, तंजहा सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा । -जीवा० प्रति ३ । तिरि उ २ । सू १४ । पृ० १५१-१५२ "Aho Shrutgyanam" Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १३१ (ख) xxx एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्त किरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा । - भग० श ७।४। प्र १ । पृ० ५१६ अन्य मतवाले ऐसा कहते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ सम्यक्त्वमिथ्यात्व ) करता है, इत्यादि । उनका ऐसा कहना गलत है । एक जीव जिस समय में सम्यक्त्वक्रिया करता है उस समय मिथ्यात्वक्रिया नहीं करता है, जिस समय मिथ्यात्व - क्रिया करता है उस समय सम्यक्त्वक्रिया नहीं करता है । सम्यक्त्व क्रिया करने से मिथ्यात्व क्रिया नहीं करता है, मिथ्यात्व किया करने से सम्यक्त्वक्रिया नहीं करता है । अतः एक जीव एक समय में एक क्रिया करता है - सम्यक्त्वक्रिया अथवा मिथ्यात्वक्रिया । ६४ २ ऐर्यापथिकी-सांपरायिकी क्रियाद्वयक ६४ २१ ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी - दोनों क्रियाएँ एक जीव के एक समय में नहीं होतीं : : "अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति- -जाव - - "एवं खलु एगे जीवे एगेणं समरणं दो किरियाओ पकरेइ । तंजहा - इरियावहियं च संपराश्यं च । जं समयं इरियावहियं पकरे, तं समयं संपराइयं पकरेइ ; जं समयं संपराश्यं पकरे, तं समयं इरियावहियं पकरेs ; इरियावहियाए पकरणयाए संपराइयं पकरेश, संपराइयाए पकरणयाए इरियावहियं पकरेइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तं जहा—इरियावहियं च संपराइयं च । से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति, तं चैव - जाव - जे ते एवं आहिंसु, मिच्छा ते एवं आहिंसु । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि एवं खलु एगे जीवे एगसमए एक्कं किरियं पकरेइ | परउत्थिवत्तव्वं नेयव्वं । ससमयवत्तव्वयाए नेयव्वं - जाव -- इरियावहियं संपराइयं वा ।" भग० श १ । १० । प्र ३२५ । पृ० ४१५ अन्य मतवाले कहते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ ( ऐर्यापथिकीसाम्परायिकी ) करता है इत्यादि । लेकिन उनका ऐसा कहना गलत है। एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है । जिस समय एक जीव ऐर्यापथिकी क्रिया करता है उस समय साम्पराधिक क्रिया नहीं करता है तथा जिस समय एक जीव साम्परायिको क्रिया करता है। उस समय ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं करता है । ऐर्यापथिकी करने से साम्परायिकी नहीं करता है तथा साम्परायिकी करने से ऐर्यापथिकी नहीं करता है । एक समय में एक जीव एक हो किया करता है, ऐर्यापथिको क्रिया अथवा साम्परायिकी क्रिया । "Aho Shrutgyanam" Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ क्रिया-कोश '६४२२ ऐपिथिकी-साम्परायिकी क्रियाद्वयक और अनगार :. (क) अणगारस्स णं भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा चिट्ठमाणस्स वा निसीयमाणस्स वा तुयट्टमाणस्स वा अणाउत्तं वत्थं, पडिग्गह, कंबलं, पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ,संपराइया किरिया कजइ ? गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कज्जइ। से केण?णं ? गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, नो संपराइया किरिया कजइ ; जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ नो इरियावहिया किरिया कजद ; अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कजइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कजइ, से णं उस्सुत्तमेव रीयइ से तेण?णं। -भग० श ७ । उ १ । प्र १८ । पृ० ५१० उपयोग-यत्नारहित गमन करते हुए, खड़े होते हुए, बैठते हुए, सोते हुएं तथा यत्नारहित वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन (रजोहरण) को ग्रहण करते हुए, रखते हुए अनगार को ऐपिथिको क्रिया नहीं होती है, सांपरायिकी क्रिया होती है। क्योंकि जिसके क्रोधमान-माया-लोभ व्युच्छिन्न-क्षीण हो गये हैं उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है, जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ अव्युच्छिन्न-क्षीण नहीं हुए हैं उसके सांपरायिको क्रिया होती है, ऐपिथिको क्रिया नहीं होती है ! सूत्र के अनुसार चलते हुए साधु को ऐ-पथिकी क्रिया होती है, सूत्र के विपरीत चलते हुए साधु को सांपरायिकी क्रिया होती है। जो अनगार सूत्रविरुद्ध चलता है, उसके राग-द्वेष क्षीण नहीं हुए हैं। इसलिए यह कहा गया है कि जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ क्षीण नहीं हुए हैं उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। (ख) संवडस्स णं भंते । अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, जाव आउत्तं तुयट्रमाणस्स, आउत्तं वत्थं, पडिग्गह, कंबलं, पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा, निक्खिवमाणस्स वा तस्स गं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ? गोयमा ! संवुडस्स णं अणगाररस जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, णो संपराइया। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-संवुडस्स णं जाव णो संपराइया किरिया कज्जा ? गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोमा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, तहेव-जाव--उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ, "Aho Shrutgyanam" Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १३३ से गं अहामुत्तमेव रीयइ, से तेण?णं गोयमा ! जाव णो संपराइया किरिया कज्जा __-.-भग० श ७ | उ ७ । प्र१ । पृ० ५२० __उपयोगपूर्वक-यत्नापूर्वक गमन करते हुए, खड़े होते हुए .--बैठते हुए, सोते हुए तथा यत्नासहित वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन (रजोहरण) को ग्रहण करते हुए रखते हुए संवृज रेपिथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है। क्योंकि जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ व्युच्छिन्न--क्षीण हो गये हैं उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है। सूत्रानुसार चलते हुए साधु को ऐपिथिकी क्रिया होती है, सूत्र के विपरीत चलते हुए साधु को सांपरायिकी क्रिया होती है ! जो संवृत्त अनगार सूत्रानुसार चलता है, उसके राग-द्वेष क्षीण हो गये हैं। __अतः यह कहा गया है कि संवृत्त अनगार के क्रोध-मान-माया-लोभ के क्षीण होने से ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं । (ग) संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाई निज्मायमाणस्स मग्गओ रूवाई अवयक्खमाणस्स पासओ रूवाई अवलोएमाणस्स उड्ढे रुवाई आलोएमाणस्स अहे रूवाणि आलोएमाणस्स तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ? गोयमा। संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिचा-जाव तस्स णं नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजा। से केण?णं भंते ! एवं वुश्चइ---संवुडस्स-जाव-संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोभा एवं जहा सत्तमसए पढमोहेसए–जावसे णं उस्सुत्तमेव रीयइ, से तेण?णं-जाव - संपराइया किरिया कज्जइ । -भग० श १० । उ २ । प्र १ । पृ० ६१४ वीचिमार्ग में अवस्थित---कषाय भाव में स्थित-कषायभाव से--सामने, पीछे, अगल-बगल, ऊँची, नीची रूपी वस्तुओं को अवलोकन करते हुए संवृत्त अणगार को ऐापथिकी क्रिया नहीं होती है, सांपरायिक क्रिया होती है। क्योंकि जिसके क्रोध-मान-मायालोभ व्युच्छिन्न--क्षीण हो गये हैं उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है ; जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ अव्युच्छिन्न--क्षीण नहीं हुए हैं उसके सांपरायिकी क्रिया होती है, ऐयापथिकी क्रिया नहीं होती है । ___ सूत्रानुसार चलते हुए साधु को ऐपिथिकी क्रिया होती है, सूत्र के विपरीत चलते हुए साधु को सांपरायिकी क्रिया होती है ! जो अनगार सूत्रविरुद्ध चलता है उसके रागद्वेष क्षीण नहीं हुए है इसलिए यह कहा गया है कि जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ क्षीण नहीं हुए हैं उसके सांपरायिकी क्रिया होती है । "Aho Shrutgyanam" Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश (घ) संवुडस्स णं भंते! अणगारस्स अवीयीपंथे ठिचा पुरओ रुवाइ निकायमाणस्स — जाव - तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कजइ (संपराइया किरिया कज्जइ ) ? पुच्छा, गोयमा ! संबुड ( स ) - जाव - तरस णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराझ्या किरिया कज्जइ ? १३४ सेकेट्टणं भंते! एवं वुश्च्चइ जहा सत्तमे सए सत्तमोद्देसए- - जाव- से णं अहासुत्तमेव रीयइ सेतेाट्टेणं-जाव - नो संपराश्या किरिया कज्जइ । -भग० श १० । २ । प्र २ । पृ० ६१४ अवीचिमार्ग में स्थित — अकषायभावमें स्थित अकषायभावसे सामने यावत् नीची रूपी वस्तुओं को अवलोकन करते हुए संवृत्त अणगार को ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है । क्योंकि जिसके क्रोध मान-माया-लोभ व्युच्छिन्न---- क्षीण हो गये हैं उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है । सूत्रानुसार चलते हुए साधु को ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सूत्र के विपरीत चलते हुए साधु को सांपरायिकी क्रिया होती है । जो संवृत्त अणगार सूत्रानुसार चलता है उसके राग-द्वेष क्षीण हो गये हैं । अतः यह कहा गया है कि अकषाय भावमें अवस्थित संवरित अणगार के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी नहीं होती है । (च) अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणी पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोए वा वट्टापोए वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो- जाब तरस णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ । सेकेणणं भंते! एवं वुञ्चइ ? जहा सत्तमसए संबुडुद्दे सए - जाव - अ - अट्ठो निक्खित्तो । -भग० श १८ । ८ । प्र १ । पृ० ७७६ अगल-बगल युगप्रमाण भूमि को देखकर गमन करते हुए भावितात्मा अणगार के पैर के नीचे यदि मुर्गी का बच्चा अथवा बतख का बच्चा अथवा चींटी तथा चींटी का अंडा आदि सूक्ष्म जन्तु आकर यदि परिताप- कष्ट - मरण को प्राप्त होवे तो उस अणगार की ऐयपथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है क्योंकि जिसके क्रोध मानमाया- लोभ व्युच्छिन्न हो गये हैं उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है । --- सूत्रानुसार चलते हुए साधु को ऐर्यापथिकी क्रिया होती है; सूत्र के विपरीत चलते हुए साधु को परायिकी क्रिया होती है। जो अनगार सूत्र विरुद्ध चलता है उसके राग " Aho Shrutgyanam" Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाकोश १३५ द्वेष क्षीण नहीं हुए है, जो संवृत्त अणगार सूत्रानुसार चलता है, उसके राग-द्वेष क्षीण हो गये है। ___ अतः यह कहा गया है कि भावितात्मा अनगार के क्रोध-मान-माया-लोभ क्षीण होने से ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं । ६४.२.३ ऐापथिकी साम्परायिकी क्रिया-द्वयक और श्रमणोपासक समणोवासयरस णं भंते ! सामाश्यकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स तस्स गं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जई, संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कज्जइ । से केण?णं जाव संपराश्या ? गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाझ्यकडरस समणोवासए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवइ आयाऽहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ से तेणटणं जाव संपराइया। ---भग० श ७ । उ १ । प्र ५। पृ० ५०६ श्रमण-उपाश्रय में बैठकर अर्थात साधु-सान्निध्य में सामायिक करता हुआ श्रमणोपासक सांपराधिक क्रिया करता है, ऐपिथिक क्रिया नहीं करता है क्योंकि श्रमणउपाश्रयमें सामायिक करते हुए श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरण होती है तथा उसको आत्मा अधिकरण में वर्तन कर रही है अर्थात् अवस्थित है इसलिए उसको साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती है । विश्लेषण :-साधु-सान्निध्य में सामायिक करते हुए श्रमणोपासक की आत्मा कषायनिरुद्ध होनी चाहिए अतः यह आशंका होती है कि उसे साम्परायिकी क्रिया क्यों होती है । सामायिक करते हुए श्रमणोपासक के हल, शकटादिक जो कषाय के आश्रयभूत अधिकरण है उनसे वह निवृत्त नहीं हुआ है अतः उसकी आत्मा इन अधिकरणों में अर्थात शस्त्रों में वर्तन कर रही है अतः उस श्रमणोपासक को साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है। ६५ आरम्भिकी क्रिया-पंचक: [ आरम्भिकी, पारिग्रहिको, मायाप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यान क्रिया तथा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी-इन पाँच क्रियाओं का एक क्रियापंचक कहा गया है और यह आरम्भिकी क्रियापंचक के नाम से विख्यात है। "Aho Shrutgyanam" Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ क्रिया-कोशे आरंभिकी क्रियापंचक का विवेचन सामान्यतः कर्मास्रव की अपेक्षा किया गया है। मिथ्यात्वी प्राणी के-मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी क्रिया लगती है और जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लगती है उसको आरंभिकी आदि बाकी चारों क्रियाएँ अवश्य लगती हैं और उसके मिथ्यात्व आस्रव होता है । अविरती प्राणी के-अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है तथा जिसको अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है उसको आरंभिकी आदि तीन क्रियाएँ अवश्य लगती है और उसके अवतआस्रव होता है । __ सकषायी प्राणी के–मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है तथा जिसको मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है उसको आरंभिकी और पारिग्रहिकी क्रिया कदाचित् लगती है और कदा. चित नहीं लगती है और उसको कषाय-आस्रव होता है । सकषायी (लोभ की प्रबलता वाले) जीव को पारिग्रहिकी क्रिया लगती है तथा जिसको पारिग्रहिकी क्रिया लगती है उसको आरंभिकी क्रिया अवश्य लगती है और उसके कषायात्रव होता है ; परिग्रह की 'अजयना' में प्रमाद भाव भी रहता है अतः प्रमाद-आस्रव भी होता है। सप्रमादी तथा सयोगी ( अशुभ योगी) जीव के आरंभिकी क्रिया लगती है तथा उसको प्रमाद और योगास्रव होता है । . उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि इन पाँचों क्रियाओं का पारस्परिक अविनाभाव संबंध भी है अतः इन क्रियाओं का समुदाय में विवेचन किया गया है। ] '६५.१ नाम : __कइ णं भंते ! किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया। -पण्ण० प २२ । सू १६२१ । पृ० ४८२ --ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ । पृ० २६२ । (केवल उत्तर) पाँच क्रियाओं का एक पंचक कहा गया है यथा--१ आरंभिकी, २ पारिग्रहिकी, ३ मायाप्रत्ययिकी, ४ अप्रत्याख्यानक्रिया तथा ५ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी । ६५.२ जीवदंडक और आरंभिकी क्रियापंचक : (क) नेरइयार्ण भंते ! कइ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नताओ. तंजहा-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया । एवं जाव वेमाणियाणं। -~-पण्ण° प २२ । सू १६२७ । पृ० ४८२-८३ "Aho Shrutgyanam" Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १३७ (ख) पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया, नेरइयाणं पंच किरिया, निरंतर जाव वेमाणियाणं । -ठाण० स्था ५ । उ २। सू ४१६ । पृ० २६२ नारको जीवों के पाँचों क्रियाएँ होती है, यथा--आरम्भिको यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी। इस प्रकार दण्डक के यावत वैमानिक तक सभी जीवों के पाँचों क्रियाएँ होती हैं। ६५.३ आरम्भिकी क्रियापंचक और मिथ्यादृष्टि जीव :--- मिच्छदिट्ठियाणं नेरइयाणं पंच किरियाओ पन्नत्ताओ,तंजहा--आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया । एवं सब्वेसि निरंतरं जाव मिच्छद्दिटियाणं वेमाणियाणं । नवरं विकलिंदिया मिच्छद्दिट्टी न भन्नति सेसं तहेव ! __-ठाणा० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ ! पृ० २६२ मिथ्याष्टि नारकी जीवों के आरम्भिकी कियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती हैं । इसी प्रकार यावत् मिथ्याष्टि वैमानिक जीवों तक के दंडक के सभी मिथ्यादृष्टि जीवों के आरंभिको कियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के मिथ्याटष्टि विशेषण प्रयुक्त करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। '६५.४ आरम्भिकी क्रियापंचक और समष्टि जीव : सम्मदिट्ठियाणं नेरझ्याणं चत्तारि किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया; सम्मदिट्ठियाणं असुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओ पन्नत्ताओ एवं चेव । एवं विगलिंदियवज्जं जाव-वेमाणियाणं । -ठाण० स्था ४ । उ ४ । सू ३६६ । पृ० २५४ समदृष्टि नारकी जीवों के आरम्भिकी क्रियापंचक की प्रथम की चार क्रियाएँ होती है ! इसी प्रकार समदृष्टि असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों को भी चार क्रियाएँ होती हैं । समष्टि पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक जीव-मनुष्य-जीव-वाणव्यतर-ज्योतिषी-वैमानिक देवों के भी इसी प्रकार चार क्रियाएँ होती हैं। . '६५५ आरंभिकी क्रियापंचक और गुणस्थान : आरंभिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जइ ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि (स्स वि) पमत्तसंजयस्स । परिग्गहिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जइ ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि संजयासंजयस्स ! मायावत्तिया णं भंते ! किरिया कास कजइ ? "Aho Shrutgyanam" Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ क्रिया-कोश गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपमत्तसंजयस्स । अपञ्चक्वाणकिरिया गं भंते ! कस्स कजइ ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपञ्चक्खाणिस्स । मिच्छादसणवत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जड गोयमा ! अण्णयरस्सावि मिच्छादंसणिस्स। –पण ० प २२ । सू १६२२ से १६२६ । पृ ४८२ आर'भिकी क्रिया कोई एक प्रमत्तसंयत तथा उसके अधस्तन (नीचे वाले) गुणस्थानवर्ती जीवों के होती है। पारिग्रहिकी क्रिया कोई एक संयतासंयत तथा उसके नीचे वाले गुणस्थानवी जोवों के होती है। मायाप्रत्ययिकी क्रिया कोई एक अप्रमत्तसंयत तथा उसके नीचे वाले गुणस्थानवी जीवों के होती है। अप्रत्याख्यानक्रिया अविर ति तथा उसके नीचे वाले गुणस्थानवी जीवों के होती है। मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया मिथ्यादृष्टि के होती है। टीका :-एतासां क्रियाणां मध्ये यस्य या सम्भवति तस्य तां निरूपयति'आरंभिया णं भंते !' अन्नयरस्सवि पमत्तसंजयस्स इति अत्रापिशब्दो भिन्नक्रमः प्रमत्तसंयतस्याप्यन्यतरस्य-एकतरस्य कस्यचित् प्रमादे सति कायदुष्प्रयोगभावतः पृथिव्यादेरुपमईसम्भवात्, अपिशब्दोऽन्येषामधस्तनगुणस्थानवतिनां नियमप्रदर्शनार्थः, प्रमत्तसंयतस्याप्यारम्भिकी क्रिया भवति किं पुनः शेषाणां देशविरतप्रभृतीनामिति ?, एवमुत्तरत्रापि यथायोगमपि शब्दभावना कर्तव्या, पारिग्रहिकी संयतासंयतस्यापि देशविरतस्यापीत्यर्थः, तस्यापि परिग्रहधारणात, मायाप्रत्यया अप्रमत्तसंयतस्यापि, कथमिति चेत्, उच्यते, प्रवचनोड्डाहप्रच्छादनार्थ वल्लीकरणसमुद्देशादिषु, अप्रत्याख्यानक्रिया अन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः, अन्यतरदपि न किञ्चिदपीत्यर्थः यो न प्रत्याख्याति तस्येति भावः, मिथ्यादर्शनक्रिया अन्यतरस्यापि सूत्रोक्तमेकमप्यक्षरमरोचयमानस्येत्यर्थः मिथ्यादृष्टभवति । रंभिकी क्रियाएँ किन-किन जीवों को होती है इसका विवेचन किया गया है : आरंभिकी क्रिया कोई एक प्रमत्तसंयत को होती है-यहाँ 'अपि' शब्द भिन्नक्रम को जनाता है । अन्यतर अर्थात् कोई एक प्रमत्तसंयत के प्रमाद के सद्भाव में शरीर के दुष्प्रयोग–अयतना से पृथ्वी आदि जीवों की हिंसा संभव है । 'अपि' शब्द उससे नीचे वाले गुणस्थानवी जीवों के आरंभिकी किया के होने की नियतता का द्योतक है। जब प्रमत्तसंयत को भी आरंभिकी क्रिया होती है फिर देशविरति आदि गुणस्थानवती जीवों के विषय में क्या कहना है अर्थात उनको नियमपूर्वक होती है । इस प्रकार बाद के सूत्रों के विषय में 'अपि' शब्द के अर्थ का विचार कर लेना चाहिए। "Aho Shrutgyanam" Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १३६ पारिग्रहिकी क्रिया संयतासंयति-देशविरति को भी होती है क्योंकि वह परिग्रह धारण करता है। मायाप्रत्यायिकी क्रिया अप्रमत्तसंयत को भी होती है क्योंकि प्रवचन की हेलना जिससे न हो उसके लिए कोई बात प्रच्छन्न करे-----लुकावे या प्रवचन की मलिनता की रक्षा करने के लिए किसी बात को छिपावे। अप्रत्याख्यान क्रिया कोई भी अप्रत्याख्यान-अविरति को होती है। जो किंचित मात्र भी प्रत्याख्यान नहीं करता है उसको अप्रत्याख्यान क्रिया होती है । मिथ्यादर्शनक्रिया--जो जीव सूत्र में कथित एक भी अक्षर की श्रद्धा नहीं करता है उस मिथ्या ष्टि को होती है । '६५'६ आरम्भिकी क्रियापंचक तथा प्राणातिपातादि विरमण : पाणाइवायविरयस्स णं भंते! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ, जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजइ? गोयमा ! पाणाइवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कन्जइ सिय नो कजइ । पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स परिग्गहिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! णो इण? समठे। पाणाइयायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स मायावत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सिय कन्जइ, सिय नो कज्जइ । पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अपञ्चक्खाणवत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो नो इण? सम? । मिच्छादसणवत्तियाए पुच्छा। गोयमा! नो इणढे सम? । एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्स वि, एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य। मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मिच्छादंसगवत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! मिच्छदसणसल्लविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ, एवं जाव अपञ्चक्खाणकिरिया । मिच्छादंसणवत्तिया किरिया न कज्जइ । मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! नेरइयस्स कि आरंभिया किरिया कन्जइ जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! आरंभिया वि किरिया कज्जइ जाव अपञ्चक्खाणकिरिया वि कज्जइ, मिच्छादसणवत्तिया किरिया नो कज्जइ ! एवं जाव थणियकुमारस्स। मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा । गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मायावत्तिया किरिया कज्जइ, अपश्चक्खाणकिरिया सिय काजइ, सिय नो कज्जइ, मिच्छादसणवत्तिया किरिया नो कज्जइ। मणूसस्स जहा जीवस्स । वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरच्यस्स । -पण्ण० प २२ । सू १६५० से १६६२ । पृ० ४८५-८६ "Aho Shrutgyanam" Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश प्राणातिपात को विरतिवाले जीव के आरंभिकी क्रिया कदाचित होती है कदाचित् नहीं होती है । प्रमत्तसंयत के कदाचित होती है और ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होती है । प्राणातिपात की विरति वाले जीव के पारिग्रहिकी क्रिया नहीं होती है (यदि परिग्रह से सर्वथा निवृत्त न हो तो सम्यग् प्राणातिपात की विरति घटित नहीं होती है । ) प्राणातिपात की विरतिवाले जीव के मायाप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित होती है, कदाचित् नहीं होती है ( क्योंकि अप्रमत्तसंयत के भी कदाचित् प्रवचन-मालिन्य के रक्षणार्थगोपनार्थ माया हो सकती है । ) प्राणातिपात की विरतिवाले जीव के अप्रत्याख्यान तथा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती / १४० इसी प्रकार प्राणातिपात की विरति वाले मनुष्य के संबंध में जानना । इसी प्रकार मृषावाद यावत् मायामृषावाद की विरति वाले जीव और मनुष्य के विषय में जानना । मिथ्यादर्शनशल्य विरति वाले जीव के आरंभिकी क्रिया, पारिग्रहिकी क्रिया तथा मायाप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित होती है कदाचित् नहीं होती ; लेकिन मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती है । मिथ्यादर्शनशल्य की विरति वाले नारकी के आरंभिकी क्रिया यावत् अप्रत्यख्यान क्रिया होती है; मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती है । नारकी की तरह असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों के सम्बन्ध में जानना । मिथ्यादर्शनशल्य की विरति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव के आरंभिकीपारिग्रहिकी मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है; अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है । मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती है ! जैसा औधिक जीव का कहा वैसा मनुष्य के सम्बन्ध में जानना । जैसा नारकी के सम्बन्ध में कहा वैसा वाणव्यतर- ज्योतिषी वैमानिक देवों के संबंध में जानना । '६५७ आरम्भिकी क्रियापंचक और जीवों में क्रिया-समानता :*६५७१ नारकी जीवों में :-- (क) नेरइया णं भंते! सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! नो इण सम | से ट्टणं भंते! एवं वुश्चइ-नेरइया नो सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! नेरइया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा - सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्टी । तत्थ णं जे ते सम्म - दिट्ठी तेसि णं चत्तारि किरियाओ कज्जंति, तंजहा- आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपश्चक्खाण किरिया । तत्थ ण जे ते मिच्छदिट्ठी जे य सम्भामिच्छदिट्ठी "Aho Shrutgyanam" Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १४१ तेसि यतिआओ ( तेसि णं नियताओ) पंच किरियाओ कजति, तं जहा.. आरंभिया. परिम्गहिया, मायावत्तिया, अपश्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया, से ते तेण?णं गोयमा ! एवं वुञ्चइ- नेरइया नो सव्वे समकिरिया। - पण्ण ० प १७ । उ १ । सू ११२६ । पृ० ४३५ (ख) नेरक्या णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! नो इण? सम? । से केण?णं ? गोयमा ! नेरझ्या तिविहा पन्नत्ता, तं जहा--सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी तेसि णं चत्तारि किरियाओ पन्नत्ता, तं जहा–आरंभिया, परिम्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया । तत्थ णं जे ते मिच्छदिट्ठी तेसि णं पंच किरियाओ कन्जंति, तंजहा- आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया। एवं सम्मामिच्छादिट्ठीणं पि । से तेण?णं गोयमा ! -भग० श १ । उ २। प्र ७६-८० । पृ० ३६१-६६२ नारकी जीव सब समक्रिया वाले नहीं होते हैं क्योंकि नारको जीव तीन प्रकार के होते हैं यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि तथा सम्यगमिथ्याष्टि। सम्यग्दृष्टि नारकी को आरंभिकी-पारिग्रहिकी-मायाप्रत्ययिकी-अप्रत्याख्यान- चार क्रियायें होती हैं ; तथा मिथ्याष्टि-सम्यग मिथ्याष्टि नारकी को आरंभिकी आदि पाँच क्रियाएँ नियम से होती हैं ! अतः कहा जाता है कि सब नारकी आरंभिकी क्रियापंचक की अपेक्षा समान क्रिया वाले नहीं हैं। ६५.७२ असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों में :-- (क) असुरकुमारा णं भंते ! xxx अवसेसं (समकिरिया-समाउया) जहा नेरइयाणं । एवं जाव थणियकुमारा। -पण्ण० प १७ । उ १ . सू १४३२-३५-३६ । पृ० ४३५-३६ (ख) असुरकुमारा णं भंते ! xxx जहा नेरच्या तहा भाणियब्वा xxx सेसं ( समकिरिया-समाउया ) तहेव, एवं जाव थणियकुमाराणं । ---- भग० श १ । उ २ । प्र८३ | पृ० ३६२ नारकी की तरह असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव भी आरम्भिकी क्रियापंचक की अपेक्षा समक्रियावाले नहीं होते हैं। जो सम्यग्दृष्टि होते हैं उनके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी बाद चार क्रियाएँ होती हैं । जो मिथ्या दृष्टि तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं उनके आरभिकी आदि पाँच क्रियाएँ होती हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ क्रिया-कोश ६५.७ ३ पृथ्वीकायिक यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों में : (क) पुढविक्काइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? हंता, गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे समकिरिया। से केणढणं ? गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे माइमिच्छादिट्ठी तेसिं णियझ्याओ पंच किरियाओ कअंति, तं जहा--आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया ( य, से तेण?णं गोयमा !) एवं जाव चउरिदिया। -पण्ण ० प १७ । उ.१ । सू ११३६-४० । पृ० ४३६ (ख) पुढविक्काइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? हंता ( गोयमा !) समकिरिया । से केण?णं ? गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे माई मिच्छादिट्ठी, ताणं णियइयाओ पंचकिरियाओ कज ति, तं जहा-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया । xxx जहा पुढविक्काइया तहा जहा चउरिंदिया। --भग० श १ । उ २ । प्र८७-८८ पृ० ३६२ पृथ्वी कायिक यावत चतुरिन्द्रिय जीव सब समान क्रियावाले होते है क्योंकि वे सब मायी-मिथ्यादृष्टि होते है। अतः आरम्भिकी क्रियापंचक की पाँची क्रियाएँ नियम से करते हैं । .६५.७.४ पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक जीवों में :-- (क) पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! नो इण? समठे। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--असंजया य संजयासंजया य, तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसि णं तिन्नि किरियाओ कज ति, तं जहा - आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, असंजयाणं चत्तारि, मिच्छादिट्ठीणं पंच, सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच । -भग० श १ । उ २ । प्र६१-६२ । पृ० ३६२ (ख) पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरक्या नवरं किरियाहिं सम्मट्टिी, मिच्छहिट्ठी, सम्मामिच्छट्टिी। तत्थ णं जे ते सम्मट्टिी ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा - असंजया य संजयासंजया य । तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसि णं तिन्नि किरियाओ कज ति, तंजहा-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया। तत्थ णं जे असंजया तेसि णं चत्तारि किरियाओ कन्जं ति, तंजहा---आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया। तत्थ णं जे ते मिच्छट्ठिी जे य सम्मामिच्छट्ठिी तेसि गं णियइयाओ पंच किरियाओ कज ति, तंजहा----आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया । सेसं तं चेव । ----पण्ण० प १७ । ३१ । सू ११४१ । पृ० ४३६ "Aho Shrutgyanam" Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव सब समान क्रिया वाले नहीं होते हैं क्योंकि वे तीन प्रकार के होते हैं यथा--सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि तथा सम्यमिथ्यादृष्टि । जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे दो प्रकार के होते हैं यथा- असंयत, संयतासंयत । जो संयतासंयत हैं उनके प्रथम की तीन क्रियायें होती हैं तथा जो असंयत है उनके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी बाद चार क्रियायें होती हैं । जो मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग् मिथ्यादृष्टि होते हैं उनके आरंभिकी क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती हैं। ६५.७५ मनुष्य जीवों में : (क) मणुस्सा णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! णो इण? सम?। से केणट्टणं ? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पन्नता, तं जहा- सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-संजया, संजयाऽसंजया, असंजया । तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता तं जहा-- सरागसंजया य, वीयरागसंजया य । तत्थ णं जे ते वीयरागसंजया ते णं अकिरिया। तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसि णं एगा मायावत्तिया किरिया कज्जइ, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसि णं दो किरियाओ कज ति, तं जहा-आरंभिया, मायावत्तिया। तत्थ णं जे ते संजयाऽसंजया तेसि णं आइल्लाओ तिण्णि किरियाओ कन्जंति, तं जहा–आरंभिया, परिम्गहिया, मायावत्तिया। असंजया णं चत्तारि किरियाओ कन्जंति---आरंभिया, परिम्गहिया, मायावत्तिया, अप्पश्चक्खाणपञ्चया। मिच्छादिट्टी णं पंच-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पञ्चक्खाणपश्चया, मिच्छादसणवत्तिया । सम्मामिच्छादिट्ठी णं पंच। --भग० श १ । उ २ । प्र६४-६५। पृ० ३६२-६३ (ख) नवरं किरियाहिं मणूसा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-सम्मट्ठिी, मिच्छाहिट्टी, सम्मामिच्छादिठ्ठी। तत्थ णं जे ते सम्महिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहासंजया, असंजया, संजयासंजया । तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहासरागसंजया य वीयरागसंजया य। तत्थ णं जे ते वीयरागसंजया ते णं अकिरिया । तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य । तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसिं एगा मायावत्तिया किरिया कन्नइ । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसिं दो किरियाओ कन्जंति-आरंभिया मायावत्तिया य । तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिं तिन्नि किरियाओ कन्जंति, तं जहा-आरंभिया, परिम्गहिया, मायावत्तिया। तत्थ गं जे ते असंजया तेसिं चत्तारि किरियाओ "Aho Shrutgyanam" Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ क्रिया-कोश कजंति, तं जहा-आरंभिया, परिगहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया। तत्थ णं जे ते मिच्छादिठ्ठी, जे य सम्मामिच्छाद्दिठ्ठी तेसिं (ण) णियइयाओ पंच किरियाओ कज्जति, तं जहा-आरंभिया. परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया । सेसं जहा नेरइयाणं । --पण्ण० प १७ । उ १ । सू११४२ । पृ० ४३६-३७ मनुष्य जीव भी सब समान क्रियावाले नहीं होते हैं क्योंकि वे तीन प्रकार के होते हैं यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि । जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे तीन प्रकार के होते हैं- यथा-संयत, संयतासंयत तथा असंयत । जो संयत होते हैं वे दो प्रकार के होते हैं यथा-सरागसंयत तथा वीतरागसंयत । जो वीतरागसंयत होते हैं वे (आरंभिकी क्रिया की अपेक्षा ) अक्रिय होते हैं तथा जो सरागसंयत होते है वे दो प्रकार के होते हैं यथा-प्रमत्तसंयत तथा अप्रमत्तसंयत । जो अप्रमत्तसंयत होते हैं उनके केवल एक मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है तथा जो प्रमत्तसंयत होते हैं उनके आरंभिकी तथा मायाप्रत्ययिकी दो क्रियाएँ होती हैं जो संयतासंयत होते हैं उनके आरंभिकी आदि प्रथम को तीन क्रियाएँ होती है। जो असंयत होते हैं उनके मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी वाद चार क्रियाएँ होती हैं। जो मिथ्यादृष्टि तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं उनके आरंभिकी क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती है। ६५.७.६ वाणव्यंतर-ज्योतिषी-वैमानिक देवों में : (क) वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं एवं जोइसियवेमाणियाणं वि xxx सेसं (समकिरिया आइ) तहेव । --पपण० प १७ । उ १ । सू११४३-४४ । पृ० ४३७ (ख) वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमारा । -भग० श १ । उ २ । प्र६६ । पृ० ६६३ नारकी तथा असुरकुमार देवों को तरह वाणव्यंतर-ज्योतिषी-त्रैमानिक देव भी समान क्रियावाले नहीं होते है । जो सम्यग्दृष्टि होते हैं उनके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी बाद चार क्रियाएँ होती हैं ; जो मिश्च्यादृष्टि तथा सम्यमिथ्यादष्टि होते हैं उनके आरंभिकी क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश आरम्भिकी क्रियापंचक और जीवों में क्रियासमानता-६५७७ सलेशी जीवों में (क) सलेस्सा णं भंते! नेरख्या सध्वे समाहारगा ( इत्यादि ) ओहियाणं, सलेस्साणं, सुक्कलेस्साणं, एएसि णं तिन्हं एक्को गमो । १४५ कण्हले साणं नीललेस्साणंपि एक्को गमो, नवरं वेयणाए मायिमिच्छद्दिकीउववनगाय अमायिसम्म हिट्टी उवयन्नगा य भाणियव्वा मणुस्सा किरियासु सराग-वीयराग, पमत्ताऽयमत्ता न भाणियन्वा । काउलेस्साण वि एसेव गमो, नवरं नेरइए जहा ओहिए दंडए तहा भाणि यव्वा । तेलेस्सा, पम्हलेस्सा जस्स अस्थि जहा ओहिओ दंडओ तहा भाणियव्त्रा, नवरं मणुस्सा सरागा, वीयरागा न भाणियव्वा । गाहाः दुक्खाउए उदिष्णे आहारे कम्म-वन्न - लेस्सा य ! समवेयण-समकिरिया समाउए चेव बोधव्वा || - भग० श १ । उ२ । ६७ । पृ० ३६३ वेमाणिया । कण्ह (ख) सलेस्सा णं भंते! नेरख्या सव्वे समाहारा, समसरीरा, समुस्सासनिस्सासा सव्वेच्चेव ( चि ) पुच्छा । ( गोयमा ! ) एवं जहा ओहिओ गमओ भणिओ तहा सलेस्सगमओ वि निरवसेसो भाणियन्वो, जाव लेस्सा णं भंते! नेरइया सव्वे समाहारा ३ पुच्छा । गोयमा ! जहा ओहिया xxx सेसं तहेव जहा ओहियाणं । असुरकुमारा जाच वाणमंतरा एए जहा ओहिया, नवरं मणूस्साणं किरियाहिं विसेसो - जाव तत्थ णं जे ते सम्म हिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- संजया, असंजया, संजयासंजया य, जहा ओहियाणं । जो सियवेमाणिया आइल्लियासु तिसु लेसासु ण पुब्लिज्जंति । एवं जहा कण्हलेसा चारिया ( विचारिया ) तहा नीललेस्सा वि चारियव्वा ( विचारेयव्वा ) । काउलेसा नेरनुएहितो आरम्भ जाव वाणमंतरा, नवरं काउलेसा नेरख्या वेयणाए जहा ओहिया । तेउलेसा णं भंते! असुरकुमारा णं ताओ चैव पुच्छाओ । गोयमा ! जहेव ओहिया तहेव, नवरं वेयणाए जहा जोइसिया । पुढविआउवणास पंचिदियतिरिक्खमणूस्सा जहा ओहिया तहेव भाणियब्वा, नवरं मणूस्सा किरियाहि जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियव्वा, सरागा, वीयरागा नत्थि । वाणमंतरा तेडलेसाए जहा असुरकुमारा, एवं जोइसियवेमाणिया वि। सेसं तं चैव । एवं पम्हलेस्सा वि भाणिव्वा, नवरं जेसिं अस्थि । सुक्कलेसा वि तहेव जेसिं अस्थि सव्वं तहेव जहा १६ "Aho Shrutgyanam" Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ क्रिया-कोश ओहियाणं गमओ, नवरं पम्हलेस्ससुक्कलेस्साओ पंचिदियतिरिक्खजोणियमणूसमणियाणं चैव न सेसाणं ति । - पण्ण० प १७ । उ १ । सू ११४५ से ११५५ / पृ० ४३७ सलेशी जीव भी समक्रिया वाले नहीं होते हैं । सलेशी जीवदण्डक को औधिक ( निर्विशेषण) जीवदण्डक की तरह जानना । शुक्ललेशी जीवदण्डक भी औधिक जीव दण्डक की तरह जानना केवल जिस दण्डक में शुक्ललेश्या होती है उसको कहना | कृष्णलेशी - नीललेशी जीव भी समक्रिया वाले नहीं होते हैं । समक्रिया की अपेक्षा कृष्णलेशी - नीललेशी जीवदण्डकों का एकसा गमक औधिक जीवदण्डक के समान कहना केवल मनुष्यों में सराग वीतराग, प्रमत्त अप्रमत्त भेद नहीं कहना क्योंकि कृष्णलेश्या वाले, नोललेश्पा वाले मनुष्य वीतराग संयत नहीं होते हैं, सरागसंयत ही होते हैं तथा अप्रमत्त संयत भी नहीं होते हैं, प्रमत्तसंयत ही होते हैं । टीकाकार का कथन है--इन लेश्याओं में संयतता का ही अभाव है इसलिये उपर्युक्त सराग वीतराग, प्रमत्त- अप्रमत्त भेद नहीं कहना । गमक कृष्णलेशी, नीललेशी समक्रिया की अपेक्षा, कापोतलेशी जीवदण्डक का जीवदण्डक की तरह कहना ! तेजोलेशी - पद्मलेशी जीव भी समक्रिया वाले नहीं होते है । तेजोलेशी - पद्मलेशी जीवदण्डकों को भी औधिक ( निर्विशेषण ) जीवदण्डक की तरह कहना केवल मनुष्यों में सराग- वीतराग भेद नहीं कहना क्योंकि तेजोलेशी - पद्मलेशी मनुष्य वीतरागसंयत नहीं होते हैं, सराग ( प्रमत्त- अप्रमत्त ) संयंत ही होते हैं तथा जिस दण्डक में तेजोलेश्या - पद्मलेश्या होती है वही दण्डक कहना ! उदाहरणार्थ * १ सलेशी नारकी कोई चार क्रियावाला, कोई पाँच क्रियावाला होता है । २ सलेशी भवनवासी देव -- वही । - ३ सलेशी पृथ्वी कायिक पाँच कियावाले होते हैं । ४ सलेशी अपकायिक से चतुरिन्द्रिय जीव पाँच क्रिया वाले होते हैं । *५ सलेशी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव कोई तीन, कोई चार, कोई पाँच क्रिया वाले होते हैं । '६ सलेशी मनुष्य कोई अक्रिय, कोई एक, कोई दो, कोई तीन, कोई चार, कोई पाँच क्रियावाले होते हैं । -७ सलेशी वाणव्यंतर ज्योतिषी - वैमानिक देव जीव कोई चार, कोई पाँच क्रिया वाले होते हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश • ६५८ आरंभिकी क्रियापंचक की नियमा भजना औधिक जीव की अपेक्षा : जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जइ तस्स पारिग्गहिया ( परिगहिया) किरिया कज्जर ? जस्स पारिग्गहिया किरिया कज्जत्र तरस आरंभिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जइ तस्स पारिगहिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ, जस्स पुण पारिगहिया किरिया कज्जर तरस आरंभिया किरिया नियमा कज्जइ । जस्स णं भंते ! जीवरस आरंभिया किरिया कज्जइ तस्स मायावत्तिया किरिया कज्जइ १० पुच्छा ! गोयमा ! जस्स णं जीवरस आरंभिया किरिया कज्जर तस्स मायावत्तिया किरिया नियमा कज्जर, जस्स पुण मायावत्तिया किरिया कज्जर तरस आरंभिया किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ । जस्स णं भंते जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जइ तत्स अपचक्खाणकिरिया कज्जर १० पुच्छा ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया किरिया कज्ज३ तास अपश्चक्खाणकिरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जा, जस्स पुण अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ तस्स आरंभिया किरिया नियमा कज्जइ । एवं मिच्छादंसणवत्तियाए वि समं । एवं पारिग्महियावि तिहि उवरिल्लाहिं समं चारेयव्वा (संचारेयव्वा) । जस्स मायावत्तिया किरिया कज्जइ are saftलाओ दोवि सिय कज्जति, सिय नो कज्जंति, जस्स उवरिल्लाओ दो कति तस्स मायावत्तिया नियमा कज्जइ । जस्स अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ तस्स मिच्छादंसणवत्तिया किरिया सिय कन्ज, सिय नो कज्जर, जस्स पुण मिच्छादंसणकत्तिया किरिया तस्स अपचक्खाण किरिया नियमा कज्जइ । -- पण ० प २२ । सू १६२८ से १६३४ | पृ० ४८३ १४० जिस औधिक जीव के आरंभिकी क्रिया होती है उसको पारिग्रहिकी किया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है लेकिन जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके आरंभिकी किया नियम से होती 1 जिस जीव के आरंभिकी क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया नियम से होती है तथा जिसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके आरंभिकी क्रिया कदाचित होती कदाचित नहीं होती है। जिस जीव के आरंभिक क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया कदाचित होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिस जीव के अप्रत्या ख्यान किया होती है उसके आरंभिकी क्रिया नियम से होती है। जिसके आरंभिकी क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके आरंभिको किया नियम से होती है । जिस जीव के पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया नियम से होती "Aho Shrutgyanam" Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ क्रिया-कोश है तथा जिसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके पारिग्रहिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है तथा जिसके अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके पारिग्रहिकी क्रिया नियम से होती है। जिस जीव के पारिनहिकी क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित होती है, कदाचित् नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके पारियहिकी क्रिया नियम से होती है । जिस जीव के मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया कदाचित होती है, कदाचित् नहीं होती है तथा जिसके अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया नियम से होती है। जिस जीव के मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके मायाप्रत्ययिकी क्रिया नियम से होती है ।। . जिस जीव के अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है तथा जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी क्रिया होती है उसके अप्रत्याख्यान क्रिया नियम से होती है । ६५६ आरंभिकी क्रियापंचक की नियमा-भजना जीवदंडक की अपेक्षा नेरइयस्स आइल्लियाओ चत्तारि परोप्परं नियमा कज्जइ, जस्स एयाओ चत्तारि कन्जंति तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया भइज्जइ, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजइ तस्स एयाओ चत्तारि नियमा कज ति, एवं जाव थणियकुमारस्स। पुढवीक्काइयस्स जाव चरिंदियस्स पंचवि परोप्पर नियमा कन्जति । पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स आइल्लियाओ तिणि वि परोप्पर नियमा कन्जति, जस्स एयाओ कजति तम्स उवरिल्लाओ ( उवरिल्लिया) दो ( दोणि ) भइन्जंति, जस्स उवरिल्लाओ दोणि कजति तस्स एयाओ तिण्णि वि नियमा कजति । जस्स अपचक्खाणकिरिया तस्स मिच्छादसणवत्तिया सिय कन्जइ, सिय नो कन्जइ, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया नियमा कज्जइ, मणूसस्स जहा जीवस्स, वाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स जहा नेरइयरस । -पण्ण० प २२ । सू१६३५ । पृ० ४८३ नारकी जीवके प्रथम की चार क्रियाएँ परस्पर में नियम से होती हैं जिसके ये चारों कियाएँ होती हैं उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिको क्रिया की भजना-विकल्प अर्थात् कदाचित् "Aho Shrutgyanam" Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है, कदाचित नहीं होती है । वे चार क्रियाएँ नियम से होती हैं । क्रिया - कोश १४६ जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है उसके नारकी की तरह असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव के विषय में जानना । पृथ्वी कायिक से लेकर यावत् चतुरिन्द्रिय जीव के पाँचों क्रियाएँ परस्पर में नियम से होती है । तिर्यंचपंचेन्द्रिय योनिक जीव के प्रथम को तीन क्रियाएँ परस्पर में नियम से होती हैं । जिसके ये तीन क्रियाएँ होती है उसके अप्रत्याख्यान तथा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया भजना से होती है । जिसके अप्रत्याख्यान तथा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रियाएँ होती हैं उसके उपर्युक्त तीन क्रियाएँ नियम से होती हैं । जिसके उक्त तीन क्रिया के साथ अप्रत्याख्यान क्रिया होती है उसके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है ! जिसके उक्त तीन क्रिया के साथ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है। उसके अप्रत्याख्यान क्रिया नियम से होती है । औधिक जीव की क्रियाओं की तरह मनुष्य की क्रियाओं का आलापक कहना चाहिए। (देखो क्रमांक ६५८ ) बाणव्यंतर ज्योतिषी वैमानिक देवों की क्रिया का आलापक नारकी जीव की क्रियाओं की तरह कहना चाहिए । ६५.१० आरंभिक क्रियापंचक की नियमा भजना समय, देश और प्रदेश की अपेक्षा : : जं समयण्णं भंते! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जइ तं समयं पारिग्गहिया किरिया कज्जइ ? एवं एते जस्स १ जं समयं २ जं देनं ३ जं पदेसण्णं ( पएसेण ) ४ चत्तारि दंडगा नेया, जहा नेरश्याणं तहा सव्वदेवाणं नेयव्वं जाव वैमाणियाणं । -- पण्ण० प २२ । सू १६३६ | पृ ४८३ जिस समय, जिस काल में आरम्भिकी क्रिया होती है उस काल में पारिग्रहिकी क्रिया होती है क्या ? इत्यादि प्रश्न ? जिस प्रकार जिस जीव के आरम्भिकी क्रिया होती है उस जीव के पारिग्रहिकी क्रिया होती है इत्यादि प्रश्न का समाधान जैसे किया गया है ( देखो ६५८ ) उसी प्रकार जिस समय जीव को आरम्भिकी क्रिया होती है उस समय उसको पारिग्रहिकी क्रिया होती है क्या ? इत्यादि आलापक जानने चाहिए । " Aho Shrutgyanam" Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश जिस देश में आरम्भिकी क्रिया होती है उस देश में पारिग्रहिकी क्रिया होती है क्या ? इत्यादि प्रश्न का समाधान समय प्रश्न के अनुसार जानना चाहिए । जिस प्रदेश में आरंभिकी क्रिया होती है उस प्रदेश में पारिग्रहिकी क्रिया होती है। क्या ? इत्यादि प्रश्न का समाधान समय प्रश्न के अनुसार जानना चाहिए । १५० ६५११ आरंभिकी क्रियापंचक और माल का क्रेता-विक्रेता (क) गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स के भंड अवहरेज्जा, तस्स णं भंते! तं भंड गवेसमाणस्स किं आरंभिया किरिया कज्जर, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपचखाण किरिया, मिच्छादंसणवत्तिया ( कज्जइ ) ? गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जर, परिग्गहिया, मायावन्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया ( कज्जइ), मिच्छादंसण किरया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ; अह से भंडे अभिसमणागए भवइ, तओ से य पच्छा सव्वाओ ताओ पयणुई भवंति । -भग० श ५ । उ ६ । प्र ५ । पृ० ४८० किराना - माल बेचते हुए किसी गृहपति - व्यापारी का माल कोई व्यक्ति चोरी कर ले और वह व्यापारी उस चोरी गये हुए माल की गवेषणा — खोज करे तो उस व्यापारी को आरंभिकी पारिग्रहिकी- मायाप्रत्ययिकी - अप्रत्याख्यान चार क्रियाएँ होती हैं और मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित होती है, कदाचित् नहीं होती है और यदि गवेषणाखोज करते हुए चोरी गया हुआ माल वापस मिल जाय तो सब क्रियाएँ प्रतनु-- हलकी हो जाती हैं । टीका - मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया स्यात् कदाचित् क्रियते भवति, स्याद् नो क्रियते— कदाचित् नो भवति यदा मिध्यादृष्टिः गृहपतिस्तदाऽसौ भवति, यदा तु सम्यग्दृष्टिस्तदा न भवति इत्यर्थः । xxx । अपहृतभाण्डगवेषणकाले महत्यस्ताः आसन् - प्रयत्नविशेषपरत्वाद् गृहपतेः, तल्लाभकाले तु प्रयत्नविशेषस्योपरत्वाद् स्वभवन्ति । यदि विक्रेता मिथ्यादृष्टि हो तो मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया होती है; यदि विक्रेता सम्यग्टष्टि हो तो मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं होती है । चोरी गये हुए माल की खोज के समय में प्रयत्न विशेष के कारण क्रिया महती होती है और चोरी गया हुआ माल यदि वापस मिल जाय तो प्रयत्न विशेष के न होने से क्रिया हलकी होती है । (ख) गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भंडे साइज्जेज्जा, भंडे य से अणुवणीए सिया, गाहावइस्स णं भंते! ताओ भंडाओ कि आरंभिया किरिया "Aho Shrutgyanam" Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश कजइ--जाव-मिच्छादंसणकिरिया कजइ, कइयस्स का ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कन्ज–जाव-मिच्छादसणकिरिया कज्जइ ? गोयमा ! गाहावइस्स ताओ भंडाओ आरंभिया किरिया कज्जइ-जाव--अपञ्चक्खाणकिरिया ( कज्जइ), मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ ; कइयस्स गं ताओ सव्वाओ पयणुई भवति । -भग० श ५। उ ६ । प्र६ । पृ० ४८० __ माल बेचते हुए व्यापारी का माल यदि कोई खरीददार खरीद ले और सौदा पक्का करने के लिए बयाना दे दे किन्तु माल न ले जाय अर्थात माल बेचवाल के पास ही पड़ा रहे तो ऐसी स्थिति में बेचवाल को आरंभिकी यावत् अप्रत्याख्यान चारों क्रियाएँ होती हैं। मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित होती है ; कदाचित नहीं होती है। माल के खरीददार को भी उस स्थिति में ये सब क्रियायें प्रतनु-हल्की होती हैं। टोका क्रयिको ग्राहको भाण्डं स्वादयेत् सत्यकारदानतः स्वीकुर्यात् । अप्राप्तभाण्डत्वेन तद्गतक्रियाणाम् अल्पत्वाद् इति, गृहपतेस्तु महत्यःभाण्डस्य तदीयत्वात् । क्रयिकस्य भाण्डे समर्पिते महत्यस्ताः गृहपतेस्तु प्रतनुकाः । खरीददार--ग्राहक बयाना देकर माल को स्वीकार कर लेता है अतः माल नहीं उठाने पर भी माल की अपेक्षा ग्राहक को क्रिया होती है लेकिन अल्प होती है तथा बिक्रेता को तदात्मभाव-अपनत्व होने से महतो क्रिया होती है । ग्राहक को माल समर्पित कर देने के पश्चात माल की अपेक्षा ग्राहक को महती तथा बिक्रेता को हलकी क्रिया होती है। (ग)गाहावइस्स गं भंते ! भंडं विकिणमाणस्स-जाव-भंडे से उवणीए सिया, कश्यास गं भंते ! ताओ भंडाओ कि आरंभिया किरिया कजइ---जाव–मिच्छादंसणवत्तिया किरिया कजइ ; गाहावइस्स वा ताओ भंडाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ-जाव-मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजइ ? गोयमा! कश्यस्स ताओ भंडाओ हेडिल्लाओ चत्तारि किरियाओ कन्जंति, मिच्छादसणवत्तिया किरिया भयणाए ; गाहावइस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुई भवंति। -~-भग० श ५ । उ ६ । प्र ७ । पृ० ४८०-८१ कोई खरीददार यदि बेचवाल के यहाँ से माल उठाकर अपने यहाँ ले आवे तो ऐसी स्थिति में उस खरीददार को आरंभिकी यावत् अप्रत्याख्यान चारों क्रियाएँ ( अपेक्षा कृत भारी) होती है तथा मिथ्यादर्शनपत्ययिकी क्रिया की भजना होती है और खरीददार के माल उठाकर ले जाने के बाद भी बेचवाल को मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया की भजना के साथ ये सब क्रियायें प्रतनु-हल्की होती हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोशे . टीका- धनेज्नुपनीते क्रयिकस्य महत्यस्ताः भवन्ति, धनस्य तदीयत्वात् । गृहपतेस्तु तास्तनुकाः, धनस्य तदानीम् अतदीयत्वात् । खरीदे हुए माल की कीमत का धन नहीं देने तक ग्राहक को धन को अपेक्षा अपनत्वभाव के कारण महती और बिक्रेता को अपनत्व भाव के अभाव में हलकी क्रिया होती है। (घ) गाहावइस्स णं भंते ! भंडे–जाव-धणे य से अणुवणीए सिया ? एयं पि जहा भंडे उवणीए तहा नेयव्वं चउत्थो आलावगो, धणे य से उवणीए सिया जहा पढमो आलावगो, भंडे य से अणुवणीए सिया तहा नेयवो पढम-चउत्थाणं एकको गमो, बिइय-तझ्याणं एक्को गमो । -भग० श ५ 1 उ६ प्र८। पृ० ४८१ माल के बेचवाल के पास से खरीददार ने माल खरीद लिया लेकिन माल की कीमत रूप धन नहीं चुकाया- उस स्थिति में उस खरीददार को कीमत रूप धन की अपेक्षा पाँचों क्रियाएँ ( अपेक्षाकृत भारी) होती हैं और बेचवाल को प्रतनु-हल्की होती हैं । टीका-धने उपनीते धनप्रत्ययत्वात् तासां गृहपतेर्महत्यः, क्रयिकस्य तु प्रतनुकाः धनस्य तदानीम् अतदीयत्वात् ।। बेचे हुए माल की कीमत का धन प्राप्त हो जाने के बाद धन की अपेक्षा बिक्रेता को महती तथा ग्राहक को अपनत्व हट जाने से हलको क्रिया होती है । '६५.१२ आरम्भिकी क्रियापंचक और अल्प-बहुत्व : --- एयासि " भंते ! आरंभियाण जाव मिच्छादसणवत्तियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा! सव्वत्थोवाओ मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ, अपञ्चक्खाणकिरियाओ विसेसाहियाओ, परिग्महियाओ विससेसाहियाओ, आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ, मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ। -पण्ण० प २२ । सू १६४० । पृ० ४८६ सबसे कम मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया वाले जीव होते हैं, उनसे अप्रत्याख्यान क्रिया वाले जीव विशेषाधिक हैं, उनसे पारियहिकी क्रिया वाले जीव विशेषाधिक हैं, उनसे आरंभिकी क्रिया वाले जीव विशेषाधिक हैं तथा उनसे मायाप्रत्ययिकी क्रिया वाले जीव विशेषाधिक है। "Aho Shrutgyanam" Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश ६६ कायिकी क्रियापंचक ६६.१ कायिकी क्रियापंचक की क्रियाओं के नाम--- (क) कइ णं भंते ! किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा --काइया, अहिंगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाइवायकिरिया। - पण्ण' प २२ । सू १५६७ । पृ० ४७८ पण्ण० प २२ । सू. १६०५ । पृ० ४८१ --सम० सम ५। सू ५ । उत्तर केवल । पृ० ३१६ -ठाणस्था ५ ! उ २ ! सू ४१६ ! उत्तर केवल । पृ० २६२ --भग० श८। उ ४ । प्र १ । पृ० ५४८ -भग० श ३ । उ ३ प्र १ । पृ० ४५६ क्रिया पाँच प्रकार की कही गई है ; यथा--कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी। (ख) कइ णं भंते ! आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-काइया जाव पाणाइवायकिरिया। —पपण प २२ । सू१६१७ । पृ० ४८२ आयोजिका क्रिया पाँच प्रकार की होती है; यथा-- कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादेषिकी, मारितापनिकी और प्राणातिपातिकी आयोजिका क्रिया। टीका-आयोजयंति जीवं संसारे इत्यायोजिकाः। अर्थात् जो जीव को संसार से जोड़े वह आयोजिका (क्रिया)। '६६२ दंडक के जीव और कायिकी क्रियापंचक (क) नेरइया णं भंते ! कइ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-काइया जाव पाणाश्वायकिरिया, एवं जाव वेमाणियाणं । -पण्ण० प २२ । सू १६०५ । पृ० ४८१ (ख) पंच किरियाओ पत्नत्ताओ, तं जहा-काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाइवायकिरिया, नेरइयाणं पंच एवं चेव निरंतरं जाव वेमाणियाणं। -ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ । पृ० २६२ (ग) का णं भंते ! आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–काइया जाव पाणाइवायकिरिया, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । --पण्ण० प २२ । सू १६१७-१८ । पृ० ४५२ २० "Aho Shrutgyanam" Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश नारकी जीवों से लेकर वैमानिक जीवों तक दंडक के सभी जीवों के कायिको क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती हैं । १५४ ६६ ३ जीव की अन्य जीव या जीवों के प्रति कायिकीपंचक- क्रियाएँ : --: (क) जीवे णं भंते ! जीवाओ कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिए पंचकरिए, सिय अकिरिए । जीवे णं भंते ! नेरइयाओ कइ किरिए १ मोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउ - किरिए, सिय अकिरिए, एवं जाव थणियकुमाराओ । पुढविकाश्याओ, आउषकाश्याओ. तेउक्काश्याओ, वाउक्काश्यवणस्स ( फ्फ ) - इकाइ बेदियतेईदियच उरिदियपंचिदिद्यतिरिक्खजोणियमणुस्साओ जहा जीवाओ ; वाणमंतर जोइसिय वैमाणियाओ जहा नेरश्याओ । जीवे णं भंते! जीवेहितो कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, लिय चउकिरिए, सिय पंच किरिए, सिय अकिरिए । जीवे णं भंते! नेरइएहिंतो कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय अकिरिए, एवं जहेव पढमो दंडओ तहा एसो बिइओ भाणियव्वो । - पण ० प २२ । स् १५८८-६१ । पृ० ४५० जीव अन्य जीव के प्रति कभी कायिकी आदि तीन, कभी चार, कभी पाँच क्रियाएँ करता है, कभी अक्रिय रहता है । जीव नारकी यावत् स्तनितकुमार के प्रति कभी तीन, कभी चार क्रियाएँ करता है, कभी अक्रिय रहता है। जीव पृथिवीकाय यावत् मनुष्य के प्रति कभी तीन, कभी चार, कभी पाँच क्रियाएँ करता है, कभी अक्रिय रहता है । जीव वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देव के प्रति कभी तीन, कभी चार क्रियाएँ करता है, कभी अक्रिय रहता है । जीव अन्य जीवों के प्रति, नारकियों के प्रति यावत् वैमानिक देवों के प्रति उसी प्रकार क्रियाएँ करता है, जैसा ऊपर के प्रथम दण्डक में कहा गया है । (ख) जीवा णं भंते! जीवाओ कइ किरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया वि सिय चउकिरिया वि, सिय पंच किरिया वि, सिय अकिरिया वि । जीवा णं भंते! नेरख्याओ कइ किरिया ? गोयमा ! जहेव आदिल्लदंडओ तहेव भाणियच्वो जात्र वेमाणियति । जीवा णं भंते! जीवेहितो कर किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि. पंचकिरिया वि, अकिरिया वि । "Aho Shrutgyanam" Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश जीवा णं भंते ! नेरइएहितो कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चर. किरिया वि, अकिरिया वि। असुरकुमारेहितो वि एवं चेव जाव वेमाणिएहितो, ओरालियसरीरेहिंतो जहा जीवेहितो । - पपण. प २२। सू१५६२ से १५६५ | पृ० ४८० जीव अन्य एक जीव के प्रति कभी तीन, कभी चार, कभी पाँच क्रियाएँ करते हैं, कभी अक्रिय रहते हैं ! जीव एक नारकी के प्रति, एक देव के प्रति कभी तीन, कभी चार क्रियाएँ करते हैं कभी अक्रिय रहते हैं । दण्डक के शेष जीवों में एक जीव के प्रति कभी तीन, कभी चार, कभी पाँच क्रियाएँ करते हैं, कभी अक्रिय रहते हैं। . जीव जीवों के प्रति कभी तीन, कभी चार, कभी पाँच क्रियाएँ करते है, कभी अक्रिय रहते है। जीव नारकियों और देवों के प्रति कभी तीन, कभी चार क्रियाएँ करते है, कभी अक्रिय रहते हैं। जीव औदारिक शरीरी जीवों के प्रति कभी तीन, कभी चार, कभी पाँच क्रियाएँ करते हैं, कभी अक्रिय रहते हैं । '६६४ दण्डक के जीव का औधिक जीव के तथा दण्डक के जीव के प्रति कायिकीपंचक की क्रिया :--- नेरइए णं भंते ! जीवाओ कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच किरिए । नेरइए णं भंते ! नेरश्याओ कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए। एवं जाव वेमाणिएहितो, नवरं नेरइयस्स नेरइएहितो देवेहिंतो य पंचमा किरिया नस्थि । नेरड्या णं भंते ! जीवाओकइ किरिया? गोयमा ! सिय तिकिरिया, सिय चउकिरिया,सिय पंचकिरिया। एवं जाव वेमाणियाओ, नवरं नेरइयाओ देवाओ य पंचमा किरिया नथि । नेरइया णं भंते ! जीवेहितो कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि। नेरक्या णं भंते ! नेरवाहितो कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, एवं जाव वेमाणिएहितो, नवरं ओरालियसरीरेहितो जहा जीवेहितो।। __असुरकुमारणं भंतं ! जीवाओ कइ किरिए ? गोयमा ! जहेव नेरइएणं चत्तारि दंडगा तहेव असुरकुमारे वि चत्तारि दंडगा भाणियव्वा । एवं (च) उवउजिऊणं भावेयन्त्रं ति - जीवे मणूसे य अकिरिए वुच्चइ, सेसा अकिरिया न वुच्चंति, सव्वजीवा ओरालियसरीरेहिंतो पंचकिरिया, नेरक्य-देवेहितो य पंचकिरिया ण वुच्चंति। "Aho Shrutgyanam" Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश एवं एक्केक्क जीवपए चत्तारि चत्तारि दंडगा भाणियव्वा । एवं एयं दंडगसयं । सव्वे वि य जीवादीया दंडगा । १५६ - पण्ण० प २२ । सू १५६६, ६७, ६६ ( २ ), १६००, १६०४ । ०४८०-८१ दंडक १ :- नारकी जीव कोई एक जीव के प्रति कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच कायिकी आदि क्रिया करता है । नारकी जीव कोई एक नारकी के प्रति कदाचित् तीन, कदाचित् चार क्रिया करता है । नारकी जीव देव बाद दण्डक के अन्य जीव के प्रति कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रिया करता है । नारकी जीव देवदण्डकों में कोई एक देव के प्रति कदाचित तीन, कदाचित चार क्रिया करता है । नारकी जीव कोई भी नारकी तथा देवः के प्रति प्राणातिपातिको पाँचवीं क्रिया नहीं कर सकता है । दंडक २ :- नारको जीव जीवों के प्रति तथा दण्डक के जीवों के प्रति उसी प्रकार किया करता है जैसा एकवचन जीव तथा दण्डक के जीव के प्रति ऊपर वर्णन किया है। दंडक ३ :- नारकी जीव ( बहुवचन ) कोई एक जीव के प्रति कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच कायिकी आदि क्रिया करते हैं । नारकी जीव कोई एक नारकी के प्रति कदाचित् तीन, कदाचित चार क्रिया करते हैं। नारकी जीव देव बाद दण्डक के अन्य जीव के प्रति कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रिया करते हैं। नारकी जीव देवदंडकों में कोई एक देव के प्रति कदाचित् तीन, कदाचित् चार क्रिया करते हैं । नारकी जीव कोई भी नारकी तथा देव के प्रति प्राणातिपातिकी पाँचवीं क्रिया नहीं कर सकते हैं । दंडक ४ : --- नारकी जीव ( बहुवचन ) जीवों के प्रति कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच कायिको आदि क्रिया करते हैं; नारकी जीव औदारिक शरीर वाले जीवों के प्रति कदाचित तीन, कदाचित चार कदाचित पाँच क्रिया करते हैं । नारकी जीव देवों के प्रति कदाचित तीन, कदाचित चार क्रिया करते हैं । असुरकुमार देव कोई एक जीव के प्रति उसी प्रकार क्रिया करता है जैसा नारकी जीव करता है । असुरकुमार देव के सम्बन्ध में नारकी जीव की तरह चार दण्डक कहने चाहिए । नारकी की तरह मनुष्य बाद प्रत्येक दंडक के जीव के सम्बन्ध में चार-चार दंडक कहने चाहिए। मनुष्य जीव के सम्बन्ध में कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच किया करता है तथा अक्रिय होता है ऐसे पाठ कहने चाहिए । "Aho Shrutgyanam" Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १५७ अक्रिय होता है—ऐसा पाठ कहना । अन्य दंडकों में अक्रिय मनुष्य के सम्बन्ध में होता है ऐसा पाठ नहीं कहना । सर्व जीव औदारिक शरीर वाले जीव-जीवों के प्रति पाँच क्रिया तक करता है ; नारक नारकियों, देव-देवों के प्रति प्राणातिपातिकी पाँचवीं क्रिया का वर्णन नहीं करना । औधिक जौव तथा २४ दण्डक के जीव मोट २५ आलापक के सम्बन्ध में औधिक जीव तथा चौबीस दण्डक के जीव के प्रति कितनी क्रिया करता है - ऐसे पचीस-पचीस आलापक कहें । प्रत्येक आलापक में एकवचन बहुवचन को ग्रहण करके चार-चार दंडक कहें । -६६ ५ परकीय औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया : जीवे णं भंते! ओरालियसरीराओ कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच किरिए, सिय अकिरिए । नेरइए णं भंते! ओरालियेसरीराओ कर किरिए ? गोयमा ! सिय तिक्रिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । असुरकुमारे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कइ किरिए ? एवं वेष, एवं जाव - मणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरेहिंतो कह किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए - जाब - सिय अकिरिए । नेरइए णं भंते ! ओरालियसरी रे हितो कइ किरिए ? एवं एसो जहा पढमो दंडगो तहा भाणियब्वो- जाव - वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवा णं भंते ! ओरालियसरीराओ कइ किरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया- जाव - सिय अकरिया ! नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीराओ कइ किरिया ? एवं एसोवि जहा पढमो दंडगो तहा भाणियन्वो- जाव- वैमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा । जीवाणं भंते! ओरालियसरीरेहिंतो कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चकिरिया वि, पंचकिरिया वि, अकिरिया वि । नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीरेहिंतो क३ किरिया ? तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि एवं - - जाव मणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा । - भग० श प उ ६ । प्र १७ से २५ । पृ० ५५३ जीव ( एकवचन) के परकीय औदारिक शरीर ( एकवचन) की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है; कदाचित् वह अक्रिय होता है । नारकी के परकीय औदारिक शरीर की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है । इसी प्रकार मनुष्य बाद असुरकुमार यावत वैमानिक देव के परकीय औदारिक शरीर "Aho Shrutgyanam" Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। मनुष्य जीव के परकीय औदारिक शरीर की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच किया होती है ; कदाचित वह अक्रिय होता है (प्रथम दंडक )। जीव ( एकवचन ) के औदारिक शरीरों ( बहुवचन ) की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है ; कदाचित् वह अक्रिय होता है। दंडक के जीव के संबंध में वैसे ही आलापक कहने चाहिए जैसे एकवचन औदारिक शरीर के सम्बन्ध में कहे गये है (द्वितीय दंडक )। जीवों (बहुवचन) के परकीय औदारिक शरीर (एकवचन) की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच किया होती है, कदाचित् वे अक्रिय होते हैं । अवशेष आलापक प्रथम दंडक के अनुसार कहने चाहिए (तृतीय दण्डक)। . जीवों (बहुवचन ) के परकीय औदारिक शरीरों (बहुवचन ) की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है ; कदाचित् वे अक्रिय होते हैं । दण्उक के जीवों के सम्बन्ध में औदारिक शरीरों की अपेक्षा द्वितीय दंडक के अनुसार आलापक कहने चाहिए ( चतुर्थ दण्डक )। विश्लेषण:--- यद्यपि मुल में परकीय शब्द नहीं है किन्तु टीकाकार ने मुल की भावना को समझकर परकीय शब्द का व्यवहार किया है, अतः हमने भी औदारिक शरीर के साथ उपयोग किया है। ६६.६ परकीय वैक्रिय शरीर की अपेक्षा जीव के कितनी क्रिया :-- जीवे णं भंते ! वेउब्वियसरीराओ कइ किरिए ! गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय अकिरिए। नेरइए णं भंते ! वे उब्वियसरीराओ कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए एवं -जाव--वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे। एवं जहा ओरालियसरीरेणं चत्तारि दंडगा तहा वेउब्वियसरीरेण वि चत्तारि दंडगा भाणियव्वा, नवरं पंचमकिरिया ण भण्णइ, सेसं तं चेव। -भग• श ८ ! उ ६ । प्र २६,२७ । पृ० ५५३ जीव ( एकवचन ) के परकीय वैक्रिय शरीर (एकवचन) की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित् चार क्रिया होती है ; कदाचित् वह अक्रिय होता है। नारकी के परकीय वैक्रिय शरीर की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित चार क्रिया होती है । इसी प्रकार मनुष्य बाद असुरकुमार यावत् वैमानिक देव के परकीय वैक्रिय शरीर की अपेक्षा कदाचित् तीन, "Aho Shrutgyanam" Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश 安装类 कदाचित् चार क्रिया होती | मनुष्य जीव के परकीय वैक्रिय शरीर की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार क्रिया होती है, कदाचित् वह अक्रिय होता है, ( प्रथम दंडक ) । औदारिक शरीरकी अपेक्षा चार दण्डक कहे गये हैं वैसे ही चार दण्डक वैकिय शरीर की अपेक्षा कहने चाहिए । लेकिन प्राणातिपातिको पाँचवीं किया नहीं कहनी चाहिए क्योंकि वैक्रिय शरीरी का प्राणातिपात नहीं होता है अतः जीव को वैक्रिय शरीर की अपेक्षा प्राणातिपातिकी क्रिया नहीं होती है । -६६'७ परकीय आहारक, तैजस, कार्मण शरीर की अपेक्षा जीव के कितनी क्रिया : एवं जहा वेडव्वियं तहा आहारगं वि, तेयगं वि, कम्मगं वि भाणियव्वं, एक को चत्तारि दंडगा भाणियत्र्वा जाव-वेमाणिया णं भंते ! कम्मगसरीरेहिंतो कई किरिया ? तिकिरिया वि, चउकिरिया वि । भग० श८६ प्र २७ । पृ० ५५३ जीव (एकवचन) के परकीय आहारक शरीर एकवचन ) की अपेक्षा, परकीय तेजस शरीर (एकवचन) की अपेक्षा, परकीय कार्मण शरीर ( एकवचन ) की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित चार क्रिया होती है, कदाचित वह अक्रिय होता है । नारकी के परकीय आहारक शरीर की अपेक्षा, परकीय तेजस शरीर की अपेक्षा, परकीय कार्मण शरीर की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित चार क्रिया होती है । इसी प्रकार मनुष्य बाद असुरकुमार यावत् वैमानिक देव के परकीय आहारक शरीर की अपेक्षा, परकीय तैजस शरीर की अपेक्षा, परकीय कार्मण शरीर की अपेक्षा कदाचित् तीन कदाचित् चार क्रिया होती है । मनुष्य जीव के परकीय आहारक शरीर की अपेक्षा, परकीय तैजस शरीर की अपेक्षा, परकीय कार्मण शरीर की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित चार क्रिया होती है; कदाचित वह अक्रिय होता है ( प्रथम दंडक ) । अवशेष दूसरा दंडक ( एकवचन जीव--बहुवचन शरीर ), तीसरा दंडक (बहुवचन जीव - एकवचन शरीर ) तथा चौथा दंडक (बहुवचन जीव - बहुवचन शरीर ) वैक्रिय शरीर के दण्डकों के अनुसार कहना चाहिए। ( ६६४ ) विश्लेषण :--- टीकानुसारी - नारकी जीव अधोलोक में रहता है तथा आहारक शरीर वाला मनुष्य मनुष्य-लोक में रहता है अतः नारकी जीव किस प्रकार आहारक शरीर की अपेक्षा क्रियावाला हो सकता है। ? " नारकी जीव पूर्वभव में त्यक्त शरीरों के हाडकों आदि से आहारक शरीर के स्पर्शनापरितापना हो सकती है इसलिए अविरति भाव से नारकी जीव के आहारक शरीर की अपेक्षा तीन या चार क्रिया हो सकती है । " Aho Shrutgyanam" Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० क्रिया-कोश ६६८ कायिकी क्रियापंचक और शरीर, इन्द्रिय व योग का निर्माण करता हुआ जीव : जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए एवं पुढविकाइए वि, एवं–जाव-- मणुस्से! जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणा कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि ; एवं पुढविकाइया वि, एवं--जावमणुस्सा। एवं वेउव्वियसरीरेण घि दो दंडगा, नवरं जस्स अस्थि वेउब्वियं । एवं- जाव-कम्मगसरीरं। एवं सोइदियं--जाव- फासेंदियं । एवं मणजोगं, वइजोगं, कायजोगं ।। जस्स जं अस्थि तं भाणियव्वं, एए एगत्तपुहुत्तेणं छव्वीसं दंडगा। -भग० श १७ । उ १ । प्र १४.१५ । पृ० ७५५ औदारिक शरीर का निर्माण करते हुए - बाँधते हुए-जीव के कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव से लेकर मनुष्य जीव तक कहना चाहिए। औदारिक शरीर का निर्माण करते हुए - बाँधते हुए जीवों के कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों यावत् मनुष्य जीवों के संबंध में ऐसा ही कहना चाहिए। . वैक्रिय शरीर का निर्माण करते हुए—बाँधते हुए जीव या जीवों के कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है लेकिन जिसके वैक्रिय शरीर होता है या बैंक्रिय शरीर बनाने की योग्यता होती है उन दंडकों का विवेचन करना चाहिए । इसी प्रकार आहारक शरीर के संबंध में कहना चाहिए लेकिन जीव तथा मनुष्य के संबंध में ही आलापक कहने चाहिए क्योंकि आहारक शरीर अन्य दंडको में नहीं होता है। __ इसी प्रकार तैजस या कार्मण शरीर का निर्माण करते हुए.-बाँधते हुए जीव या जीवों के कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। दंडक के सभी जीवों के संबंध में कहना चाहिए, क्योंकि तेजस और कार्मण शरीर सभी जीवदंडकों के होता है। "Aho Shrutgyanam" Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ क्रिया-कोश इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षु रिन्द्रय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, मनोयोगवचनयोग या काययोग का निर्माण करते हुए-बाँधते हुए जीव या जीवों के कदाचित् तीन, कदाचित चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है । लेकिन जिस जोव या जीवों के जो इन्द्रिय तथा योग होते हैं उस इन्द्रिय या योग के सम्बन्ध में आलापक कहना चाहिये ।। औदारिक-वैक्रिय-आह रक-तेजस-कार्मण शरीर ; श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-नाणेन्द्रियर सेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय ; मनोयोग-वचनयोग-काययोग को बाँधता हुआ जीव-ऐसे तेरह आलापक हुए । एकवचन-बहुवचन को ग्रहण करने से छब्बीस आलापक होते है । ६६ ६ कायिक क्रियापंचक और श्वास-निश्वास लेते हुए स्थावर जीव : पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइयं चेव आणममाणे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा णीससमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । पुढविकाइए णं भंते ! आउकाइयं आणममाणेवा०? एवं चेव, एवं-- जाव -वणस्सइकाइयं ; एवं आउक्काइएण वि सव्वे भाणियव्वा ; एवं तेउक्काइएण वि एवं वाउकाइएण वि;-जाव-वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा० पुच्छा ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । -भग० श ६ ! उ ३४ । प्र १२-१३ । पृ० ६१२ पृथ्वीकायिक जीव को श्वास या निःश्वास में पृथ्वीकायिक जीवों को ग्रहण करते हुए कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव को श्वास-निःश्वास में अप्कायिक-अग्निकायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिक जीवों को ग्रहण करते हुए कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। इसी प्रकार अप्कायिक जीव को श्वास या निःश्वास में पृथ्वीका यिक-अपकायिकअग्निकायिक वायुकायिक-वनस्पतिकायिक जीवों को ग्रहण करते हुए कदाचित् तीन, कदाचित चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। इसी प्रकार अग्निकायिक जीव को श्वास या निःश्वास में पृथ्वीकायिक-अपकायिकअग्निकायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिक जीवों को ग्रहण करते हुए. कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। इसी प्रकार वायुका यिक जीव को श्वास या निःश्वास में पृथ्वीकायिक-अपकायिकअग्निकायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिक जीवों को ग्रहण करते हुए कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है । २१ "Aho Shrutgyanam" Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीव को श्वास या निःश्वास में पृथ्वीकायिकअप्कायिक- अग्निकायिक-वायुकायिक-वनस्पतिकायिक जीवों को ग्रहण करते हुए कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है । १६२ *६६-१० कायिक क्रियापंचक और वृक्षादि को कँपाता-नीचे गिराता हुआ वायुकायिक जीव : वाडका णं भंते! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चडकिरिए, सिय पंच किरिए | एवं कंद एवं -जावमूलं, बीयं पचालेमाणे वा० पुच्छा ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकरिए । - भग० श ६ | उ ३४ । प्र १३ । पृ० ६१२-१३ वृक्ष के मूल को हिलाते हुए या नीचे गिराते हुए वायुकायिक जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है । इसी प्रकार कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज को हिलाते हुए या नीचे गिराते हुए वायुकायिक जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है । '६६ ११ कायिक क्रियापंचक और ताल-वृक्ष को कँपाता तथा नीचे गिराता हुआ पुरुष तथा तालफल :-- पुरिसे णं भंते ! तालमारुहइ तालमारुहित्ता तालाओ तालफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तालमारुहर, तालमारुहित्ता तालाओ तालफलं पचालेइ वा पवाडे वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठे, जेसि पि णं सरीरेहिंतो ताले निव्वत्तिए, तालफले निव्वत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव - पंचहि किरियाहि पुट्ठा । अहे णं भंते! से तालफले अप्पणो गुरूयत्ताए. जाव- -पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव जीवियाओ ववरोवेइ, तपणं भंते! से पुरिसे कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तलप्फले अप्पणो गुरुयत्ताए जाव--जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव -- चउहि किरियाहिं पुट्ठे, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव चउहिं किरियाहिं पुट्ठा; जेसिं पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो तालफले निव्वन्ति ते विणं जीबा काश्याए "Aho Shrutgyanam" Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १६३ जाव-पंचहिँ किरियाहिं पुट्ठा, जे वि य से जीवा अहे वीससाए पञ्चोवयमाणस्स उवम्गहे वट्ठति ते वि य णं जीवा काइयाए-जाव-पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। -भग० श १७ । उ १ । प्र ५-६ । पृ० ७५४ यदि कोई पुरुष ताड़ के वृक्ष पर चढ़े तथा ताड़वृक्ष पर चढ़कर उस वृक्ष के ताड़फल को कैंपावे तथा नीचे गिरावे तो उस पुरुष को पेड़ पर चढ़ने से लेकर फल गिराने तक कायिकी आदि पाँचों क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं। जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष बना, ताड़फल बना उन जीवों को भी पाँचो क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं। उस ताड़फल के ताड़-वृक्ष से अलग होने के पश्चात जब वह ताड़फल अपने गुरुभार से नीचे गिरता है, तथा नीचे गिरते हुए उस ताड़फल के द्वारा जिन जीवों का हनन होता है यावत् प्राण-वियोग होता है तब तक उस फल तोड़ने वाले पुरुष को फल के स्वगुरु-भार से गिरने से लेकर प्राण वियोग पर्यन्त चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं। जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष बना, उन जीवों को चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं ; जिन जीवों के शरीर से ताड़ का फल बना उन जीवों को पाँच क्रियाएं स्पृष्ट होती है तथा वैस्रसिक-स्वाभाविक रूप से अपने गुरुभार से गिरते हुए उस ताइफल के जो जीव उपग्राहक-उपकारक होते है उन जीवों को भी कायिक आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं। विश्लेषण :-- ऊपरोक्त पाठ में क्रिया के छः आलापक कहे गये हैं : १:--वृक्ष पर चढ़कर हिलाते व गिराते हुए पुरुष के पाँच क्रियाएँ होती हैं क्योंकि वह पुरुष ताड़फल तथा ताड़फल के आश्रित जीवों की साक्षात् हिंसा करता है अतः उसको प्राणातिपातिकी क्रिया होती है । २:--जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष, ताड़ का फल बना उन जीवों को भी पाँच क्रियाएँ होती हैं क्योंकि ताड़ का वृक्ष तथा उसका फल स्पर्शादि के द्वारा अन्य जीवों का साक्षात् हनन करता है। ३:-स्वाभाविक गुरुभार से गिरते हुए ताड़फल के द्वारा जीवों का हनन होता है यावत् प्राणवियोग होता है उससे फल गिराने वाले व्यक्ति को चार क्रियाएँ होती हैं क्योंकि स्वाभाविक गुरुभार से गिरते हुए फल के द्वारा जो हिसा होती है उसमें पुरुष साक्षात्कारण नहीं है लेकिन परम्परा कारण है अतः प्राणातिपातिकी क्रिया नहीं होती है। ४:- इस स्थिति में जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष बना उन जीवों को चार क्रियाएँ होती हैं क्योंकि अपने गुरुभार से गिरते हुए ताड़ के वृक्ष के जो हिंसा होती है उसमें ताड़ का वृक्ष भी साक्षात् कारण नहीं है लेकिन परम्परा कारण है अतः प्राणातिपातिकी क्रिया नहीं होती है। "Aho Shrutgyanam" Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ क्रिया-कोश ५:-जिन जीवों के शरीर से ताड़फल बना, उपजा : उन जीवों को पाँच क्रियाएँ होती हैं क्योंकि ताड़फल प्राणवध में साक्षात् कारण है । ६ :-जो जीव स्वाभाविक गुरुभार से गिरते हुए ताड़फल के उपग्राहक--उपकारक होते हैं उन जीवों को पाँच क्रियाएँ होती है क्योंकि स्वाभाविक गुरुभार से गिरते हुए जो ताड़फल के उपग्राहक जीव होते हैं वे वध में कारण हैं अतः प्राणातिपातिकी क्रिया होती है। ६६.१२ कायिकी क्रियापंचक और वृक्ष के मूल यावत् बीज को कपाता तथा नीचे गिराता हुआ पुरुष :-- पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा, पवाडेमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेइ वा, पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे ; जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिए, जाव-बीए निव्वत्तिए, ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। अहे णं भंते ! से मूले अप्पणो गुरुययाए जाव-जीवियाओ ववरोवेइ तओ णं भंते ! से पुरिसे कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो जाव -- ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहिं किरियाहिं पुढे ; जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे निव्वत्तिए, जाव बीए निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव-चउहिं पुठ्ठा ; जेसिं पि य णं जीवा णं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव-पंचहि किरियाहिं पुट्ठा ; जे वि य णं से जीवा अहे वीससाए पञ्चोवयमाणस्य उवग्गहे वटुंति ते वि णं जीवा काइयाए जाव-पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा! पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स कंदं पचालेमाणे वा, पवाडेमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! तावं च णं से पुरिसे जाव-पंचहिं किरियाहिं पुढे; जेसि पि णं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए, जाव--बीए निव्वत्तिए ते विणं जीवा जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। अहे णं भंते ! से कंदे अप्पणो गुरुययाए जाव जीवियाओ ववरोवेइ तओ गं भंते ! से पुरिसे कइ किरिए ? जाव-चउहिं पुढे ; जेसि पिणं जीवा णं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए, खंधे निव्वत्तिए, जाव - चउहिं पुट्ठा : जेसिं पिणं जीवा णं सरीरेहितो कंदे "Aho Shrutgyanam" Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १६५ निव्वन्ति ते वि य णं जीवा जाव- पंचहिं पुट्ठा ; जे वि य से जीवा अहे वीससाए पश्च्चोवयमाणस्स जाव - पंचहि पुट्ठा । जहा कंदे, एव जावं बीयं । — भग० श १७ । उ १ । प्र ७ से १० । पृ० ७५४-५५ यदि कोई पुरुष वृक्ष के मूल को कँपावे तथा नीचे गिरावे तो उस वृक्ष के मूल को कँपाते हुए - नीचे गिराते हुए पुरुष को कायिकी आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । जिन जीवों के शरीर से मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज बने उन जीवों को कायिकी आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । तत्पश्चात् वह वृक्ष का मूल अपने गुरुभार से नीचे गिरता है तथा नीचे गिरता हुआ मूल जीवों का हनन करे यावत् प्राणवियोग करे तो उस पुरुष को चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । जिन जीवों के शरीर से कंद यावत् बीज बने उन जीवों को चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । जिन जीवों के शरीर से वृक्ष का मूल बना उन जीवों को पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । विखसा - स्वाभाविक रूप से अपने गुरुभार से नीचे गिरते हुए वृक्ष के मूल के जो जीव उपग्राहक - उपकारक होते हैं उन जीवों को भी पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । यदि कोई पुरुष वृक्ष के कंद को कँपावे तथा नीचे गिरावे तो उस वृक्ष के कंद को कँपाते हुए - नीचे गिराते हुए पुरुष को कायिकी आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । जिन जीवों के शरीर से मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज बने उन जीवों को कायिकी आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । तत्पश्चात् वह वृक्ष का कंद अपने गुरुभार से नीचे गिरता है तथा नीचे गिरता हुआ कंद जीवों का हनन करे यावत् प्राणवियोग करे तो उस पुरुष को चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल, स्कंध यावत् बीज बने उन जीवों को चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । जिन जीवों के शरीर से वृक्ष का कंद बना उन जीवों को पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । विसा -- स्वाभाविक रूप से अपने गुरुभार नीचे गिरते हुए वृक्ष के कंद के जो जीव उपग्रहक — उपकारक होते हैं उन जीवों को भी पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । जिस प्रकार कंद का आलापक कहा उसी प्रकार स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज बने उन जीवों की भी कायिकी आदि पाँच क्रियाएँ स्पष्ट होती हैं । विश्लेषण -- टीका - एतानि च फलद्वारेण पट् क्रियारथानान्युक्तानि, मूलादियपि षडेव भावनीयानि । 'एवं जाव बीयं' ति अनेन कन्दसूत्राणीव स्कन्धत्वक्शालप्रवालपत्रपुष्प फलबीजसूत्राण्यध्येयानीति सूचितम् । क्रमांक *६६·११ के विश्लेषण में जैसे छः क्रियास्थान के आलापक कहे गये हैं उसी प्रकार मूल यावत् बीज के विषय में भी छः-छः क्रियास्थान आलापक समझने चाहिए । "Aho Shrutgyanam" Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ क्रिया - कोश '६६ १३ कायिकी क्रियापंचक और समुद्घात ६६ १३१ कायिकी क्रियापंचक और वेदना समुद्घात :-- जीवे णं भंते ! वेयणासमुग्याएणं समोहए, समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ XXX 1 ते ते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणंति, वत्तति, लेसेंति, संघाएं ति संघट्टेति परियार्वेति किला मेंति उद्दवेंति, तेहितो णं भंते! से जीवे कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच करिए | ते णं भंते! जीवा ताओ जीवाओ कइ किरिया ? गोथमा ! सिय तिकिरिया, सिय चडकिरिया, सिय पंचकिरिया । से णं भंते! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराधापणं कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि । नेरइए णं भंते! वेयणासमुग्धापणं समोहए एवं जहेव जीवे, णवरं नेरइयाभिलावी, एवं निरवसेसं जाव वैमाणिए । -पण्ण० प ३६ । सू २१५३-५४ | १० ५२६ वेदना समुद्घात से समवहत - वेदना समुद्घात करने वाला जीव वेदना समुदघात करके जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है वे बाहर निकाले हुए पुद्गल तत्र स्थित प्राणभूत-जीव सत्त्वों का हनन करते है, हेर-फेर करते हैं, थोड़ा स्पर्श करते हैं, परस्पर संघात उत्पन्न करते हैं, तीन संघात उत्पन्न करते हैं, पीड़ा उत्पन्न करते हैं, क्लान्त करते हैं, प्राणवियोग करते हैं तो उन जीवों की अपेक्षा उन पुद्गलों से वेदना समुद्घात वाले जीव के कदाचित तीन क्रिया, कदाचित् चार क्रिया, कदाचित पाँच क्रिया होती है । वेदना समुद्घात से निर्गत पुद्गलों द्वारा हननादि किये जाने वाले जीवों को उस वेदना समुद्घात करने वाले जीव की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है । वेदना समुद्घात करने वाले जीव के तथा समुद्घात से निर्गत पुद्गलों द्वारा हननादि किये जाने वाले जीवों के साथ अन्य जीवों का परम्पर-आघात होने से उस वेदना समुद्घात करने वाले जीव के तथा समुद्घात से निर्गत पुद्गलों द्वारा हननादि किये जाने वाले जीवों के परम्पराधातित अन्य जीवों की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है। वेदना समुद्घात करने वाले दंडक के सभी जीवों के सम्बन्ध में उपर्युक्त औधिक जीव की तरह आलापक कहने चाहिए । " Aho Shrutgyanam" Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ क्रिया-कोश ६६.१३.२ कायिकी क्रियापंचक और कषाय समुद्घात :-- एवं कसायसमुग्घायोवि भाणियव्वो ( जहा वेयणासमुग्घाए)। -पण्ण ० प ३६ । सू२१५५ । पृ० ५२६ कषाय समुद्घात करने वाले औघिक जीव तथा दण्डक के जीव के सम्बन्ध में कायिको आदि क्रियापंचक की वक्तव्यता उसी प्रकार कहनी चाहिए जैसी वक्तव्यता वेदना समुद्घात करने बाले जीव और दण्डक के जीव के सम्बन्ध में कही गई है। .६६.१३.३ कायिकी क्रियापंचक और मारणांतिक समुद्घात : जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए समोह णित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ xxx सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि। एवं नेरइए वि, xxx सेसं चेव जाव पंचकिरिया वि । असुरकुमारस्स जहा जीवपाए xxx सेसं तं चेव जहा असुरकुमारे, एवं जाव वेमाणिए, णवरं एगिदिए जहा जीवे निरवसेसं । -पग्ण० प ३६ । सू २१५६-५८ । पृ० ५२६-३० मारणांतिक समुद्घात करने वाले औधिक जीव तथा दंडक के जीव के सम्बन्ध में कायिको आदि क्रियापंचक की वक्तव्यता उसी प्रकार कहनी चाहिए जैसी वक्तव्यता वेदना समुद्घात करने वाले औधिक जीव और दण्डक के जीव के सम्बन्ध कही गई है। ६६.१३.४ कायिकी क्रियापंचक और वैक्रियस मुद्घात : जीवे णं भंते ! वेउव्वियसमुग्घाए णं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छभइ xxx सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि। एवं नेरइए वि । xxx। तं चेव जहा जीवपए। एवं जहा नेरइयस्स तहा असुरकुमारस्स, xxx एवं जाव थणियकुमारस्स। वाउकाइयस्स जहा जीवपए xxxi पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स निरवसेसं जहा नेरझ्यस्स । मणूसवाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स निरवसेसं जहा असुरकुमारस्स । -- पण्ण० प ३६ । सू. २१५६ से २१६४ । पृ० ५३० . वैक्रिय समुद्घात करने वाले औधिक जीव तथा वैक्रिय समुद्घात करने योग्य दंडक के जीव के सम्बन्ध में कायिकी आदि क्रियापंचक की वक्तव्यता उसी प्रकार कहनी चाहिए जैसी वक्तव्यता वेदना समुदघात करने वाले औघिक जीव और दंडक के जीव के सम्बन्ध में कही गई है। "Aho Shrutgyanam" Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ क्रिया-कोश अस्तु-नारकी, असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव, वायुकाय, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिक जीव, मनुष्य, वाणव्यंतर ज्योतिषी-वैमानिक देव वैक्रिय समुद्घात कर सकते हैं तथा पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक अग्निकायिक जीव वनस्पतिकायिक जीव-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों के वैक्रिय समुद्घात नहीं होती है । ६६ १३.५ कायिकी क्रियापंचक और तैजस समुद्घात : जीवे भंते ! तेयगसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभा xxx एवं जहेव वेउब्वियसमग्घाए तहेव xxx सेतं तं चेव, एवं जाव वेमाणियस्स xxxi -पण्ण० प ३६ । सू २१६५ । पृ० ५३० तेजस समुद्घात करने वाले औधिक जीव तथा तेजस समुद्घात करने योग्य दंडक के जीव के सम्बन्ध में कायिकी आदि क्रियापंचक की वक्तव्यता उसी प्रकार कहनी चाहिए जे सो वक्तव्यता वेदना समुद्घात करने वाले औधिक जीव और दंडक के जीव के सम्बन्ध में कही गई है ! अस्तु-चार देवनिकाय, पंचेन्द्रिय तिर्य'च योनिक जीव तथा मनुष्य जीव के तेजस समुदघात होती है अन्य दंडक के जीवों के नहीं। ६६.१३.६ कायिकी क्रियापंचक और आहारक समुद्घात :-- जीवे णं भंते ! आहारगसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ xxx ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणंति जाव उद्दति ते (तओ) णं भंते ! जीवे कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। ते गं भंते ! जीवाताओ जीवाओ का किरिया ? गोयमा ! एवं चेव । से णं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसि जीवाणं परंपराघाएणं कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि च उकिरिया वि पंचकिरिया वि, एवं मणूसे वि। -पण्ण० प ३६ । सू२१६६-६७ । पृ० ५३०-३१ आहारक समुद्घात से समवहत-आहारक समुद्घात करने वाला जीव आहारक समुद्घात करके जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है वे बाहर निकाले हुए पुद्गल तत्र स्थित प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों का हनन करते है, हेर-फेर करते हैं, थोड़ा स्पर्श करते हैं, परस्पर संघात उत्पन्न करते हैं, तीत्र संघात उत्पन्न करते हैं, पीड़ा उत्पन्न करते हैं, क्लांत करते हैं, प्राण-वियोग करते हैं तो उन जीवों की अपेक्षा उन पुद्गलों से आहारक समुद्घात करने वाले जीव के कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है । आहारक समुद्घात से निर्गत पुद्गलों द्वारा हनन किये जाने वाले जीवों को उस "Aho Shrutgyanam" Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १६६ आहारक समुद्घात करने वाले जीव की अपेक्षा कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है । आहारक समुद्घात करने वाले जीव के तथा समुद्घात से निर्गत पुद्गलों द्वारा हननादि किये जाने वाले जीवों के साथ अन्य जीव का परंपर-आघात होने से उस आहारक समुद्घात से निर्गत पुद्गलों द्वारा हननादि किये जाने वाले जीवों के परम्परा घातित अन्य जीवों की अपेक्षा कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रिया होती है । चूँकि आहारक समुद्घात केवल मनुष्य ही करता अतः मनुष्य पद में भी ऐसा ही पाठ कहना चाहिए । '६६.१३ ७ कायिकी क्रियापंचक और केवलि समुद्घातः (क) अणगाररस णं भंते । भावियपणो केवलिसमुग्धाएणं समोहयरस जे चरिमा निज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोमाला पन्नत्ता ? समणाउसो ! सव्वलोगंपि य ते फुसित्ताणं चिट्ठति ? हंता, गोयमा ! अणगारस्स भावियप्पणी केवलिसमुग्धाएणं समोहयम्स जे चरिमा निज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पन्नत्ता, समणाउसो ! सव्वलोगंपि य णं कुसिन्ताणं चिट्ठति । - -पण्ण० प ३६ । सू २१६८ । पृ० ५३१ (ख) अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवलिसमुग्धाएणं समोहणित्ता केवलकम्पं लोयं फुसित्ताणं चिट्ट ? हंता, चिट्ट । से भंते! केवलकप्पे लोए तेहिं निज्जरापोगलेहि फुडे ? हंता, फुडे । - उ० सू ४२ | पृ० ३५ भावितात्मा अणगार के स्पर्श करके रहते हैं ; केवलिसमुद्घात से समवहत - केवलिसमुद्घात करने वाले अंतिम समय के निर्ज्जरित पुद्गल सूक्ष्म होते हैं और वे सर्वलोक को केवलि के कायिकी आदि क्रिया नहीं होती सयोगी केवलि के मात्र ऐय्यपथिक क्रिया होती है ; केवलिसमुद्घात के समय में भी कायिकी आदि क्रिया नहीं होती है क्योंकि उनके द्वारा निर्जरित पुद्गल सूक्ष्म होते हैं । "Aho Shrutgyanam" ६६ १४ जीव और कायिकी क्रियापंचक की पारस्परिक नियमा-भजना : (क) जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तरस अहिगरणिया किरिया कज्जइ, जरस अहिगरणिया किरिया कज्जइ तरस काइया किरिया कज्जइ ? २२ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० क्रिया-कोश गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स अहिंगरणि (या) किरिया नियमा कजइ, जस्स आहिगरणि (या) किरिया कजइ तस्स वि काश्या किरिया नियमा कज्जा । -पण्ण° ५ २२ । सू १६०७ । पृ० ४८१ जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है उसके अधिकरणी क्रिया नियम से होती है तथा जिस जीव के अधिकरणी क्रिया होती है उसके कायि की क्रिया नियम-निश्चय होती है। (ख) जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पाओसिया किरिया कजइ, जस्स पाओसिया किरिया कजइ तस्स काइया किरिया कजइ ? गोयमा ! एवं चेव । __ --पण्ण ० प २२ । सू १६०८ । पृ० ४८१ जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है उसके प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है तथा जिसके प्रादेषिकी क्रिया होती है उस जीव के कायिकी क्रिया निश्चय होती है । (ग) जस्स णं भंते ! जीवस्स काझ्या किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया कज्जइ, जस्स पारियावणिया किरिया कजइ तस्स काइया किरिया कजइ ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काझ्या किरिया कजइ तस्स पारियावणिया सिय कजइ, सिय नो कजइ, जस्स पुण पारियावणिया किरिया कजइ तस्स काइया किरिया नियमा कज्जइ। -पण्ण० प २२ । सू १६०६ । पृ० ४८१ जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है उसके पारितापनिकी क्रिया कदाचित होती है, कदाचित नहीं होती है तथा जिस जीव के पारितापनिकी क्रिया होती है उसके कायिकी क्रिया निश्चय से होती है। (घ) एवं पाणाइवायकिरिया वि। --पपण प २२ । सू १६१० । पृ० ४८१ पारितापनिकी क्रिया की तरह प्राणातिपातिकी क्रिया को कहना। अर्थात जिसके कायिकी क्रिया होती है उसके प्राणातिपातिकी किया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है । लेकिन जिस जीव के प्राणातिपातिकी क्रिया होती है उसके कायिकी क्रिया निश्चय से होती है। (च) एवं आइल्लाओ परोप्परं नियमा तिन्नि कन्जंति । ___ ---पण्ण प २२ । सू १६११ । पृ०४८१ इस तरह प्रथम की तीन क्रियाएँ (कायिकी-अधिकरणी-प्राषिकी ) परस्पर में अवश्य होती है। (छ जस्स आइल्लाओ तिन्नि कन्जंति तस्स उवरिल्लाओ दोणि सिय कज्जति, सिय नो कन्जंति, जस्स उवरिल्लाओ दोण्णि कन्जंति, तस्स आइल्लाओ नियमा तिन्नि कन्जंति । पण्ण० प २२ । सू १६११ । पृ० ४८१ "Aho Shrutgyanam" Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १७१ जिस जीव के आदि की तीन क्रियाएँ होती हैं उनके पंचक की शेष दो क्रियाएँ (पारितापनिकी प्राणातिपातिको ) कदाचित होती है, कदाचित नहीं होती है। जिस जीव के पंचक की शेष की दो क्रियाएँ होती हैं उसके आदि की तीन कियाएँ अवश्य होती हैं । (ज) जस्स णं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कजइ तस्स पाणाइवायकिरिया कज्जइ, जस्स पाणाश्वायकिरिया कज्जह तस्स पारियावणिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! जस्स णं जीवत्स पारियावणिया किरिया कज्जइ तहस पाणाश्वायकिरिया सिय कज्ज, सिय नो कज्जइ, जस्स पुण पाणाश्वायकिरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया नियमा कज्जइ । - पृण्ण ० प २२ । सू १६१२ | पृ० ४८१ जिस जीव के पारितापनिकी क्रिया होती है उसके प्राणातिपातिकी किया कदाचित होती है, कदाचित नहीं होती है । लेकिन जिसके प्राणातिपातिकी क्रिया होती है उसके पारितानिको किया नियम से होती (झ) जस्स णं भंते! नेरइयस्स काइया किरिया कज्जव तरस अहिगरणिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! जहेव जीवरस तहेव नेरइयरस वि, एवं निरंतर जाब वैमाणियरस | - पण्ण० प २२ / १६१२ | पृ० ४८१-८२ जैसे जीव के सम्बन्ध में कायिकी क्रियापंचक की पारस्परिक भजना- नियमा कही वैसे ही नारक जीवों से लेकर यावत् वैमानिक देवों तक दण्डक के सभी जीवों के लिये कहना ! टीका - इह कायिकी क्रिया औदारिकादिक्रियाश्रिता प्राणातिपातनिर्वर्त्तनसमर्था प्रतिविशिष्टा परिगृह्यते न या काचन कार्मणकायाश्रिता वा, तत आद्यानां तिसृणां क्रियाणां परस्परं नियमानियामकभावः, कथमिति चेत्, उच्यते, कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक्, ततः कायस्याधिकरणत्वात् कायिक्यां सत्यामवश्यमाधिकरणिकी आधिकरणिक्यामवश्यं कायिकी, सा च प्रतिविशिष्टा कायिकी क्रिया प्रद्वेषमन्तरेण न भवति ततः प्राद्वेषिक्याऽपि सह परस्परमविनाभावः, प्रद्वेषोऽपि च प्रत्यक्षत एवोपलभ्भात्, काये स्फुटलिंग एव वक्ररुक्षत्वादेस्तद विनाभाविनः उक्तं च--- “क्षयति रुष्यतो ननु वक्रं स्निह्यति च रज्यतः पुंसः । औदारिकोऽपि देहो भाववशात् परिणमत्येवम् ॥” परितापनस्य प्राणातिपातस्य चाद्यक्रियात्रयसम्भवेऽप्यनियमः, कथमिति चेत्, उच्यते, यद्यसौ घात्यो मृगादिर्घातकेन धनुषा क्षिप्तेन बाणादिना विध्यते ततस्तस्य परितापनं मरणं वा भवति नान्यथा, ततो नियमाभावः, परितापनस्य प्राणाति "Aho Shrutgyanam" Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ क्रिया - कोश पातस्य च भावे पूर्वक्रियाणामवश्यं भावस्तासामभावे तयोरभावात्, ततोऽमुमेवार्थं परिभाव्य कायिकी शेषाभिश्चतसृभिः क्रियाभिः सह अधिकरणिकी तिसृभिः क्रियाभिः सह प्राद्वेषिकी द्वाभ्यां सूत्रतः सम्यक् चिन्तनीया, पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिययोस्तु सूत्रं साक्षादाह ' जस्स णं भंते! जीवस्स पारियावणिया किरिया कज्जर' इत्यादि, पारितापनिक्याः सद्भावे प्राणातिपातक्रिया स्याद् भवति स्यान्न भवति, यदा बाणाद्यभिघातेन जीवितात् ध्याव्यते तदा भवति शेषकालं न भवतीत्यर्थः, यस्य पुनः प्राणातिपातक्रिया तस्य नियमात् पारितापनिकी, परितापनमन्तरेण प्राणव्यपरोपणासंभवात् । यहाँ कायिकी क्रिया से औदारिकादि शरीर के आश्रित प्राणातिपात — हिंसा करने में समर्थ ऐसी विशिष्ट क्रिया को ग्रहण करना लेकिन कार्मण शरीर के आश्रित क्रिया को ग्रहण नहीं करना । प्रथम तीन क्रियाओं का परस्पर में नियमित संबंध है इसका कारण यह है कि 'शरीर अधिकरण भी है।' अतः काया के अधिकरण होने से कायिकी क्रिया जहाँ होती है वहाँ आधिकरणिकी किया अवश्य होती है तथा जहाँ अधिकरणिकी क्रिया होती है वहाँ कायिकी क्रिया अवश्य होती है और वह विशिष्ट कायिकी क्रिया प्रद्वेष के बिना नहीं होती है, इसलिए प्राद्वेषिकी क्रिया के साथ भी परस्पर में नियमित सम्बन्ध है । प्रद्वेष के लक्षण काया में स्पष्ट प्रस्फुटित होते हैं क्योंकि मुख की वक्रता- रुक्षता आदि प्रद्वेष के निश्चित चिह्न प्रत्यक्ष जाने जाते हैं । अतः कायिकी और आधिकरणिकी क्रिया के साथ प्राद्वेषिकी क्रिया का अविनाभाव सम्बन्ध है । परिताप और प्राणातिपात का प्रथम की तीन क्रियाओंके सद्भाव में होने का निश्चित नियम नहीं है । यथा -- घातक शिकारी घात के पात्र मृगादि पशु को धनुष के द्वारा निक्षिप्त बाण से बींधता है उससे उसका परिताप और मरण होता है अन्यथा नहीं होता है इसलिए अनिश्चयता है । परिताप और प्राणातिपात के सद्भाव में कायिकी - अधिकरणिकी प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है क्योंकि इन तीन क्रियाओं के अभाव में परिताप और प्राणातिपात नहीं होता है । पारितापनिकी क्रिया के सद्भाव में प्राणातिपातिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है । वाणादि के अभिघात से जीव काया से जुदा होता है— मृत्यु को प्राप्त होता है तब प्राणातिपातिकी क्रिया होती है—अवशेष काल में नहीं होती है । जिसको प्राणातिपातिकी क्रिया होती है उसे पारितापनिकी क्रिया अवश्य होती है क्योंकि परिताप के बिना प्राणों का वियोग नहीं होता है । " Aho Shrutgyanam" Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १७३ -६६ १५ कायिकी आदि क्रियाओं की पारस्परिक नियमा भजना - समय- देश-प्रदेश की अपेक्षा :-— जं समयं णं भंते! जीवरस काइया किरिया कज्जइ तं समयं अहिगरणिया किरिया कज्जइ, जं समयं अहिगरणिया कज्जइ तं समयं काव्या किरिया कज्जर ? एवं जहेव आइल्लओ दंडओ (भणिओ), तहेव भाणियव्वो, जाव वैमाणियस्स । जं देसं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया तं देसं णं अहिगरणिया किरिया कज्जइ १० तहेब-जाव वैमाणियस्स | जं पएसं णं भंते! जीवस्स काइया किरिया तं पएसं णं अहिगरगिया किरिया कज्जइ १० एवं तहेव जाव वैमाणियम्स । एवं एए जम्स, जं समयं, जं देर्स, जं पएसं णं चत्तारि दंडगा होंति । पण २२ । सू० १६१४ से १६१६ / ० ४८२ 'जिस समय कायिकी क्रिया होती है उस समय आधिकरणिको क्रिया होती है या नहीं' इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में, 'जिस देश में कायिकी क्रिया होती है उस देश में आधिकरणिकी क्रिया होती है या नहीं' इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में तथा 'जिस प्रदेश में कायिकी क्रिया होती है उस प्रदेश में आधिकरणिकी क्रिया होती है या नहीं' इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में वैसे ही सम्पूर्ण आलापक कहने चाहिए जैसे आलापक 'जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है उसके आधिकरणिकी किया होती है या नहीं' - इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में कहे गये हैं । ( देखो क्रमांक ६६ १४ ) इस प्रकार कायिकी क्रियापंचक के सम्बन्ध में (१) जिस जीव के, (२) जिस समय इन चार दण्डकों का विवेचन करना चाहिए । सामान्य काल का ग्रहण करना चाहिए न कि क्योंकि बाण आदि के निक्षेप के द्वारा जो कायिकी आदि क्रिया के प्रथम में, (३) जिस देश में, (४) जिस प्रदेश में टीकाकार ने कहा है - यहाँ समय निश्चय नयवाले अतिसूक्ष्म 'समय' काल का परितापन और प्राणातिपात होता से । वह समय में असम्भव है । देश और प्रदेश को क्षेत्र की अपेक्षा ग्रहण करना चाहिए । ६६.१६ क्रियाओं की स्पृष्टता की नियमा भजना जीव और समय की अपेक्षा जीवे णं भंते ! जं समयं काश्याए अहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुट्ठे समयं पारियावणियाए ( किरियाए ) पुट्ठे, पाणाश्वायकिरियाए पुट्ठे ? गोयमा ! अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुट्ठे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुट्ठे, पाणाइवाय किरियाए "Aho Shrutgyanam" Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ क्रिया-कोश पु? (१); अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पु? तं समयं पारियावणियाए किरियाए पु?, पाणाश्वायकिरियाए अपु? (२); अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काश्याए अहिगरणियाए पाओसियाए पुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुढे, पाणाइवायकिरियाए अपु? (३) । --पण्ण० प २२ । सू १६२० । पृ० ४८२ कोई जीव कोई एक जीव की अपेक्षा जिस समय–कायिकी आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया के द्वारा स्पृष्ट होता है उस समय पारितापनिकी क्रिया द्वारा स्पृष्ट होता है तथा प्राणातिपातिकी क्रिया के द्वारा स्पृष्ट होता है (१) या कोई जीव कोई एक जीव की अपेक्षा जिस समय कायिकी-आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया के द्वारा स्पृष्ट होता है उस समय पारितापनिकी क्रिया द्वारा स्पृष्ट होता है लेकिन प्राणातिपातिकी क्रिया द्वारा स्पृष्ट नहीं होता है (२) या कोई जीव कोई एक जीव की अपेक्षा जिस समय कायिकीआधिकरणिको और प्राद्वेषिकी क्रिया के द्वारा स्पृष्ट होता है उस समय न पारितापनिकी क्रिया के द्वारा स्पष्ट होता है. न प्राणातिपातिकी क्रिया द्वारा। यहाँ-समय का भाव--सामान्य काल की अपेक्षा ग्रहण करना चाहिए ! उदाहरणतः मृग शिकार के लिए बाण का निक्षेप करने पर जब मृग बाण द्वारा बांधा जाता है उस समय उसकी मृत्यु न हो तो जीव मृग की अपेक्षा केवल पारितापनिकी क्रिया द्वारा स्पृष्ट होता है परन्तु प्राणातिपातिकी क्रिया द्वारा स्पृष्ट नहीं होता है और यदि बाण से बींधने से मृग की मृत्यु हो जाय तो पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी दोनों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यदि बाण निक्षेप से लक्ष्य भंग हो जाय तो पारित पनिकी क्रिया और प्राणातिपातिकी क्रिया दोनों से स्पृष्ट नहीं होता है । ( अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए अपुढे तं समयं पारियावणियार किरियाए अपुढे पाणवायकिरियाए अपुढे) -पपण° प २२ । सू १६२० कोई एक जीव कोई एक जीव की अपेक्षा जिस समय कायिकी, आधिकरणिकी और प्रादेषिकी क्रिया के द्वारा अस्पृष्ट होता है उस समय पारितापनिकी क्रिया तथा प्राणातिपातिकी क्रिया के द्वारा भी अस्पृष्ट होता है । "Aho Shrutgyanam" Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश -६६-१७ कर्म बाँधता हुआ जीव और कायिकी क्रियापंचक जीवे णं भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच किरिए, एवं नेरइए जाव वेमाणिए । जीवा णं भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणा कर किरिया ? गोयमा ! ( सिय) तिकिरिया वि ( सिय) चउकिरिया वि ( सिय) पंचकिरिया वि, एवं नेरइया निरंतरं जाव वैमाणिया । एवं दरिसणावर णिज्ज, वेयणिज्ज', मोहणिज्ज आउयं, नाम, गोयं, अंतराइयं च अट्ठविहकम्मपगडीओ भाणियव्वाओ, एगत्तपोहत्तिया सोलस दंडगा ( भवंति ) । - पण्ण० प २२ । सू १५८५-८७ । पृ० ४८० प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव सात । आठ कर्म प्रकृतियाँ बाँधता है । अब प्रश्न होता है कर्म - प्रकृति बाँधते हुए जीव को ( प्राणातिपात सम्बन्धी ) कितनी क्रियाएँ होती हैं । " प्राणातिपात या हिंसा का कार्य तीन भूमिका में समाप्त होता है । प्रथम स्थान में कायिकी क्रियापंचक की तीन क्रियाएँ होती हैं, द्वितीय स्थान में चार क्रियाएँ होती हैं, प्राणातिपात पूर्ण होने पर पाँच क्रियाएँ होती हैं । कहा भी है : १७५ "तिसृभिश्चतसृभिरथ पञ्चभिश्च हिंसा समाप्यते क्रमशः । बन्धोऽस्य विशिष्टः स्यात् योगद्वेषसाम्यं चेत् ॥” कायिकी व्यापार की तत्परता, अधिकरणों का ग्रहण - सज्जा- तैयारी, पकडूंगा, बाधूंगा, मारूंगा -- ऐसा अप्रशस्त मन का होना यह प्रथम भूमिका है; इसके पश्चात् जब जीव को किसी अधिकरण के द्वारा कष्ट – वेदना पहुँचाई जाती है तब दूसरी भूमिका होती है। इसके बाद जब अधिकरण से आहत जीव का प्राणवध हो जाता है तब हिंसाकार्य समाप्त हो जाता है । ; जीव का एकवचन सोलह दण्डक होते हैं । ज्ञानावरणीयादि आठों कर्म प्रकृतियों को बाँधता हुआ जीव या तो तीन क्रिया करता है, या चार या पाँच क्रिया । नारकी आदि यावत् वैमानिक तक दण्डक का जीव इसी प्रकार कर्म प्रकृतियों को बाँधता हुआ तीन, चार या पाँच क्रिया करता है । जीव ( बहुवचन) भी ज्ञानावरणीयादि सात/आठ कर्म-प्रकृति बाँधते हुए तीन, चार या पाँच क्रियाएँ करते हैं । नारकी जीव ( बहुवचन ) भी यावत वैमानिक तक दण्डक के जीवों के कर्म - प्रकृति बाँधते हुए तीन, चार या पाँच क्रियाएँ करते हैं । बहुवचन तथा आठ कर्म प्रकृतियों के अलग-अलग विवेचन से "Aho Shrutgyanam" Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ क्रिया-कोश '६६.१८ आयोजिका विशेषण सहित कायिकी क्रियापंचक : कइ णं भंते! आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा---काश्या जाव पाणाइवायकिरिया, एवं नेरझ्याणं जाव वेमाणियाणं । जम्स भंते ! जीवस्स काइया आयोजिया किरिया अत्थि, तस्स अहिगरणिया किरिया आयोजिया-अत्थि, जस्स अहिगरणिया आयो. जिया किरिया अस्थि, तरस काइया आयोजिया किरिया अस्थि ? एवं एएणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियबा, जस्स, जं समयं, अं देसं, (जं पाएसं) जाव वेमाणियाणं । - पण ० प २२ । सू १६१७.१६ ! पृ० ४८२ __ आयोजिका किया पाँच प्रकारकी कही गई है---यथा-कायिकी आयोजिका क्रिया, आधिकरणिकी आयोजिका क्रिया, प्रादेषिकी आयोजिका क्रिया, पारितापनिकी आयोजिका क्रिया तथा प्राणातिपातिकी आयोजिका क्रिया। जिस प्रकार निर्विशेषण कायिकी क्रियापंचक के आलापक के ( देखो क्रमांक ६६.१४.१६ ) कहे गये हैं उसी प्रकार आयोजिका विशेषण सहित कायिकी क्रियापंचक के आलापक कहने चाहिए। '६६ १६ कायिकीपंचक क्रिया के उदाहरण :--- .१ मृगवधिक का -- पुरिसे णं भंते ! कच्छसि वा, दहंसि वा, उदगंसि वा, दवियंसि वा, वलयंसि वा नूमंसि वा. गहणंसि वा, गहणविदुग्गंसि वा, पञ्वयंसि वा, पत्रयविदुग्गंसि वा, वर्णसि वा, वणविदुग्गंसि वा मियवित्तीए, मियसंकप्पे, मियपाणिहाणे, मियवहाए गंता 'एए मिए' त्ति का अण्णयरस्स मियस्स वहाए कूडपासं उद्दाइ, तओ णं भंते ! से पुरिसे कइ किरिए पन्नत्ते ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे कच्छं सि वा-जाव-कूडपासं उद्दाइ, तावं च णं से पुरिसे सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चय---"सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए ? गोयमा ! जे भविए उद्दवणयाए, णो बंधणयाए, णो मारणयाए, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए - तिहिं किरियाहिं पुढे । जे भविए उद्दवणयाए वि, बंधणयाए वि, णो मारणयाए, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिंगरणियाए, पाउसियाए, पारियावणियाए-चउहि किरियाहिं पुढे । "Aho Shrutgyanam" Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश १७७ जे भविए उहवणयाए वि, बंधणयाए वि, मारणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए जाव पाणाइवायकिरियाए -पंचहि किरियाहिं पुढे, से तेण?णं जाव पंचकिरिए। -भग० श १ । उ । प्र २६४-६५ । पृ० ४०८ शिकार-संकल्पी, शिकार में दत्तचित्त, मृग-शिकार से आजीविका चलाने वाला कोई पुरुष कच्छार, जलाशयादि, झीलादि, जल से परिवेष्टित स्थान, घास से परिपूर्ण स्थान, नदी से परिवेष्टित भूमि में, अंधकारावृत स्थान में, अटवी में, गहन अटवी में, पर्वत में, पर्वत के दुर्गम स्थलों में, वन में, वन के विषम स्थानों में मृग के शिकार के लिए जाकर—'ये मृग हैं' ऐसा सोचकर किसी मृग या अन्य पशु को मारने के लिए कूटपाश रचे अर्थात् गड्ढा खोदे या जाल फैलावे तो उस पुरुष को कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है। जब तक वह पुरुष कूटपाश रचने में उद्यत है, मृग को बाँधता नहीं है तथा मारता नहीं है तब तक वह पुरुष कायिकी-आधिकरणिकी-प्राषिको-इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जब तक वह पुरुष कूटपाश रच कर मृग को बाँधता है लेकिन मारता नहीं है तब तक वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी-इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। और जब वह पुरुष कूटपाश रचकर, मृग को बाँधकर, उसको मारता है तब वह पुरुष कायिकी आदि पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है अर्थात् उसको पाँचौं क्रियायें होती हैं। विश्लेषण--मृग-शिकारी शिकार के निमित्त जब घर से वन–जंगलों में जाता है उसके कायिकी क्रिया होती है ; जाने के समय जाल, कुदाल आदि अधिकरण ग्रहण करता है तथा वन–जंगल में जाकर कूटपाशादि रचता है तब उसको आधिकरणिकी क्रिया होती है ; मारने के उद्देश्य से प्रदेष उत्पन्न होता है तथा शिकार को देखकर प्रद्वेष में वृद्धि होती है तब उसको प्रादेषिकी क्रिया होती है-ये तीनों क्रियाएँ जब भी होती हैयुगपत होती हैं। '२ मृगवधिक का : .. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा--जाव-वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊस विय, ऊसविय अगणिकायं णिसिरइ । तावं च णं से भंते ! पुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। से केण?णं ? गोयमा ! जे भविए उस्सवणयाए तिहिं । उस्सवणयाए वि, णिसि२३ "Aho Shrutgyanam" Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ क्रिया-को रणयाए विणो दहणयाए चउहिं । जे भविए उस्सवणयाए वि, णिसिरणयाए वि, दहणंया वि, तावं च णं से पुरिसे काइयाए - जाव - पंचहि किरिया हि पुट्ठे । से तेणट्टेणं गोयमा० । -- भग० श ११उ८ । प्र२६६-६७ । पृ० ४०८-६ कोई पुरुष कच्छार यावत् वन के विषम स्थानों में ( देखो क्रमांक ६६ १६१ ) शिकार या अन्य उद्देश्य से जाकर वहाँ तृण एकत्रित करके उसमें अग्नि निक्षेप करे तो उस पुरुष की कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती हैं । जब तक वह पुरुष घास के तिनके एकत्रित करता है तब तक उसको तीन क्रियाएँ होती है; तृण एकत्रित करके उसमें आग डालता है किन्तु जलाता नहीं है तब तक उसको चार क्रियाएँ होती हैं ; तृण एकत्रित कर तथा अग्नि डाल करके जब वह तृण-समूह को जलाता है तब उस पुरुष को कायिकी आदि पाँचों क्रियाएँ होती हैं । '३ मृगवधिक का : पुरिसे णं भंते! कच्छसि वा-जाव- वणदुग्गंसि वा मियवित्तीए, मियकप्पे, मियपणिहाणे, मियवहाए गंता 'एए मिय' न्ति काउं अण्णयरस्स मियस्स वहाए उसुं णिसिर, तओ णं भंते ! से पुरिसे कइ करिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए । सेकेणणं ? गोयमा ! जे भविए णिसिरणयाए, णो विद्धंसणयाए वि, णो मारणयाए वि तिहिं । जे भविए णिसिरणयाए वि, विद्धंसणयाए वि, णो मारण्याए चउहिं । जे भविए णिसिरणयाए वि, विद्धंसणयाए वि, मारणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे - - जाव - पंचहि किरियाहि पुट्ठे । से तेणटुणं गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । --भग० श १उ८ । प्र२६८-६६ / पृ० ४०६ शिकार संकल्पी शिकार में दत्तचित्त, मृग - शिकार से आजीविका चलाने वाला कोई पुरुष कच्छार यावत वन के विषम स्थानों में ( देखो क्रमांक ६६ १६१ ) मृग - शिकार के लिए जाकर 'ये मृग हैं' ऐसा सोचकर किसी मृग या अन्य पशु को मारने के लिए बाण छोड़ता है तो उस पुरुष को कदाचित् तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है । जब तक वह पुरुष बाण छोड़ता है परन्तु मृग को बींधता नहीं है तथा मारता नहीं है तब तक वह पुरुष तीन क्रिया से स्पृष्ट होता है। जब वह पुरुष बाण फेंककर मृग को बींधता है लेकिन मृग को मारता नहीं है तब तक वह पुरुष चार क्रिया से स्पृष्ट होता है, जब वह पुरुष बाण फेंककर मृग को बींधकर, उसको मारता है तब वह पुरुष कायिकी आदि पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है अर्थात् उसको पाँचों क्रियायें होती हैं ! "Aho Shrutgyanam" Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश '४ मृगवधिक का : पुरिसे गं भंते ! कच्छसि वा-जाव-~-अण्णयरस्स मियस्स वहाए आययकण्णाययं उसु आयामेत्ता चिट्ठजा, अन्ने य ( अन्नयरे ) से पुरिसे मग्गओ आगम्म सयपाणिणा, असिणा सीसं छिदेजा, से य उसूताए चेव पुवायामणयाए तं मियं विधेना. से गं भंते ! पुरिसे मियवेरेणं पुढे, पुरिसवेरेणं पुढे ? गोयमा ! जे मियं मारेइ, से मियवरेणं पुढे । जे पुरिसं मारेइ, पुरिसवेरेणं पुढे ।। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चई - जाव-से पुरिसवेरेणं पुढे १ से नूणं गोयमा ! कजमाणे कडे, संधिजमाणे संधित्ते, निवित्तिजमाणे निवित्तते, निसिरिज्जमाणे निसि? त्ति वत्तव्वं सिया ? हंता, भगवं! कन्जमाणे कडे - जाव-निसिढे त्ति वत्तव्वं सिया। से तेण?णं गोयमा ! जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुढे । जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुढें। अंतोछण्हं मासाणं मरइ, काइयाए --जाव-पंचकिरियाहिं पुढे । बाहिंछण्हं मासाणं मरइ, काइयाए. - जाव-पारियावणियाए चउहिं किरियाहिं --भग० श १ । उ८। प्र २७०-७१ । पृ० ४०६ शिकार-संकल्पी, शिकार में दत्तचित्त, मृगया-जीवी कोई पुरुष कच्छार यावत् ( देखो क्रमांक ६६ १६.१) किसी मृग या अन्य पशु को मारने के लिए धनुष को कान तक टानकर, बाण को प्रयत्न पूर्वक खींचकर खड़ा हो उस समय अन्य कोई व्यक्ति पीछे से आकर उस खड़े हुए पुरुष का सिर अपने हाथ से तलवार द्वारा काट डाले। उस समय वह टना हुआ बाण पहले के खिंचाव से छूटकर उस मृग को वींध डाले तो जो पुरुष तीर से मृग को मारता है वह मृग के वैर से स्पृष्ट है तथा जो असिधारी पुरुष धनुषधारी पुरुष को मारता है वह पुरुष के वैर से स्पृष्ट है। __क्योंकि यह निश्चित है--क्रियमाण कृत अर्थात जो किया जा रहा है वह किया हुआ' कहलाता है, जो संधान किया जा रहा है वह 'संधान किया हुआ' कहलाता है, जो तैयार किया जा रहा है वह तैयार किया हुआ' कहलाता है, जो छोड़ा जा रहा है वह 'छोड़ा हुआ' कहलाता है-इस कारण से जो मृग को मारता है वह मृग के वैर कहलाता है तथा जो पुरुष को मारता है वह पुरुष के वैर से स्पृष्ट कहलाता है और यदि मरने वाला छः मास के अन्दर मर जाता है तो मारने वाला व्यक्ति कायिकी आदि पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता है, यदि मरने वाला छः मास के बाद मरता है तो मारने वाला व्यक्ति कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता है । टोका :--क्रियमाणं धनुष्काण्डादि कृतमिति व्यपदिश्यते। युक्तिस्तु प्राग्वत । तथा सन्धीयमानं प्रत्यञ्चायामारोप्यमाणं काण्डं धनुर्वाऽऽरोप्यमाणप्रत्यञ्च सन्धित "Aho Shrutgyanam" Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० क्रिया - कोश कृतसन्धानं भवति । तथा निर्वृत्यमानं नितरां वर्तुली क्रियमाणं प्रत्यक्चाकर्षणेन नितिं वृत्तीकृतं मण्डलाकारं कृतं भवति, तथा निस्सृज्यमानं निक्षिप्यमाणं काण्डनिसृष्टं भवति । यदा च निसृज्यमानं निसृष्टं तदा निस्सृज्यमानतया धनुर्द्धरेण कृतत्वात्तेन । काण्डनिसृष्टं भवति -- काण्डनिसर्गाश्च मृगस्तेनैव मारितः । क्रियामाण को कृत कहना - यह एक जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण, प्रमुख सिद्धान्त है जिसका अर्थ है जो काम किया जा रहा है' उसको 'किया हुआ' कहना चाहिए । यद्यपि काम सम्पूर्ण नहीं हुआ है लेकिन काम का करना प्रारम्भ हो गया है उसको जैनदर्शन के अनुसार 'किया हुआ' कहा जाता है । 'कज्ज माण', 'संधिजमाण', 'निवित्तिज्जमाण' तथा 'निसिरिज्जमाण' इन चारों शब्दों को टीकाकार ने धनुषधारी व्यक्ति की कियाओं पर घटाया है । १ - कज्जमाण क्रियमाण – धनुषधारी व्यक्ति जो धनुष और बाण को ग्रहण कर रहा है वह 'ग्रहण किया' कृत - ( ग्रहण ) कहा जाता है । २ -- संधिज्जमाण - संधीयमान-धनुष और प्रत्यञ्चा में बाण को जो आरोपण कर रहा है वह 'आरोपित -कृतसंधान' कहा जाता है । ३- निवित्तिज्जमाण - निर्वर्त्यमान- प्रत्यञ्चा को टान कर धनुष को वर्तुल बनाकर बाण को छोड़ने की जो तैयारी की जा रही है वह 'छोड़ने को तत्पर हुआ - निर्वर्त्तित' कहा जाता है । ४- निसिरिज्जमाण- निक्षिप्यमाण—टानी हुई प्रत्यञ्चा के ढीली पड़ने से बाण धनुष से निकल रहा है उसको 'निकला हुआ— निसृष्ट' कहा जाता है । उस गला कटे हुए व्यक्ति का हाथ शिथिल होने से, प्रत्यञ्चा ढीली पड़ गई और प्रत्यचा ढीली पड़ जाने से तीर धनुष से निकल गया और उससे मृग बींधा जाकर मर गया । धनुषधारी व्यक्ति गला कटने के समय बाण छोड़ रहा है-- निसृज्यमान है अतः 'छोड़ा हुआ — निसृष्ट काण्ड - निक्षिप्तबाण' कहा जाता है। इसलिए धनुषधारी व्यक्ति को मृग को मारने वाला कहा जाता है । 'क्रियमाण कृत' सिद्धान्त के अनुसार गला कटने वाला व्यक्ति बाण छोड़ रहा है अतः 'छोड़ा हुआ' कहा गया है । छोड़े हुए बाण से मृग के मरने से उसको मृग का वधिक कहा गया है । टीका - षण्मासान् यावत्प्रहारहेतुकं मरणम्, परतस्तु परिणामान्तरापादितमिति कृत्वा षण्मासादूर्ध्वं प्राणातिपातक्रिया न स्यादिति हृदयम् । एतच्च व्यवहारनयापेक्षया प्राणातिपातक्रियाव्यपदेशमात्रोपदर्शनार्थमुक्तम् ; अन्यथा यदा कदाऽप्यधिकृतप्रहारहेतुकं मरणं भवति तदैव प्राणातिपातक्रियेति । "Aho Shrutgyanam" Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश प्रहार के हेतु से यदि जीव का छ: मास के अन्दर मरण हो तो प्रहारक को प्राणातिपातिकी क्रिया होती है लेकिन छः मास के बाद मरण हो तो प्रहारक को प्राणातिपातिकी किया नहीं होती है-ऐसा हार्द-भाव है। यह छ: मास के भीतर-बाहर का कथन व्यवहार-नय की अपेक्षा से प्राणा तिपातिकी क्रिया का उपदर्शन मात्र कराने के लिये कहा गया है; अन्यथा प्रहार के निमित्त से जब कभी मरण हो तो प्रहारक को तभी प्राणातिपातिकी क्रिया होती है । ५ पुरुषवधिक काः-- पुरिसे णं भंते ! पुरिसं सत्तीए समभिधंसेज्जा सयपाणिणा वा, से असिणा छिदेज्जा तओ णं भंते ! से पुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेइ, सयपाणिणा वा, से असिणा सीसं छिदइ, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए--जाव पाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहिं आसन्नवहएण य अणवकखवत्तीए णं पुरिसवेरेणं पुढे । -भग० श १ । उ ८। प्र २७२ । पृ० ४०६ यदि कोई व्यक्ति अपने हाथ से किसी पुरुष को सशक्त भाले से भेदन करे या तलवार के द्वारा शिर का छेदन करे तो वह व्यक्ति कायिकी आदि पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। दूसरों के प्राणों के प्रति बेपरवाह और आसन्नवधक वह व्यक्ति पुरुष-वेर से स्पृष्ट होता है। विश्लेषण :-यहाँ भाला फेंकने में, तलवार चलाने में जो काया से क्रिया हुई वह कायिकी; भाला, खड्ग आदि अधिकरणों का ग्रहण-आधिपत्य-प्रयोग वह आधिकरणिकी; भेदे जाने वाले या छेदे जाने वाले व्यक्ति के प्रति जो दुष्ट प्रणिधान-अध्यवसाय हुए-बह प्राद्वेषिकी; शरीर भेदन से ----शिरछेदन से जो पीड़ा तथा प्राण-वियोग होता है वह क्रमशः पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी क्रिया है। अतः भेदन-छेदन से प्राण-वियोग करनेवाले व्यक्ति को कायिकी आदि पाँचों कियायें होती हैं । छेदन-भेदन से पुरुष को मारने वाला व्यक्ति आसन्नवधक होता है अर्थात पुरुष-वैर से वह व्यक्ति अनागत काल में किसी जन्म-जन्मान्तर में मारे जाने वाले पुरुष के द्वारा अथवा अन्य किसी जीव के द्वारामारा जाता है। टीकाकार ने एक प्राकृत की गाथा उद्धृत की है जिसका आशय है कि जो व्यक्ति एक बार किसी का प्राणवध करता है वह व्यक्ति दूसरों से दस बार मारा जाता है । "Aho Shrutgyanam" Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ क्रिया-कोश '६ धनुर्धर के : पुरिसे णं भंते ! धणुं परामुसइ, परामुसित्ता उसुपरामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठित्ता आययकण्णाययं करेइ, (आययकण्णाययं उसुकरेता उसु) उड्ढे बेहासं उसु उव्विहइ, तएणं से उसु उड्ढे वेहासं उबिहए समाणे जाई तत्थ पाणाई, भूयाई, जीवाई, सत्ताई अभिहणइ, वत्तइ, लेसेइ, संघाएइ, संघट्टइ, परियावेइ, किलामेइ, ठाणाओ ठाणं संकामेइ, जीवियाओ ववरोवेइ, तए णं भंते ! से पुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणु परामुसइ, परामुसित्ता–जावउव्विहइ, तावं च णं पुरिसे काश्याए -जाव-पाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहिं पु?, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणु निव्वत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाएजाव-पंचहि किरियाहिं पुढे, एवं धणु पुढे पंचहि किरियाहिं, जीवा पंचहिं, न्हारू पंचहि, उसू पंचहि, सरे, पत्तणे, फले, न्हारू पंचहिं । अहे णं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए, भारियन्ताए, गुरूसंभारियत्ताए, अहे वीससाए पञ्चोवयमाणे जाई (तत्थ) पाणाई-जाव-जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से उसु अप्पणो गुरुयत्ताए,जाव-ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए-जाव-चउहि किरियाहिं पुढे; जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणु निव्वत्तिए ते वि जीवा चउहि किरियाहिं, धणु पुढे चउहि, जीवा चउहिं, न्हारू चउहिं, उसू पंचहिं, सरे, पत्तणे, फले, न्हारू पंचहि, जे वि य से जीवा अहे पञ्चोवयमाणस्स डवगहे वर्ल्ड ति ते वि य णं जीवा काइयाएजाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। -भग श ५ । उ ६ । प्र १०-११ । पृ० ४८१ कोई पुरुष धनुष को ग्रहण करे ; धनुष को ग्रहण करके बाण को ग्रहण करे ; बाण को ग्रहण करके यथायोग्य आसन ग्रहण करे ; आसन को ग्रहण करके बाण व प्रत्यञ्चा को कान तक खींचे ; कान तक खींचकर बाण को ऊँचा आकाश में छोड़े और ऊँचे आकाश में छोड़ा हुआ वह वाण आकाश में अभिमुख जाते हुए तत्र स्थित जिन प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों का अभिहनन करे, हेर-फेर करे, श्लिष्ट करे, परस्पर संघात करे, तीन संघात वा स्पर्श करे, पीड़ा पहुँचावे, क्लान्त करे, स्थानान्तर करे और प्राण-रहित करे तो धनुष ग्रहण करने से लेकर यावत् धनुष छोड़ने तक वह पुरुष कायिकी आदि पाँच कियाओं से स्पृष्ट होता है । जिन-जिन जीवों के शरीर से धनुष बना, धनुष की पीठ बनी-वे जीव पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं ; जिन-जिन जीवों के शरीर से जीवा (डोरी) बनी, न्हारु बनी, बाण बना-वे जीव पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं, जिन-जिन जीवों के शरीर से शर, पत्र, फल, न्हारु बने- वे सब जीव पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १८३ विश्लेषण :---धनुषधारी को धनुष ग्रहण करने से लेकर वाण छोड़ने तक पाँच क्रियायें होती है वे प्रवृत्ति की अपेक्षा से होती हैं तथा जिन जीवों के शरीर से धनुष, धनुष की पीठ, जीवा (डोरी), न्हारु-बाण बने ; शर, पत्र, न्हारु बने वे जो पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं वह अविरति की अपेक्षा से होते हैं । अस्तु-सिद्ध के अविरत परिणाम नहीं होते हैं इसलिए उनको परित्यक्त शरीरों से होने वालो कायिकी आदि क्रियायें नहीं होती हैं । जब तक बाण वेग में रहता है, नीचे की तरफ नहीं गिरता है उपरोक्त विवेचन उस समय तक का है। __ जब वह वाण अपनी गुरुता से, अपने भार से, अपनी गुरुसंभारता से विलसा स्वभाव से नीचे गिरता है और ऊपर से नीचे गिरता हुआ वह बाण बीच मार्ग में प्राण भूत-जीवसत्त्वों का अभिहनन यावत प्राण रहित करता है तब बाण निक्षेपकारी वह पुरुष कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । जिन जीवो के शरीर से धनुष बना, जिन से धनुष की पीठ बनी, जिनसे धनुष की डोरी बनी, जिनसे न्हारु बना-वे जीव चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । जिन जीवों के शरीर से बाण, जिनसे शर बना, जिनसे पत्र बना, जिनसे फल बना, जिनसे न्हारु बना-वे पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। नीचे गिरते हुए बाण के अवग्रह में जो जीव आते हैं वे जीव भी कायिकी आदि पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । विश्लेषण :---पुरुष के द्वारा छोड़ा हुआ वह बाण अपनी गुरुता आदि के कारण जब नीचे गिरता है तब जिन जीवों के शरीर से धनुष, धनुष की पीठ, डोरी, न्हास बने उन जीवों को चार क्रियायें होती हैं क्योंकि धनुष आदि साक्षात् वध-क्रिया में प्रवृत्त नहीं होते हैं अर्थात वे उसमें निमित्त मात्र हैं। जिन जीवों के शरीर से बाण, शर, पत्र, फल, न्हारु बने, उन जीवों को पाँच क्रियाएँ होती हैं क्योंकि बाणादि साक्षात्-मुख्य रूप से जीवहिंसा में प्रवृत्त होते हैं । ७ लुहार का : पुरिसे णं भंते! अयं अयकोटसि अयोमएणं संडासएणं उम्बिहमाणे वा पब्विहमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोर्टसि अयोमएणं संडासएणं उव्विहिइ वा पव्विहिइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए-जावपाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहि पुट्ठ, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो अए (यो) निव्वत्तिए अयकोहे निव्वत्तिए संडासए निव्वत्तिए इंगाला निव्वत्तिया "Aho Shrutgyanam" Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ क्रिया-कौश इंगालकङ्क्षिणी निव्वत्तिया भत्था निव्वत्तिया वि णं जीवा काइयाए- जाव - किरियाहिं पुट्ठा | - पंचहि पुरिसे णं भंते! अयं अयकोट्टाओ अयोमएणं संडासएण गहाय अहिगर णिसिं aftaarणे वा निक्खिवमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोट्ठाओ – जाव- निक्खिवर वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए- जावपाणावायकिरियाए पंचहि किरियाहिं पुट्ठे, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो अए निव्वत्तिए संडासए निव्वत्तिए चम्भट्ठे निव्वत्तिए मुट्ठिए निव्वत्तिए अहिगरणी निव्वत्तिए (या) अहिगरणिखोडी निव्वत्तिया उदगदोणी निव्वत्तिया अहिगरणसाला निव्वत्तिया ते वि य णं जीवा काइयाए- जाव - पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । -भग० श १६ । उ १ । प्र ३-४ । पृ० ७४० लोह के संडसा के द्वारा लोहवस्तु को ऊँचालोहवस्तु को ऊँचा - नीचा करता है तब तक कायिकी लोह को तपाने के लिए भट्टी में नीचा करते हुए पुरुष को जब तक आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । तथा जिन जीवों के शरीर से अंगारा निकालने की शलाका तथा पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । भट्टी में से संडसा के द्वारा लोहवस्तु को निकाल हुए पुरुष को जब तक लोहवस्तु को एरण पर रखता है, उठाता आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती है । तथा जिन जीवों के शरीर से लोहवस्तु बनो, संडासा बना, घन बना, हथौड़ी बनी, एरण बनी, एरण खोदने की लकड़ी बनी, गर्म लोहवस्तु को ठण्डा करने की पानी की कुण्ड बनी, लोहारशाला बनी - उन सब जीवों को कायिकी आदि पाँच कियाएँ स्पृष्ट होती हैं । लोहवस्तु वनी, भट्ठी वनी, संडसा बना, अंगार बने, धौंकनी वनी - उन सब जीवों को भी कायिकी आदि कर एरण पर रखते ---उठाते उसको कायिकी तब त ८ वर्षा और पुरुष : पुरिसे णं भंते! वासं वास वासं नो वासतीति इत्थं वा पायं वा बाहुं वा उरु वा आउट्टामाणे वा पसारेमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे वासं वास वासं नो वासतीति हत्थं वा -- जाब- उरु वा आउंटावे वा पसारेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए - जाव - पंचहि किरियाहिं पुठ्ठे । - भग० श १६ । उ८ । प्र । पृ० ७५२ यह जानने के लिए कि वर्षा बरसती है या नहीं-हाथ, पैर, बाहु और शरीर को समेटता है या फैलाता है तो उस पुरुष को कायिकी आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं । " Aho Shrutgyanam" Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १८५ ६७ त्रय क्रियापंचक ६७.१ दंडक के जीव और दृष्टिका क्रियापंचक : पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-दिट्ठिया, पुट्ठिया, पाडुच्चिया, सामंतोवणियाइया, साहत्थिया, एवं नेरक्याणं जाव वेमाणियाणं । -ठाण. स्था ५। २। सू४१६ । पृ० २६२ नारको जीवों से लेकर पैमानिक जीषों तक वंडक के सभी जीवों के रष्टिका क्रिया पंचक की पाँचों क्रियाएँ होती हैं । ६७.२ दंडक के जीव और आज्ञापनिका क्रियापंचक :--- पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा--णेसत्थिया, आणवणिया, वेयारणिया, अणाभोगवत्तिया, अणवखवत्तिया, एवं जाव वेमाणियाणं । ठाण० स्था ५ । उ २१ सू ४१६ । पृ०२६२ नारकी जीवों से लेकर वैमानिक जीवों तक दंडक के सभी जीवों के आशापनिका क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती है। ६७.३ दंडक के जीव और रागप्रत्ययिकी क्रियापंचक : पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा पेजवत्तिया, दोसवत्तिया, पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, ईरियावहिया, एवं मणुस्साण वि, सेसाणं णत्थि ।। -ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ । पृ० २६२-६३ मनुष्य के रागप्रत्ययिकी क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती हैं। मनुष्य बाद शेष दंडक के जीवों के रागप्रत्ययिकी क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ नहीं होती है। विश्लेषण- यहाँ रागप्रत्ययिकी क्रियापंचक का सामान्य पद से कथन किया गया है ; चविंशति दंडकों में से यह केवल मनुष्य दंडक में ही संभव है । यद्यपि रागप्रत्ययिकी, द्वेषप्रत्ययिको, प्रयोगक्रिया, समुदान क्रिया-ये चारों क्रियाएँ नारकी जीवों से लेकर वैमानिक जीवों तक के सभी जीवों में होती हैं। लेकिन ऐपिथिकी क्रिया ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीवों-मनुष्यों के होती है । अतः शेष दंडक के जीवों के रागप्रत्ययिकी क्रियापंचक की पाँचौ क्रियाएँ नहीं होती हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ क्रिया-कोश '६८ पापस्थान क्रिया ६८१ पापस्थान क्रियाओं की स्पृष्टता आदि :.... अस्थि णं भंते! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ, अपुट्ठा कजइ ?–जाव-निव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघाय पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि । सा भंते ! किं कडा कज्जइ, अकडा कन्जइ ? गोयमा कडा का नो असा कजाइ । सा भंते ! किं अत्तकडा फाइ, परकडा कजइ, तदुभयकडा कजइ ? गोयमा ! अत्तकडा कज्जइ, णो परकडा कज्जइ, णो सदुभयकडा कजइ । सा भंते ! कि आणुपुव्विं कडा कजइ, अणाणुपुज्विं कडा कजइ ? गोयमा ! आणुपुठिवं कडा कजइ, जो अगाणुपुब्विं कडा कजइ । जा य कडा कन्जइ, जा य कन्जिस्सइ सव्वा सा आणुपुव्विं कडा, णो अणाणुपुव्विं कड त्ति वत्तव्वं सिया । अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवायकिरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कजइ ? जाव--नियमा छदिसि कजइ। सा भंते ! किं कड़ा कनइ, अकडा कजइ ? तं चेव जाव-णो अणाणुपुव्विं कड त्ति वत्तव्वं सिया। जहा नेरइयाणं तहा एगिदियवज्जा भाणियव्वा जाव-वेमाणिया । एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा । जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए, तहा अदिन्नादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले। एवं एए अट्ठारस चउवीसं दंडगा भाणियव्वा । -भग० श १ । उ ६ । प्र २०६-१५ । पृ० ४०२-३ जीव प्राणातिपात के द्वारा क्रिया करते हैं तथा वह क्रिया स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती है, यदि वह क्रिया निर्व्याघात हो तो छुओं दिशाओं से और सव्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित चार दिशा से तथा कदाचित् पाँच दिशा से स्पृष्ट होती है। वह क्रिया कृत है, अकृत नहीं है । आत्मकृत है, परकृत तथा तदुभयकृत नहीं है । वह क्रिया अनुक्रमपूर्वक कृत है, अननुक्रमपूर्वक कृत नहीं है । जो क्रिया की जा रही है तथा जो की जायगी वह सब क्रिया अनुक्रमपूर्वक है, अननुक्रमपूर्वक नहीं है । नरक के जीव प्राणातिपात के द्वारा किया करते हैं तथा वह क्रिया स्पृष्ट होती है, और नियम से छओं दिशाओं से स्पृष्ट होती है। अवशेष विवेचन औधिक जीवों के विवेचन की तरह जानना । जैसा नारकी जीवों के विषय में कहा वैसा एकेन्द्रिय के जीवोंको बाद देकर वैमानिक तक दंडक के सभी जीवों के लिए कहना । "Aho Shrutgyanam" Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १८७ जैसा औधिक जीवों का कहा वैसा सम्पूर्ण एकेन्द्रिय जीवों के संबंध में कहना । प्राणातिपात की तरह मृषावाद आदि अन्य सत्रह पापस्थानों के विषय में जीवों के बारे में कहना तथा उसी प्रकार चौबीस जीवदंडकों के बारे में भी सभी पापस्थानों के विषय में कहना | ६८२ पापस्थान क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :--- जीवे णं भंते! पाणावाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविह्नबंधए वा अट्ठविहबंध वा । एवं नेरइए जाव निरंतरं वैमाणिए । जीवा णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधा व अविबंधगा वि । नेरया णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मरगडीओ बंधंति ? गोयमा ! सव्वे षि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा; अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य; अहवा सत्तविधगाय अट्ठविहबंधगा य । एवं असुरकुमारा वि जान थणियकुमारा । पुढवितेउवाउवणरसइकाइया य एए सव्वे वि जहा ओहिया जीवा, अवसेसा जहा नेरइया । एवं ते जीवेगिंदियवज्जा तिण्णि तिष्णि भंगा सव्वत्थ भाणियव्वति, जाव मिच्छादंसणसल्लेणं, एवं एगत्तपोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होंति । - पण० पद २२ / सू १५८१-८४ । पृ० ४७६-८० जीव प्राणातिपात (क्रिया) द्वारा सात कर्मप्रकृति बांधता है, या आठ कर्मप्रकृति बाँधता है । इसी प्रकार नारकी से लेकर वैमानिक तक एकवचन की अपेक्षा जानना । जिस समय आयुषकर्म का बंध नहीं होता उस समय सात कर्मप्रकृति का बंध होता है तथा जब आयुषकर्म का भी बंध होता है तब आठ कर्मप्रकृति का बंध होता है ! जीवों की अपेक्षा अनेक जीव सात कर्मप्रकृति बाँधते हैं, अनेक जीव आठ कर्मप्रकृति बाँधते हैं । नारकियों की अपेक्षा या सर्व नारकी सात कर्मप्रकृति बाँधते हैं, या कोई एक आठ कर्मप्रकृति बाँधता है, शेष सब सात कर्मप्रकृति बाँधते हैं तथा या अनेक नारकी सात कर्मप्रकृति बाँधते हैं तथा अनेक आठ कर्मप्रकृति बाँधते हैं । नारकियों की तरह असुरकुमारों से यावत् स्तनितकुमारों तक जानना । एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में औधिक जीवों की तरह जानना । "Aho Shrutgyanam" Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ क्रिया-कोश __ अवशेष दण्डक के जीवों के संबंध में बहुवचन की अपेक्षा नारकियों की तरह जानना। जीव और एकेन्द्रियों को बाद देकर सभी के तीन-तीन दण्डक अर्थात् (१) सभी सात कर्मप्रकृति बाँधते है । (२) या कोई एक आठ कर्मप्रकृति बाँधता है शेष सब सात कर्मप्रकृति बाँधते हैं तथा (३) या अनेक सात तथा अनेक आठ कर्मप्रकृति बाँधते हैं । इसी प्रकार मृषावाद यावत मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थानों के विषय में जानना । अठारह पापस्थान तथा एकवचन-बहुवचन की अपेक्षा ३६ दंडक होते है। ६६ पचीस क्रियाओं का समवाय से विवेचन अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः । -तत्त्व० अ६ । सू ६ भाध्य–पञ्चविंशतिः क्रियाः। तत्रेमे क्रियाप्रत्यया यथासंख्यं प्रत्येतव्याः । तद्यथा-सम्यक्त्वमिथ्यात्वप्रयोगसमादानेर्यापथाः, कायाधिकरणप्रदोषपरितापनप्राणातिपाताः, दर्शनस्पर्शनप्रत्ययसमन्तानुपातानाभोगाः, स्वहस्तनिसर्गविदारणानयनानवकांक्षा, आरम्भपरिग्रहमायामिथ्यादर्शनाप्रत्याख्यानक्रिया इति । क्रिया पचीस होती है—पचीस क्रियाओं का समुच्चय विवेचन कहीं भी नहीं मिला । पाँच पंचकों के रूप में विवेचन मिला है ! यथा—सम्यक्त्व क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया, प्रयोगक्रिया, समादान क्रिया, ऐपिथिकी क्रिया ; कायिकी क्रिया, आधिकरणिकी क्रिया, प्राद्वेषिकी क्रिया ; पारितापनिकी क्रिया, प्राणातिपातिकी क्रिया, ; दर्शन क्रिया, स्पर्शन क्रिया, प्रत्ययक्रिया, समन्तानुपातिकी क्रिया, अनाभोग क्रिया ; स्वहस्तक्रिया, निसर्गक्रिया, बैदारणिकी क्रिया, आनयनक्रिया, अनवकांक्षाक्रिया ; आरंभिकी क्रिया, पारिग्रहिकी क्रिया, मायाप्रत्ययिकी क्रिया, मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया तथा अप्रत्याख्यान क्रिया । '७ सदनुष्ठानक्रिया का विवेचन [चौदहवें गुणस्थानवी जीव को छोड़कर सभी संसारी जोव सक्रिय हैं ! वे सावद्य या निरवद्य-किसी न किसी प्रकार की क्रिया करते रहते हैं। जो क्रियाएँ पापकर्म के बन्ध की हेतु हैं वे सावध हैं तथा जो क्रियाएँ कर्मों का छेदन करने वाली हैं वे निरवद्य हैं। इन कर्मों के छेदन करने वाली क्रियाओं को सदनुष्ठान किया कहा गया है । क्रिया से जीव कर्म का बंध करते हैं। सकषायी जीव क्रिया से सौपरायिक कर्म का बन्ध करते हैं तथा अकषायी जीव ऐपिथिक कर्म का बन्ध करते है। जब तक जीव "Aho Shrutgyanam" Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १८६ परिस्पंदनात्मक क्रिया करता रहता है तब तक उसके कर्म का बन्ध होता रहता है और वह अन्तक्रिया नहीं कर सकता है । ऐर्यापथिक क्रिया करने वाला जीव भी --- यद्यपि उसकी सब क्रियाएँ सदनुष्ठान क्रिया-कर्म का छेदन करने वाली क्रिया हैं फिर भी ऐयपथिक कर्म का बन्ध होने के कारण-अन्तक्रिया नहीं कर सकता है । जो सकषायी जीव सावय क्रिया करते हैं उनके पापकर्म का बन्ध होता रहता है ; जो सकषायी जीव सदनुष्ठान क्रिया करते हैं उनके कर्म की निर्जरा होती है तथा पुण्य कर्म का बंध होता है । इस प्रकार सदनुष्ठान क्रिया चाहे वह सांपरायिक हो, चाहे ऐर्यापथिक हो -- निर्जरा की तथा पुण्य कर्म के बंध की हेतु होती हैं । ] -७१ सदनुष्ठानक्रिया -७११ सदनुष्ठान क्रिया के पयार्यवाची शब्द : १ सदनुष्ठान सदनुष्ठान क्रिया तस्यां कुशलः क्रियाकुशलः । - सूर्य ० श्रु २ । अ ४ | सू १ | टीका '२ संयमानुष्ठान -- मेधावी सर्वभावज्ञः क्रियां संयमानुष्ठानरूपां कर्मोच्छत्रीमनीदृशीमनन्यसदृशीमाख्यातवान् । -- आया० श्र १ । अ ६ । उ १ । गा १६ | टीका परसंबंध्यविचारितमनोवाक्कायवाक्यः सत्क्रियासु - सूय० श्रु २ । अ ४ । सू १ । टीका ४ सम्यगनुष्ठान - क्रियां सम्यगनुष्ठानरूपी प्रतिक्रमणप्रतिलेखनरूपां मोक्षमार्गसाधनभूतां ज्ञानसहितां रोचयति । ३ सत्क्रिया - यदि वा प्रवर्त्तते । उत्त० अ १८ । गा ३ | लक्ष्मीवल्लभटीका *५ धर्मानुष्ठान -- क्रियया धर्मानुष्ठानेन रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः । - उत्त० अ २८ । गा १६ । लक्ष्मी वल्लभटीका '६ चरण - विद्या च ज्ञानं चरणं च क्रिया । xxx । असौ विद्या च चरणो मोक्षः । ज्ञानक्रियासाध्य इत्यर्थः । - सू० श्रु १ । अ १२ । गा ११ । टीका सर्वत्रोपयुक्तस्य निकषायस्य समीक्षिततयां यत्कर्म तदीर्यापथिकं सैवा क्रिया - सूय श्रु २ । अ २ । सु १४ । टीका -७ ऐर्यापथिकी- प्रवृत्तिनिमित्तं त्विदं मनोवाक्कायक्रियस्य या क्रिया ईर्यापथिकेत्युच्यते । " Aho Shrutgyanam" Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कौश १६० -७१२ विभिन्न सदनुष्ठानक्रिया : '७१.२१ सामायिक - चतुर्विंशतिस्तव वंदना-प्रतिक्रमण-कार्योत्सर्ग-प्रत्याख्यान - पट् आवश्यक क्रिया -- षण्णामावश्यक क्रियाणां यथाकालं प्रवर्तनमावश्यका परिहाणिः । - ससर्व ० ० अ ६ । सू २४ । पृ ३३६ / ला ४-५ वडावश्यक क्रियाः सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवः बन्दना प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं कायोत्सर्गश्चेति । तत्र सामायिकं सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिलक्षणं चित्तस्यैकत्वेन ज्ञाने प्रणिधानम् । चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थ करगुणानुकीर्तनम् | वंदना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुः शिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना । अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम् । अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम् । परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः । इत्येतासां षण्णामावश्यकक्रियाणां यथाकालप्रवर्तनम् अनौत्सुक्यं आवश्यकाऽपरिहाणिरिति परिभाष्यते —तत्त्वराज॰ । अ ६ । सू २४ / ० ५३० । ला १० से १६ सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग-इन छः आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल करते रहना - आवश्यकपरिहाणि है । सर्वसाद्य योगों का त्याग करना, चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना - सामायिक है | तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन चतुर्विंशतिस्तव है । मन, वचनं, काय की शुद्धिपूर्वक आसनपूर्वक चार बार शिरोनति और बारह आवर्तपूर्वक वंदना होती है । कृत दोषों की निवृत्ति करने को प्रतिक्रमण कहते हैं । भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना-प्रत्याख्यान है । अमुक समय तक शरीर से ममत्व का त्याग करना -- कायोत्सर्ग है । *७१-२२ दर्शन - ज्ञान - चारित्र- तपविनय-सत्य - समिति - गुप्ति - अष्टसंयमानुष्ठानक्रिया : दंसणनाणचरिते, तबविणए सच्च समिइगुतीसु । जो किरियाभावरुई, सो खलु किरियारुई नाम ॥ - उत्त० अ २८ । गा २५ पृ० १०२६ दीपिका टीका ---- स खलु निश्चयेन क्रियारुचिर्नाम प्रसिद्धो ज्ञ ेयः यः पुरुषो दर्शनज्ञानचारित्रे तथा तपोविनये क्रियाभावरुचिर्भवति तथा सत्य समितिगुप्तिषु क्रियाभावरुचिर्भवति दर्शनश्च ज्ञानभ्व चरित्रश्च दर्शनज्ञानचारित्रं तस्मिन् तपांसि च विनयाश्च तेषां समाहारस्तपोविनयं तस्मिन् तपोविनये तपस्सु द्वादशविधेषु तथा विनयेषु आचार्य्यादीनां भक्तिषु तथा सत्यायाः समितयः सत्यसमितयः तासु सत्यसमितिषु "Aho Shrutgyanam" Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश १६१ क्रियायां दर्शनशानचारित्रतपोविनयसमितीनां आराधनानुष्ठानविधौ भावेन रुचिर्यस्य स क्रियाभावरुचिः । यहाँ ग्रन्थकार ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्तिरूप क्रियाओं में जो व्यक्ति भावरुचि रखता है उसको निश्चय से क्रियारूचि नाम सम्यक्त्व वाला कहा है क्योंकि वह उपर्युक्त क्रियाओं के करने में भावसे रुचि रखता है। .. ये सब क्रियायें सदनुष्ठान रूप क्रियायें हैं। टीकाकार के अनुसार जो व्यक्ति दर्शन, शान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति रूप क्रियाओं की अनुष्ठान-विधि से भावआराधना करता है वह क्रियारूचि सम्यक्त्व का आराधक है। “७२ अक्रिया (क्रिया का अभाव) .७२१ परिभाषा ! अर्थ :अक्रिया योगनिरोधलक्षणा। --सम० सम १ । सू १८ टीका -ठाण स्था ३ । उ ३ । सू १६° 1 टीका योगनिरोध अक्रिया है। 'शैलेशीकरणे योगनिरोधाद् नो एजते',—योग का निरोध होने से शैलेशीकरण की अवस्था में ऐर्यापथिक तथा ए जनादि क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं और इन क्रियाओं का अभाव-अक्रिया है । •७२२ भेद :-- एगा अकिरिया। ---सम० सम १ । सू२ । पृ० ३१६ योगनिरोध से होने वाली क्रिया का अभाव रूप अकिया एक है। .७२.३ अक्रिया किसका फल और उसका क्या फल :-- (क) से णं भंते ! वोदाणे कि फले ? (वोदाणे) अकिरिया फले । से गं भंते अकिरिया किंफला ? सिद्धिपज्जवसाणफला पन्नत्ता, गोयमा ! --भग० श २ । उ ५ । प्र४५-४६ ४५-४६ । पृ० ४३१ Fo (ख) सवणे णाणे य विण्णाणे, पञ्चक्खाणे य संयमे । अणण्हए तवे चेव, चोदाणे अकिरिया निव्वाणे ॥ -- जाव-से णं भंते ! अकिरिया किं फला ? निव्वाणफला, सेणं भंते ! निव्वाणे किं फले ? सिद्धगइगमणपज्जवसाणफले पन्नत्ते, समणाउसो। -ठाण० स्था३1 उ । ३ सू१६० । पृ० २१६ "Aho Shrutgyanam" Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ क्रिया-कोश - (ग) वोदाणेणं भंते ! जीवं किं जणयइ ? वोदाणेणं अकिरियं जणयइ । अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। -उत्त० अ २६ । सू २४ । पृ० १०३२ कमों के व्यवदान अर्थात् कर्म के शोधन से अक्रिया होती है। अक्रिया से निर्वाण अर्थात् कर्मों से मुक्ति होती है ; तत्पश्चात जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है तथा परिनिर्वाण को प्राप्त कर सर्व दु:खों का अन्त करता है । सिद्धगतिगमन रूप पर्यवसानफल अर्थात सबसे अन्तिम फल को प्राप्त करता है। ७२.४ अक्रिय भिक्षु :-- (क) से भिक्खू अकिरिए, अलूसिए, अकोहे, अमाणे, अमाए, अलोहे, उवसंते, परिनिव्वुडे ; xxx। इति से महओ आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरए। - सूय • श्रु २ । अ १ । सू १५ । पृ० १४३-४४ टोका-स मूलोत्तरगुणव्यवस्थितो भिक्षुर्नास्य क्रिया सावद्या विद्यते इत्यक्रियः संवृत्तात्मकतया सांपरायिककर्माबंधक इत्यर्थः । (ख) से भिक्खू अकिरिए, अल्सए, अकोहे जाव अलोभे, उवसते, परिनिव्वुडे। एस खलु भगवया अक्खाए संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए भवइ। -सूय० श्रु २ । अ४ । सू ५ । पृ० १६६ टोका-स भिक्षुनिवृत्तश्च सर्वाश्रवद्वारेभ्यो दंतप्रक्षालनादिकाः क्रियाः कुर्वन् सावधक्रियाया अभावाद क्रियोऽक्रियत्वाच्च । यहाँ जो भिक्षु को अक्रिय कहा गया है वह सर्व योगनिरोधात्मक चौदहवें गुणस्थान का अक्रिय नहीं है। यहाँ अक्रिया से सावधानुष्ठान-असदनुष्ठान क्रिया से रहित भिक्षु को ही ग्रहण करना चाहिए। यह भिक्षु सर्वहिंसा से निवृत्त, शरीर की शोभन क्रिया: यथा--दन्त-प्रक्षालन आदि क्रिया से निवृत्त होता है। तथा इस प्रकार साक्द्यानुष्ठान क्रियाओं से रहित होता है। अतः उसको सावध किया के अभाव के कारण अक्रिय कहा गया है। .७३ अन्तक्रिया- . .७३.१ परिभाषा | अर्थ : -- (क) 'अन्तकिरिय' त्ति सकलकर्मक्षयरूपा। योगनिरोधाभिधानशुक्लध्यानेन सकलकर्मध्वंसरूपा अंतक्रिया भवति । "Aho Shrutgyanam Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १६३ एवं एजनादिरहितस्य शुक्लध्यानस्य चतुर्थभेदानलेन कर्मदाह्य दहनं स्यादिति, अथ निष्क्रिययैव अन्तक्रिया भवति । - भग० श ३ । ३ । प्र ११-१४ । टीका (ख) 'अंतकिरियं' ति अन्त्या च सा पर्यन्तवर्तिनि क्रिया च अन्त्यक्रिया, अन्त्यस्य वा कर्माऽन्तस्य क्रिया अन्त्यक्रिया, ताम् - कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिमित्यर्थः । - भग० श १ । उ २ । प्र. १०७ । टीका (ग) अंतो भवान्तस्तस्य क्रियाऽन्तक्रिया भवच्छेद इत्यर्थः । - ठाण० स्था २ । उ ४ । सू १०७ । टीका (घ) 'अंतक्रिया' मिति अन्तः- अवसानं तच्च प्रस्तावादिह कर्मणामव सातव्यं, अन्यत्रागमेऽन्तक्रियाशब्द ( वाच्यतया त ) स्य रूढत्वात् तस्य क्रियाकरणमन्तक्रिया-कर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थः, “कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः" इति वचनात् तां कुर्याद् । -- पण्ण० प २० | सू १४०७ | टीका अंतक्रिया -- सकल कर्मक्षयरूप है । जीव की वह अन्तिम क्रिया-प्रचेष्टा अर्थात् धर्मानुष्ठानिक चारित्रिक क्रिया जिसके द्वारा जीव कर्मों का संपूर्ण अन्त--अवसान करके उसी भव में सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है, सर्व दुःखों का अन्त करता है । ऐर्यापथिक तथा एजनादि क्रिया से रहित - योगनिरोधात्मक शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद में स्थित अक्रिय - निष्क्रिय जीव को अन्तक्रिया होती है ! ७३२ भेद :-- चत्तारि अंतकिरियाओ पन्नत्ताओ तं जहा (१) तत्थ खलु इमा पढमा अंतकिरिया - अप्पकम्मपश्चायाएं यावि भव से मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, संजमबहुले, संवरबहुले, समाहिबहुले, लूहे, तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तबस्सी । तस्स णं णो तह पगारे तवे भवइ, णो तह पगारा - वेयणा भवइ, तहपगारे पुरिसजाए दीहेणं परियाएणं सिज्झइ, बुज्झर, मुम्बइ, परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंत करेइ, जहा--से भरहे रायाचाउरंतचक्कवट्टी, पढमा अंत किरिया । (२) अहावरा दोचा अंतकिरिया, महाकम्मे पच्चायाए यावि भवइ, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, संजमबहुले संवरबहुले जाव हावं दुक्खक्खवे तवस्सी, तस्स णं तहपगारे तवे भवर, तहष्पगारा वेयणा २५ "Aho Shrutgyanam" Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ क्रिया-कोश भव, तहपगारे पुरिसजाए निरुद्वेणं परियाएणं सिज्झर जाव अंत करे, जहा- से गयसूमाले अणगारे, दोच्चा अंतकिरिया । (३) अहावरा तथा अंतकिरिया, महाकम्मे पचायाए यावि भवइ, सेणं मुंडे भवित्ता - अगाराओ अणगारियं पव्व३ए, जहा दोच्चा, नवरं दीहेणं परियाएणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंत करे जहा से सणकुमारे राया चाउरंतच कवट्टी तच्चा अंतकिरिया । (४) अहावरा चउत्था अंतकिरिया - अप्पकम्मपश्चायाए यावि भवइ, से णं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए, संजमबहुले, जाव तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवर, णो तहपगारा वेयणा भवर, तहपगारे पुरिसजाए निरुद्धणं परियाएणं सिज्झर जाव सव्वदुक्खाणमंत करे, जहा - सा मरुदेवा भगवई, चउत्था अंतकिरिया । - ठाण० स्था ४ | उ १ । सू २३५ । पृ० २२२ अन्तक्रिया वास्तव में एक ही है, इससे जीव सर्व दुःखों का अंत करके सिद्धगति को प्राप्त करता है लेकिन साधन सामग्री के भेद से चार प्रकार की कही गई है यथा-(१) तथाविश्व तप नहीं होता है, तथाविध परीषह आदि से उपजती वेदना नहीं होती है परन्तु दीर्घकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है ; (२) तथाविध तप और घोर वेदना होती है। लेकिन अल्पकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है; (३) तथाविध उत्कृष्ट तप और वेदना होती है तथा दीर्घकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है तथा ( ४ ) तथाविध तप और वेदना नहीं होती है और अल्पकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है । ( १ ) कोई जीव पूर्वभव से अल्प कर्म वाला होकर मनुष्यभव में आता है और वहाँ दीक्षा ग्रहण करके, गृहस्थ जीवन को त्यागकर अणगार - साधु हो जाता है । वह संयम और संबर में बहुलता से प्रयत्नवंत है, अधिकाधिक समाधिवंत होता है, राग-स्नेहरहित होता है, संसार सागर को पार करने का इच्छुक होता है, उपधान - श्रुत में सुस्थिर होता है । दुःख के कारण कर्मों का क्षय करता है, तपस्वी होता है । उस जीव के उस प्रकार यथाभगवान् महावीर के समान तप भी नहीं होता है, परीषह - उपसर्गादि की वेदना भी नहीं होती है लेकिन उस प्रकार की पुरुषार्थ वाली दीर्घकाल की दीक्षा पर्याय होती है तथा उससे वह जीव सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण को प्राप्त होता है, सर्व दुःखों का अंत करता है ; यथा-भरत चक्रवर्ती -- यह प्रथम अंतक्रिया है । (२) कोई जीव पूर्वभव से महाकर्म वाला होकर मनुष्यभव में आता है और वहाँ दीक्षा ग्रहण करके, गृहस्थ जीवन को त्याग कर अणगार-साधु हो जाता है । वह संयम और संवर में बहुलता से प्रयत्नवंत है यावत् उपधानश्रुत में सुस्थिर होता है । दुःख के "Aho Shrutgyanam" Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश कारण कर्मों का क्षय करता है, तपस्वी होता है । उस जीव के उस प्रकार यथा-भगवान् महावीर के समान तप होता है, परीषह - उपसर्गादि की वेदना भी होती है । उसके उस प्रकार की पुरुषार्थं वाली लेकिन अल्पकाल की दीक्षा पर्याय होती है तथा उससे वह जीव सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है; यथा श्रीकृष्ण के लघु भाई गजसुकुमाल अणगार- -यह दूसरी अंतक्रिया है । १६५ (३) कोई जीव पूर्वभव से महाकर्म वाला होकर मनुष्यभव में आता है दीक्षा ग्रहण करके, गृहस्थ जीवन को त्याग कर अणगार - साधु हो जाता है । और संबर में बहुलता से प्रयत्नवत है यावत् उपधान - श्रुत में सुस्थिर होता है । दुःख के कारण कर्मों का क्षय करता है, तपस्वी होता है । उस जीव के उस प्रकार यथा--- भगवान महावीर के समान तप होता है, परीषह -- उपसर्गादि की वेदना भी होती है तथा उस प्रकार की पुरुषार्थ वाली दीर्घकाल की दीक्षा पर्याय होती है तथा उससे वह जीव सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अंत करता है; यथा— सनत्कुमार चक्रवर्ती - यह तीसरी अंतक्रिया है । (४) कोई जीव पूर्वभव से अल्पकर्म वाला होकर मनुष्यभव में आता है और वहाँ दीक्षा ग्रहण करके, गृहस्थ जीवन को त्यागकर अणगार - साधु हो जाता है । वह संयम और संत्र में बहुलता से प्रयत्नवंत है यावत् उस जीव के उस प्रकार यथा— भगवान महावीर के समान तप भी नहीं होता है, परीषह-उपसर्गादि की वेदना भी नहीं होती है और उस प्रकार की पुरुषार्थं वाली लेकिन अल्पकाल की दीक्षा पर्याय होती है तथा उससे वह जीव सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अंत करता है; यथा- -भगवती मरुदेवी- यह चतुर्थ अंतक्रिया है । -: और वहाँ वह संयम ७३.३ अन्तक्रिया और जीवदंडक जीवे णं भंते ! अंतिकिरियं करेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगइए नो करेजा । एवं नेरख्ए जाव वैमाणिए । नेरइए णं भंते ! नेरए अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! नो इट्ठे समट्टे । नेरश्या णं भंते! असुरकुमारेसु अंतकिरिय करेज्जा ? गोयमा ! नो इट्ठे समट्ठे । एवं जाव वैमाणिएसु । नवरं मणूसेसु अंतकिरिय करेज्जत्ति पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, थत्थेगइए नो करेज्जा । एवं असुरकुमारा जाव वैमाणिए। एवमेव चरबीसं चउवीसं दंडगा भवंति । "Aho Shrutgyanam" — पण्ण० । पद २० | सू १४०७-६ । पृ० ४५६-६० कोई जीव अंतक्रिया करता है, कोई जीव नहीं करता है इसी प्रकार नारकी से लेकर यावत् वैमानिक देव तक सभी जीवदण्डकों के विषय में जानना । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ क्रिया-कोश नारक जीव नारकभव में अंतक्रिया नहीं करता है। नारक जीव असुरकुमार भव में अंतक्रिया नहीं करता है, इसी प्रकार मनुष्यभव बाद वैमानिक भव तक सभी दंडकों में अंतक्रिया नहीं करता है। नारक जीव मनुष्यभव में आकर कोई एक नारक जीव अंतक्रिया करता है, कोई एक नहीं करता है । नारकी की तरह असुर कुमार से लेकर यावत् वैमानिक तक दंडक के सभी जीव मनुष्यभव बाद अन्य दंडकों में अन्तक्रिया नहीं करते हैं। मनुष्य भव में आकर कोई जीव अन्तक्रिया करता है, कोई नहीं करता है । .७३.४ अनन्तर-परंपर भव में अंतक्रिया और जीवदंडक : नेरइया णं भंते ! किं अगंतरागया अंतकिरियं करेंति, परंपरागया अंतकिरियं करेंति? गोयमा! अणंतरागया वि अंतकिरियं करेंति परंपरागया वि अंतकिरियं करेंति । एवं रयणप्पभापुढवीनेरइया वि जाव पंकप्पभापुढवीनेरइया । धूमप्पभापुढवीनेरइया णं पुच्छा । गोयमा! णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति, एवं जाव अहेसत्तमापुढवीनेरइया । असुरकमारा जाव थणियकुमारा पुढवीआउवणस्सइकाइया य अणंतरागया वि अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया वि अंतकिरियं पकरेंति। तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिंदया णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति। सेसा अणंतरागया वि अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया वि अंतकिरियं पकरेंति । -पण्ण । पद २० । सू १४१०-१३ । पृ० ४६० नारक जीव अनंतरभव में भी अन्तक्रिया करते हैं तथा परम्परभव में भी अन्तक्रिया करते हैं। इसी प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक जीव यावत् पंकप्रभा पृथ्वी के नारक जीव अनन्तरभव में भी अन्तक्रिया करते हैं तथा परंपरभव में भी अन्तक्रिया करते हैं । धूमप्रभा पृथ्वी के नारक जीव अनन्तरभव में अन्तक्रिया नहीं करते है परन्तु परंपरभव में अन्तक्रिया करते है। इसी प्रकार यावत् तमतमा पृथ्वी (सातवीं नारकी) के नारक जीव अनन्तर भव में अन्तक्रिया नहीं करते है लेकिन परम्परभव में अंतक्रिया करते हैं। असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव, पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीव अनंतरभव में भी तथा परंपरभव में भी अन्तक्रिया करते हैं । अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव अनंतरभव में अन्तक्रिया नहीं करते हैं लेकिन परंपरभव में अन्तक्रिया करते हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश १६७ अवशेष जीव अर्थात् तिर्यच पंचेन्द्रिय, मनुष्य वाणव्यंतर ज्योतिषी वैमानिक जीव अनंतरभव में भी तथा परंपरभव में भी अन्तक्रिया करते हैं । ७३५ दंडक के जीव अनंतरभव में कितने एक समय में अंतक्रिया करते हैं अतरागया नेरइया एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एगो वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस । रयणप्पभापुढवीनेरख्या वि एवं चेव, जाव वालुयप्पभापुढवीनेरइया । अनंतरागया णं भंते! पंकप्पभापुढवीनेरड्या एगसमयेणं केवइया अंतकिरियं पकति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा - उक्कोसेणं चत्तारि । अनंतरागया णं भंते! असुरकुमारा एगसमये केवइया अंतfकरियं पकति ? गोथमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस । अनंतरागया णं भंते! असुरकुमारीओ एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ? गोमा ! जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पंच । एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव थणियकुमारा । अनंतरागया णं भंते! पुढवीकाइया एगसमये केवइया अंतकिरियं पकति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं चत्तारि । एवं आउक्काइया वि चत्तारि, वणरसइकाइया छच, पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस, तिरिक्खजोणिणीओ दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओ वीसं, वाणमंतरा दस. वाणमंतरीओ पंच, जोइसिया दस, जोइसिणीओ वीसं, वैमाणिआ अट्टसयं, वेमाणिणीओ वीसं । - पण पद २० । सू १४१४-१६ । पृ० ४६० नारक जीव अनंतर मनुष्यभव में एक अथवा दो अथवा तीन अथवा उत्कृष्ट में दस जीव एक समय में अन्तक्रिया करते हैं । इसी प्रकार रत्नप्रभा - शर्कराप्रभा-बालुकाप्रभा पृथ्वी के नारकी अनन्तर मनुष्यभव में एक से लेकर दस तक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं। पंकप्रभा पृथ्वी के नारकी अनन्तर मनुष्यभव में एक से लेकर चार तक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं । असुरकुमार देव अनंतर मनुष्यभव में एक से लेकर दस तक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं । असुरकुमार देवियाँ अनंतर मनुध्यभव में एक से लेकर पाँच तक एक समय में अन्तक्रिया करती है। असुरकुमार देवों की तरह स्तनितकुमार देवों तक जानना । असुरकुमार देवियों की तरह स्तनितकुमार देवियों तक जानना । पृथ्वीकायिक जीव अनंतर मनुष्यभव में एक से लेकर चार तक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं । अप्कायिक जीव भी अनंतर मनुष्यभव में एक से लेकर चार तक " Aho Shrutgyanam" Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ क्रिया - कोश एक समय में अन्तक्रिया करते हैं । वनस्पतिकायिक जीव अनंतर मनुष्यभव में एक से छ: तक, पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव अनंतर मनुष्यभव में एक से दस तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक स्त्री जीव अनन्तर मनुष्यभव में एक से दस तक, मनुष्य अनंतर मनुष्यभव में एक से दस तक मनुष्यणी अनंतर मनुष्यभव में एक से बीस तक, वाणव्यंतर देव अनंतर मनुष्यभव में एक से दस तक, वाणव्यंतर देवियाँ अनंतर मनुष्यभव में एक से पाँच तक, ज्योतिषी देव अनंतर मनुष्यभव में एक से दस तक, ज्योतिषी देवियाँ अनंतर मनुष्यभव में एक से बीस तक, वैमानिक देव अनंतर मनुष्य भव में एक से एक सौ आठ तक तथा वैमानिक देवियाँ अनंतर मनुष्यभव में एक से बीस तक एक समय में अंतक्रिया करते हैं । टोका 'अनंतरागया णं भंते! इत्यादि, नैरयिकभवादनन्तरं - अव्यवधानेन मनुष्य भवभागता अनन्तरागताः । ----- ७३.६ एक भव से अनंतरभव में अंतक्रिया : '७३'६'१ नारकभव से अनंतर मनुष्यभव में अंतक्रिया : -- नेरइए णं भंते! नेरह हिंतो अनंतर उव्वट्टित्ता मणुस्सेसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा । जे गं भंते ! उववज्जेज्जा सेणं केवलिन्नन्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! जहा पंचिदियतिरिक्ख जोणिएसु जाव (अत्थेगइए लभेज्जा ! अत्थेगइए णो लभेज्जा । जेणं भंते! केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए से णं केवलं (लिं) बोहिं बुज्झेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए बुज्भेजा, अत्थेगइए णो बुज्भेज्जा । जे णं भंते! केवलं बोहिं बुज्भेज्जा से णं सहेज्जा पत्तिएआ रोएज्जा ? गोयमा ! सदहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा । जे णं भंते । सद्दहेज्जा पतिएज्जा एज्जा से णं आभिणिबोहियनाणसुयनाणाई उप्पाडेज्जा ? हंता, गोयमा ! उपाडेज्जा । जेणं भंते! आभिणिबोहियनाणसुयनाणाई' उपाडेज्जा से णं संचाएज्जा सीलं वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा पच्चक्खाणं वा पोसहोववासं वा पडिवज्जित्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा. अत्येगइए णो संचाएज्जा | जे णं भंते! संचाएज्जा सीलं वा जाव पोसहोववासं वा पडिवज्जित्तर से णं ओहिनाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा अत्थेगइए गोउप्पाडेज्जा । ) जेणं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए १ गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अत्थेगइए णो संचाएज्जा । जे णं भंते ! संचाएज्जा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्व३त्तए से णं मणपज्जवनाणं उत्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेiइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो 1 "Aho Shrutgyanam" Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश . १६६ उत्पाडेज्जा । जे णं भंते ! मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा से णं केवलनाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो उप्पाडेज्जा । जे णं भंते ! केवलनाणं उप्पाडेज्जा से णं सिझज्जा बुझेज्जा मुच्चेज्जा सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ? गोयमा ! सिज्झज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा। --पण्ण० प २०। सू १४२१ । पृ० ४६१ संक्षिप्त अर्थः -- नारकभव से अनंतर मनुष्यभव में कोई एक नारकी जीव उत्पन्न होता है, कोई एक उत्पन्न नहीं होता है । जो मनुष्यभव में उत्पन्न होता है उसमें-यावत कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है, कोई एक नहीं प्राप्त करता है। जो केवलज्ञान प्राप्त करता है वह सिद्ध बुद्ध-मुक्त होता है—निर्वाण को प्राप्त होता है तथा सर्व दुःखों को अंत करने वाली अंतक्रिया करता है । •७३.६२ भवनपति देव से अनंतर मनुष्यभव में अंतक्रिया :-- ___असुरकुमारेणं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतर उव्वट्टित्ता xxx अवसेसेसु पंचसु पंचिंदियतिरिक्खजोणियाइसु असुरकुमारे (सु) जहा नेरइए (ओ); एवं जाव थणियकुमारा। –पण्ण० प २० । सू १४२६ । पृ० ४६१-६२ जिस प्रकार नारकभव से अनंतर मनुष्यभव में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है..-निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वाली अन्तक्रिया करता है उसी प्रकार असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देवभव से अनंतर मनुष्यभव में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वाली अन्तक्रिया करता है ।। .७ ३.६.३ पृथ्वीकाय-अपकाय-वनस्पतिकाय से अनंतर मनुष्यभव में अन्तक्रिया :--- पुढविकाइए णं भंते ! पुढवीक्काइएहिंतो अर्णतरं उध्वट्टित्ता xxx पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु जहा नेरइए । xxx। एवं जहा पुढविक्काइओ भणिओ तहेव आउक्काइओ वि जाव वणस्सइकाइओ वि भाणियव्वो। -पण्ण० प २० ! सू १४२७-२६ । पृ० ४६२ जिस प्रकार नारकभव से अनन्तर मनुष्य भव में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा सिद्ध बुद्ध-मुक्त होता है, निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःख को अंत करने वाली अंतक्रिया करता है उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव से अनंतर मनुष्य भव में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा सिद्धबुद्ध-मुक्त होता है निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वाली अन्तक्रिया करता है। "Aho Shrutgyanam" Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० क्रिया-कोश पृथ्वीकायिक जीव की तरह अप्कायिक जीव से अनन्तर मनुष्य भव में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा वह सिद्ध बुद्ध-मुक्त होता है—निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वाली अन्तकिया करता है। पृथ्वीकाथिक जीव की तरह वनस्पतिकायिक जीव से अनन्तर मनुष्य में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है --- निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वाली अन्तक्रिया करता है । ७३.६४ अग्निकाय से अनंतर मनुष्यभव में अंतक्रिया तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतर उव्वट्टित्ता xxx। मणूसवाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु-पुच्छा । गोयमा ! णो इण? समठे। –पण्ण० प २० ! सू १४३२-३३ ! पृ० ४६२ अग्निकाय से अनन्तर मनुष्यभव में कोई जीव उत्पन्न नहीं होता है अतः अग्निकाय से अनन्तरभव में उत्पन्न होकर कोई भी जीव अन्तक्रिया नहीं कर सकता है। '७३.६.५ वायुकाय से अनंतर मनुष्यभव में अन्तक्रिया :एवं जहेव तेउक्काइए निरंतरं एवं बाउकाइए ति । __ -पण्ण प २० । सू १४३४ । पृ० ४६२ अग्निकायिक जीव की तरह वायुकाय से अनम्तर मनुष्यभव में कोई जीव उत्पन्न नहीं होता है अतः वायुकाय से अनन्तरभव में उत्पन्न होकर कोई जीव अन्तक्रिया नहीं कर सकता है। •७३.६६ द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय से अनंतर मनुष्यभव में अन्तक्रिया : बेइदिए णं भंते ! बेईदिएहितो अणंतरं उब्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहा पुढविक्काइए नवरं मणूसेसु जाव मणपज्नवनाणं उप्पाडेज्जा । एवं तेई दिया चउरिदिया वि जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा। जेणं मणपज्जवनाणं उत्पाडेज्जा से णं केवलनाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! नो इण? सम?। –पण्ण ० २० ! सू १४३५.६६ । पृ० ४६२ द्वीन्द्रिय जीव से अनन्तर मनुष्यभव से कोई जीव उत्पन्न होता है लेकिन केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है अतः वह अनन्तर मनुष्यभव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होता हैनिर्वाण को प्राप्त नहीं होता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वालो अन्तक्रिया नहीं करता है। __ द्वीन्द्रिय जीव की तरह त्रीन्द्रिय जीव से अनन्तर मनुष्यभव से कोई जीव उत्पन्न होता है लेकिन केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है अतः वह अनन्तर मनुष्य भव में सिद्ध-बुद्ध "Aho Shrutgyanam" Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २०१ मुक्त नहीं होता है, निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वाली अन्तक्रिया नहीं करता है । द्वीन्द्रिय जीव की तरह चतुरिन्द्रय जीव से अनन्तर मनुष्यभव से कोई जीव उत्पन्न होता है लेकिन केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है अतः वह अनन्तर मनुष्यभव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होता है, निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है तथा सर्व दुःखों को अन्त करने वाली अन्तकिया नहीं करता है । -७३६ ७ तियंच पंचेन्द्रिय भव से अनंतर मनुष्यभव में अन्तक्रिया : पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो अनंतरं उट्टित्ता xxx | पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु मणूसेसु य जहा नेरइए । - पण्ण० प २० / सू १४३७-४० | पृ० ४६२-६३ जिस प्रकार नारकभव से अनन्तर मनुष्य भव में उत्पन्न होकर कोई जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है, निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्वदुःखों को अन्त करनेवाली अन्तक्रिया करता है उसी प्रकार तिर्येच पंचेन्द्रियभव से अनन्तर मनुष्यभव में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है - निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्वदुःखों को अन्त करने वाली अन्तक्रिया करता है । -७३६८ मनुष्यभव से अनंतर मनुष्यभब में अन्तक्रिया : एवं मणूसेवि । -पण्ण० प २० । सू १४४२ | पृ० ४६३ तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव की तरह मनुष्यभव से अनन्तर मनुष्य भव में उत्पन्न होकर कोई एक जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है -- निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्वदुःखों को अन्त करने वाली अन्तक्रिया करता है । *७३'६'६ वाणव्यंतर-ज्योतिषी वैमानिक देव से अनंतर मनुष्यभव में अन्तक्रिया वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिए (सु) जहा असुरकुमारे । - पण्ण० प २० / सू १४४३ | पृ० ४६३ जिस प्रकार असुरकुमार से अनन्तर मनुष्य भव में उत्पन्न होकर कोई जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है तथा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है, निर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्वदुःखों को अन्त करनेवाली अन्तक्रिया करता है उसी प्रकार वाणव्यंतर - ज्योतिष वैमानिक देवभव से अनन्तर मनुष्य भव में उत्पन्न होकर कोई एक जोव केवल ज्ञान प्राप्त करता है तथा सिद्ध २६ " Aho Shrutgyanam" Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ क्रिया-कौश बुद्ध-मुक्त होता है— निर्वाण को प्राप्त करता है और सर्व दुःखों को अन्त करनेवाली अन्तक्रिया करता है । -७३७ सलेशी पृथ्वी - अपू-वनस्पतिकायिक जीव और अनन्तर भव में अन्तक्रिया - से नूणं भंते! काउलेस्से पुढविकाइए काउलेत्सेहितो पुढविकाइएहिंतो अनंतरं ट्टा माणुस विग्ग लभइ माणुस्सं विग्गहं लभइत्ता केवलं बोहिं बुज्झइ केवलं बोहिं बुज्झत्ता तओ पच्छा सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? हंता, मागंदियपुत्ता ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेइ | से नूणं भंते! काउलेस्से आउकाइए काउलेस्सेहिंतो आउकाइपहिंतो अनंतरं उवत्ता माणुस्सं विग्गह लभइ माणुस्सं विग्ग लभइत्ता केवलं बोहिं बुज्झइ, जाव करे ? हंता, मागंदियपुत्ता ! जाव अंतं करेइ । से नूर्ण भंते! काउलेस्से वणस्सइकाइए एवं चेव जाव अंतं करेइ । xxx एवं खलु अज्जो ! कण्हलेस्से पुढविकाइए कण्हलेरसेहिंतो पुढविकाइएहिंतो जाव अंत करेइ एवं खलु अज्जो ! नीललेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेइ, एवं काउलेस्से वि, जहा पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सइकाइए वि सञ्चणं एसमट्ठे - भग० श १८ । ३ । प्र १ से ३ । पृ० ७६६-६७ कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीव कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीव से मरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य के शरीर को प्राप्त करता है, मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है तथा केवलबोधि को प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है । कापोतलेशी अपकायिक जीव कापोतलेशी अपकायिक योनि से मरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य के शरीर को प्राप्त करता है, मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान की प्राप्त करता है तथा केवलज्ञान को प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है यावत सर्व दुःखों का अन्त करता है । कापोतलेशी वनस्पतिकायिक जीव कापोतलेशी वनस्पतिकायिक योनि से भरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है; मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है तथा केवलज्ञान को प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । आर्यों के पूछने पर भगवान महावीर ने भी ( अहंपिणं अजो ! एवमाइक्खामि ) माकंदीपुत्र के उपर्युक्त कथन का समर्थन किया है । "Aho Shrutgyanam" Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २०३ कृष्णलेशी पृथ्वीका यिक जीव कृष्णलेशी पृथ्वीकायिक जीव से, कृष्णलेशी अपकायिक जीव कृष्णलेशी अप्कायिक जीव से तथा कृष्णलेशी वनस्पतिकायिक जीव कृष्णलेशी वनस्पतिकायिक जीव से मरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य के शरीर को प्राप्त करता है, मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है तथा केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है, यावत सर्व दुःखों का अन्त करता है । नीललेशी पृथ्वीकायिक जीव नीललेशी पृथ्वीकायिक योनि से, नीललेशी अपकाविक जीव नीललेशी अपकायिक योनि से तथा नीललेशी वनस्पतिकायिक जीव नीललेशी वनस्पतिकायिक योनि से मरण को प्राप्त होकर तदनन्तर मनुष्य के शरीर को प्राप्त करता है; मनुष्य के शरीर को प्राप्त करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है तथा केवलज्ञान को प्राप्त करने के बाद सिद्ध होता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । ७३८ कहाँ से अनंतर मनुष्यभव में आकर जीव तीर्थ करत्व पाकर अन्तक्रिया करता है : रणभापुढविनेरइए णं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा से केणटुणं भंते ! एवं वुश्चइ – अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा ? गोयमा ! जस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थयर नामगोयाई कम्माई बद्धाई पुट्ठाई (निधत्ताई ) कडाइ पट्टविया निविट्ठाई अभिनिविट्ठाइ अभिसमन्नागयाई उदिन्नाई, णो उवसंताईं भ (ह) वंति से गं रयणष्पभापुढविनेरइए रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरतं लभेज्जा, जस्स णं रयणप्पभापुढ विनेरइयस्स तित्थयरनामगोयाइँ जो बद्धा जाव णो उदिन्नाई उवसंताई भ (ह) वंति से णं रयणप्पभापुढविनेरइए रणभापुढ विनेरइएहिंतो अनंतरं उब्वट्टित्ता तित्थयरत्त णो लभेज्जा, से तेणणं गोयमा ! एवं वुच्चइ – 'अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा' । एवं ( सक्करपभा० ) जाव वालुयप्पभापुढविने रइएहिंतो तित्थयरत्त लभेज्जा | पंकप्पभाढविनर णं भंते! पंकप्पभानेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थयरतं लभेज्जा ! गोयमा ! णो णट्ठे समट्ठ, अंतकिरियं पुण करेज्जा । xxx । असुरकुमारे पं० ( कुमारा णं ) पुच्छा । गोयमा ! णो इट्ठे समट्ठ, अंतकिरियं पुण करेज्जा । एवं निरंतरं जाव आउकाइए । xxx | वणफ ( स ) इकाइए नं० पुच्छा ! ( तित्थयरत लभेज्जा ) ! गोयमा ! णो इट्टे समट्ठे, अतकिरियं पुण करेज्जा | xxx | पंचिंदियतिरिक्खजोणिय - मणूस वाणमंतर जोइसिए गं० पुच्छा । (तित्थयरत लभेज्जा ? ) गोमा ! णो ण समट्ठ, अतकिरियं पुण करेज्जा | सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणं "Aho Shrutgyanam" Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ क्रिया - कोश तरं च ( चयं० च ) चत्ता तित्थयरत्त लभेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा, एवं जहा रयणप्पभापुढ विनेरइए, एवं जाव सव्वट्टसिद्धगदेवे | - पण० प २० सू० १४४४-१४४६, १४५०, ५१,५४, ५६-५८ । पृ० ४६३-६४ रत्नप्रभा पृथ्वी से अनन्तर मनुष्यभव में कोई नारक जीव तीर्थंकर पद प्राप्त करता है, कोई एक नहीं करता है। जिसने तीर्थंकर नाम - गोत्र - कर्म का बन्ध किया है, निधत्त किया है, कृत- निकाचित किया है, प्रस्थापित किया है, निविष्ट किया है, अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत किया है, उदयाभिमुख किया है परन्तु उपशान्त नहीं किया है। वह तीर्थंकरत्व पद प्राप्त करता है तथा जिसने तीर्थंकर नाम - गोत्र-कर्म का बन्ध नहीं किया है यावत् उदय में लाया नहीं है लेकिन उपशान्त किया है वह तीर्थंकरत्व को प्राप्त नहीं करता है । इसी प्रकार शर्कराप्रभा -- बालुकाप्रभा पृथ्वी का कोई एक नारकी अनन्तर मनुष्यभव में तीर्थ करत्व को प्राप्त करता है, कोई एक नहीं करता है । नारको तीर्थ करत्व को धूमप्रभा पृथ्वी से अनन्तर करता है, अन्तक्रिया भी पंकप्रभा पृथ्वी से अनन्तर मनुष्यभव में आकर कोई भी प्राप्त नहीं करता है लेकिन कोई एक जीव अन्तक्रिया करता है । मनुष्यभव में आकर कोई भी नारकी तीर्थंकरत्व को प्राप्त नहीं नहीं करता है लेकिन कोई एक जीव सर्व विरति प्राप्त करता । तमप्रभा - पृथ्वी से अनन्तर मनुष्यभव में कोई भी नारकी तीथकरत्व को प्राप्त नहीं करता है, अन्तक्रिया भी नहीं करता है लेकिन कोई जीव देश विरति प्राप्त करता है । तमतमाप्रभा - पृथ्वी से कोई भी नारकी अनन्तर भव में तीर्थ करत्व को प्राप्त नहीं करता है, अन्तक्रिया भी नहीं करता है लेकिन कोई एक जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । असुरकुमार देव से अनन्तर मनुष्यभव पाकर कोई भी जीव तीर्थंकरत्व को प्राप्त नहीं करता है लेकिन कोई एक जीव अन्तक्रिया करता है । इसी प्रकार नागकुमार से यावत् अपकाय तक ऐसे ही जानना । अग्निकाय - वायुकाय से अनन्तर भव में कोई भी जीव तीर्थ करत्व को प्राप्त नहीं करता है तथा अन्तक्रिया भी नहीं करता है लेकिन कोई एक जीव केवली प्ररूपित धर्म का श्रवण करता है । वनस्पतिकाय से अनन्तर मनुष्यभव पाकर कोई भी जीव तीर्थंकरत्व को प्राप्त नहीं करता है लेकिन कोई एक जीव अन्तक्रिया करता है । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय से अनन्तर मनुष्यभव पाकर कोई भी जीव तीर्थकरत्व को प्राप्त नहीं करता है, अन्तक्रिया भी नहीं करता है लेकिन कोई एक जीव मनःपर्यवज्ञान प्राप्त करता है । "Aho Shrutgyanam" Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २०५ तिर्यच पंचेन्द्रिय-मनुष्य वाणव्यंतर-ज्योतिषी से अनन्तर मनुष्यभव पाकर कोई भी जीव तीर्थ करत्व को प्राप्त नहीं करता है, लेकिन कोई एक जीव अन्त क्रिया करता है । सौधर्मदेव से सर्वार्थ सिद्धि तक के वैमानिक देव से अनन्तर मनुष्य भव पाकर कोई एक जीव तीर्थ करत्व को प्राप्त करता है, कोई एक नहीं प्राप्त करता है--- जैसा रत्नप्रभा पृथ्वी के नारको के विषय में कहा---वैसा ही सब जानना । टीका--( तित्थगरनामगोयाई) 'बद्धानि' सूचीकलाप इव सूत्रेण प्रथमतो बद्धमात्राणि, तदनन्तरमग्निसंपर्कानन्तरं सकृत् धनकुट्टितसूचीकलापवत् स्पृष्टानि "निधत्तानि' उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीति भावार्थः कृतानि निकाचितानि सकलकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः 'प्रस्थापितानि' मनुष्यगतिपंचेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशःकीनामसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीति भावः 'निविष्टानि' तीव्रानुभावजनकतया स्थितानि 'अभिनिविष्टानि' विशिष्टविशिष्टतराध्यवसायभावतोऽतितीव्रानुभावजनकतया व्यवस्थितानि 'अभिसमन्वागतानि' उदयाभिमुखीभूतानि 'उदीर्णानि' विपाकोदयमागतानि 'नोपशान्तानि' न सर्वथाऽभावमापन्नानि निकाचिताद्यवस्थोद्रे करहितानि वा न भवन्ति । जिसने तीर्थ'कर नाम-गोत्र-कर्म का-(बद्धानि) धागे से जुड़े हुए सुई के समुदायकी तरह प्रारंभिक बन्ध किया है, (स्पृष्टानि) स्पृष्ट-अग्नि में तपाकर, धन से कुटे हुए सुई के समूह की तरह परस्पर में स्पर्श किया है, (निधत्तानि ) निधत्त - उद्वर्तना और अपवर्तना को छोड़कर अवशेष करणों के अयोग्य किया है, (कृतानि) निकाचित--सब करण के अयोग्य किया है, (प्रस्थापितानि) प्रस्थापित-मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति; त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय तथा यशःकीर्तिनाम कर्मों के साथ में उदय रूप में व्यवस्थित किया है, (निविष्टानि ) निविष्ट-तीवरस का उत्पादक बनाया है, तीवरस का प्रदायक बनाया है, (अभिनिविष्टानि ) अभिनिविष्ट---विशिष्ट-विशिष्टतर अध्यवसाय होने से अति तीव्ररस का उत्पादक बनाया है, अति तीव्ररस का प्रदायक बनाया है, (अभिसमन्वागतानि) अभिसमन्वागत-उदयाभिमुख किया है, (उदीर्णानि) उदीर्ण-विपाकोदयरूप में उदय में लाया है, (नोपशान्तानि) नोउपशान्त--तीर्थकर नाम-गोत्र-कर्म को उपशान्त नहीं किया है अर्थात निकाचितादि अवस्था के बाहुल्य से रहित नहीं किया है---वह जीव तीर्थ करत्व को प्राप्त करता है। "Aho Shrutgyanam" Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २०६ ७३९ कौन जीव अन्तक्रिया करते हैं- ७३६१ दया-धर्म की प्ररूपणा करने वाले जीव : तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्वंति जाव परूवेंति - सव्वे पाणा (सव्वे भूया सव्वे जीवा ) सब्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिधेयव्वा ण उद्दवेयव्वा । ते णो आगंतुच्छेयाए ते णो आगंतुभेयाए जाव जाइ-जरा-मरण- जोणिजम्मण - संसार - पुणम्भव- गन्भवास-भवपर्वच - कलंकलीभागिणो भविस्संति । [ ते णो बहूणं दंडणाणं जाव णो बहूणं मुंडणाणं जाव बहूणं दुक्ख दोम्मणरसाणं णो भागिणो भविस्संति । ] अणाई च णं अणवयगं दीहमद्ध चाउरंत संसार- कंतारभुज्जो भुज्जो णो अणुपरियट्टिस्संति, ते सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिहसति । - सूय श्रु २ । अ २ । सू २६ / पृ० १५६ वे श्रमण-ब्राह्मण जो ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सर्व प्राण-भूत-जीवसवों का हनन नहीं करना चाहिए, दण्ड नहीं देना चाहिए, दासवृत्ति नहीं करानी चाहिए, यावत् उद्योग नहीं पहुँचाना चाहिए। भविष्यत् काल में वे सब जीव छेदनभेदन को प्राप्त नहीं होंगे यावत् जाति-जरा-मरण-योनि-जन्म-संसार में बार-बार जन्म लेकर गर्भ में आकर भव-प्रपंच में महान पोड़ा नहीं पायेंगे ! वे बहुत कष्ट मण्डन- तर्जन यावत दौर्मनस्य के भागी नहीं होंगे ! वे इस अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसार रूपी अटवी में दीर्घकाल पर्यन्त बार-बार परिभ्रमण नहीं करेंगे । ऐसा दयाधर्म प्रतिपादित करने वाले श्रमण-ब्राह्मण सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे अर्थात् अन्तक्रिया करेंगे । -७३६०२ निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव अन्तक्रिया करता है : (क) इणमेव गिंथे पावयणे सच्चे, अणुत्तरे, केवलए, संसुद्ध, पडिपुणे, याउ, सल्लत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे, णिव्वाणमग्गे, णिज्जाणमगे, अवितहमविसंधि, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, इहट्टिया जीवा सिज्यंति, बुज्झति, मुख ंति, परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । - ओवल । सू० ३४ । पृ० २२ (ख) इणमेव णिग्गंथं पावयणं सचं अणुत्तरं, केवलियं, पडिपुण्णं, संसुद्ध, नेयाज्यं, सल्लकत्तणं, सिद्धिमग्गं, मुत्तिमग्गं, निज्जाणमगं, निव्वाणमग्गं, अवितहमविसं(दिद्ध' )धि, सव्वदुक्खपहीणममां । एत्थं ठिया जीवा सिज्यंति, बुज्भंति, मुच्वंति, परिनिव्वाति, सव्वदुक्खाणमंत करेंति । - आव० अ ४ सू ७ पृ० ११६६ सूय ० २ । अ ७ । सू ११ । पृ० १७७ " Aho Shrutgyanam" Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कौश यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, केवल-अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण है, संशुद्ध--- निर्दोष है, नैयायिक-न्याय से सिद्ध-प्रमाण से अबाधित है, मायाकर्तन-मायादिशल्य का निवारक है, सिद्धिमार्ग है, मुक्तिमार्ग है, निर्वाणमार्ग है, निर्याणमार्ग-पुनरागमन से रहित है, अवितथ-वास्तविक है, अविसन्धि–विच्छेद रहित है, सर्वदुःखप्रहीण- सकल दुःखों का निःशेष करने वाला मार्ग है। __ ऐसे प्रवचन में स्थित जोव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं तथा सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । '७३ ६ ३ संवृत अनगार अंतक्रिया करता है :-- संबुडे णं भंते ! अणगारे सिज्झा (बुज्झइ, मुञ्चइ, परिनिव्वाइ) जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ? हंता ! सिज्झइ, जाव अंतं करेइ । से केण?णं भंते ? गोयमा ! संवुडे अणगारे आउयवजाओ सत्तकम्मपगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिश्याओ हस्सकालट्ठिश्याओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएसगाओ अप्पएसगाओ पकरेछ, आउयं च णं कम्मं ण बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं णो भुजो भुज्जो उवचिणाइ, अगाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं वीईवयइ । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-संवुडे अणगारे सिज्झइ जाव अंतं करेइ । --भग० श १ । उ १ । प्र ५८-५६ । पृ० ३८६-६० संवृत्त अणगार सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है क्योंकि संवृत्त अणगार आयुकर्म को छोड़ कर गाँठ रूप से बँधी हुई सात कर्म-प्रकृतियों को शिथिल रूप से बन्धन करता है ; दीर्घकालीन स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को अल्पकालीन स्थिति वाली करता है ; तीव्रानुभाव वाली को मंदानुभाव वाली करता है ; बहु प्रदेशवाली को अल्प प्रदेशवाली करता है ; आयुकर्म को नहीं बाँधता है ; असातावेदनीय कर्म को बार-बार उपचय नहीं करता है ; अनादि--अनंत दीर्घमार्ग वाले चार गति रूप संसार-अटवी को उल्लंघ जाता है, इस कारण से ऐसा कहा गया है कि संवृत्त अणगार सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । ७३.६४ एजनादि क्रिया नहीं करने वाला जीव अन्तक्रिया करता है : जीवे णं भंते ! सया समियं नो एयइ-जाव-नो तं तं भावं परिणमइ ? हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णे सया समियं-जाव-नो परिणमइ । "Aho Shrutgyanam" Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ क्रिया-कोश जाव च णं भंते ! से जीवे नो एयइ-जाव-नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ ? हंता, जाव-भवइ ।। से केण?ण-जाव-भवइ ? मंडियपुत्ता ! ( मंडिआ ! ) जावं च णं से जीवे सया समियं नो एयइ-जाव - नो परिणमइ, तावं च णं से जीवे नो आरंभइ, नो सारंभइ, नो समारंभइ ; नो आरंभे वट्टइ, नो सारंभे वट्टइ, नो समारंभे वट्टा ; अणारंभमाणे, असारंभमाणे, असमारंभमाणे; आरंभे अवट्टमाणे, सारंभे अवट्टमाणे, समारंभे अवट्टमाणे बहूणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, सत्ताणं अदुक्खवणयाएजाव - अपरियावणयाए वट्टइ। xxx से तेण?णं मंडियपुत्ता ! एवं वुश्चइ-जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयइ, जाव-अंते अंतकिरिया भवइ । -भग० श ३ ! उ ३ । प्र १३-१५ | पृ० ४५७ जो जीव सदा समपूर्वक कम्पन नहीं करता है यावत उन-उन भावों में परिणमन नहीं करता है वह जीव अन्तक्रिया करता है क्योंकि जो जीव एजनादि क्रिया नहीं करता है, उन-उन भावों में परिणमन नहीं करता है वह आरम्भ-सारंभ-समारम्भ नहीं करता है, आरम्भसारम्भ-समारम्भ में नहीं वर्तता है, आरम्भमान-सारम्भमान-समारम्भमान नहीं है, आरम्भसारम्भ-समारम्भ में वर्तमान नहीं है वह जीव बहुत प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों को दुःख-शोक आदि नहीं पहुँचाता है अतः उस कम्पनरहित जीव को अन्त समय में अन्तक्रिया होती है । •७३.६५ अक्रिय जीव उसी भव में अन्तक्रिया करता है: जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणणं सिझति-जाव--(बुज्झति, मुच्चंति, परिणिवायंति सव्वदुक्खाणं ) अंतं करेंति ? हंता, (गोयमा !) सिझति जाव अंतं करेंति। . ___ ---भग० श ४१ । उ १1 प्र १८ । पृ० ६३५ जो जीव अक्रिय हो जाता है वह उसी भव में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त करता है और सर्व दुःखों का अन्त करता है । ७३.६.६ तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव अन्तक्रिया करता है : एयंसि चेव तेरसमे किरियाट्ठाणे वट्टमाणा जीवा सिझिसु बुझिसु मुच्चिसु परिणिन्वाइंसु जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करंति वा करिस्संति वा। -सूय० श्रु २ । अ २ । सू २७ । पृ० १५६ तेरहवें क्रियास्थान (ऐयोपथिक क्रियास्थान) में वर्तता हुआ जीव अतीत काल में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त किया है तथा सर्व दुःखों का अन्त किया है, वर्तमान काल में सर्व दुःखों का अंत करते हैं तथा भविष्यत् काल में सर्व दुःखों का अंत करेंगे। "Aho Shrutgyanam" Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २०8 ७३.६७ केवली अंतक्रिया करते हैं : केवली णं भंते ! मणूसे अतीतं, अणंत, सासयं समयं जाव-अंतं करेंसु ? हंता, सिभिंसु, जाव-अंतं करेंसु, एते तिन्नि आलावगा भाणियव्वा छउमत्थस्स जहा, नवरं-सिस्मिंसु, सिझति, सिज्झिस्संति । । से णूप्यं भंते ! अतीतं, अणंत, सासयं समयं पडुप्पण्णं वा सासयं समयं ; अणागयं अणंतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा वा, अंतिमसरीरिया वा, सव्वदुक्खाणं अंत करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा ; सव्वे ते उत्पन्नणाणदंसणधरा, अरहा, जिणा (णे), केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिझंति, जाव-तं करिस्संति वा? हंता, गोयमा ! अतीतं, अणंतं, सासयं जाव - अंतं करिस्संति वा । __ -भग० श १ । उ ४ । प्र १६१-६२ । पृ० ३६८ बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में केवली मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुआ है यावत् सर्व दुःखों का अन्त किया है ; वर्तमानकाल में करते हैं तथा भविष्यत् काल में करेंगे। बोते हुए अनन्त शाश्वत काल में, वर्तमान शाश्वत काल में तथा अनंत शाश्वत भविष्यत् काल में अंतकरों ने, चरम शरीर वालों ने सर्व दुःखों का अन्त किया है, करते हैं तथा करेंगे। वे सब उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अरिहंत, जिन, केवली होकर फिर सिद्धबुद्ध मुक्त हुए हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। - -- - - ७३.१० केवली जीव अंतक्रिया कैसे करते हैं : [सयोगी केवली आवश्यकतानुसार समुद्घात करके या बिना किये ही अंतक्रिया की शेष पर्याय मनोयोग के निरोध से प्रारंभ करते हैं । ] (क) अहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्तद्धावसेसाए जोगनिरोहं करेमाणे सहुमकिरियं अप्पडिवाईसुक्कझाणं झायमाणे तप्पढमयाए 'मणजोगं निरु भइ, मणजोगं निरुभित्ता वयजोगं निरंभइ, क्यजोगं निरुभित्ता ( कायजोगं निरु भइ, कायजोगं निलंभित्ता) आणपाणनिरोहं करेइ, आणपाणनिरोहं करित्ता, ईसिपंचहस्सक्खरुचारणद्वाए य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुक्कझाणं झियायमाणे वेयणिज आउयं नाम गोत्तं चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेछ । तओ ओरालिय (तेय) कम्माइ च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विष्पज़हित्ता उज्जुसेढिपत्त अफुसमाणगई उर्ल्ड एगसमएणं अविम्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्त सिज्झइ, बुज्झइ, मुञ्चइ, परिनिव्वाएन, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ । उत्त० अ २६ । सू ७३-७४ | पृ० १०३६ २७ "Aho Shrutgyanam" Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश केवलज्ञान प्राप्ति के अनन्तर केवली जीव अपने अवशिष्ट आयुकर्म को भोगती हुआ जब अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण आयु शेष रह जाती है तब योगों का निरोध करते हुए सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाती शुक्लध्यान ध्याते हुए पहले मनोयोग का निरोध करते हैं, मनोयोग का निरोध करके वनयोग का निरोध करते हैं, वचनयोग का निरोध करके काययोग का निरोध करते है, काययोग का निरोध करके श्वासोच्छवास का निरोध करते हैं । इसके बाद पाँच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण करने में जितना समय लगे उतने समय में केवली अणगार समुच्छिन्न अक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यान को ध्याते हुए वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र-इन चार कर्मों को एक साथ क्षय कर देते हैं । फिर औदारिक, तेजस तथा कार्मण शरीर को सर्वथा त्यागकर ऋजुश्रेणी को प्राप्त होता है और अस्पृष्ट ( अव्याहत ) अविग्रह, एक समय ऊर्ध्वगति से साकारोपयोग सहित सिद्धस्थान पाकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है यावत सर्व दुःखों का अन्त करता है । (ख) से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचिंदियपजत्तयस्स जहण्णजोगिस्स (जोगस्स) हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं निरंभइ, तओ (तदा) अणंतरं च णं बेइ दियपज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखिज्जगुणपरिहीणं दोच्च (बिइय) वइजोगं निरु भइ, तओ अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तयस्स जहजोगिस्स हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं तञ्च (तईयं) कायजोगं निरु भइ, से गं एएणं उवाएणं - पढम मणजोगं निरंभइ, मणजोगं निलंभित्ता वङ्जोगं निरंभइ, वइजोगं निरु भित्ता कायजोगं निरंभइ, कायजोगं निरु भित्ता जोगनिरोहं करेइ, जोगनिरोहं करेत्ता अजोगयं (तं) पाउणइ, अजोगयं पाउणित्ता ईसीहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुव्वरड्यगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेजाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे कम्मखंधे (अणंते कम्मंसे) खवयइ, खवइत्ता वेयणिजऽऽउणामगोत्ते इचए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ, जुगवं खवेत्ता ओरालियतेयाकम्मगाई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विष्पजहइ, विप्पजहित्ता उजु (ज्जु) सेढीपडिवण्णे (णो) ( उज्जुसेढीपरिवणे) अफुसमाणगईए ( अफुसमाणगई ) एगसमएणं अविगहेणं उड्डू गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ०। (जाव अंतं करेइ) ( तत्थ सिद्धो भवइ ।) -पण्ण० प ३६ ! सू २१७५ । पृ०.५३३ -उव० सू४३ ! पृ० ३७ समुद्घात समाप्त करके आसनादि वापस देने के बाद सयोगी केवली-पहले जघन्य योग वाले पर्याप्तसंज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोयोग से नीचे असंख्यात गुणहीन मनोयोग का निरोध करता है ; इसके बाद अविलम्ब-दूसरे जघन्य योग वाले पर्याप्त द्वीन्द्रिय के वचन "Aho Shrutgyanam" Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश योग से नीचे असंख्यातगुणहीन वचनयोग का निरोध करता है, इसके बाद अविलम्ब तीसरे-जघन्य योग वाले अपर्याप्त पनकजीव के काययोग से नीचे असंख्यातगुणहीन काययोग का निरोध करता है। इस उपाय से अथवा इस प्रकार वह पहले, मनोयोग का निरोध करता है ; दूसरे, मनोयोग का निरोध करके वचनयोग का निरोध करता है ; तीसरे, वचनयोग का निरोध करके काययोग का निरोध करता है ; काययोग का निरोध करके योग का निरोध करता है ; योग का निरोध करके अयोगित्व को प्राप्त करता है ; अयोगित्व को प्राप्त करके थोड़े काल में पाँच ह्रस्वाक्षर को उच्चारण करने में जितना समय लगे उतने असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समय में शैलेशीव को प्राप्त होता है । तथा पूर्व में जिनकी गुणश्रेणी रची गई है ऐसे कर्मों का अनुभव करता है। वह उस शैलेशी काल में असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा असंख्यात (अनन्त) कर्म स्कंधों का क्षय करता है तथा कर्मस्कंधों का क्षय करके वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र-इन चार कर्मा शोकर्मभेदों की एक साथ खपाता है । __चारों कर्मों को एक साथ खपाकर औदारिक, तैजस तथा कार्मण शरीरों को सर्वप्रकार से त्याग देता है। शरीरों को त्याग करके ऋजुश्रेणी को प्राप्त करके अस्पृष्ट गति से एक समय की अविग्रहगति द्वारा ऊर्ध्व में जाकर साकारोपयोग सहित सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर, सर्व दुःखों का अन्त करके सिद्धपद को प्राप्त करता है ! टोका- योगनिरोधं कुर्वन् प्रथम मनोयोग निरुणद्धि, तञ्च पर्याप्तमात्रसंज्ञिपञ्चे. न्द्रियस्य प्रथमसमये यावन्ति मनोद्रव्याणि यावन्मात्रश्च तद्व्यापारः तस्मादसंख्येयगुणहीनं मनोयोग प्रतिसमयं निरुन्धानोऽसंख्येयैः समयैः साकल्येन निरुणद्धि, उक्त च ---"पज्जत्तमेत्तसण्णिस्स जत्तियाई जहण्णजोगिस्स । होति मणोदव्वाई तव्वावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुंभमाणो सो। मणसो सम्बनिरोहं करे असंखेज्जसमएहिं ॥२॥” एतदेवाह--'से णं भंते !' इत्यादि, सःअधिकृतकेवली योगनिरोधं चिकीर्षन् पूर्वमेव संज्ञिनः पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य मनोयोगस्येति गम्यतेऽधस्तात असंख्येयगुणपरिहीनं समये समये निरुन्धानोऽसंख्येयः समयः साकल्येनेति गम्यते प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, 'ततोऽनंतरं च. 'मित्यादि, तस्मात् मनोयोगनिरोधादनन्तरं च शब्दो वाक्यसमुच्चये णमिति वाक्यालकारे द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य वागयोगस्येति गम्यतेऽधस्तात् वाग्योगं असंख्येयगुणपरिहीन समये समये निरन्धानोऽसंख्येयः समयैः साकल्येनेति गम्यते द्वितीयं वाग्योगं निरुणद्धि, आह च भाष्यकृत्-“पज्जत्तमित्तबिंदिय जहण्णवइजोग "Aho Shrutgyanam" Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ क्रिया-कोश पउजवा जे उ । तदसंखगुणविहीणं समये समये निरुभंतो ||१|| सव्ववदजोगरोहं संखाईएहिं कुrs समएहि" 'ततोऽणंतरं च ण' मित्यादि, ततो वाग्योगादनन्तरं च णं प्राग्वत् सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य अपर्याप्तकस्य प्रथमसमयोत्पन्नस्येति भावार्थः जधन्ययोगिनः – स्वर्वाल्पवीर्यस्य पनकजीवस्य यः काययोगस्तस्याधस्ताद संख्येयगुणहीनं काययोगं समये समये निरु धन् असंख्येयैः समयैः समस्तमपीति गम्यते तृतीयं काययोगं निरुणद्धि, तं च काययोगं निरुन्धानः सूक्ष्म क्रियमप्रतिपाति ध्यानमधिरोहति, तत्सामर्थ्याच्च वदनोदरादिविवरपूरणेन सष्कुचितदेह त्रिभागवर्त्तिप्रदेशो भवति, तथा चाह भाष्यकृत् — “तत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमयोषवण्णस्स || जो किर जहण्णजोगी तदसंखेज्जगुणहीण मेक्वेक्के । समएहिं रुंभमाणो देहतिभागं च मुचतो ॥१॥ भइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहिं, काययोगनिरोधकालान्तरे चरमे अन्तर्मुहूर्ते वेदनीयादित्रयस्य प्रत्येकं स्थितिः सर्वापवर्त्त नया अपवर्त्यायोग्यवस्थासमाना क्रियते गुणाश्रेणिक्रमविरचितप्रदेशा xxx अयोगतां च प्राप्य - अयोगताप्राप्त्यभिमुखो भूत्वा 'ईसिं' ति स्तोकं कालं शैलेश प्रतिपद्यते इति संबंधः कियता कालेन विशिष्टां इत्यत आह-हस्वपंचाक्षरोच्चाराया, किमुक्तं भवति ? - नातिद्र तं नातिविलम्बितं किन्तु मध्यमेन प्रकारेण यावता कालेन पणनम- इत्येवं रूपाणि पंचाक्षराणि उच्चार्य्यन्ते तावता कालेन विशिष्टामिति, एतावान् कालः किं समयप्रमाण इति निरूपणार्थमाह-- असंख्येयसामयिक - असंख्येयसमयप्रमाणां यच्चासंख्येयसमयप्रमाणं तच जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणं तत एषाऽप्यन्तर्मुहूर्त्त प्रमाणेति ख्यापनायाह - 'आन्तर्मुहूर्तिकी शैलेशी' मिति, शीलं चारित्रं तच ह निश्चयतः सर्वसंवररूपं तद् ग्राह्यं तस्यैव सर्वोत्तमत्वात्, तस्येशः शीलेशः तस्य यावस्था सा शैलेशी तां प्रतिपद्यते, तदानीं च ध्यानं ध्यायति व्यवच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति, उक्तं च-सीलं व समाहाणं निच्छयओ सव्वसंवरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सेलेसी होइ तदवत्था ||१|| हरसक्खराई मज्झेणं जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छर सेलेसिगतो तत्तियमित्त तओ कालं ||२||तणुरोहारंभाओ कायर सुहुमकिरियानियहिं सो | वोच्छिन्नकिरिमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ||३|| न केवलं शैलेशी प्रतिपद्यते पूर्वरचितगुणश्रेणीकं च वेदनीयादिकं कर्म अनुभवितुमिति शेषः । xxx । आह-'तीसे सेलेसिअद्धाएं' इत्यादि, तस्यां शैलेश्यद्धायां वर्त्तमानोऽसंख्येयाभिर्गुणश्रेणीभिः पूर्वनिर्वर्त्तिताभिः प्रापिता ये कर्मत्रयस्य पृथक् प्रतिसमयमसंख्येयाः कर्मस्कंधास्तान् 'क्षपयन' विपाकतः प्रदेशतो वा वेदनेन निर्जरयन् चरमे समये वेदनीयमायुर्नामगोत्रमित्येतान् चतुरः'कर्मा'शान' कर्मभेदान् युगपत् क्षपयति, युगपश्च क्षपयित्वा ततोऽनन्तर " Aho Shrutgyanam" Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २१३ समये औदारिकतजसकार्मणरूपाणि त्रीणि शरीराणि 'सदाहिं विप्पजहणाहि' इति सर्वविप्रहानैः, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, विप्रजहाति, किमुक्तं भवति ?-यथा प्राक् देशतस्त्यक्तवान् तथा न त्यजति, किन्तु सर्वः प्रकारैः परित्यजतीति, उक्त च -“ओरालियाई चयइ सव्वाहिं विप्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेस तहा न जहा देसञ्चारण सो पुव्विं ॥ ” साकारोपयुक्तः सन् सिद्ध्यति निष्ठितार्थो भवति, सर्वा हि लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य उपजायते नानाकारोपयुक्तस्य, सिद्धिरप्येषा सर्वलब्ध्युत्तमा लब्धिरिति साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायते, आह च-"सव्वाओ लद्धीओ जं सागारोषलोगलाभाओ। तेणेह सिद्धिलद्धी उप्पज्जा तदुवउत्तस्स ॥१॥' तदनन्तरं तु क्रमेणोपयोगप्रवृत्तिः । तदेवं यथा केवली सिद्धो भवति तथा प्रतिपादितमिदानी सिद्धा यथास्वरूपास्तत्रावतिष्ठन्ते तथा प्रतिपादयति-"ते णं तत्थ सिद्धा भवंती' त्यादि, ते-अनन्तरोक्तक्रमसम्भूता णमिति वाक्यालंकारे तत्र लोकान्ते सिद्धा भवन्ति । -पण्ण० प ३६ । सू२१७५ । टोका सयोगी केवली योगनिरोध करता हुआ पहले मनोयोग का निरोध करता है और वह पर्याप्तसंज्ञी पंचेन्द्रिय के प्रथम समय में जितना मनोद्रव्य और जितना उसका व्यापार होता है उससे असंख्यात गुण न्यून मनोयोग का प्रति समय निरोध करता हुआ असंख्यात समय में सर्वथा मनोयोग का निरोध करता है। किसी आचार्य ने कहा है--"जघन्य योग वाले पर्याप्त मात्र संज्ञी के जितने मनोद्रव्य होते हैं और जितना उसका व्यापार होता है उससे असंख्यातगुण हीन मनोयोग का समय-समय में निरोध करती हुआ असंख्यात समय में मनोयोग का सर्वथा निरोध करता है।" . समुद्घात किया हुआ केवली जब योगनिरोध करने की इच्छा करता है तो पहले वह जघन्य योग वाले पर्याप्त संज्ञी के मनोयोग से नीचे असंख्यात गुणहीन मनोयोग का समयसमय पर निरोध करता हुआ असंख्यात समय में प्रथम मनोयोग का निरोध करता है। तत्पश्चात् मनोयोग का निरोध करके जघन्य योगवाले पर्याप्त द्वीन्द्रिय के वचनयोग से नीचे असंख्यात गुणहीन वचनयोग को समय-समय पर निरोध करता हुआ असंख्यात समय में सर्वथा वचनयोग का निरोध करता है । इस सम्बन्ध में भाष्यकार ने कहा है--- "पर्याप्त मात्र द्वीन्द्रिय के जघन्य वचनयोग की जो पर्याय है उससे असंख्यात गुणहीन वचनयोग को समयसमय पर निरोध करता हुआ असंख्यात समय में सकल वचनयोग का निरोध करता है।" वचनयोग का निरोध करने के बाद अविलम्ब प्रथम समय उत्पन्न हुए अपर्याप्त सूक्ष्म पनकजीव के जितना जघन्य योग वाला तथा सबसे अल्पवीर्य वाला सूक्ष्म पनकजीव का "Aho Shrutgyanam" Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ क्रिया-कोश जितना. काययोग होता है उससे नीचे असंख्यात गुणहीन काययोग को समय-समय पर निरोध करता हुआ असंख्यात समय में सर्वथा काययोग का निरोध करता है । वह काययोग का निरोध करता हुआ सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाती शुक्लध्यान को प्राप्त होता है और उस ध्यान के सामर्थ्य से मुख, उदरादि के खाली भाग को पूरण करता हुआ शरीर के तीसरे भाग समान आत्मप्रदेशों को संकुचित करता है और शरीर के दो तृतीयांश भाग में आत्मप्रदेश घनरूप हो जाते हैं। भाष्यकार ने भी कहा है..."तत्पश्चात् उत्पत्ति के प्रथम समय में सूक्ष्म पनकजीव के जो जघन्य काययोग होता है उससे असंख्यात गुणहीन काययोग को एक-एक समय में निरोध करता हुआ तथा शरीर के तृतीयांश का त्याग करता हुआ असंख्यात समय में काययोग का निरोध करता है।" काययोग के निरोधकाल के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में वेदनीयादि तीन कर्मों में से प्रत्येक कर्म की स्थिति सर्व अपवर्तनाकरण के द्वारा घटा कर गुणश्रेणी क्रम द्वारा कर्मप्रदेशों की रचना अयोगो अवस्था के कालप्रमाण के समान करता है ! xxx। अयोगी प्राप्ति के अभिमुख होकर थोड़े काल में शैलेशीत्व को प्राप्त करता है । शैलेशीत्व कितने कालप्रमाण होता है ? इसके उत्तर में सूत्रकार कहते हैं कि पाँच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने कालप्रमाण शैलेशीत्व होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि नातिशीघ्र तथा नातिविलम्ब लेकिन मध्यमगति से 'ङ अ ण न म' इन पाँच ह्रस्वाक्षरों का उच्चारण करने में जितना समय लगे उतना शैलेशीत्व का कालप्रमाण है । और यह समय भी सूत्रकारानुसार असंख्यात समय प्रमाण है और इस असंख्यात समय के प्रमाण को जधन्य से अन्तमुहर्त प्रमाण कहना । सूत्रकार ने इसका अन्तर्महूर्त प्रमाण बतलाने के लिए ही ( अंतोमुहुतियं सेलेसिं पडिवज्जइ ) अर्थात् अन्तर्मुहर्त प्रमाण शैलेशीत्व को प्राप्त करता है-ऐसा कहा है। शील-चारित्र को यहाँ निश्चयनयमतानुसार सर्वसंवर रूप ग्रहण करना क्यों कि यह सबसे उत्तम है । ऐसे चारित्र का जो स्वामी हो, उसकी जो अवस्था हो वह शैलेशी अवस्था । उस अवस्था में व्यवच्छिन्न (समुच्छिन्न) अक्रिय अप्रतिपाति शुक्लध्यान प्राप्त होता है ! किसी आचार्य ने कहा है-“शील - समाधि--निश्चय से सर्वसंवर रूप होती है और उसका ईश शीलेश । और उसकी अवस्था शैलेशी अवस्था।"शैलेशीत्व को प्राप्त हुआ जीव जितने काल में पाँच ह्रस्वाक्षरों को मध्यम प्रकार से उच्चारण किया जा सकता है उतने काल तक रहता है । काययोग के निरोध के प्रारम्भ से सूक्ष्म क्रिय अनिवृत्तिशुक्लध्यान होता है और शैलेशीकाल में व्यवच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है । केवल शैलेशत्व को नहीं प्राप्त करता है परन्तु पूर्व में रचित गुणश्रेणी वाले वेदनीयादि कर्मों का अनुभव-वेदन भी प्राप्त करता है | xxxxx। "Aho Shrutgyanam" Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ क्रिया-कोश उस शैलेशीकाल में वर्तता हुआ पूर्व में रचित असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा वेदनीयादि तोन कर्मों के अलग-अलग प्रति समय असंख्यात कर्मस्कंधों को विपाक से तथा प्रदेश से वेदता हुआ, उनकी निर्जरा करता हुआ, शेष समय में वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करता है। चार कर्मों का एक साथ क्षय करके, तत्पश्चात समय में औदारिक-तैजस-कार्मण--तीनों शरीरों को सर्व प्रकार से त्याग करता है। सर्व प्रकार से त्याग करने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार आगे शरीर का ( जन्म-मरण के चक्र में ) त्याग किया जाता था वैसे नहीं किन्तु सर्व प्रकार से परिहार किया जाता है । किसी आचार्य ने कहा भी है---"औदारिकादि शरीर को सर्व प्रकार से त्याग द्वारा त्याग करता है अर्थात निःशेष रूप से त्याग करता है लेकिन पूर्व में देशत्याग द्वारा त्याग करता था वैसे नहीं । xxxx v साकारोपयोग वाला होकर सिद्ध होता है, कृतार्थ होता है—सर्व प्रकार की लब्धि साकारोपयोग वाले को होती है लेकिन अनाकार उपयोग वाले को नहीं होती है । यह सिद्धि भी जो सर्व लब्धियों में उत्तम लब्धि है, साकारोपयोग वाले को ही होती है। किसी आचार्य ने कहा है-"जिस कारण से सर्व लब्धियाँ साकारोपयोग वाले को प्राप्त होती है उसी कारण से यह सिद्धि-लब्धि भी साकारोपयोग वाले को उत्पन्न होती है। इसके बाद क्रमशः उपयोग की प्रवृत्ति होती है-इस प्रकार केवली जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर सर्व दुःखों का अंत करते है। (ग) (केवली) गत्वा च अगत्वा च समुद्घातं xxx बादरकाययोगेन बादरमनोयोग निरुणद्धि, ततो बादरवाग्योगम् , ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगम् ; तेनैव सूक्ष्ममनोयोगं सूक्ष्मवाग्योगं च ; सूक्ष्मकाययोगं तु सूक्ष्मक्रियमनिवर्तिशुक्लध्यानं ध्यायन् स्वावष्टम्भेनैव निरुणद्धि, अन्यस्यावष्टम्भनीयस्य योगान्तरस्य तदाऽसत्त्वात् । तद्ध्यानसामर्थ्याच्च वदनोदरादिविवरपूरणेन संकुचितदेहविभागवर्तिप्रदेशो भवति । [तस्मिंश्च ध्याने वर्तमानः स्थितिघातादिभिरायुर्वर्जानि सर्वाण्यपि भवोपनाहिककर्माणि तावदपवर्तयति यावत् सयोग्यवस्थाचरमसमयः। तस्मिंश्च चरमसमये सर्वाण्यपि कर्माणि अयोग्यवस्थासमस्थितिकानि जातानि । नवरं येषां कर्मणामयोग्यवस्थायामुदयाभावस्तेषां स्थिति स्वरूपं प्रतीत्य समयोनां विधत्ते, कर्मत्वमात्ररूपतां वाश्रित्यायोग्यवस्थासमानाम् । तस्मिंश्च सयोग्यवस्थाचरमसमयेऽन्यतरद्वदनीयमौदारिक-तैजस-कार्मणशरीरसंस्थानषटक-प्रथमसंहनन- औदारिकाङ्गोपांग · वर्णादिचतुष्टया-ऽगुरुलघु - उपघात-पराघात-उच्छ्वास-शुभा-ऽशुभविहायोगति-प्रत्येकस्थिराऽस्थिर-शुभा शुभ-सुस्वर-दुःस्वर-निर्माणनाम्नामुदयोदीरणव्यवच्छेदः।] "Aho Shrutgyanam" Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ क्रिया-कौश तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लष्यानं ध्यायन् मध्यमप्रतिपत्त्या ह्रस्वपश्वाक्षरोगिरणमात्रं कालं शैलेशीकरणं प्रविशति । तत्र शैलेशः-- मेरुः तस्येयं स्थिरतासाम्यावस्था शैलेशी, यद्वा सर्वसंवरः शीलं तस्य य ईशः शीलेश तस्येयं योगनिरोधावस्था शैलेशी, तस्यां करणं--पूर्वविरचितशैलेशीसमयसमानगुणश्रेणीकस्य वेदनीयनामगोत्राख्याऽघातिकर्मत्रितयस्याऽसंख्येयगुणया श्रेण्या आयुः शेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणम् । तच्चासौ प्रविष्टोऽयोगी स चासौ केवली च अयोगिकेवली। अयं च शैलेशीकरणचरमसमयानन्तरमुच्छिन्नचतुर्विधकर्मबंधनत्वाद् अष्टमृत्तिकालेपलिप्साऽधोनिमग्नक्रमाऽपनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्व गामितथाविधाऽलाबुवद् ऊर्ध्व लोकान्ते गच्छति । न परतोऽपि, मत्स्यस्य जलकल्पगत्युपष्टम्भिधर्मास्तिकायाऽभावात् । स चोर्ध्व गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्ध्वमप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाञ्च समयान्तरमसंस्पृशन् गच्छति। -कर्म० भा २ । सू २ । टीका –(परिवेष्टितांश) कर्म० भा ६ । सू ६४ । टीका कर्म समीकरण करने के लिये समुद्घात करके या बिना किये ही केवली अंतक्रिया की शेषपर्याय बादर काययोग के द्वारा बादर मनोयोग के निरोध से प्रारंभ करते हैं । तत्पश्चात् बादर काययोग से बादर वाग्योग का निरोध करते हैं; तदनन्तर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग का निरोध, तब सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध, तब सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वाग्योग का निरोध करते हैं । तत्पश्चात सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यान को स्वशक्ति से ध्याते हुए सूक्ष्म काययोग का निरोध करते है। अन्य की शक्ति से योगान्तर का असद्भाव है अर्थात् अन्य की शक्ति से योग का निरोध नहीं होता है। उस ध्यान के सामर्थ्य से मुख, उदर आदि के विवर को पूर्ण करते हुए आत्मप्रदेश शरीर के एक तीसरे भाग प्रमाण संकुचित हो जाते हैं । इस ध्यान में वर्तमान रहते हुए केवली आयु बाद सब भवोपग्राहिक कर्म की स्थिति, घातादि का तब तक अपवर्तन करता रहता है, जब तक सयोगो अवस्था का चरम समय नहीं आता है। उस सयोगी अवस्था के चरम समय में सब कर्मों की स्थिति अयोगी अवस्था की स्थिति के बराबर हो जाती है। लेकिन अयोगी अवस्था में जिन कमों के उदय का अभाव है उन कर्मों का स्वरूप जानने के लिए समय-काल का उल्लेख है चूँकि अयोगी अवस्था में अयोगी के कर्मत्व मात्र का काल एक समान है। उस सयोगी अवस्था के चरम समय में दो वेदनीय कर्मों में से कोई एक, औदारिक, तेजस, कार्मण शरीर, षट् संस्थान, प्रथम संहनन, औदारिकाङ्गोपांग, चारों वर्ण, अरुलघु, "Aho Shrutgyanam" Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २१७ उपघात, पराघात, उच्छवास, शुभ-अशुभ विहायगति, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, निर्माण नाम-कर्मों का उदय-उदीरणा से व्यवच्छेद हो जाता है। तदनन्तर समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाति शुक्लध्यान को ध्याते हुए. मध्यमगति से पाँच ह्रस्वाक्षर को उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने कालप्रमाण शैलेशीकरण में प्रवेश करते हैं। गिरिराज-मेरु के समान स्थिरता वाली अवस्था-शैलेशी अवस्था अथवा सर्वसंबर रूप जिसका शील हो उसका ईश---शोलेश! उसकी यह योगनिरोधावस्था शैलेशीपन । उसका करण शैलेशीकरण । (उस शेलेशीकरण में वर्तता हुआ) शैलेशी के समय के समान पूर्व में रचित वेदनीय, नाम, गोत्र-तीन कर्मों की श्रेणी का-असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा-शेष आयुभ्य कर्म का यथास्वरूप से-श्रेणी स्थिति से कर्मस्कंधों की निर्जरा-शैलेशीकरण ! वहाँ पर प्रविष्ट अयोगी है तथा केवली है अतः उसे अयोगी केवली कहते हैं जिस प्रकार आठ मिट्टी के लेप से लिपायमान सुंबा पानी में नीचे जाकर डूब जाता है फिर क्रमशः उन लेपों के अलग हो जाते ही वह जल के ऊपर आ जाता है उसी प्रकार शैलेशीकरण के चरम समय के अनन्तर चारों कर्मों के बंधन से छटकारा पाने पर पर वे ऊर्व लोकांत में गमन करते हैं लेकिन नीचे नहीं आते हैं। जलकल्प में गति करने वाले मत्स्य की तरह धर्मास्तिकाय की सहायता से गति होती है परन्तु आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के बाहर गमन नहीं करते हैं। ऋजुश्रेणी से ऊर्ध्व में जाकर उसने जितने आकाशप्रदेश को अवगाहित किया उतने ही आकाशप्रदेश को अवगाहित कर-विवक्षित समय से अनंतर समय स्पर्श करके रहता है। '७३ ११ जीव किससे अंतक्रिया करता है : .१ सम्यक्त्व पराक्रम से जीव अंतक्रिया करता है : इह खलु सम्मत्तपरक्कमे 'नाम अज्झयणे' समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए जं सम्मं सद्दहित्ता पत्तियाइत्ता रोयइत्ता फासइत्ता पालइत्ता तीरइत्ता किट्टइत्ता सोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिज्मंति, बुज्झति, मुचंति, परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । -उत्त० अ २६ । सू १ 1 पृ० १०२६ २८ "Aho Shrutgyanam" Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ क्रिया-कोश इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में काश्यपगोत्री श्रमण भगवान महावीर ने 'सम्यक्त्व पराक्रम' नाम का अध्ययन कहा है, जिसपर भलीभाँति श्रद्धाकर, प्रतीति कर, रुचि रखकर, जिसके विषय का स्पर्शकर, स्मृति में रखकर, समग्र रूप से हस्तगत कर, गुरु को पठित पाठ का निवेदन कर, गुरु के समीप उच्चारण की शुद्धि कर, सही अर्थ का बोध प्राप्तकर और अर्हत को आज्ञा के अनुसार अनुपालन कर बहुत जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं और सर्व दुःखी का अंत करते है । '२ व्यवदान से जीव अंतक्रिया करता है : वोदाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? बोदाणेणं अकिरियं जणयइ, अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुञ्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्व दुक्खाणमंतं करे? -उत्त० अ २६ । सू २६ । पृ० १०३२ व्यवदान अर्थात् पूर्व संचित कर्मों का तप से विनाश करने से जीव अक्रिय होता है और अक्रिय होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त कर सर्व दुःखों का अन्त करता है। ३ सर्वभावप्रत्याख्यान से जीव अंतक्रिया करता है : सम्भावपञ्चक्खाणणं भंते ! जीवे कि जणय ? सब्भावपञ्चक्खाणेणं अणियट्टि जणयइ । अणियट्टि पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तंजहा-- वेयणिज्जं, आउयं, नाम, गोयं । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिवाएइ, सम्बदुक्खाणमंतं करे। -उत्त० अ २६ । सू ४२ । पृ० १०३३ सर्वभाव प्रत्याख्यान अर्थात् सर्व प्रवृत्तियों का परित्याग करने से जीव के अनिवृत्ति-शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद की प्राप्ति होती है । अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अणगार वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघाति कर्मों का क्षय कर देता है। तदनन्तर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों का अंत करता है । '४ कायसमाधारणता से जीव अंतक्रिया करता है :-- कायसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणय ? कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, चरित्तपज्जवे विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, अहक्खायचरितं विसोहित्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तओ पच्छा सिज्झइ. बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। --उत्त० अ २६ । सू ५६ । पृ० १०३४ कायसमाधारणता से जीव चारित्र-पर्यायों को विशुद्धि करता है ; चारित्रपर्यायों को विशुद्ध करके यथाख्यातचारित्र की विशुद्धि करता है; यथाख्यातचारित्र के विशोधन से "Aho Shrutgyanam" Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २१६ चारों अघाति कमों का क्षय करता है। तदनन्तर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों का अन्त करता है। .५ चारित्रसंपन्नता से जीव अंतक्रिया करता है :-- चरित्तसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जणयइ, सेलेसिं पतिवन्ने य अणगारे चत्तारिकम्मंसे खवेइ, तओ पच्छा सिज्झइ बुझइ, मुच्चय, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमंतं करे। ---उत्त० अ २६ । सू ६२ । पृ० १०३५ चारित्रसंपन्नता से जीव शैलेशी भाव को प्राप्त करता है ; शैलेशी भाव को प्राप्त हुआ अणगार चारों अघाति कर्मों का क्षय करता है । तदनन्तर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों का अन्त करता है। '६ यथाख्यात चारित्र से अंतक्रिया : -- अहक्खाए--पुच्छा । गोयमा! एवं अहक्खायसंजए वि जाव-अहन्नमणुकोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववजेजा, अत्थेगइए सिज्झइ, जाव- अंतं करेइ । - भग० श २५ | उ ७ । प्र २६ । पृ०८८८ यथाख्यात संयती कितनेक अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते हैं, कितनेक सिद्ध-बुद्धमुक्त होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अंत करते हैं । '७ केवली-आराधना से अंतक्रिया :--- केवलिआराहणा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा--अतकिरिया चेव, कप्पविमाणोववत्तिया चेव । --ठाण स्था० २ । उ ४ । सू१०७ । पृ० २०१ केवली आराधना अर्थात केवलो-प्ररूपित धर्म की आराधना । मतिज्ञानी-श्रुतज्ञानीअवधिज्ञानी-मनःपर्ववज्ञानी-केवलज्ञानी संबंधी जो धर्मानुष्ठान क्रिया-केवलिकी क्रिया और इस प्रकार की आराधना को केवलिकी आराधना कहा जाता है। फल की अपेक्षा से केवलिकी आराधना दो प्रकार की है-यथा--(१) अंतक्रिया केवलिको आराधना-भव का अंत करने वाली क्रिया और इस प्रकार की आराधना को अंतक्रिया केवलिकी आराधना कहा जाता है । (२) कल्पविमानोपपत्तिका आराधना-- जिस आराधना के द्वारा कल्प-विमानों में उपपात होता है वह कल्पविमानोपपत्तिका आराधना है ! टीकाकार का मंतव्य है कि ज्ञानादि की आराधना श्रुतकेवली आदि को होती है---- कल्पषिमानोपपत्तिका फल वाली आराधना अनंतर फल रूप कही गई है। वस्तुवृत्त्या परंपरा फल भवान्तर क्रिया के अनुसार होता है । "Aho Shrutgyanam" Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ज्ञान-दर्शन- चारित्र की आराधना से अन्तक्रिया : उक्कोसियं णं भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता कहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंत करे ? गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंतं करेइ, अत्थेगइए दोषणं भवग्गहणेण सिझर जाव अंतं करेइ, अत्थेगइए कप्पोवएस वा कप्पातीयएसु वा ववज्जइ ; उक्कोसियं णं भंते ! दंसणाराहण आराद्देत्ता कहिं भवग्गहणेहि० एवं वेब ; उक्कोसियं णं भंते ! चरिताराहणं आराहेता० एवं चेव, नवरं अत्थेगइए कप्पातीयएस उववज्जइ । मज्झिमियं णं भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता करहिं भवग्गहणेहि सिज्झइ जाव अंत करेइ ? गोयमा ! अत्थेगइए दोचणं भवग्गहणणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ, तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ; मज्झिमियं णं भंते! दंसणाराहणं आराहेत्ता० एवं चेव ; एवं मज्झिमियं चरिताराहणं पि । २२० ८ जहन्नियन्नं भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता करहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंत करे ? गोयमा ! अत्थेगइए तचणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ, सत्त(अ) ट्ठभवग्गहणाई पुण नाइकमइ ; एवं दंसणाराहणं पि; एवं चरित्ताराहणं पि । - भग० श० ८ । उ १० प्र० ८ से १३ । पृ० ५७१ उत्कृष्ट ज्ञानाराधना करने वाला कोई एक जीव उसो भव में अन्तक्रिया करता है, कोई एक जीव दो भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है, कोई एक जीव कल्पोपपन्न अथवा कल्पातीत देवलोक में उत्पन्न होता है । उत्कृष्ट दर्शनाराधना करनेवाला कोई एक जीव कोई एक जीव दो भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है, कल्पातीत देवलोक में उत्पन्न होता है । उसी भव में अन्तक्रिया करता है, कोई एक जीव कल्पोपपन्न अथवा उत्कृष्ट चारित्राराधना करनेवाला कोई एक जीव उसी भव में अन्तक्रिया करता है, कोई एक जीव दो भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है, कोई एक जीव कल्पातीत देवलोक में उत्पन्न होता है । मध्यम ज्ञानाराधना करने वाला कोई एक जीव दो भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है, लेकिन कोई भी जीव तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता है । मध्यम दर्शनाराधना करने वाला कोई एक जीव दो भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है, लेकिन कोई भी जीव तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता है । मध्यम चारित्राराधना करने वाला कोई एक जीव दो भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है लेकिन कोई भी जीव तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता है । " Aho Shrutgyanam" Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २२१ जघन्य ज्ञानाराधना करने वाला कोई एक जीव तीन भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है लेकिन कोई भी जीव सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करता है । जघन्य दर्शनाराधना करनेवाला कोई एक जीव तीन भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है लेकिन कोई भी जी व सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करता है। जघन्य चारित्राराधना करनेवाला कोई एक जीव तीन भव ग्रहण करके अन्तक्रिया करता है, लेकिन कोई भी जीव सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करता है । .७३.१२ कौन जीव अंतक्रिया नहीं करते हैं :•७३.१२.१ हिंसा की प्ररूपणा करने वाले जीव :---- तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परूवेति-सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता हतव्या अज्जावेयवा परिघेयव्वा परितावेयव्वा किलामेयच्या उद्दवेयव्वा। ते आगंतुच्छेयाए, ते आगंतु-भेयाए जाव ते आगंतु-जाइ-जरा मरण-जोणि-जम्मण - संसार - पुणभवगम्भवास - भवपवंच-कलंकली भागिणो भविस्संति। ते बहूणं दंडणाणं बहूणं मुंडणाणं तज्जणाणं तालणाणं अंदुबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जा पुत्तधूय-सुण्हामरणाणं दारिदाणं दोहग्गाणं अप्पिय-संवासाणं पियवियोगाणं बहूणं दुक्ख दोम्मणस्साणं आभागिणो भविस्संति। अणाइयं च णं अणवयम्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसारकतारं भुजो भुजो अणुपरियट्टिरसंति । ते णो सिभिरसंति णो बुझिासंति जाव णो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति ।। -सूय श्रु २ । अ २ । सू २६ । पृ० १५८-५९ वे श्रमण-ब्राह्मण जो ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सर्व प्राण-भूत-जीवसत्त्वों का हनन करना चाहिए, दण्ड से ताड़ना करनी चाहिए, दासवृत्ति करानी चाहिए. शारीरिक-मानसिक पीड़ा उपजानी चाहिए, क्लेश और उद्वेग पहुँचाना चाहिए । भविष्यत्काल में वे सब जीव छेदन-भेदन को प्राप्त होगे। जाति, जरा, मरण, योनि, जन्म-- संसार में बार-बार जन्म लेकर गर्भ में आकर भव-प्रपंच में महान पीड़ा पायेंगे। वे बहुत कष्ट, मुण्डन, तर्जन, ताड़न, बन्धन, घुलन आदि तथा माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्रपुत्री-पुत्रवधू के मरण का दुःख सहन करेंगे। दरिद्रता, दुर्भाग्य, अप्रियप्राप्ति, प्रियवियोग आदि बहुत दुःख और मानसिक पीड़ा को सहेगे, वे इस अनादि-अनन्त चातुगतिक संसार रूपी अटवी में दीर्घकाल पर्यन्त बार-बार परिभ्रमण करेंगे। "Aho Shrutgyanam" Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ऐसा कहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-परिनिवृत्त नहीं होगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करेंगे अर्थात् अन्तक्रिया नहीं करेंगे । २२२ '७३१२२ प्रथम बारह क्रियास्थान में वर्तमान जीव अंतक्रिया नहीं करता :-- इच्चेहिं बारसहि किरियाठाणेहिं वट्टमाणा जीवा नो सिज्भिसु, नो बुझिसु, नो मुबिसु, नो परिणिव्वाईसु-- जाव- नो सव्वदुक्खाणं अंत करें वा करेंति वा नो करिस्सति वा । - सूय ० श्रु २ । अ २ । सू २७ । पृ० १५६ इन बारह अर्थदण्ड यावद लोभप्रत्ययिक क्रियास्थानों में वर्तमान जीव अतीतकाल में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-परिनिवृत्त नहीं हुए हैं यावत् सर्व दुखों का वर्तमानकाल में करते हैं न भविष्यत्काल में करेंगे । अन्त नहीं किये हैं । *७३१२३ असंवृत अनगार अंतक्रिया नहीं करता है. असंवुडे णं भंते! अणगारे किं सिज्माइ, बुझाइ, मुच्चइ, परिनिव्वायर, सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ? गोयमा ! णो णट्ठे समझे । सेकेणणं जाव णो अंतं करे ? गोयमा ! असंवुडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ हस्सकालठिश्याओ दीहकालठियाओ पकरेइ | मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसग्गओ बहुप्पएसग्गओ पकरे, आयं चणं कम्मं सिय बंध‍ सिय णो बंध अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुज्जो उवचिणइ, अणाइयं च णं अणवद्ग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टइ, से तेणं गोयमा ! असंवुडे अणगारे णो सिज्झइ जाव ( णो बुज्झइ णो मुच्चर णो परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं ) णो अतं करेइ । -भग० श १ । उ १ । प्र० ५६-५७ । पृ० ३८६-६० असंवृत अणगार सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं करता है, सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता है क्योंकि असंवृत अणगार आयुकर्म को छोड़कर शिथिल बंधन से बाँधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को गाढ़ रूप से बाँधना प्रारम्भ करता है; अल्पकालीन स्थितिवाली कर्मप्रकृतियों को दीर्घकालीन स्थिति वाली करता है; मंदानुभाव वाली को तोत्रानुभाव वाली करता है; अल्प प्रदेश वाली को बहु प्रदेश वाली करता है; आयुष्य कर्म को कदाचित् बाँधता है और कदाचित नहीं बाँधता है; असातावेदनीय कर्म का बारम्बार उपार्जन करता है ; अनादि-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चातुर्गतिक संसार रूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन करता है । इस कारण से असंवृत अणगार सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता है । "Aho Shrutgyanam" Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश २२३ -७३.१२.४ छद्मस्थ--- अवधिज्ञानी- परमावधिज्ञानी अंतक्रिया नहीं करते हैं :-- छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से अतीतं, अणतं, सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमाईहिं सिन्झिसु, बुझिसु जाव--सव्वदुक्खाणं अतं करिसु ? गोयमा ! जो इण? सम? । से केण?णं भंते ! एव वुइ-तं चेव जाव-अंतं करेंसु ? गोयमा ! जे केइ अकरा वा, अंतिमसरीरिया या सव्वदुक्खाणं अंत करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा, सव्वे ते उप्पण्णणाणदसणधरा, अरहा, जिगा, केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिझति, बुझ ति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति, सम्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा; से तेण?णं गोयमा ! जाव--सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु; पडुप्पन्ने वि एवं चेव, नवरं-'सिज्मंति' भाणियव्वं, अणागये वि एवं चेत्र, नवरं-'सिज्झिासंति' भाणियव्वं । जहा छउमत्थो तहा आहोहिओ वि, तहा परमाहोहिओ वि; तिण्णि तिणि आलाचगा भाणियव्वा । --भग० श१। उ ४ । प्र० १५६-६० } पृ० ३६८ --भग श ५ । उ ५। प्र १ ! पृ० ४७६ -भग० श ७ । उ ८। प्र ११ पृ० ५२२ बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम से, केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्यवास से और केवल प्रवचनमाता से सिद्ध नहीं हुआ है, बुद्ध नहीं हुआ है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करनेवाला नहीं हुआ है। क्योंकि जो कोई जीव कर्मों का अन्त करने वाले और चरमशरीरी हुए है वे सब उत्पन्न जान-दर्शनधारी, अरिहन्त, जिन, केवली होकर फिर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए हैं और निर्वाण को प्राप्त हुए हैं तथा समस्त दुःखों का अन्त किये हैं, करते हैं, करेंगे। वेसे केवली अतीतकाल में सिद्ध आदि हुए हैं, वर्तमान काल में सिद्ध आदि होते हैं, भविष्यत् काल में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। छदमस्थ मनुष्य की तरह अवधिज्ञानी-परमावधिज्ञानी भी अतीतकाल में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हुए हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं किये हैं, वर्तमान में नहीं करते हैं तथा भविष्यत् काल में नहीं करेंगे। टीका--इह छद्मस्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवसेयः, न पुनरकेवलिमात्रम् । उपयुक्त पाठ में 'छद्मस्थ' शब्द से अवधिज्ञान से रहित जीव को ग्रहण करना चाहिए। अकेवली मात्र को छदमस्थ नहीं समझना चाहिये। "Aho Shrutgyanam" Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ क्रिया-कोश —— '७३-१२५ एजनादि से सक्रिय जीव अन्तक्रिया नहीं करता है जीवे णं भंते! सया समियं एयर, वेयर, चलइ, फंदइ, घट्टइ, खुभाइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणम ? हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं एयइभावं परिणमत्र ! -जाब - तं तं । जावं च णं भंते! से जीवे सया समियं- जाब - परिणम, तावं च णं तस्स जीवस अते अतकिरिया भवइ ? णो ण सम से केrण एवं बुवइ -- जायं च अंतकिरिया ण भवन ? णं से जीवे सया समियंजाब - अते ; मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे से जीवे आरंभ सारंभ, समारंभइ आरंभमाणे, सारंभमाणे समारंभमाणे माणे बहूणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, जूरावणयाए, तिप्पावणयाए, पिट्टावणयाए, मंडियपुत्ता ! एवं बुच्चइ-जावं च णं से जीवे तावं च णं तस्स जीवस्स अते अंतकिरिया ण भवइ । ; सया समियं - जाय- परिणमइ, तावं च णं आरंभे वट्टइ, सारंभे वट्टर, समारंभे वट्टर ; आरंभे वट्टमाणे, सारंभे वट्टमाणे, समारंभ सत्ताणं दुक्खवणयाए, सोयावणयाए, परियावणयाए वट्टइ, से तेजट्टेणं सया समियं एयइ - जाव - परिणमत्र, -भग० श ३ । उ ३ । प्र १०-१२ | पृ० ४५६-५७ जो जीव सदा समपूर्वक कम्पन करता है, विविध रूप से कम्पन करता है, चलता है, स्पंदन करता है, थोड़ा चलता है, क्षुब्ध होता है; प्रबलतापूर्वक प्रेरण करता है तथा उन-उन भावों में परिणमन करता है वह जीव अन्तक्रिया नहीं करता है क्योंकि जो जीव एजनादि क्रिया करता है, उन उन भावों में परिणमन करता है वह जीव आरम्भ सारम्भ समारम्भ करता है; आरम्भ-सारम्भ समारम्भ में वर्त्तता है । आरम्भमाण, सारम्भमाण, समारम्भमाण है; आरम्भ सारंभ समारंभ में वर्तमान है वह जीव बहुत प्राण-भूत-जीव सत्त्वों को दुःख-शोक यावत् परिताप - त्रास पहुँचाता है अतः उस ( सक्रिय ) जीव की अन्त में अन्तक्रिया नहीं होती है ! '७३·१२६ केवली समुद्घात करता हुआ जीव अन्तक्रिया नहीं करता है से णं भंते! तहा समुग्वायगए सिज्झइ, बुज्झइ, मुचइ, परिनिव्वायर, सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ? गोयमा ! नो इट्टे समट्ठे ! से णं तओ पडिनियत्तर [तओ] पडिनियत्तत्ता [इहमागच्छर आगच्छत्ता ] तओ पच्छा मणजोगं पि जुजइ, बइजोगं पि जुंजइ, कायजोगं पि जुजइ । मणजोगं अमाणे किं सचमणजोगं जुं जइ, मोसमणजोगं जुंज, सच्चामोसमणजोगं जुंज, "Aho Shrutgyanam" Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- क्रिया-कोश असञ्चामोसमणजोग जुजइ ? गोयमा ! सच्चमणजोगं जुजइ, नो मोसमणजोगं जुजइ, नो सच्चामोसमणजोगं जुजइ, असञ्चामोसमणजोगं [ पि] जुंजइ । वइजोगं जुंजमाणे किं सञ्चवइजोगं झुंजइ, मोसवइजोगं झुंजइ, [ किं] सञ्चामोसवइजोगं मुंजइ, असच्चामोसवइजोगं जुजइ ? गोयमा ! सञ्चवइजोगं झुंजइ, नो मोसवइजोगं जुजइ, नो सच्चामोसवइजोगं झुंजइ, असञ्चामोसवइजोगं पि जुजइ। ____ कायजोगं मुंजमाणे आगच्छेज वा गच्छेज्ज वा चिट्ठज वा निसीएज्ज वा तुयट्टेज वा उल्लंघेज वा पलंघेज वा [ उवक्खेवणं वा अवक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा ] पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंथारगं पञ्चप्पिणेजा।। से गं तहा सजोगी सिझइ जाव अंतं करेइ ? गोयमा ! णो इण? सम? । --पण्ण ० प ३६ । सू. २१७४-७५ । पृ० ५३२-३३ केवली समुद्घात को करता हुआ या प्राप्त होता हुआ जीव उस अवस्था में सिद्धबुद्ध मुक्त नहीं होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होता है तथा सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता है। समुद्घात से निवृत्त होने के बाद वे केवली मन-वचन-काययोग का व्यापार करते हैं, यदि वे मनोयोग का व्यापार करते हैं तो वे सत्यमनोयोग तथा व्यवहार मनोयोग का व्यापार करते हैं। यदि वे वचनयोग का व्यापार करते है तो वे सत्यवचनयोग तथा व्यवहार वचनयोग का व्यापार करते हैं। काययोग का व्यापार करते हुए वे आते हैं, जाते हैं, खड़े होते हैं, आलोटन करते हैं, उल्लंघन करते है, प्रलंघन करते हैं, पास में रहे हुए प्रातिहारिक-पीठ-आसन-फलक, पाट्टिया, शय्या तथा संथारा वापस देते हैं । अतः यह कहा जाता है कि समुद्घात के बाद के उक्त सयोगी अवस्था में जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होता है यावत सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता है । .७३.१३ विभिन्न जीव और अन्तक्रिया :•७३.१३.१ क्षत्रिय और अन्तक्रिया : उम्गा भोगा राइन्ना इक्खागा नाया कोरव्वा एए णं अस्सिं धम्मे ओगाहंति, अस्सिं धम्मे ओगाहित्ता अट्टविहं कम्मरयमलं पवाहेति, अट्ठविहकम्मरयमलं पवाहित्ता तओ पच्छा सिझंति, जाव-अंतं करेंति ? . हता, गोयमा ! जे इमे उग्गा भोगा सं चेव जाव-अंतं करेंति, अत्थेगड्या अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । -भग० श २० । उ८।प्र१५। पृ०८०५ २६ "Aho Shrutgyanam" Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ क्रिया-कोश __ क्या उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञात तथा कौरव कुल्ल के क्षत्रिय इस निर्ग्रन्थ धर्म में प्रवेश करते हैं तथा प्रवेश करके आठ प्रकार के रजोमल को धूनकर तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । हाँ, उन उग्र, भोग आदि कुल के क्षत्रिय में से कितने ही सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं तथा कितने ही कोई एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । •७३ १३२ श्रमणोपासक और अन्तक्रिया : समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम साइमेणं पडिलाभेमाणे किं लगभइ ? गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उपाएइ, समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलभइ।। समणोवासए | भंते! तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे किं चयइ ? गोयमा ! जीवियं चयइ, दुच्चयं चयइ, दुक्करं करेइ, दुल्लह लहइ, बोहिं बुज्झइ, तओ पन्छा सिझड़, जाव अंतं करेइ । -भग० श ७ । १ । प्र०८, पृ० ५०६ तथारूप श्रमण साधु को प्राशुक-एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार देंता हुआ श्रमणोपासक-उन श्रमण साधु को समाधि उत्पन्न करता है तो स्वयमेव भी समाधि को प्राप्त होता है तथा जीवितव्य अर्थात् जीवन-निर्वाह के कारणभूत वस्तुओं का त्याग करता है तथा कठिनता से त्यक्त होने वाली वस्तुओं का त्याग करता है, दुर्लभ वस्तु को प्राप्त करता है-बोधि ( सम्यक्त्व ) को प्राप्त करता है । तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । •७३.१३'३ अणगार और अन्तक्रिया :------ (क) ते (से जहानामए अणगारा भगवंतो) णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइ सामन्नपरियागं पाउणंति पाउणंति बहुबहु आबाहंसि उत्पन्नंसि वा अणुप्यन्नंसि वा बहूई भत्ताई पञ्चक्खंति, पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताइ अणसणाए छेदेति, अणसणाए छेदित्ता जस्सट्ठाए कीरइ (थेरकप्पभावे जिणकप्पभावे ) नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणभावे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेजा फलगसेजा कट्ठसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे पर-घर-पवेसे लद्धावलद्ध माणावमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गाम-कंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जति तम8 आराहेंति, तम8 आराहित्ता चरमेहिं उस्सास "Aho Shrutgyanam" Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश निस्सा सेहिं अनंत अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवल-वर-नाणदंसण समुपाति, समुपाडित्ता तओ पच्छा सिज्यंति, बुज्यंति, मुञ्चति, परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंत करेंति । सूर्य ० श्रु २ । अ २ | सू २३ | पृ० १५६ २२७ शयन इस प्रकार साधुचर्या में बिहार करते हुए वे अनगार भिक्षु बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय को पालन कर, रोगादि के उत्पन्न होने या न होने पर बहु प्रकार के अशनादि का परित्याग करके अनशन स्वीकार करते हैं तथा बहुत काल तक अनशन का पालन करते हैं । इसके बाद जिस उद्देश्य के लिए नग्न हुए, मुण्डित हुए, स्नान-दन्तमंजन आदि शरीरसंस्कार को छोड़ा, छत्र तथा पादुका का त्याग किया, भूमि, काठ, शिला पर किया, केशलुंचन किया, ब्रह्मचर्य का पालन किया, पर घर से भिक्षा मांगी, भिक्षा मिलने, न मिलने पर समता धारी, मान-अपमान - अवहेलना - निन्दा अवज्ञा भर्त्सना तर्जना तथा ताड़ना सही, ग्रामीण लोगों के ऊँच-नीच कंटक सम वचन सहे, बावीस परीषह के उपसर्ग आदि सहे तथा सम्यग् ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की आराधना की तथा उस मार्ग की आराधना करते हुए वे अणगार भिक्षु उस उद्देश्य की प्राप्ति स्वरूप अन्तिम श्वास-निःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, व्याघात रहित, निरावरण परिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करते हैं और फिर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त और परिनिवृत्त होकर सभी दुःखों का करते हैं ! अन्त (ख) एवामेव मंडियपुत्ता ! अत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स ईरियासमियरस - जाव-गुत्तबंभयारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, चिमाणस्स, णिसीयमाणत्स, तुयट्टमाणस्स आउत्तं वत्थ- पडिग्गह- कंबल पायपुंछणं गेण्हमाणस्स, णिक्खिवमाणस्स, जाव - चक्र म्हणिवायमपि बेमाया सुहुमा ईरियावहिया किरिया कज्जइ, सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, विश्यसमयवेश्या, तइयसमयणिजरिया, सा बद्धा, पुट्ठा, उदीरिया, वेड्या, णिजिण्णा, सेयकाले अकम्मं वा वि भवइ । से तेणट्टणं मंडियपुत्ता ! एवं दुबइ जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयइ, जाव- अते अंतकिरिया भवइ । -भग० श ३ । ३ । प्र १५ का अंश । पृ० ४५७-५८ जो आत्मार्थी संवृत अणगार ईर्या भाषा एषणा आदानभंड निक्षेपण - उच्चार-प्रसवण आदि समितियों से समित, मनोगुप्ति आदि गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचारी, उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, सावधानी पूर्वक ठहरने वाले, सावधानतापूर्वक सोने वाले, सावधानतापूर्वक वस्त्र - पात्र - कम्बल - रजोहरण आदि को ग्रहण करने वाले या रखने वाले हैं उनको यावत अक्षिनिमेष ( आँख की पलक टमकारने ) मात्र समय में विमात्रापूर्वक विविध मात्रा वाली योग मात्र से ऐर्यापथिकी किया लगती है । "Aho Shrutgyanam" Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ क्रिया-कोश . यह क्रिया प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में वेदित होती है और तृतीय समय में निर्जीर्ण हो जाती है। वह बद्ध-स्पृष्ट-उदीरित-वेदित-निर्जरित क्रिया उसी तीसरे समय में अकर्म हो जाती है। इस कारण से ऐसा कहा गया है कि जब वह जीव सदा समपूर्वक नहीं कम्पता है यावत् उन-उन भावों में नहीं परिणमता है तब मरण के समय वह जीव अन्तक्रिया करता है अर्थात उसकी सकल कर्म क्षय रूप अन्तक्रिया होती है। -(देखो क्रमांक ३७.४ तथा '६७.३) (ग) से णूणं भंते ! कंखपदोसे णं खीणे समणे णिगंथे अंतकरे भवइ ? अतिमसरीरिए वा ? बहुमोहे वि य णं पुव्विं विहरित्ता, अह पच्छा संवुडे कालं करेइ, तओ पच्छा सिझइ, बुज्झइ, जाव-अंतं करेइ ? हता, गोयमा ! कखपदोसे खीणे, जाव-अतं करे। --भग० श १ । उ ६ । प्र २६४ । पृ० ४११ क्या कांक्षा प्रदोष के क्षीण होनेपर श्रमण 'निर्ग्र'थ अन्तकर और अन्तिमशरीरी होता है अथवा पूर्वावस्था में बहु मोह वाला होकर विहार करे फिर संवर वाला होकर यदि काल करे--तत्पश्चात क्या सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । हाँ । श्रमण निर्यथ कंक्षा प्रदोष के नष्ट हो जाने पर यावत सर्व दुःखों का अन्त करता है। '७३.१३ ४ लवसप्तम देव का जीव और अंतक्रिया : अस्थि णं भंते ! लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा ? हंता, अस्थि । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-'लवसत्तमा देवा' लवसत्तमा देवा ? गोयमा ! से जहानामए-केइ पुरिसे तरुणे जाव - निउणसिप्पोवगए सालीण वा, वीहीण वा, गोधूमाण वा, जवाण वा, जवजवाण वा, पक्काणं, परियाताणं, हरियाणं, हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपज्जणएणं असिअएणं पडिसाहरिया पडिसाहरिया पडिसंखिविया पडिसंखिविया जाव-इणामेव इणामेव त्ति कटु सत्तलवए लुएज्जा, जइ णं गोयमा ! तेसि देवाणं एवइयं कालं आउए पडुप्पए तो गं ते देवा तेणं चेव भवम्गहणेणं सिंज्झता जाव अंतं करता, से तेण?णं जाव लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा । -भग० श० १४ । उ ७ । प्र ११ । पृ० ७०४ लवसप्तम अनुत्तरोपपातिक-सर्वार्थसिद्धि देव के पूर्व मनुष्यभव में (जहाँ से वह मरण पाकर देवभव में उत्पन्न हुआ है ) यदि सात लव कालप्रमाण आयुष्य अधिक होता तो वह लवसप्तमदेव का जीव उसी भव में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर यावत् अंतक्रिया करता। अन्त. "Aho Shrutgyanam" Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २२६ किया करने में केवल सात लवकालप्रमाण आयुष्य की कमी रह गई थी ; इसलिए देवलोक में उत्पन्न होना पड़ा अतः उन देवों को लक्सप्तमदेव कहा जाता है । सात लवप्रमाण काल लगभग इस प्रकार होता है :-कोई तरुण पुरुष जो यावत् शिल्पकला में निपुण हो वह पके हुए, झुके हुए, पीले पड़े हुए, पीली नालवाले शालि, श्री हि, गेहूँ, जव या जवाजव को एकत्रित करके, मुष्टि में पकड़कर शीघ्रतापूर्वक तीक्ष्ण नई धार वाले दाँती-हँसिया से काटे तो उस काटने की क्रिया में सात लवप्रमाण काल लगता है। •७३.१३.५ दक्षिणार्ध भारतवासी मनुष्य और अन्तक्रिया :-- दाहिणभरहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णते ? गोयमा ! ते णं मणुया बहुसंघयणा बहुसंठाणा बहुउच्चत्तपन्जवा बहुउपज्जवा बहूई वासाई आउं पालेंति पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी अप्पेगड्या तिरियगामी अप्पेगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइया सिज्मंति, बुज्झिति, मुच्चति, परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । -जम्बु । वक्ष १ । सू ११ ! पृ० ५३७ दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के कितनेक मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। :७३.१३.६ उत्तरार्ध भारतवासी मनुष्य और अन्तक्रिया :-- उत्तरभरहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! तेणं मणुया बहुसंघयणा जाव अप्पेगइया सिझति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । -जम्बु० ! वक्ष १ ! सू १६ । पृ० ५४२ उत्तरार्ध भरतक्षेत्र के कितनेक मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते है। .७३.१३.७ भरतक्षेत्र की विद्याधर-श्रेणी के मनुष्य और अन्तक्रिया : विजाहरसेढी णं भंते ! मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! ते णं मणुया बहुसंघयणा बहुसंठाणा बहुउच्चत्तपज्जवा बहुआउपजवा जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । - जम्बु० ! वक्ष १ । सू १२ । पृ० ५३६ विद्याधर श्रेणी के कितनेक मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० क्रिया - कोश *७३*१३८ सुषम-दुःषम काल में भारतवासी मनुष्य और अंतक्रिया तीसे णं भंते! समाए पच्छिमे तिभागे भरहे वासे मणुयाणं फेरिसए आयारभाव पडोयारे होत्था ? गोयमा ! तेसिं मणुयाणं छव्विहे संघयणे छव्विहे ठाणे बहूणि धणुयाणि उड्डू उच्चत्तेणं जहण्णेणं संखिज्जाणि वासाणि उक्को सेणं असंखिजाणि वासाणि आउयं पालंति पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी अप्पेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मस्सगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगश्या सिज्यंति जाव सन्वदुक्खाणमंत करेंति । --जम्बु । वक्ष २ । सू २७ । पृ० ५५० सुषम- दुःषम काल के तीसरे भाग में [अवसर्पिणी काल के तीसरे आरा के तीसरे भाग में] कितनेक मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । *७३ १३.६ दुषम- सुषम काल में भारतवासी मनुष्य और अन्तक्रिया : तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मणुयाणं केरिसए आयारभाव पडोयारे पन्नत्ते ? गोयमा ! तेसिं भणुयाणं छव्विहे संघयणे छविहे संठाणे बहूई धणू उड्ड उच्चत्तेणं जहणेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुग्वकोडी आउयं पार्लेति पालइत्ता अप्पेश्या णिरयगामी जाव देवगामी अप्पेगश्या सिज्यंति बुज्यंति जाव सव्वदुखतं करोति - जम्बु । वक्ष २ । सू ३४ | ० ५५६ दुःषम- सुषम काल में कितनेक भारतवासी मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । *७३·१३.१० दुःषम काल में भारतवासी मनुष्य और अन्तक्रिया : (क) तेसिं मणूयाणं छविहे संघयणे छविहे संठाणे बहुईओ रयणीओ उड्ड उच्चतेणं जहणेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगं वासस्यं आउयं पार्लेति पालकत्ता अप्पेगइया णिरयगामी जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । -- जम्बु । वक्ष २ | सू ३५ | १० ५५७ हों ] दुःषम काल में भी सिद्ध कितनेक मनुष्य [ जो दुःषम- सुषम काल में जन्मे हुए बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत् सर्वं दुःखों का अन्त करते हैं । ;-- (ख) [ पुलाए णं भंते ] जह ओसप्पिणिकाले होज्जा १, सुसमाकाले होज्जा २, सुसमदुसमाकाले होज्जा ४, दूसमाकाले होज्ना ५, दूसमदुसमाकाले पडुच्च णो सुसमसुसमाकाले होज्जा १, जो सुसमाकाले "Aho Shrutgyanam" होज्जा किं सुसमसुसमाकाले होज्जा ३, दूसमसुसमाकाले होज्जा ६ ? गोयमा ! जमणं होज्जा २, सुसमदुसमाकाले Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २३१ वा होज्जा ३, दूसमसुसमाकाले वा होज्जा ४, णो दूसमाकाले होज्जा ५, जो दूसमदूसमाकाले होज्जा ६, संतिभावं पडुब णो सुसमसुसमाकाले होज्जा, जो सुसमाकाले होज्जा, सुसमदूसमाकाले वा होज्जा, दूसमसुसमाकाले वा होज्जा, दूसमाकाले वा होज्जा, णो दूसमदूसमाकाले होज्जा | -भग० । श २५ । उ ६ । प्र ५२ | पृ० ८७८ (ग) नियंठो सिणाओ य जहा पुलाओ । -भग० । श २५ । उ ६ । प्र० ५८ । पृ० ८७६ (घ) सुहुम संपराइओ जहा नियंठो । एवं अहक्खाओ वि । भग० । श २५ | उ ७ । प्र २७ । पृ० ८८८ (च) अहवखाए पुच्छा । गोयमा ! एवं अहक्खायसंजए वि जाव - अजहन्नमणुको सेणं अणुत्तर विमाणेसु उववज्जेज्जा ; अत्थेगइए सिज्म, जाव-अतें करे । - - भग० श २५ । उ ७ । प्र २६ । पृ० दुःषमकाल में अंतक्रिया करने वाले मनुष्य दुःषम- सुषम काल में जन्मे हुए होते है क्योंकि दुःषमकाल में जन्मे हुए मनुष्यों को यथाख्यातचारित्र नहीं आता है । किन्तु दुःषमसुषमकाल में जन्मे हुए मनुष्य उस काल में या दुःषमकाल में प्रत्रजित होकर यथाख्यातचारित्र प्राप्त कर सकते हैं । यथाख्यातचारित्र को प्राप्त किये बिना कोई भी जीव सिद्धबुद्ध-मुक्त नहीं होता है यावत् सर्व दुःखों का अंत नहीं करता है । अतः दुःषमकाल में जन्मे हुए मनुष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अंत नहीं कर सकते हैं । '७३.१३ ११ आचार्य उपाध्याय कितने भव में अन्तक्रिया करते हैं : आयरिय उवज्झाए णं भंते! सविसयंसि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे, अगिलाए उवगिण्हमाणे करहिं भवग्गहणेहिं सिज्झर जाव अंतं करेइ ? गोयमा ! अत्थे तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, अत्थेगइए दोच्चेण भवग्गहणेणं सिज्मर, तच पुण्ण भवग्गहणं णाइक्कमइ । - भग० श ५। उ ६ । प्र १७ । पृ० ४८२ टीका - द्वितीयः, तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवाऽन्तरितो दृश्यः, चारित्रवतोऽनन्तरो देवभव एव भवति, न च तत्र सिद्धिरस्ति इति । अथवा सूत्र तथा अर्थ के अग्लान भाव से सहायता अपने विषय में अर्थात् आधाकर्मादि आचार के विषय में विषय में शिष्य वर्ग को अग्लान भाव से स्वीकार करने वाले, करने वाले आचार्य और उपाध्याय कितने ही उसी भव में सिद्ध भव में सिद्ध होते हैं किन्तु तीसरे भव ग्रहण की कोई भी अतिक्रमण नहीं करते हैं अर्थात् तीसरे भव में अवश्य सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अंत करते हैं । होते हैं, कितने ही दूसरे " Aho Shrutgyanam" Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ क्रिया-कोश दूसरा तथा तीसरा मनष्यभव देवभव के अन्तराल वाला जानना अर्थात दूसरे मनुष्यभव के पहले भी देवभव होता है तथा तीसरे मनुष्यभव के पहले भी देवभव होता है क्योंकि चारित्रवाला व्यक्ति अनन्तर भव में देवलोक में ही जाते हैं वहाँ सिद्धि नहीं हो सकती। “७३.१३.१२ एकान्त पण्डित : अन्तक्रिया गोयमा! एगंतपंडियस्स णं मणसस्स केवलं एवं दो गईओ पण्णायंति, तंजहा–अतकिरिया चेव, कप्पोववत्तिया चेव । -भग० श१ । उ प्र २६१ । पृ० ४०८ एकान्त पण्डित मनुष्य - साधु की दो गतियाँ कहीं गई हैं, यथा-अन्तक्रिया और कल्पोपपत्तिका। •७३.१३.१३ भवसिद्धिक जीव और कितने भव में अन्तकिया : संतेगइया भवसिद्धिया जे जीवा, ते एगेणं भवग्गहणणं सिझिस्संति बुझिसंति मुञ्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सचदुक्खाणमंतं करिस्सति । --सम० सम १ 1 सू१ । पृ० ३१७ अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणेहि सिन्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम २ । पृ० ३१७-१८ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिम्झिरसंति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। -सम० सम ३ । पृ० ३१८ अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवरगहणेहि सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति । -सम० सम ४] पृ० ३१६ संतेगड्या भवसिद्धिया जीवा जे पंचहिं भवग्गहणेहिं सिझिस्संति जाव अंतं करिस्संति। –सम० सम ५ । पृ ३२० संतेगझ्या भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिन्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। -सम० सम ६ । पृ० ३२० . संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जेणं सत्तहिं भवग्गहणेहि सिन्मिासंति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ! –सम सम ७ ! पृ० ३२१ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्टहिं भवम्गहणेहिं सिज्झिरसंति बुझिस्संति आव अंतं करिस्संति। --सम० सम ८। पृ० ३२२ "Aho Shrutgyanam" Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २३३ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहि सिन्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । -----सम० सम६ । पृ० ३२३ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिरसंति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । -सम० सम १० । पृ० ३२४ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कारसहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम ११ । पृ. ३२५ संतेगझ्या भवसिद्धिया जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । -~-सम० सम १२ पृ. ३२६ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेरसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिरसंति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। --सम० सम १३ । पृ० ३२७ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउद्दसहि भवग्गहणेहि सिम्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । -- सम० सम १४ । पृ० ३२८ - संतेगड्या भवसिद्धिया जीवा जे पन्नरसहिं भवग्गहणेहि सिन्झिस्संति बुझिरसंति मुच्चिरसंति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । -सम० सम १५! पृ० ३२६ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सोलसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुञ्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम १६ । पृ० ३३० संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिरसंति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सवदुक्खाणमंतं करिस्संति । -सम० सम १७ 1 पृ० ३३१ - संतेगइया भवसिद्धिया ( जीवा ) जे अट्ठारसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिरसंति बुज्झित्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम १८। पृ० ३३२ "Aho Shrutgyanam" Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २३४ क्रिया-कोश संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवम्गहणेहिं सिन्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिरसंति परिनिव्वाइसंति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम १६ । पृ० ३३३ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे वीसाए भवग्गहणेहिं सिन्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । ----सम० सम २० । पृ० ३३४ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एकवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिरसंति बुज्झिासंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम २१ । पृ० ३३५ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बावीसं भवग्गहणेहि सिम्झिरसंति बुज्झिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम २२ । पृ० ३३६ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेवीसाए भवम्गहणेहि सिभिस्संति बुझिस्संति मुञ्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । -सम० सम २३ । पृ॰ ३३६ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिरसंति बुज्झिरसंति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । ---सम० सम २४ ! पृ० ३३७ संतेगड्या भवसिद्धिया जीवा जे पणवीसाए भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुश्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । -सम° सम २५ । पृ० ३३८ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छव्वीसेहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुझिसति मुश्चिस्स ति परिनिव्वाइस्सति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सं ति ! ---सम° सम २६ । पृ० ३३८-३६ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गणेहिं सिज्झिम्संति बुझिस्संति मुच्चिरसंति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंत करिस्संति । ___-~सम० सम २७ । पृ० ३३६ संतेगड्या भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुञ्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । -सम० सम २८। पृ० ३४० "Aho Shrutgyanam Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीस भवग्गणेहिं सिज्झिरसंति बुझिामति मुञ्चित्संति परिनिव्वाइसंति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । -सम० सम २६ । पृ० ३४१ सतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवम्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्मंति मुश्चिस्संति परिनिव्वाइस्स ति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ! -सम० सम ३० 1 पृ० ३४३ संतेगड्या भवसिद्धिया जीवा जे एक्कतीसेहिं भवग्गणेहिं सिभिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइरसंति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । सम सम ३१ । पृ० ३४४ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम ३२ 1 पृ० ३४५ सतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसं भवग्गहणेहि सिज्झिरसंति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । --सम० सम ३३ । पृ० ३४५ कई एक भवसिद्धिक जीव एक पुनर्भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण को प्राप्त होते हैं, सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। कई एक भवसिद्धिक जीव दो पुनर्भव, सोन पुनर्भव, चार पुनर्भव, पाँच पुनर्भव, छः पुनर्भव, सात यावत् तेत्तीस पुनर्भव ग्रहण करके सिद्ध-बुद्ध मुक्त होते हैं, निर्वाण को प्राप्त होते हैं तथा सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ! । यद्यपि पाठ ३३ भव तक पुनर्भव ग्रहण करके मुक्त होने के हैं लेकिन ऐसे भी भवसिद्धिक जीव होने चाहिए जो संख्यात पुनर्भव, असंख्यात पुनर्भव तथा अनन्त पुनर्भव ग्रहण करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं निर्वाण को प्राप्त होते हैं, तथा सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। •७३.१५ अन्तक्रिया और अंतकर का ज्ञान :---- •७३.१५.१ छद्मस्थ अंतक्रिया करने वाले को नहीं जानता है : (क) दस ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं न जाणइन पासइ, तंजहा–१ धम्मत्थिकायं, २ अधम्मत्थिकायं, ३ आगासस्थिकायं, ४ जीवं असरीरपडिबद्धं, ५ परमाणु- . "Aho Shrutgyanam" Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश पोग्गलं, ६ सह, ७ गंधं, ८ वायं, ६ अयं जिणे भविस्सइ वा ण वा भविस्सइ, १० अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा करेस्सइ । -भग० श०८।उ २ । प्र० १६ । पृ० ५४० (ख) दस ठाणाई छउमत्थे णं सव्वभावेणं ण जाणइ ण पासइ, तंजहाधम्मत्थिकायं जाव वायं अयं जिणे भविस्सइ वा ण वा भविस्सइ अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सइ वा ण वा करेस्सइ । -~-ठाण० स्था १० । सू ७५४ ! पृ० ३१० छद्मस्थ जीव धर्मास्तिकायादि दश बोलों को सर्वभाव से ( साक्षात-प्रत्यक्ष रूप से ) नहीं जानता है, नहीं देखता है। कोई जीव अंतक्रिया करेगा या नहीं करेगा--ऐसा सर्वभाव से छमस्थ जीव नहीं जानता है, नहीं देखता है । (ग) तहा णं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो इण? सम? सोचा जाणइ पासइ ; पमाणओ वा । -भग० श ५। उ प्र २२। पृ० ४७७ छदमस्थ मनुष्य केवली की तरह अंतकर जीव को अंतिमशरोरी जीव को नहीं जानता है, नहीं देखता है, पर किसी से सुनकर अथवा प्रमाण द्वारा अंतकर जोव और अंतिमशरीरी जीव को जानता है---देखता है । .७३.१५.२ केवली का अन्तक्रिया और अन्तकर को जानना और देखना : (क) एयाणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे ( अरहा जाणइ पासइ) जाव अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सइ वा ण वा करेस्सइ । -ठाण स्था• १० । सू ७५४ । पृ० ३१० (ख) एयाणि चेव उप्पन्ननाणदसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ, तंजहा-धम्मत्थिकायं, जाव करेस्सइ वा न वा फरेस्सइ । -भग० श८। उ २ । प्र १६ । पृ० ५४० उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहंत—जिन-केवली कोई जीव अन्तक्रिया करेगा या नहीं करेगा-ऐसा सर्वभाव से जानते हैं, देखते हैं । (ग) केवली गं भंते ! अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ ? हता, गोयमा ! जाणइ पासइ । जहा णं भंते ! केवली अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासह तहा णं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ ? गोयमा! जो इण? समठे, सोचा जाणइ, पासइ ; पमाणओ वा । ----भग० श ५ । उ ४ ! प्र २१,२२ । पृ० ४७७ "Aho Shrutgyanam" Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २३७ केवली अन्तकर–अन्तक्रिया करने वाले जीव को तथा अन्तिमशरीरो जीव कोउसी भव में अन्तक्रिया करने वाले जीव को जानते हैं-देखते हैं ! ७३.१५.३ अरिहंत-जिन केवली का अन्तक्रिया करने के पहले जीव तथा अजीव को जानना - देखना :--- तेसिं च सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिन्नंसि जाव उप्पिं उडमुईगागारसंठियंसि उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ पासइ अजीवे वि जाणइ पासइ तओ पच्छा सिझइ जाव अंतं करेछ । -भग० श ७ । उ १ । प्र० ४ । पृ० ५०८-६ - उस नीचे में विस्तीर्ण यावत् ऊपर में ऊर्ध्वमृदंग के आकारवाले शाश्वतलोक में उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहंत-जिन-केवली जीव को जानते हैं और देखते हैं तथा अजीव को भी जानते हैं और देखते हैं ; उसके पश्चात् वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। ७३.१६ अन्तक्रिया में होने वाले सकल कर्मक्षय को समझाने के दृष्टांत : से जहा नामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जाय-तेयंसि पक्खिवेज्जा, से नूनं मंडियपुत्ता ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? हंता, मसमसाविज्जइ । से जहा नामए केइ पुरिसे तत्तसि अयकवल्लंसि उदयबिंदु पक्विवेजा, से नूनं मंडियपुत्ता! से उदयबिंदु तत्तसि अयकवल्लंसि पक्खित्त समाणे खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ ? हंता, विद्धंसमागच्छ३ । से जहा नामए हरए सिया पुण्णे, पुण्णाप्पमाणे, वोलट्टमाणे, वोसट्टमाणे, समभरघडत्ताए चिट्ठइ ? हंता, चिट्ठइ । अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरियंसि एगं महं णाव सयासवं, सयच्छिदं ओगाहेजा, से नूनं मंडियपुत्ता ! सा णावा तेहि आसवदारेहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी, पुण्णा, पुण्णप्पमाणा, वोलट्टमाणा, वोसट्टमाणा, समभरघडत्ताए चिठ्ठछ । हता, चिट्टइ। "Aho Shrutgyanam" Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश अहे के पुरिसे तीसे नावाए सव्त्रओ समंता आसवदाराहिं पिछेइ, पिहित्ता नावा -- उम्सिचणरणं उदयं उहिंसचिज्जा, से नूनं मंडियपुत्ता ! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सि चिज्जंसि समाणंसि खिप्पामेव उड्ढं उद्दाइ ? हंता, उद्दाइ ! - भग० श ३ । ३ । प्र १५ का अंश । पृ० ४५७ अक्रिय — कंपन नहीं करने वाले जीव के सकलकर्मक्षय-रूपा - अन्तक्रिया होती -उस जीव के सकल कर्मों का क्षय किस प्रकार होता है-उसको तीन उदाहरण से उक्त पाठ में समझाया गया है । २३८ यदि कोई व्यक्ति सूखे घास के पूले को अग्नि में डाले तो वह सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही तुरन्त जल जाता है । यदि कोई व्यक्ति जल की बूँद को तपे हुए तवे या लोहे की कड़ाही पर डाले तो वह जल की बूँद तवे पर डालते ही तुरन्त नष्ट हो जाती है । कोई एक सरोवर- -जो पानी से परिपूर्ण हो, पूर्ण भरा हुआ है, लबालब भरा हुआ हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उससे पानी छलक रहा हो, पानी से भरे हुए घड़े के समान वह सर्वत्र पानी से भरा हो, उस सरोवर में यदि कोई व्यक्ति, सैकड़ों छोटे छिद्रों वाली तथा सैकड़ों बड़े छिद्रोंवाली एक बड़ी नौका को डाले तो वह पानी से लबालब भर जाती है, उससे पानी छलकने लगता है, तथा पानी से भरे हुए घड़े की तरह पानी से भर जाती है । और यदि कोई व्यक्ति, उस नाव के समस्त छिद्रों को बन्द कर दे तथा नाव में भरे हुए पानी को उलीच दे तो वह नाव तुरन्त पानी के ऊपर आ जाती है । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति एजनादि क्रिया न करे तो उसके सकल कर्म अग्नि में निक्षिप्त घास के पूले तथा तप्त कड़ाही में निक्षिप्त जल बूँद की तरह तुरन्त नष्ट हो जाते हैं । तथा जैसे नौका के छिद्र बन्द हो जाने तथा भरा हुआ पानी उलीच देने से नौका ऊपर उठ जाती है उसी प्रकार कर्मों का आगमन बन्द होने से और आये हुए कर्मों के नष्ट होने से अक्रिय -- कम्पन-रहित जीव का कर्मों से छुटकारा हो जाता है तथा उस जीव की अन्तक्रिया होती है । *७३'१७ भगवान् महावीर के कितने शिष्यों ने अंतक्रिया की : ते णं कालेणं, ते णं समएणं महासुक्काओ कपाओ, महासग्गाओ महाविमाणाओ दो देवा महिड्डिया, जाव-महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउ भूआ ; तएणं ते देवा समणं भगवं महावीरं मणसा चेव वंदति णमंसंति ; माणसा चैव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छति "Aho Shrutgyanam" Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २३६ कइ भंते ! देवाणुप्पियाणं, अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति, जाव-अंतं करेहिंति ? तए णं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहि भणसा पुढे तेसिं देवाणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति, जाव अंतं करेहिंति। -भग० ५ । उ ४ । प्रे १५ । पृ० ४७६ ___ महाशुक्र देवलोक में, महासर्ग महा विमानवासी महाऋद्धिवाले यावत् महाभाग्यशाली दो देव श्रमण भगवान महावीर के पास प्रादुर्भूत हुए तथा उन्होंने मन ही मन से भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार करके मन से ही प्रश्न पूछा कि हे भगवन् ! आपके कितने सत्त शिध्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे यावत सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। श्रमण भगवान महावीर ने उन देवों को मन द्वारा ही उत्तर दिया कि हे देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। टीका-(प्र १४ पर ) 'अंतकरे चेव' ति भवच्छेदकरः स च दूरतरभवेऽपि स्याद् अत आह–'अंतिमसरीरिए चेव' त्ति चरमशरीर इत्यर्थः । ७४ सदनुष्ठान क्रिया का उपदेश •७४.१ दुविहं. समिश्च मेहावी, किरियमक्वायमणेलिसंणाणी। आयाणसोयमतिवायसोयं जोगं च सव्वसो णच्चा ।। -आया० श्रु १ ! अ६ । उ १ । गा १६ । पृ० २६ टोका-द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधं किं तत्कर्म तच्चेर्याप्रत्ययं सांपरायिकञ्च तद्विविधमपि समेत्य ज्ञात्वा मेधावी सर्वभावज्ञः क्रियां संयमानुष्ठानरूपा कम्र्मोच्छेत्रीमनीटशीमनन्यसदृशीमाख्यातवान् किंभूतो ज्ञानी केवलज्ञानवानित्यर्थः किं वा परमाख्यातवानिति दर्शयति ! आदीयते कर्मानेनेत्यादानं दुःप्रणिहितमिन्द्रिय मादानश्च स्रोतश्च आदानस्रोतस्तज्ज्ञात्वा तथातिपातस्रोतश्चोपलक्षणार्थत्वादस्य मृषावादादिकमपि ज्ञात्वा तथायोगश्च मनोवाकायलक्षणं दुःप्रणिहितं सर्वशः सवः प्रकारैः कर्मबंधायेति ज्ञात्वा स्रोतक्रिया संयमलक्षणामाख्यातवानिति संबंधः । दो प्रकार के कर्मों को अर्थात् ऐापथिक तथा सांपरायिक कर्मों को जानकर ---सर्वभाव को जानने वाले मेधावी ने संयमानुष्ठान रूप कर्मों का छेदन करने वाली अनुपम क्रिया का उपदेश दिया है । आदानस्रोत, अतिपातस्रोत और योगों को सर्व प्रकार से कर्मबन्धन का स्रोत-आस्रव जानकर केवलज्ञानी ने संयमानुष्ठान (सदनुष्ठान ) क्रिया का उपदेश दिया है। "Aho Shrutgyanam" Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० क्रिया - कोश ७४२ किरियं च रोयए धीरे, अकिरियं परिवजए । - उत्त० अ १८ । गा ३३ । पृ० १००७ टीका - (लक्ष्मीवल्लभ) धीरः अक्षोभ्यः क्रियां जीवस्य विद्यमानतां जीवसत्तां रोचयति स्वयं स्वस्मै अभिलषयति तथा परस्मै अपि अभिलषयतीत्यर्थः अथवा क्रियां सम्यक् अनुष्ठानरूपां प्रतिक्रमणप्रति लेखनरूपां मोक्षमार्गः साधनभूतां ज्ञानसहितां क्रियां रोचयति । धीर पुरुष क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया का परित्याग करे | दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्ति आदि क्रियाओं में रुचि रखे अथवा क्रियावाद -- जीवाजीवादि अस्तिवाद में रुचि रखे ; अक्रिया अर्थात् कायिको आदि दुष्क्रिया का परित्याग करे अथवा नास्तिवाद का परित्याग करे । -७४३ णो काहिए होज्ज संजए, णच्चा धम्मं अणुत्तरं, पासणिए ण य संपसारए । कयकिरिए ण यात्रि मामए ॥ — सूय श्रु १ | अ २ । उ २ । गा २८ । पृ० १०७ टीका - [ 'कयकिरिए' शब्द पर ] कृता स्वभ्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियस्तथाभूतश्च । अनुत्तर—लोकोत्तर धर्म को जानकर संयति--संयमानुष्ठान क्रिया को करता रहे । संयमानुष्ठान क्रिया में जो कृत अभ्यस्त होता है वह 'कयकिरिए' अर्थात् कृतक्रिय होता है । ८ जीव और क्रिया ८११ जीव की सक्रियता / अक्रियता जीवाणं भंते! किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि। से केणट्टणं भंते ! एवं वुश्चइ - 'जीवा सकिरिया वि अकरिया वि ?" गोयमा ! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य । तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धाणं अकिरिया । तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुबिहा पन्नत्ता, तं जहा – सेलेसिपडिवण्णगा य असेले सिपडिवण्णगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं अकिरिया, -- तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते णं सकिरिया -- से ए तेणट्टेणं एवं वुच्चइ -' - 'जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि' । -पण्या० प २२ । सू १५७३ | पृ० ४७६ : "Aho Shrutgyanam" Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २४१ जीव सक्रिय भी होते हैं, अक्रिय भी होते हैं । क्योंकि जीव दो प्रकार के होते है-संसारसमापन्न और असंसारसमापन्न । असंसारसमापन्न जीव सिद्ध होते हैं और वे अक्रिय होते हैं । संसारसमापन्न जीव दो प्रकार के होते हैं --- शैलेशीप्रतिपन्न तथा अशैलेशी प्रतिपन्न । जो जीव शैलेशी प्रतिपन्न होते है वे अक्रिय होते हैं। जो जीव अशैलेशीप्रतिपन्न होते हैं वे सक्रिय होते हैं । प्रज्ञापना टीकाकार के अनुसार जो जोव शैलेशीत्व को प्राप्त हुए हैं, वे सूक्ष्म तथा बादर काययोग, वचनयोग, तथा मनोयोग का निरोध कर लेते हैं अतः उन्हें अक्रिय कहा गया है । शैलेशी - प्रतिपन्न जीव के ऐर्यापथिक तथा एजनादि क्रिया का भी अभाव हो जाता अतः वे सब प्रकार की परिस्पंदनात्मक क्रियाओं से रहित हो जाते हैं । उनकी काया का स्वप्रयोग से किसी प्रकार का परिस्पंदन नहीं होता है, परप्रयोग से परिस्पंदन सम्भव है । ८१२ दण्डक के जीव की सक्रियता और अक्रियता :--- जीवे मणूसे य अकिरिए वुश्चइ, सेसा अकिरिया न वुच्चति । . - पण्ण० प २२ । सू १६०४ | पृ० ४८१ टीका - जीवपदे मनुष्यपदे चाक्रिया इत्यपि वक्तव्यं, विरतिप्रतिपत्तौ व्युत्सृष्ट. त्वेन तन्निमित्त क्रियाया असंभवात् शेषा अक्रिया नोच्यन्ते, विरत्यभावतः स्वशरीरस्य भवान्तरगतस्याव्युत्सृष्टत्वेनावश्यं क्रियासंभवात् । जीव सक्रिय भी होते हैं, अक्रिय भी होते हैं। मनुष्य सक्रिय भी होते हैं, अक्रिय भी होते हैं । दण्डक के अवशेष जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते है । उपर्युक्त विवेचन कायिकी आदि पंच क्रियाओं से होने वाली हिंसा की अपेक्षा जीव अन्य जीव के प्रति कितना सक्रिय अक्रिय होता है - इस सम्बन्ध में है। जीव पद में कोई एक मनुष्य इस अपेक्षा से अक्रिय है क्योंकि विरति की प्राप्ति में शरीर का व्युत्सर्ग होने के कारण शरीर निमित्तक क्रिया असम्भव है । दण्डक के बाकी के जीव अक्रिय नहीं होते हैं क्योंकि उनके विरति का अभाव होता है तथा भवान्तर के शरीर का व्युत्सर्ग नहीं होने के कारण उनके क्रिया अवश्य सम्भव है । ३१ ८१३ उत्पल आदि वनस्पतिकायिक जीव की सक्रियता - अक्रियता : ( उप्पले णं भंते! एगपत्तर ) ते णं भंते! जीवा किं सकिरिया अकिरिया ? | गोयमा ! नो अकिरिया, सकिरिए वा सकिरिया वा । SHIR -- भग० श ११ । उ १ । प्र २२ | पृ० ६२३ " Aho Shrutgyanam" Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश सालुए णं भंते ! एगपत्तए XXX उप्पलुद्दे सगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अनंतखुत्तो Xxx पलासे णं भंते! एगपत्तए XXX उप्पलुद्दे सग-वत्तव्वया - अपरिसेसा भाणियव्वा xxx 1 एगपत्तe xxx एवं जहा - पलासुद्द सए तहा भाणि यव्वे xxx ! नालिए णं भंते! एगपत्तर xxx एवं कुंभिउह सगवन्तब्वया निरवसेसं ( सा ) भाणियव्वा xxx २४२ कुंभिए णं भंते! पउमे णं भंते ! एगपत्तए xxx एवं उप्पलुद्दे सगवत्तव्वया निरवसेसा भाणि यम्बा xxx 1 कन्निए णं भंते ! एगपत्तए xxx एवं चैव निरवसेसं भाणियध्वं xxx ! नलिणे णं भंते! एगपत्तए xxx एवं चेव निरवसेसं जाय अनंतखुत्तो । - भग० श ११ । उ २ से ८ | पृ० ६२५ एकपत्रीय उत्पल जीव सक्रिय होता है, अक्रिय नहीं, तथा सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं । इसी प्रकार एकपत्री शालूक, एकपत्री पलास, एकपत्री कुम्भक, एकपात्री नालिक, एकपत्री पद्म, एकपत्री कर्णिका तथा एकपत्री नलिन वनस्पतिकायिक जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । -८२ जीव और आरंभिकी क्रियापंचक (क) नेरइयाणं भंते ! कइ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- आरंभिया जाव मिच्छादंसणवत्तिया । एवं जाव वेमाणियाणं । - पण्ण० प २२ । सू १६२७७ ० ४८२-८३ (ख) पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- आरंभिया जाव मिच्छाईसणबत्तिया नेरश्याणं पंच किरिया निरंतरं जाव वैमाणियाणं । -- ठाण० स्था ५। उ २ । सू ४१६ । पृ० २६२ आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी --- पाँचों क्रियाएँ नारकी से लेकर यावत वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में पाई जाती हैं । " Aho Shrutgyanam" Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश • ८३ जीव और कायिकी क्रियापंचक : (क) नेरइया णं भंते ! कइ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - काइया जाव पाणाश्वायकिरिया | एवं जाव वैमाणियाणं । --पण्ण० प २२ । सू १६०६ | पृ० ४६१ (ख) करणं भंते! आयोजियाओ किरियाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! पंच आयोजियाओ किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - काइया जाव पाणाश्वायकिरिया, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं । -- पण्ण० प २२ / सू १६१७ पृ० ४४२ (ग) पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाश्वायकिरिया, नेरइयाणं पंच एवं चेव ( एवं ) निरंतरं जाव वैमाणियाणं । - ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ / पृ० २६२ कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी - पाँचों क्रियाएँ नारकी से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दंडकों में पाई जाती है । -- २४३ ८४ जीव और पापस्थान क्रिया :-- हंता गोयमा ! गोयमा ! छसु अस्थि. णं भंते! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? अत्थि । कम्हि णं भंते ? जीवाणं पाणावाएणं किरिया कज्जइ जीवनिकाए । अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! एवं चैव । एवं जाव निरंतरं वेमाणियाणं । अस्थि णं भंते! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जर ? हंता ! अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवाणं मुसावारणं किरिया कज्जा ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं निरंतरं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । अस्थि णं भंते! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कज्जइ ? हंता ! अत्थि | कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कज्जर ? गोयमा ! गहणधारणिज सु दव्वे, एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव वैमाणियाणं । अस्थि णं भंते! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? हंता ! अत्थि । कम्हि णं भंते । जीवाण मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दव्वेसु, एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव वैमाणियाणं । अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिमाणं किरिया कज्जइ ? हंता ! अस्थि । कम्हि "Aho Shrutgyanam" Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! सव्वदेव्वसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवं कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं, पेज्जेणं, दोसेणं, कलहेणं, अब्भक्खाणणं, पेसुन्नेणं, परपरिवाएणं, अरहरईए, मायामोसेणं, मिच्छादसणसल्लेणं । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु भाणियन्वं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति, एवं अट्ठारस एते दंडगा। -पण्ण ० प २२ । सू १५७४-८० । पृ० ४७६ जीव प्राणातिपात के द्वारा छः जीवनिकायों में ही क्रिया करते हैं। इसी प्रकार नारकी से लेकर निरंतर यावत् वैमानिक तक के जीव प्राणातिपातिकी किया करते हैं । जीव सब द्रव्यों के विषय में मृषावाद के द्वारा क्रिया करते हैं। इसी प्रकार नारकी से लेकर निरंतर यावत वैमानिक तक के जीव मृषावादक्रिया करते हैं। जीव ग्रहणीय और धारणीय द्रव्यों के विषय में अदत्तादान के द्वारा क्रिया करते हैं। नारकी से लेकर निरंतर यावत् वैमानिक तक के जीव इसी प्रकार अदत्तादानक्रिया करते हैं। जीव, रूप (चित्र, लेप, काष्ठादि की मूर्ति ) के विषय में अथवा रूपी द्रव्यों के सहगमन से---यथा स्त्री आदि के सहगमन से मैथुन के द्वारा क्रिया करते हैं। नारको से लेकर निरंतर यावत् वैमानिक तक के जीव इसी प्रकार मैथुन क्रिया करते हैं। जीव सब द्रव्यों के विषय में परिग्रह के द्वारा किया करते हैं ! नारकी से लेकर निरंतर यावत वैमानिक तक के जीव इसी प्रकार पारिग्राहिकी क्रिया करते हैं। जीव इसी प्रकार सब द्रव्यों के विषय में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति-रति, मायामृषावाद और मिथ्यादर्शनशल्य के द्वारा क्रिया करते हैं । नारकी से लेकर निरंतर यावत वैमानिक देव तक के जीव इसी प्रकार सब द्रव्यों के विषय में क्रोध यावत् मिथ्यादर्शनशल्य द्वारा क्रिया करते हैं । अठारह पापस्थान के १८ दण्डक जीव-नारकी भेद से यावत वैमानिक तक कहने चाहिए। .८५ जीव और ऐपिथिकी क्रिया :--- __टोका-तत्र ईरियावहिय' त्ति ईरणमीर्या-गमनं तद्विशिष्टः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवा ऐापथिकी, व्युत्पत्तिमात्रमिदं, प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेभवनं सा ऐपिथिकी क्रिया, इह जीवव्यापारेऽध्यजीवप्रधानत्वविवक्षयाऽजीवक्रियेयमुक्ता । --ठाणस्था २ । उ १ । सू६० । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २४५ ऐर्यापथिकी क्रिया मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी दंडक के जीवों में नहीं होती है। मनुष्य में भी उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगी केवली-इन तीन गुणस्थानवी जीवों में ही होती है। अयोगी केवली गुणस्थान में भी नहीं होती है। - - - - .८६ महायुग्म जीव और सक्रियता-अक्रियता :--- [जब एक दंडक के अनेक जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं और वह संख्या बड़ी होती है तो उस संख्या को महायुग्म राशि कहते हैं। महायुग्म राशि के कृतयुग्मकृतयुग्मादि सोलह भेद होते हैं । महायुग्म के सोलह भेद राशि (संख्या) तथा अपहार समय की अपेक्षा से किये गये हैं । जिस राशि में प्रतिसमय चार-चार घटाते-घटाते शेष में चार बाकी रहे तथा घटाने के समयों में से भी चार-चार घटाते-घटाते चार बाकी रहे वह कृतयुग्म कृतयुग्मराशि कहलाती है क्योंकि घटाने वाले द्रव्य तथा समय की अपेक्षा दोनों रीति से कृतयुग्म रूप है । सोलह की संख्या जघन्य कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि रूप है। उसमें से प्रतिसमय चार घटाते-घटाते शेष में चार बचते है तथा घटाने के समय भी चार होते हैं अथवा उन्नीस की संख्या में प्रति समय चार घटाते-घटाते शेष में तीन शेष रहते हैं तथा घटाने के समय चार लगते हैं। अतः १६ की संख्या जघन्य कृतयुग्मन्योज कहलाती है । इसी प्रकार अन्य भेद जान लेने चाहिए। यहाँ पर महायुग्मराशि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय-छः प्रकार के जीवों का “कहाँ से उपपात" आदि तेतीस पदों से विवेचन किया गया है तथा विस्तृत विवेचन कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय पद में है, अवशेष महायुग्म पदों में इसकी भुलावण है तथा जहाँ भिन्नता है वहाँ भिन्नता बतलाई गई है । स्थानस्थान पर उत्पल उद्देशक ( भग० श ११ । उ १) की भलावण है। हमने यहाँ पर अठारवें पद "सक्रिय-अक्रिय" की अपेक्षा पाठों का संकलन किया है । ] '८६.१ महायुग्म एकेन्द्रिय जीव :--. तेसि णं (कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया ) भंते ! जीवाणं सरीरा कइवण्णाजहा उप्पलुद्देसए सवत्थ पुच्छा ( जीवा किं सकिरिया, अकिरिया ?) गोयमा ! जहा उप्पलुद्देसए xxx सकिरिया, नो अकिरिया { xxx i (प्र १०) "Aho Shrutgyanam" Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ क्रिया-कोश एवं एएस सोलससु महाजुम्मेसु एक्को गमओ । ( प्र १६ ) -भग० श ३५ | उ १ । प्र १०, १६ । ५० ६२६-२७ एवं एए ( णं कमेणं) एकारस उद्देसगा ! --भग० श ३५ । श १ ! उ ११ । कृतयुग्मकृतयग्म एकेन्द्रिय जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । सोलह महायरम एकेन्द्रिय जोब सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं। इसी प्रकार ( २ ) प्रथम समय, (३) अप्रथम समय, (४) चरम समय, (५) अचरम समय, (६) प्रथम प्रथम समय, (७) प्रथम - अप्रथम समय, (८) प्रथम चरम समय, (६) प्रथमअचरम समय, (१०) चरम - चरम समय, (११) चरम - अचरम समय कृतयुग्मकृतयुग्म इत्यादि सोलह महायुग्मों के एकेन्द्रिय जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । इसी प्रकार सलेशी महायुग्म एकेन्द्रिय जीव भी सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । इसी प्रकार भवसिद्धिक महायुग्म एकेन्द्रिय जीव भी सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते है । इसी प्रकार सलेशी भवसिद्धिक महायुग्म एकेन्द्रिय जीव भी सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । इसी प्रकार अभवसिद्धिक महायुग्म एकेन्द्रिय जीव तथा सलेशी अभवसिद्धिक महायुग्म एकेन्द्रिय जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं (देखिए- भग० श ३५ सम्पूर्ण ) । ६ । पृ० ६२६ इसी प्रकार ८६२ महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव : महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव भी महायुग्म एकेन्द्रिय जीव की तरह सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । महायुग्म एकेन्द्रिय जीव की तरह महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव के भी बारह शतक तथा प्रत्येक शतक में ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए तथा सभी में सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं—ऐसा कहना चाहिए । xxx एवं एए वि जहा एर्गिदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्दे सगा तहेव भाणि - यव्वा । xxx xxx एवं एयाणि बारस बेह दियमहाजुम्मसयाणि भवंति । "Aho Shrutgyanam" --भग० श ३६ । पृ० ६३०-३१ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ८६३ महायुग्म त्रीन्द्रिय जीव : महायुग्म त्रीन्द्रिय जीव भी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव की तरह सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव की तरह महायुग्म त्रीन्द्रिय जीव के भी बारह शतक तथा प्रत्येक शतक के ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए तथा सभी में सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं - ऐसा कहना चाहिए । xxx एवं तेड़ दिए वि बारस सया कायव्वा बेई दियसयसरिसा । २४७ ८६४ महायुग्म चतुरिन्द्रिय जीव :-- महायुग्म चतुरिन्द्रय जीव भी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव की तरह सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव की तरह महायुग्म चतुरिन्द्रिय जीव के भी बारह शतक तथा प्रत्येक शतक के ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए तथा सभी में सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं—ऐसा कहना चाहिए । xxx चरिदिएहिं वि एवं चेव बारस सया कायव्वा । xxx । सेसं जहा as दिया | - भग० श ३८ । पृ० ६३१ ८६६ महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ८६५ महायुग्म असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव : असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव भी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव की तरह सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव की तरह महायुग्म असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के बारह शतक तथा प्रत्येक शतक के ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए तथा सभी में सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते है-ऐसा कहना चाहिए । जहा बेदियाणं तव असन्निसु वि बारस सया कायव्वा xxx । सेस जहा बेड़ दिया | -भग० श ३६ | पृ० ६३१ : भग० श ३७ १ ० ६३१ "Aho Shrutgyanam" कडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिदियाणं भंते ! xxx सकिरिया, नो अकिरिया । xxx एवं सोलससु वि जुम्मेसु भाणियव्वा जाव अनंतखुत्तो । xxx एवं एत्थ वि एक्कारस उद्दे सगा तहेव xxx -- भग० श ४० । श १ । उ १ । प्र १,२,५,६ | पृ० ६३१-३२ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते है । महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के इक्कीस शतक तथा प्रत्येक शतक में ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए। तथा सभी में सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं—ऐसा कहना चाहिए । महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय में बारह गुणस्थान तक के जीवों का ही समावेश होता है - यह ख्याल रखना चाहिए । २४८ महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के इक्कीस शतक इस प्रकार होते हैं औधिक महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय का एक शतक तथा कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी औधिक महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के छः शतक मोट सात शतक । इसी प्रकार भवसिद्धिक महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के सात शतक तथा अभवसिद्धिक महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के सात शतक – मोट इक्कीस शतक होते हैं ( देखिये भगवती श० ४० संपूर्ण ) । ८७ राशियुग्म जीव और सक्रियता - अक्रियता :-- [ जब एक दंडक के अनेक जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं तो उस संख्या को राशियुग्म कहते हैं। राशियुग्म संख्या चार प्रकार की होती है यथा-- (१) कृतयुग्म, (२) व्योज, (३) द्वापरयुग्म तथा (४) कल्योज । जिस संख्या में चार का भाग देने से चार बचे वह कृतयुग्म संख्या कहलाती है, यदि तीन बच्चे तो वह व्योज संख्या कहलाती है, यदि दो बच्चे तो वह द्वापर संख्या कहलाती है, यदि एक बचे तो वह कल्योज संख्या कहलाती है। राशियुग्म संख्या से दंडक के सभी जीवों का विवेचन है और यह विवेचन " कहाँ से उपपात" आदि १३ बोलों से किया गया है । इन में से १३ वें बोल में जीव की सक्रियताअक्रियताका प्रश्न है उस बोल संबंधी पाठों का संकलन यहाँ पर किया गया है । ] *८७१ राशियुग्म कृतयुग्म जीव -- (रासी जुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते!) जइ आयअजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा, नो अलेस्सा। जइ सलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया । जइ सकिरिया तेणेव भवग्गणेण सिज्मंति, जाव अंतं करेंति ? नो इणट्ठे सभट्ठे । ( प्र ११, १२, १३ ) रासी जुम्मकडजुम्म असुरकुमारा णं भंते ! कओ उववज्जति ? जहेब नेरइया तव निरवसेसं । एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया । ( प्र १४ ) ( मणुस्सा ) जइ आयजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा वि अलेस्सा वि । जइ अलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! नो "Aho Shrutgyanam" Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २४६ सकिरिया, अकिरिया। जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणणं सिमंति, जाव अंत करेंति ? हंता सिझति, जाव अंतं करति । जइ सलेस्सा कि सकिरिया, अकिरिया, गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया। जइ सकिरिया तेणेव भवग्गणणं सिमंति, जाव अंतं करेंति ? गोयमा ! अत्थेगच्या तेणेव भवम्गहणणं सिझति जाव अंतं करेंति, अत्थेगइया नो तेणेव भवग्गहणणं सिज्मति जाव अंतं करेंति। जइ आयअजसं एवजीवंति किं सलेस्सा, अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा, नो अलेस्सा । जइ सलेस्सा कि सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया । जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणणं सिझति, जाव अंतं करेंति ? नो इणढे सम? । (प्र१६ से २३) वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । -भग• श ४१ । उ १ । प्र ११ से २३ । पृ० ६३५-३६ राशियुग्म में जो कृतयुग्मराशि नारकी आत्म-असंयम का आश्रय लेकर जीते है वे सलेशी होते हैं, असलेशी नहीं होते हैं तथा वे सलेशी नारकी सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं। वे सक्रिय नारकी उसी भव में सिद्ध नहीं होते है यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करते हैं। कृतयुग्म राशि असुरकुमारों के विषय में जैसा नारकी के विषय में कहा वसा ही निरवशेष कहना। इसी प्रकार यावत् तिर्य च पंचेन्द्रिय तक समझना । जो कृतयुग्म राशि रूप मनुष्य आत्मसंयम का आश्रय लेकर जीते हैं वे सलेशी भी होते हैं, अलेशी भी होते हैं। यदि वे अलेशी होते हैं तो वे सक्रिय नहीं हैं, अक्रिय होते हैं तथा वे अक्रिय मनुष्य उसी भव में सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। यदि वे सलेशी होते है तो वे सक्रिय हैं, अक्रिय नहीं होते हैं तथा उन सक्रिय जीवों में कितने ही उसी भव में सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं तथा कितने ही उसो भव में सिद्ध नहीं होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करते हैं। जो कृतयुग्मराशि मनुष्य आत्म-असंयम का आश्रय लेकर जीते हैं वे सलेशी होते हैं, अलेशी नहीं होते है तथा वे सलेशी मनुष्य सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते है तथा वे सक्रिय मनुष्य उसी भव में सिद्ध नहीं होते हैं यावत सर्व दुःखों का अन्त नहीं करते हैं । ८७.२ राशियुग्म त्र्योज जीव :'८७.३ राशियुग्म द्वापरयुग्म जीव :'८७.४ राशियुग्म कल्योज जीव : रासीजुम्मतेओयनेरइया xxx एवं चेव उहेसओ भाणियव्यो। xxx सेसं तं चेव जाव वेमाणिया। (उ२) "Aho Shrutgyanam" Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० क्रिया-कोश रासीजुम्मदावरजुम्मनेरइया xxx एवं चेव उद्देसओ xxx सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया (उ३) रासीजुम्मकलिओगनेरइया xxx एवं xxx सेसं जहा पढमुद्देसए एवं जाव वेमाणिया। -भग० श ४१ । उ २ से ४ । पृ० १३६ राशियुग्म त्र्योज जीव, राशियुग्म-द्वापरयुग्म जीव तथा राशियम कल्योज जीव के संबंध में सक्रिया-अक्रिया की अपेक्षा वैसा ही कहना जैसा राशियुग्म-कृतयुग्म जीव के संबंध में ऊपर कहा गया है। '८७ ५। १६६ चार प्रकार के राशियुग्म कृष्णलेशी जीव के संबंध सक्रिया-अक्रिया की अपेक्षा वैसा ही कहना जैसा क्रमांक ८७१ में कहा गया है । इसी प्रकार चार प्रकार के राशियुग्म नीललेशी जीव, कापोतलेशी जीव, तेजोलेशी जीव, पद्मलेशी जीव तथा शुक्ललेशी जीव के संबंध में सक्रिया-अक्रिया की अपेक्षा वैसे ही कहना जैसा क्रमांक ८७.१ में कहा गया है । इस प्रकार औधिक के चार तथा छः लेश्याओं के चौबीस उद्देशक-मोट अट्ठाइस उद्देशक हुए। इसी प्रकार भवसिद्धिक राशियुग्म जीवों के सिक्रया अक्रिया की अपेक्षा अट्ठाइस उद्देशक कहने चाहिए। इसी प्रकार अभवसिद्धिक राशियुग्म जीवों के सक्रिया-अक्रिया को अपेक्षा अष्ठाइस उद्देशक कहने चाहिए। इसी प्रकार समष्टि राशियुग्म जीवों के सक्रिया-अक्रिया की अपेक्षा अट्ठाइस उद्देशक कहने चाहिए। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि राशियुग्म जीवों के सक्रिया-अक्रिया की अपेक्षा अहाइस उद्देशक कहने चाहिए। इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक राशियुग्म जीवों के सक्रिया-अक्रिया की अपेक्षा अहाइस उद्देशक कहने चाहिए। इसी प्रकार शुक्लपाक्षिक राशियुग्म जीवों के सक्रिया-अक्रिया की अपेक्षा अट्ठाइस उद्देशक कहने चाहिए। मोट १६६ उद्देशक हुए । देखिए भग०श ४१ । उ ५ से ११६ । पृ०६३६ से १३८ .८८ सक्रिय जीव __ भेद को विवक्षा के बिना मात्र क्रिया की अपेक्षा नरक, तिर्यच तथा देवगति के जीव नियम से सक्रिय होते है, मनुष्य सक्रिय-अक्रिय दोनों होते हैं, तेरहवें गुणस्थान तक के "Aho Shrutgyanam" Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २५१ मनुष्य सक्रिय होते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान के मनुष्य अक्रिय होते है ; सिद्धगति के जीव अक्रिय होते हैं । कर्मबन्धन की अपेक्षा मनुष्य बाद दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं, मनुष्य में प्रथम से तेरहवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से सक्रिय होते हैं और चौदहवें गुणस्थान के मनुष्य अक्रिय होते हैं । पापकर्मबन्धन की अपेक्षा मनुष्य बाद दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं- मनुष्य में दश गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से सक्रिय होते हैं, ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से अक्रिय होते हैं । परायिकी क्रिया की अपेक्षा मनुष्य बाद दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं, मनुष्यों में दशवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से सक्रिय होते हैं, ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से अक्रिय होते हैं । ऐर्यापथिकी क्रिया की अपेक्षा ग्यारवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान के मनुष्य भी सक्रिय होते हैं ! योगक्रिया की अपेक्षा मनुष्य बाद दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं । मनुष्यों में तेरहवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से सक्रिय होते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान के मनुष्य इस अपेक्षा से भी अक्रिय होते हैं । अप्रत्याख्यानी क्रिया की अपेक्षा तिर्यं च पंचेन्द्रिय तथा मनुष्य बाद दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्यों में टीकाकार के अनुसार पाँचवें गुणस्थान के जीव भी अक्रिय होते हैं । मनुष्यों में छह गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से अक्रिय होते हैं । आरम्भिक क्रिया की अपेक्षा मनुष्य बाद दंडक के सभी जीव सक्रिय होते हैं। पांचवें गुणस्थान के मनुष्य इस अपेक्षा से सक्रिय होते हैं । छठे गुणस्थान के मनुष्य इस अपेक्षा से कोई एक सक्रिय होता है, कोई एक अक्रिय होता है । ( तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सु जोगं पहुच नो आयारंभा नो परारंभा जाव अणारंभा, असुभं जोगं पडुब आयारंभा वि, जाव नो अणारंभा -भग श १ | उ १ । ४८ । पृ० ३८६ ) सातवें से चौदहवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से अक्रिय होते हैं । मायाप्रत्ययिकी क्रिया की अपेक्षा मनुष्य बाद दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं । मनुष्यों में दशवे गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से सक्रिय होते हैं ; ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से अक्रिय होते हैं । मिध्यात्व, मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी तथा मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थान की अपेक्षा "Aho Shrutgyanam" Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ क्रिया-कोश पहले, दूसरे, तीसरे गुणस्थान के जीव सक्रिय होते है । चौथे से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव इस अपेक्षा से अक्रिय होते हैं । .. पारिग्रहिकी क्रिया की अपेक्षा मनुष्य बाद दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते है । मनुष्यों में पाँचवें गुणस्थान तक के मनुष्य इस अपेक्षा से सक्रिय होते हैं तथा छठे से चौदहवें गुणस्थान तक के मनष्य इस अपेक्षा से अक्रिय होते हैं । परिस्पंदन क्रिया की अपेक्षा चौदहवें गुणस्थान के मनुष्य को बाद देकर दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं । चौदहवें गुणस्थान के मनुष्य श्वासोच्छ्वास आदि सभी प्रकार की क्रियाओं से अक्रिय होते हैं। एजना क्रिया की अपेक्षा से चौदहवें गुणस्थान के मनुष्य को बाद देकर दण्डक के सभी जीव सक्रिय होते हैं । चौदहवें गुणस्थान के मनुष्य शैलेशी अर्थात सम्पूर्ण एजना क्रिया रहित होते हैं । अनन्तरसिद्ध एजना क्रिया सहित होते हैं, परंपरसिद्ध एजना रहित होते हैं । क्रिया सहित जीव कर्मबन्धन से अबन्धक नहीं होते हैं--जब तक जीव क्रिया सहित है तब तक कर्म बन्धन होता रहता है । नथि हु सकिरियाणं अबंधगं किंचि इह अणुट्ठाणं । -आव० नि गा ७६० । टोका में उद्धत '८८१ सक्रिय जीव के भेद :८८.११ दो भेद--सम्यक्त्व क्रियावाला तथा मिथ्यात्व क्रिया वाला। पाठ के लिए देखो-क्रमांक ६४.१.१ सक्रिय जीव दो क्रिया करते हैं-सम्यक्त्व क्रिया तथा मिथ्यात्व क्रिया । जो जीव मिथ्यात्व क्रिया करते हैं वे उस समय सम्यक्त्व क्रिया नहीं करते हैं, जो जीव सम्यक्त्व क्रिया करते हैं वे उस समय मिथ्यात्व क्रिया नहीं करते हैं । इस अपेक्षा से सक्रिय जीव के दो भेद-सम्यक्त्व क्रिया करने वाला जीव और मिथ्यात्व क्रिया करने वाला जीव । ८८.१२ दो भेद-ऐर्यापथिकी क्रियावाला तथा सांपरायिकी क्रिया वाला-- पाठ के लिए देखो-क्रमांक ६४२.१ सक्रिय जीव दो क्रिया करते हैं-ऐ-पथिकी क्रिया तथा सांपरायिकी क्रिया। जो जीव सांपरायिकी क्रिया करते हैं वे उस समय ऐपिथिकी क्रिया नहीं करते है। जो जीय ऐचपथिकी क्रिया करते हैं वे उस समय सांपरायिकी क्रिया नहीं करते हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २५३ इस अपेक्षा से सक्रिय जीव के दो भेद - ऐर्यापथिको किया करने वाला तथा सांप रायिकी क्रिया करने वाला जीव । ८६ अक्रिय जीव- संसारसमापन्नक जीवों में दो प्रकार के जीवों को अक्रिय कहा जाता है-संवृत अणगार जो यत्न ( जयणा ) से सब कार्य करता है, हिंसा से विरत है इत्यादि सद्गुण वाले संवृत अणगार को पापकर्म नहीं बंधने की अपेक्षा से स्थान-स्थान पर अक्रिय कहा गया है । ( देखो क्रमांक ७२४ ) तथा जो जीव चतुर्दशवे गुणस्थान में शैलेशीत्व को प्राप्त होता है उसको योग- परिस्पंदन - एजनादि सर्व अपेक्षा से अक्रिय कहा गया । ( देखी क्रमांक '८११) असंसारसमापन्नक सिद्धों को अनन्तर समय में एजनादि की अपेक्षा -- गतिमान होने के कारण 'सेया' अर्थात एजना सहित कहा गया है; परम्परसिद्ध गतिमान न होने के कारण अक्रिय है (देखो क्रमांक ६३६ ) । अन्यथा सिद्धों को ( सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभावतोऽक्रिया - पण टीका) देह-मनोवृत्ति के अभाव से अक्रिय कहा गया है । ६ क्रिया और विविध विषय *६१ क्रिया और करण :६११ करण की परिभाषा / अर्थ (क) करणं क्रिया क्रियत इति वा क्रिया । - ठाण० स्था २ । उ १ । सू६० । टीका (ख) क्रियते येन तत्करणं-मननादिक्रियासु प्रवर्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा — ठाणः स्था ३ । उ १ । सू १२४ | टोका साधकतमं कृतिर्वा । करणं - क्रियामात्रम् । -भग० श १६ । उ ६ प्र १, २ । ढीका (घ) करणीयक्रिया तु यद्येन प्रकारेण करणीयम् तत्तेनैव क्रियते नान्यथा । - सूय० श्रु २ । अ २ । सू १ । पृ० १४५ | टीका तथा परिणामवत्पुद्गलसंघात इति भावः । (ग) क्रियतेऽनेनेति करणं --- क्रियायाः करण— करना किया है अथवा जो किया जाय वह क्रिया है । जिसके द्वारा किया जाय वह करण है । क्रिया का साधन अथवा करना वह करण - क्रियामात्र करण है । जो कुछ भी किया जाय वह किया उनसे अन्यथा नहीं । जितने प्रकार के करण हैं उतने प्रकार की किया है, I "Aho Shrutgyanam" Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ६१२ काल की अपेक्षा करण-क्रिया के भेद :–→ ३५४ अकरिस्सं चाह, कारवेसुं चाहं, करओ आवि समणुण्णे भविस्सामि । एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति । -आया० अ १ । उ १ । सू ६-७ / पृ० १ मैंने किया, मैंने कराया, मैंने करते हुए का अनुमोदन किया; मैं करता हूँ, मैं करवाता हूँ, मैं करते हुए का अनुमोदन करता हूँ; मैं करूंगा, मैं कराऊँगा तथा मैं करते हुए का अनुमोदन करूंगा । ये क्रियाएँ मन, वचन तथा काययोग से होती हैं। लोक में इतनी ही कर्मबन्ध के कारण 'करण'- क्रियाएँ हैं । इनको जानना चाहिए । यहाँ मूल में 'किया तथा करवाया' भूतकाल की प्रथम दो क्रियाएँ तथा भविष्यत्काल की शेष क्रिया 'करते हुए का अनुमोदन करूंगा' दी गई हैं। इससे मध्यवर्ती छः क्रियाओं को भी ग्रहण कर लेना चाहिए । तथा टीका–‘अचीकरमहमित्यनेन परोऽकार्यादौ प्रवर्तमानो मया प्रवृत्तिं कारितः, तथा कुर्वन्समन्यमनुज्ञातवानित्येवं कृतकारितानुमतिभिभूतकालाभिधानं, 'करोमीत्यादिना वचनत्रिकेण वर्तमानकालोल्लेखः, तथा करिष्यामि कुर्वतोऽन्यान् प्रति समनुज्ञापरायणो भविष्यामीत्यनागतकालोल्लेख: xxx अनेन क्रियाप्रबन्धप्रतिपादनेन कर्मण उपादानभूतायाः क्रियायाः स्वरूपमावेदितमिति । अथ किमेतावत्य एव क्रियाः उतान्या अपि ( सन्ति ? ) सन्तीति xxx । एतावन्तः सर्वेऽपि 'लोके' प्राणिसंघाते 'कर्मसमारम्भाः' क्रियाविशेषा ये प्रागुक्ताः अतीतानागतवर्तमानभेदेन कृतकारितानुमतिभिश्च अशेषक्रियानुयायिना च करोति ( इत्यादि ? ) न सर्वेषां संग्रहादिति, एतावन्त एव परिज्ञातव्या भवन्ति, नान्य इति । परिक्षा च ज्ञाप्रत्याख्यानभेदाद् द्विधा, तत्र ज्ञपरिज्ञयाऽऽत्मनो बन्धस्य चास्तित्वमेतावदुद्भिरेव सवः कर्मसमारम्भैर्ज्ञातं भवति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सर्वे पापादानहेतवः कर्मसमारम्भाः प्रत्याख्यातव्या इति । --- आया० अ १ । १ । सू ६-७ । टीका कृत कारित अनुमोदित तीन भूतकाल की; करता हूँ आदि तीन वर्तमानकाल की ; तथा करूंगा आदि तीन भविष्यत् काल की ये नौ करण - क्रियाएँ हुई । यहाँ इन करण --- क्रियाओं के इस प्रतिपादन द्वारा कर्म-बन्ध-निबन्ध के उपादानभूत क्रियाओं का वर्णन किया गया है । सर्वलोक में प्राणिसंघात करनेवाली कर्मसमारम्भ रूप सभी करण -- क्रियाओं का भूत, भविष्यत् व वर्तमानकाल की अपेक्षा से इसमें संग्रह हुआ है; और ये सभी जानने योग्य हैं । इसके अतिरिक्त अन्य कोई किया नहीं होती है । परिज्ञा ( जानने ) के 'ज्ञ' परिज्ञा तथा प्रत्याख्यान परिशा दो भेद होते हैं । 'ज्ञ' परिक्षा द्वारा यह ज्ञान होता है कि ये सब कर्मसमारम्भरूप करण - -क्रियाएँ आत्मा के बन्धन "Aho Shrutgyanam" Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश का कारण होती है तथा प्रत्याख्यान परिशा से यह ज्ञान होता है कि ये सभी करण पापोपादान की हेतु है, अतः इनका प्रत्याख्यान करना चाहिए । : *६१३ मन, वचन तथा काय की अपेक्षा करण के ३ भेद तिविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा- मणकरणे, वयकरणे, कायकरणे एवं विगलिंदियवज्जं - जाव - वेमाणियाणं । - ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १२४ । पृ० २०३ करण के तीन भेद होते हैं, यथा मनकरण, वचनकरण तथा कायकरण | ऐसा विकलेन्द्रिय ( एकेन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय) को छोड़ कर वैमानिक देवों तक सभी जीवों के सम्बन्ध में जानना । टीका - मननादिक्रियासु प्रवर्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथा परिणामवत्पुद्गलसंघात इति भावः । तत्र मन एव करणं मनःकरणमेवम् इतरे अपि xxx अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानाम् मनः प्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिर्दशनात् । २५५ -क्रियाएँ मनन, चिन्तन आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान आत्मा का जो उपकरणभूत है वह करण ; और तथारूप मनन चिन्तन रूप ) परिणामवाले पुद्गलों का समूह करण है ऐसा भी भाव या तात्पर्य है । वहाँ मन ही करण है अतः मनकरण । इसी प्रकार वचनकरण और कायकरण को भी समझना चाहिए । अथवा योग, प्रयोग तथा करण शब्दों के साथ में मन, वचन, काया शब्द का जो प्रयोग है वह केवल शब्द-भेद है । अतः इनमें अर्थ-भेद का विचार नहीं करना चाहिये। आगमों में इन तीनों का एक ही अर्थ में बहुत जगह पर व्यवहार मिलता है । ६१४ आरंभ, संरंभ तथा समारंभ की अपेक्षा करण के ३ भेद तिविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा- आरंभकरणे, संरंभकरणे, समारंभकरणे, निरंतरं— जाव - वेमाणियाणं । · - "Aho Shrutgyanam" - ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १२४ | पृ० २०३ करण के अन्य अपेक्षा तीन भेद होते हैं, यथा आरम्भकरण, संरम्भकरण तथा समारम्भकरण | ऐसा दण्डक के वैमानिक देव तक जानना | टीका — प्रकारान्तरेण करणत्रैविध्यमाह xxx आरम्भणमारम्भः - पृथिव्यापमर्दनं तस्य कृतिः - करणं स एव वा करणमित्यारम्भकरणमेवमितरे अपि वाच्ये, Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ क्रिया-कोश नवरमयं विशेष: संरम्भकरणं पृथिव्यादिविशेषमेव मनः संक्लेशकरणं, समारम्भकरणं - तेषामेव संतापकरणमिति, आह च--- समारंभो । सव्वेसिं ॥ । संकपो संरंभी परितापकरो भवे आरंभो उदवओ सुद्धनयाणं तु प्रकारान्तर से करण के उपर्युक्त तीन भेद कहे गये हैं पृथ्वी आदि को उपमर्दित करने की क्रिया को अथवा आरम्भ करने को आरम्भकरण कहते हैं । इसी प्रकार संरंभ व समारम्भ के विषय में भी कहना चाहिए । विशेष यह कि पृथ्वी आदि को सन्ताप देने का संकल्प करना संरम्भकरण तथा उनको पीड़ा पहुँचाना समारम्भकरण है । कहा भी है किसी जीव की हिंसा करने के अध्यवसाय ( संकल्प ) संरम्भ है तथा उनको पीड़ा पहुँचाने की प्रवृत्ति समारम्भ है तथा उनके प्राणों का हनन करने का व्यापार आरम्भ है । ये तीनों करण सर्वशुद्ध नयों द्वारा समर्थित हैं । १२ क्रिया और दर्शन :-- ९२१ विवेचन :― भगवान् महावीर ने अपने समय के प्रचलित या पूर्व प्रचलित जितनी धार्मिक तथा दार्शनिक विचारधाराएँ थीं उनको चार प्रधान भागों में विभक्त किया :"चत्तारि वाहसमोसरणा पन्नत्ता, तंजहा - किरियावाई, अकिरियावाई, अन्नाणियावाई, वेणश्यावाई' । चार प्रकार के समवसरण अर्थात् दर्शन या मतवाद होते हैं-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी । सामान्यतः यहाँ पर वाद या दर्शन के साथ क्रिया का संयोग बड़ा महत्त्वपूर्ण है । आगमकारों तथा टीकाकारों ने क्रिया का अर्थ अस्ति या आस्तिकता लिया है। जो व्यक्ति क्रिया-अक्रिया, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, बन्ध-मोक्ष, वेदना-निर्जरा, लोकअलोक, सिद्धि-असिद्धि, धर्म-अधर्म, साधु-असाधु, शाश्वत् - अशाश्वत् नित्य-अनित्य, रागद्व ेष, क्रोध-मान, माया-लोभ, नरक-नारकी, देव-देवी, गति - आगति, इहलोक - परलोक, जन्म-मरण - उपपात, चातुर्गतिक संसार, संसार में परिभ्रमण, दु:ख-सुख, सुकृत- दुष्कृत, सुकृतदुष्कृत का फल विशेष होता है, अच्छे कर्मों का अच्छा फल, बुरे कर्मों का बुरा फल, पुण्य-पाप फल देते हैं, इत्यादि अर्थ-तत्त्व - पदार्थों में से एक-अनेक सर्व की अस्ति में एकांत या अनेकांत से, सापेक्ष या निरपेक्ष भाव से विश्वास करते हैं वे क्रियावादी हैं, उनका क्रियावाद दर्शन समूह में समावेश किया जाता है । "Aho Shrutgyanam" Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २५७ जो व्यक्ति उपयुक्त अर्थ-तत्त्व - पदार्थों में विश्वास नहीं करते हैं; जो कहते हैं क्रियाअक्रिया नहीं है यावत् पुण्य-पाप-फल नहीं देते हैं वे अक्रियावादी हैं; उनका अक्रियावाद दर्शन - समूह में समावेश किया जाता है । जो अज्ञान से ही अपना कल्याण मानते हैं वे अज्ञानवादी कहलाते हैं । जो किसी भी पर- पदार्थ की विनय या भक्ति में अपना कल्याण मानते हैं वे विनयवादी है । अस्तिवाद का क्रियावाद तथा नास्तिकवाद का अक्रियावाद नामकरण क्यों हुआ ? इस पर किसी भी टीकाकार ने कोई प्रकाश नहीं डाला है । हमारे विचार से जो अपने कल्याण के लिए, मोक्ष के लिए, निर्वाण के लिए क्रिया करने का समर्थन करते थे ; वे पदार्थों के अस्तित्व को भी मानते थे अत: उन आस्तिक - स्व-पर कल्याण के लिए किया करने वाले को क्रियावादी कहा गया है और जो स्व-पर के कल्याण के लिए किसी भी प्रकार की क्रिया करने की आवश्यकता नहीं समझते थे क्योंकि वे आत्मादि के अस्तित्व को नहीं मानते थे अतः उनको अक्रियावादी कहा जाता था । उनके नास्तिकवाद में क्रिया भी नहीं है, अक्रिया भी नहीं है ऐसा विशेष वक्तव्य रहता था ( देखो ६२४ ; ६२६ ) । ] ६२२ दर्शनों के क्रिया या अन्य आधार पर मूल विभाग : (क) चत्तारि वाइसमोसरणा पन्मत्ता, तंजहा -- किरियावाई, अकिरियावाई, अन्नाणियावाई, वेणइयावाई । - ठाण०स्था ४ उ ४ । सू ३४५ / पृ० २४८ (ख) किरियाकरियं वेणश्याणुवायं अन्नाणियाणं पडियश्च ठाणं । से सव्ववायं इ वेयइत्ता उवट्ठिए संजमदीहरायं ॥ (ग) पुढो य छंदा इह माणवा उ किरियाकिरीयं च पुढो य वायं । बालस्स पकुव्व देहं पवडई वेरमसंजयस्स || जायरस — सूय० श्रृ १ । अ ६ | गा २७ | पृ० ११६. ब) किरियं अकिरियं विणयं, एएहिं चउहि ठाणेहि, (घ) चत्तारि समोसरणाणिमाणी पावाया जाई पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं, अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव ॥ ३३ — सूर्य ● श्रु १ । अ १० । गा १ । पृ० १२५ - सूघ० श्रु १ । अ १२ । गा १ । पृ० १२७ अन्नाणं च महामुनी । मेयन्ने किं पभासइ ॥ - उत्तः । अ १८ । गा २३ । पृ० १००६ " Aho Shrutgyanam" Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ क्रिया-कोश (छ) कइ णं भते ! समोसरणा पन्नत्ता ? गोयमा! चत्तारि समोसरणा पन्नत्ता, तंजहा-किरियावाई, अकिरियावाई, अन्नाणियवाई, वेणइयवाई । -भग० श० ३० । उ १ । प्र १ । पृ. ६०५ (ज) तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए, तत्थ नं इमाईतिन्नि तेवढाईपावादुय-सयाई भवंतीति मक्खायाई, तंजहा-किरियावाईणं, अकिरियावाईणं, अन्नाणियवाईणं, वेणश्यवाईणं। --सूय श्रु० २ । अ २ । सू २५ । पृ० १५८ भगवान महावीर ने सर्व दर्शनों को लक्षण के आधार पर चार मूल समूहों में विभक्त किया था--(१) क्रियावादो, (२) अक्रियावादी, (३) अज्ञानवादी और (४) विनयवादो। अस्थि त्ति किरियवाई वयंति, नत्थि त्ति (अ) किरियवाईया। अन्नाणी अन्नाणं, विणवत्ता वेणश्यवाई ।। -सय० श्र १ । अ १२ । गा १ । नि० गा० ११८ अस्ति लक्षण के आधार पर क्रियावाद, नास्ति लक्षण के आधार पर अक्रियावाद, अज्ञानता लक्षण के आधार पर अज्ञानवाद तथा भक्ति के लक्षण के आधार पर विनयवाद का प्रतिपादन किया गया है। नोट- इस कोश में हमने क्रिया शब्द के व्यवहार के कारण क्रियावाद तथा अक्रियावाद के पाठों का संकलन किया है । लेकिन क्रियावाद तथा अक्रियावाद कोशों में भी ये पाठ लिये जा सकते हैं । ६२.३ समवसरण और जीवदण्डक : चत्तारि वाइसमोसरणा पन्नत्ता, तंजहा-किरियावाई, अकिरियावाई, अन्नाणियावाई, वेणइयावाई। नेरइयाणं चत्तारि वाइसमोसरणा पन्नत्ता, तंजहा-किरियावाई जाव वेणइयावाई। एवमसुरकुमाराण वि जाव थणियकुमाराणं एवं विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं । -ठाण स्था० ४ । उ ४ । सू ३४५ ! पृ० २४८ लोक में जितने भी मत-मतान्तर या दर्शनवाद प्रचलित हैं उनको चार भागों में विभक्त किया गया है ; यथा-(१) क्रियावाद, (२) अक्रियावाद, (३) अज्ञानवाद तथा (४) विनयवाद । __ नारकी, असुरकुमार यावद स्तनितकुमारदेव, पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव, मनुष्य, वाणव्यंतर, जोतिषो वैमानिक देव में चारों वादी होते हैं। "Aho Shrutgyanam" Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २५६ यहाँ क्रियावादी की टीकाकार ने मिध्यादृष्टि में गणना करके १८० भेद एकान्त दृष्टि के आधार पर बतलाये हैं । क्रियावादी सम्यग्दृष्टि इन १८८० भेदों में सम्मिलित नहीं हैं, ये १८० भेद केवल मिथ्यादृष्टि क्रियावादियों के ही हैं । अक्रियावादी जीव केवल मिथ्यादृष्टि होते हैं। ; अज्ञानवादी तथा विनयवादी जीव मिथ्यादृष्टि या सममिथ्यादृष्टि होते हैं । *६२४ क्रियावाद / क्रियावादी : ६२४१ परिभाषा / अर्थ : [ क्रियावादी की परिभाषा तीन आधार पर बनती है ; (१) अस्ति, (२) कर्मबंधन का हेतु, (३) कल्याण का हेतु । टीकाकारों ने अधिकांश परिभाषाएँ अस्ति के आधार पर की हैं । हमने तीनों तरह की परिभाषाओं के पाठ संकलित किये हैं । ] * १ अस्ति के आधार पर क्रियावाद (क) से (किं तं ) किरियावाई यावि भवई, तंजहा- आहियवाई, आहियपन्ने, आहियदिट्ठी, सम्मावाई, नियावाई, संति परलोगवाई, अत्थि इहलोगे, अस्थि परलोगे, अस्थि माया, अत्थि पिया, अस्थि अरिहंता, अत्थि चक्वट्टी, अस्थि बलदेवा, अस्थि वासुदेवा, अत्थि सुकड दुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे, सुचिष्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवंति, सफले कल्याणपावर, पञ्चायंति जीवा, अस्थि नेरइया जाव अस्थि देवा, अस्थि सिद्धि से एवंवाई एवं पन्ने एवं दिट्ठी छंदरागमइनिविट्टे यावि भवइ । xxxx से तं किरियावाई | -- दशासु द ६ । सू १७ । पृ० ६२८ (ख) अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, गईं च जो जाणइ णागइ च । जो सासयं जाण असासयं च, जाई च मरणं च जणोचवायं ॥ अहो वि सत्ताण विउट्टणं च जो आसवं जाणइ संवरं च । दुक्खं च जो जाणइ निज्जरं च, सो भासिउ मरिहइ किरियवायं ॥ -- सूर्य ० श्र १ । अ १२ । गा २०, २१ । पृ० १२८ "Aho Shrutgyanam" Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० क्रिया-कोश (ग) अस्थि त्ति किरियवाई वयंति । -----सूय शु १ । अ १२ । गा० १ । नि० गा० ११८ (घ) क्रिया--जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितं शीलं येषां ते क्रियावादिनः। - सूय शु० १। अ १२ । गा १ । टीका (च) क्रिया जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवं रूपां वदन्तीति क्रियावादिनः आस्तिका इत्यर्थ । --ठाण० स्था ४ । उ ४ । सू ३४५ । टीका (छ) क्रियावादमस्ति जीवोऽस्ति पुण्यमस्ति च पूर्वाचरितस्य कर्मणः फलमित्येवं बादमिति । ---सूय श्रु १ । अ १२ । गा २१ । टीका (ज) जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्त्येवेत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनः।xxxi -सूय. श्रु १ । अ १२ 1 गा । टीका जो व्यक्ति अस्तिवादी, अस्ति प्रज्ञावाला, अस्ति दृष्टिवाला, सम्यग्वादी, नित्यवादी, परलोकवादी है तथा इहलोक है, परलोक है, माता है, पिता है, अरिहंत है, चक्रवती है, बलदेव है, वासुदेव है, सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फल विशेष है, अच्छे कर्मों का अच्छा फल है, बुरे कर्मों का बुरा फल है, पुण्य-पाप का फल होता है, जीव संसार में परिभ्रमण करते हैं, नारक, तिर्यच, मनुष्य तथा देव है, सिद्धि है, ऐसा जिसका वाद ( दर्शन ), प्रज्ञा और दृष्टि है तथा ऐसा जिसका अभिप्राय, प्रतीति, मति, प्रवृत्ति है वह क्रियावादी है । जो व्यक्ति आत्मा, है, लोक है, गति है, आगति है, शाश्वत-अशाश्वत है, जन्ममरण-उपपात है, दुःख-सुख है, निर्जरा है, बंध है-इत्यादि जानता है वह क्रियावाद का कथन कर सकता है अर्थात् वह क्रियावादी है। जो जीव अजीवादि पदार्थ है-~-ऐसा प्रतिपादन करते हैं वे क्रियावादी हैं । .२ क्रिया-कर्मबंधन के हेतु के आधार पर क्रियावाद :-- कर्मयोगनिमित्तं बध्यते, योगश्च व्यापारः स च क्रियारूपः, अतः कर्मणः कार्यभूतस्य वदनात् तत्कारणभूतायाः क्रियाया अप्यसावेव परमार्थतो वादीति, क्रियायाश्च कर्मनिमित्तत्वं प्रसिद्धमागमे, स चायमागमः-“जीवे णं भंते । एस जीवे सया समियं एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ तिष्पइ जीवो तं तं भावं परिणमइ तावं च णं अट्ठविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा, छविहबंधए वा एगविहबंधए वा, णोणं अंबंधए” त्ति । एवं च कृत्वा य एव कर्मवादी स एव क्रियावादीति । अनेन च सोख्याभिमतमात्मनोऽक्रियावादित्वं निरस्तं भवति । __-आया० ७ १ अ १ । सू ५ । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कौश २६१ कर्मबंधन का कारण योग है ; मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहते हैं और वह क्रियारूप है। कार्यरूप कर्म को माननेवाला कर्म के कारणभूत क्रिया को भी मानता है। क्रिया कर्मबंधन का कारण है जैसा कि आगम में प्रसिद्ध है—“जो जीव समितपरिमाण-पूर्वक कम्पन करता है, विविध भाव से कम्पन करता है, देशान्तर गति करता है, स्पंदन-परिस्पंदन करता है, सभी दिशाओं में गति करता है और अनुतापादि क्रियाओं को करता है तथा जीव उस-उस भाव में परिणमन करता है तथा वह जीव आठ कर्मों को बाँधता है अथवा सात कर्मों को बाँधता है, अथवा छह कर्मों को बाँधता है अथवा एक कर्म को बाँधता है लेकिन वह कर्म का अबंधक नहीं होता है ! इसलिए जो कर्मवादी है वही क्रियावादी भी है। इससे आत्मा को अक्रिय मानने वाले सांख्य मत का खण्डन हो जाता है। यहाँ पर कर्मबंध की हेतुरूप क्रिया को मानने वाले को क्रियावादी कहा गया है । जीवादि पदार्थ भी है, क्रिया भी है —ऐसा कहने वाले को भी क्रियावादी कहा गया है। .३ क्रिया-मोक्ष की हेतु के आधार पर क्रियावाद : (क) क्रियावादिदर्शनम्. क्रियैव चैत्यकर्मादिका प्रधान मोक्षाङ्गमित्येवं वदितं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनम् आगमः कियावादिदर्शनम् । -सूय० श्रु १ । अ १ । उ २ । गा २४ । टीका (ख) क्रियैव परलोकसाधनायाऽलमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां हि दीक्षात एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः। - सूय० श्रु १ 1 अ ६ ! गा २७ । टीका जो क्रिया को मोक्ष का प्रधान अंग मानते हैं अथवा क्रिया हो परलोक साधन के लिए यथेष्ट है उनको आगम में क्रियावादी कहा गया है । ज्ञानरहित क्रिया से ही स्वर्ग अपवर्ग का साधन हो सकता है अर्थात ज्ञान बिना क्रिया से हो मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ऐसा कहने वाले को भी क्रियावादी कहा गया है। ६२.४.२ क्रियावादी के भेद :(क) सम्मट्ठिी किरियावाई मिच्छा य सेसगावाई। -~सूय० श्रु १ ! अ १२ । गा १ । नि गा १२१ टीका–स तत्रास्त्येव जीव इत्येवं सावधारणतयाऽभ्युपगमं कुर्वन् काल एवैकः सर्वस्यास्य जगतः कारणम्, तथा स्वभाव एव, नियतिरेव, पूर्वकृतमेव, पुरुषाकार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतयैकान्तेन कालादीनां कारणत्वेनाश्रयणान्मिथ्यात्वम् । "Aho Shrutgyanam" Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ क्रिया-कोश __तथाहि--अस्त्येव जीव इत्येवमस्तिना सह जीवस्य सामानाधिकरण्यात् । यद्यदस्ति तत्तज्जीव इति प्राप्तम् , अतो निरवधारणपक्षसमाश्रयणादिह सम्यक्त्वमभि हितम् । (ख) इदानीं तेषां (क्रियावादिनाम् ) सम्यग् मिथ्यात्ववादित्वं विभागेन यथा भवति तथा दर्शयितुम् । --सूय० श्रु १ । अ १२ । गा १ । टीका (ग) भगवतीसूत्रं च विशेषपरम् , तेन तत्र कियावादिपदेन सम्यग्दृष्टयोहीताः अत्र तु मिथ्यादृष्टयोऽपि, ततः उभयेऽपि क्रियावादिनः इति तत्त्वम् । -अभिधा० भाग । पृ० ५६० क्रियावादी के दो भेद हैं—(१) मिथ्यादृष्टि क्रियावादी तथा (२) सम्यग्दृष्टि क्रियावादी। ६२.४.३ समदृष्टि क्रियावादी :'६२४३१ परिभाषा / अर्थ-~ (क) सम्म हिट्ठी किरियावाई। —सूय० श्रु १ । आ १२ । गा १ ! नि गा १२१ (ख) अस्त्येव जीव इत्येवमस्तिना सह जीवस्य सामानाधिकरण्यात् । यद्यदस्ति तत्तज्जीव इति प्राप्तम् , अतो निरवधारणपक्षमाश्रयणादिह सम्यक्त्वमभिहितम् । तथा कालादीनामपि समुद्दीतानां परस्परसव्यपेक्षाणां कारणत्वेनेहाश्रयणात्सम्यक्त्वमिति । -सूय० श्रु १ । अ १२ । गा १ । टीका (ग) तदेवं सर्वानपि कालादीन् कारणत्वेनाभ्युपगच्छन् तथात्मपुण्यपापपरलोकादिकं चेच्छन् क्रियावादी सम्यग्दृष्टित्वेनाभ्युपगंतव्यः ।। ----सूय० श्रु १ । अ १२ । गा १। टीका (घ) से आयावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई। -आया० श्र ११ अ १ ! सू ५ पृ०१ (च) न ज्ञाननिरपेक्षायाः क्रियायाः सिद्धिरंधस्येव नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पंगोरित्येवमवगम्याहुरुक्तवंतस्तीर्थकरगणधरादयः । किमाहुः ? मोक्षं । कथं ? विद्यां च ज्ञानं चरणं च क्रिया ते द्वे अपि विद्य ते कारणत्वेन यस्येति विगृह्यार्शादित्वान्मत्वर्थीयोऽन् । -सूय० श्रु १ । अ १२ । गा ११ । टीका (छ) अलेस्सा भंते ! जीवा पुच्छा । गोयमा ! किरियावाई, नो अकिरियावाई, नो अन्नाणियवाई, नो वेणइयवाई | xxx । समहिठ्ठी जहा अलेस्सा। -भग। श ३० । उ ११ प्र ४,५। प्र० १०५ "Aho Shrutgyanam" Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २६३ जो जीवाजीवादि नव पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास करता है तथा उनके नित्या. नित्य एवं स्व-पर तथा काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा, आदि कारणों को सकलभाव से तथा सापेक्षभाव से अनेतकांत दृष्टि से मानता है वह सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है । जो जीव आत्मवादी है अर्थात् आत्मा के अस्तित्व को मानता है तथा जो लोकवादी है अर्थात् षद्रव्यात्मक लोक को मानता है तथा जो कर्मवादी है अर्थात् जो जीव का कर्मपुद्गलों से बंधन होता है इस बन्ध-पुण्य-पाप तत्त्व को मानता है तथा जो कियावादी है अर्थात क्रिया करने से आत्मप्रदेशों का कर्म से बंधन होता है अथवा उत्थान-कर्मबल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम रूप सक्रियाओं से कर्मों का नाश होता है---मोक्षपरिनिर्वाण प्राप्त होता है-इस तत्त्व को मानता है ! ऐसा क्रियावादी-सम्यग्दृष्टि क्रियाबादी होता है। जी जीव क्रिया और ज्ञान दोनों के संयोग से स्वर्ग-अपवर्ग---मोक्ष का साधन मानता है वह सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है ! ____ जो दर्शन, शान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति आदि क्रियाओं में रुचि रखता है वह सम्यग्दृष्टि है तथा उसको सम्यग्दृष्टि क्रियावादी कहा जा सकता है । ( देखो क्रमांक ०४.३१) दशाश्रुतस्कंध दशा ६ सू १७ में (देखो क्रमांक ६२४) जिस अस्ति क्रियावादी का वर्णन है वह सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है । सूयगडांग श्रु १ । अ १२ । गा २०, २१ ( देखो क्रमांक ६.२.४} में जिस क्रियावाद विज्ञाता का वर्णन है वह सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है । __सम्यग्दृष्टि जीव क्रियावादी होते हैं (देखो भगवई श ३० उ १) ६२.४ ३.२ सम्यगद्दष्टि क्रियावादी जीव और भव्यता तथा शुक्लपाक्षिकता (क) जो किरियावाई सोणियमा भविओ, णियमा सुक्कपक्खिओ अंतोपुग्गलपरिअट्टस्स सिज्झइ। -दशा० । चूर्णी (ख) किरियावाई भब्वे णो अभव्वे सुक्कपक्खिए णो किण्हपक्खिए। -ठाण° स्था २ । उ २ । सू ७६ । टीका में उद्धृत जो ( सम्यग्दृष्टि ) क्रियावादी है वह नियम से भव्य है ; शुक्ल पाक्षिक है तथा अर्धपुदगल परावर्त काल में सिद्ध होता है। क्रियावादी अभव्य तथा कृष्णपाक्षिक नहीं होता है। "Aho Shrutgyanam" Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ क्रिया-कोश ६२ ४.३.३ क्रियावादी (समदृष्टि ) जीव और जीवदडक : [भग० श३० में जिस क्रियावादी जीव का वर्णन है वह समष्टि क्रियावादी है: मिथ्य दृष्टि क्रियावादी नहीं है । ] जीवा णं भंते ! कि किरियावाई, अकिरियावाई, अन्नाणियवाई, वेणइयवाई ? गोयमा ! जीवा किरियावाई वि, अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । सलेस्सा णं भंते ! जीवा किं किरियावाई पुच्छा । गोयमा ! किरियावाई वि, अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । एवं जाव सुक्कलेस्सा। अलेस्सा णं भंते। जीवा–पुच्छा । गोयमा ! किरियावाई, नो अकिरियावाई नो अन्नाणियवाई, नो वेणइयवाई । कण्हपक्खिया णं भंते ! जीवा किं किरियावाई- पुच्छा । गोयमा ! नो किरिया. वाई, अकिरियावाई, अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा | सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा । मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्ठीणं---पुच्छा । गोयमा ! नो किरियावाई, नो अकिरियावाई, अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । णाणी जाव-केवलनाणी जहा अलेस्से। अन्नाणी जाव-विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया। आहारसन्नोवउत्ता जावपरिग्गइसन्नोवउत्ता जहा सलेस्सा। नो सन्नोवउत्ता जहा अलेस्सा। सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा। अवेदगा जहा अलेस्सा ! सकसायी जाव-लोभकसायी जहा सलेस्सा। अकसायी जहा अलेस्सा सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा। अजोगो जहा अलेस्सा। सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। नेरझ्या णं भंते ! कि किरियावाई-पुच्छा । गोयमा ! किरियावाई वि, जाव वेणझ्यवाई वि। सलेस्सा णं भंते । नेरइया कि किरियावाई ? एवं चेव । एवं जाव काउलेस्सा। कण्हपक्खिया किरियाविवजिया । एवं एएणं कमेणं जश्च व जीवाणं वत्तव्यया वि जावअणागारोवउत्ता। नवरं जं अस्थि तं भाणियव्वं । सेसं न भण्णइ ! जहा नेरइया एवं जाव-थणियकुमारा। पुढविकाइया णं भंते ! किं किरियावाई-पुच्छा-गोयमा ! नो किरियावाई, "Aho Shrutgyanam" Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २६५ अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, नो वेणश्यवाई । एवं पुढविकाइयाणं जं अत्थि तत्थ सम्वत्थ वि एयाइ दो मज्झिल्लाई समोसरणाई जाव अणागारोवउत्तावि । एवं जाव --- चउरिंदियाणं । सब्बट्टाणेसु एयाइं चैव मज्भिल्लगाई दो समोसरणाई । सम्मत्तनाणे वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाइ दो समोसरणाई | पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा जीवा । नवरं जं अत्थि तं भाणियव्वं । मणुस्सा जहा जीवा तहेव निरवसेसं । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । - भग० श ३० उ १ । प्र २ से ६ | पृ० ६०५-६०६ जीव क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी होते हैं । सलेशी, कृष्णलेशी, यावत् शुक्ललेशी जीव चारों प्रकार के वादी होते हैं। अलेशी जीव केवल क्रियावादी होते हैं । कृष्णपाक्षिक जीव क्रियावादी नहीं होते हैं, अन्यवादी होते हैं; शुक्लपाक्षिक जीव चारों वादी होते हैं । सम्यग्टष्टि जीव केवल क्रियावादी होते हैं; मिथ्यादृष्टि जीव क्रियावादी नहीं होते हैं, अन्यवादी होते हैं; सममिध्यादृष्टि जीव क्रियावादी तथा अक्रियावादी नहीं होते हैं, अज्ञानवादी तथा विनयवादी होते हैं । ज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी जीव केवल क्रियावादी होते हैं; अज्ञानी, मति - अज्ञानी, श्र त अज्ञानी, विभंग- अज्ञानी जीव क्रियावादी नहीं होते है, अन्यवादी होते हैं । आहार भय मैथुन - परिग्रह संज्ञा में उपयोगवाले जीव चारों वादी होते हैं; संज्ञा में उपयोग रहित जीव केवल क्रियावादी होते हैं । सवेदक, स्त्री-पुरुष नपुंसक वेदक जीव चारों वादी होते हैं; अवेदक जीव केवल क्रियावादी होते हैं । सकषायी, क्रोध-मान- माया लोभ कषायी जीव चारों वादी होते है ; अकषायी जीव केवल क्रियावादी होते हैं । सयोगी, मन-वचन-काययोगी जीव चारों वादी होते हैं; अयोगी जीव केवल क्रियावादी होते हैं । साकार - अनाकारोपयोग वाले जीव चारों वादी होते हैं । नारकी जीव चारों वादी होते हैं । सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण नारकी में पाये जय उन-उन ३४ " Aho Shrutgyanam" Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ क्रिया कोश विशेषणों सहित नारकी का विवेचन वैसा ही करना जैसा उन-उन विशेषणों सहित औधिक जीव का किया गया है । भवनपति देव चारों वादी होते हैं। सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण भवनपति देवों में पाये जाँय उन-उन विशेषणों सहित भवनपति देवों का विवेचन वैसा ही करना जैसा उन-उन विशेषणों सहित औधिक जीव का किया गया है ।। - पृथ्वी-अप-अग्नि-वायु-वनस्पतिकाय तथा विकलेन्द्रिय जीव-औधिक तथा सविशेषण जो-जो उनमें पाये जायँ उन-उन विशेषणों सहित विवेचन करना । वे क्रियावादी तथा विनयवादी नहीं होते है । विशेषता यह है कि विकलेन्द्रिय जीव के सम्यग्दृष्टि तथा ज्ञानी विशेषणों में भी क्रियावादी तथा विनयवादी नहीं होते है, मध्य के दो समवसरण होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्य'चयोनिक जीव चारों वादी होते हैं ; सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिक जीवों में पाये जायँ उन-उन विशेषणों सहित पंचेन्द्रिय तिर्य च योनिक जीवों का विवेचन करना जैसा उन-उन विशेषणों सहित औधिक जीव का किया गया है । __मनुष्य चारों वादी होते हैं ; सविशेषण औधिक जीव के सम्बन्ध में जैसा कहा वैसा ही सभी विशेषण सहित मनुष्य जीव के सम्बन्ध में जानना । वाणव्यन्तर-ज्योतिषी-वैमानिक देवों में चारों वादी होते हैं ; सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक वाणव्यन्तर ज्योतिषी-वैमानिक देवों में जो-जो विशेषण पाये जाँय उन-उन विशेषणों सहित वाणव्यन्तर-ज्योतिषी वैमानिक देवों का विवेचन वैसा ही करना जैसा उनउन विशेषणों सहित औधिक जीव का किया गया है। ६.२ ४.३ ४ क्रियावादी ( समदृष्टि ) जीव और आयुष्य का बंधन :--- किरियावाई णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरंति, तिरिक्खजोणियाउथं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउथं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं वि पकरेंति, देवाउयं वि पकरेंति । जइ देवाउयं पकरेंति किं भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, जाव-वेमाणियदेवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतरदेवाउयं पकरेंति, नो जोइसियदेवाउयं पकाति, वेमाणियदेवाउयं पकरेंति । (प्र १०-११) सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। गोयमा ! नो नेरइयाउयं-- एवं जहेव जीवा तहेव सलेस्सा वि चउहि वि समोसरणेहिं भाणियव्वा । (प्र १३) "Aho Shrutgyanam" Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया- कोश २.६७ कण्हलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं नेरइयाज्यं पकरेंति - पुच्छा । गोमा ! नो नेरख्याश्यं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साज्यं पकति, नो देवाउयं पकरेंति xxx । एवं नीललेस्सा वि, काउलेरसा वि । ( प्र १४ ) तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाउयं पकरेंति - पुच्छा ! गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाज्यं पकरेंति, मणुस्साड्यं विपकरेंति, देवायं विपकरेंति । जर देवायं पकरेंति तहेव । xxx । एवं पहलेस्सा वि सुक्कलेत्सा वि नायव्वा । ( प्र १५-१६ ) अलेस्सा णं भंते! जीवा किं नेरइयाउयं - पुच्छा। गोयमा ! नो नेरझ्याउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाज्यं पकरेंति, नो मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । ( प्र १७ ) xxx सुक्काक्खिया जहा सलेस्सा | ( प्र १८ ) सम्मदिट्ठी णं भंते! जीवा किरियाबाई किं नेरख्याउयं जाव पुच्छा । गोयमा ! नो राउयं करेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुरसाउयं वि पकरेंति, देवायं विपकरेंति । xxx | ( प्र १६ ) गाणी आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य ओहिनाणी य जहा सम्मदिट्ठी । ( प्र. २० ) मणपज्जवणाणी णं भंते ! जाव पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाज्यं पकरेंति, नो तिरिकख जोणिया उयं पकरेंति, नो मणुस्साउयं पकरेंति, देवाउयं पकरेंति । जइ देवाडयं पकरेंति, किं भवणवासि जाव पुच्छा । गोयमा ! नो भवणवासिदेवाड्यं पकरेंति, नो वाणमंतराज्यं पकरेंति, नो जोइसियाउयं पकरेंति, वैमाणियदेवाउयं पकरेंति । केवलनाणी जहा अलेस्सा xxx | ( प्र २१-२२ ) सन्नासु चसु वि जहा सलेस्सा। नो सन्नोवउत्ता जहा मणवज्जवणाणी । सवेदगा जाव नपुंसगवेद्गा जहा सलेस्सा | अवेदगा जहा अलेस्सा | सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेहसा । अकसायी जहा अलेस्सा। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा। अजोगी जहा अलेस्सा | सागारोवसाय अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा ( प्र २२ ) किरियाबाई णं भंते! नेरश्या किं नेरइयाउयं ( जाव पकरेंति ) पुच्छा । "Aho Shrutgyanam" Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ क्रिया-कोश गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाजयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, देवाउयं पकरेंति । ( २३ ) सलेस्सा णं भंते! नेरइया किरियाबाई किं नेरइयाउयं ( जाव पकरेंति) एवं सव्वे विरइया जे किरियावाई, ते मणुस्साज्यं एगं पकरेंति । xxx एवं जाव श्रणियकुमारा जहेव नेरइया ( प्र. २५ ) । किरियाबाई णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया किं नेरझ्याउयं पकरेंति जाव पुच्छा । गोयमा ! जहा मणपज्जवनाणी | xxx । जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि । (प्र. २८ ) कण्हलेस्सा णं भंते! किरियाबाई पंचिदियतिरिक्खजोणिया कि नेरइयाउयं जाव करेंति ) पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, नो मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । xxx | जहा कण्हलेस्सा एवं नीलसावि, काउलेस्सा वि, तेउलेस्सा जहा सलेक्सा | xxx । एवं पहलेस्सा वि, एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियव्वा । सुकपक्खिया जहा सलेस्सा | सम्मदिट्ठी जहा मणपज्जावनाणी तहेव वैमाणियाणं पकरेति । xxx / नाणी जाव - ओहिनाणी जहा सम्मद्दिट्ठी | xxx | सेसा जाव -- अणागारोवउत्ता सव्वे जहा सलेस्सा तहा चेव भाणियव्वा । जहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्साण विभाणियव्वा, नवरं मणपज्जवनाणी नो सन्नोवउत्ता य जहा सम्मदिट्ठी तिरिक्खजोणिया तव भाणिव्वा । अलेस्सा केवलनाणी अवेदगा अकसायी अजोगी थ एए न एगं विआउयं करेंति । जहा ओहिया जीवा सेसं तद्देव । वाणमंतर - जोइसिय-वेनाणिया जहा असुरकुमारा । (प्र. २६ ) - भग० श ३० उ १ । प्र १० से २६ । पृ० ६०६ से ६०८ क्रियावादी जीव मनुष्य तथा देवता का आयुष्य बाँधते हैं, नारकी तथा तिर्यच योनिक जीव का आयुष्य नहीं बाँधते हैं, यदि देवता का आयुष्य बाँधते हैं तो भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी देवों का आयुष्य नहीं बाँधते हैं परन्तु वैमानिक देवों का आयुष्य बाँधते हैं । सलेशी, कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी क्रियावादी जीव, शुक्लपाक्षिक क्रियावादी जीव, समदृष्टि क्रियावादी जीव, ज्ञानी, मति श्रुत-अवधिज्ञानी क्रियावादी जीव, आहारादि चारों " Aho Shrutgyanam" Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश २६६ संज्ञाओं में उपयोगवाले क्रियावादी जीव, सवेदक, स्त्री-पुरुष नपुंसकवेदक क्रियावादी जीव, सकषायो-क्रोध-मान-माया-लोभ कषायी क्रियावादी जीव, सयोगी, मन-वचन-काययोगी क्रियावादी जीव तथा साकारोपयोगवाले अनाकारोपयोगवाले क्रियावादी जीव मनुष्य तथा देवता का आयुष्य ही बाँधते है, नारक तथा तिर्यचयोनिक जीव का आयुष्य नहीं बाँधते है। मनःपर्यवज्ञानी क्रियावादी जोव, और संज्ञाओं में उपयोग रहित क्रियावादी जीव केवल वैमानिक देवता का आयुष्य बाँधते है। अलेशी क्रियावादी जीव केवलज्ञानी क्रियावादो जीव, अवेदक क्रियावादी जीव, अकषायी क्रियावादी जीव तथा अयोगी क्रियावादी जीव किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बाँधते हैं। क्रियावादी नारक जीव, मनुष्य का आयुष्य ही बाँधते हैं, नारकी, तिर्यचयोनिक जीव तथा देवता का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण क्रियावादी नारकी में पाये जायें उन-उन विशेषणों सहित क्रियावादी नारको जीव मनुष्य का आयुष्य हो बाँधते हैं । क्रियावादी भवनपति देव मनुष्य का आयुष्य ही बाँधते हैं, नारकी तिर्यचयोनिक जीव तथा देवता का आयुष्य नहीं बाँधते हैं ; सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण क्रियावादी भवनपति देवों में पाये जायें उन-उन विशेषणों सहित क्रियावादी भवनपति देव केवल मनुष्य का आयुष्य ही बाँधते हैं । क्रियावादी पंचेन्द्रिय तियें चयोनिक जीव केवल वैमानिक देवता का आयध्य बाँधते है ; सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवों में पाये जायें उन-उन विशेषणों सहित कियावादो पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव केवल वैमानिक देवता का आयुष्य बाँधते हैं ; परन्तु कृष्ण-नील-कापोतलेशी क्रियावादी प'चेन्द्रिय तिर्यच योनिक जीव किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बाँधते है । क्रियावादी मनुष्य केवल वैमानिक देवता का आयुष्य बाँधते हैं, सलेशी, तेजोलेशी यावत् शुक्ललेशी क्रियावादी मनुष्य, शुक्लपाक्षिक क्रियावादी मनुष्य, समष्टि क्रियावादी मनुष्य, ज्ञानी, मति-श्रुत-अवधि मनःपर्यवशानी क्रियावादी मनुष्य, आहारादि चारों संज्ञाओं में उपयोग वाले तथा संज्ञा में उपयोग रहित कियावादी मनुष्य, सवेदक, स्त्री-पुरुष नपुंसकवेदक क्रियावादी मनुष्य, सकषायी, क्रोध-मान-माया-लोभकषायी क्रियावादी मनुष्य, सयोगी, मन-वचन-काययोगी क्रियावादी मनुष्य तथा साकारोपयोग वाले अनाकारोपयोग वाले क्रियावादी मनुष्य केवल वैमानिक देवता का आयुष्य बाँधते हैं । "Aho Shrutgyanam" Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कौश कृष्णलेशी यावत कापोतलेशी तथा अलेशी क्रियावादी मनुष्य, केवलज्ञानी क्रियावादी मनुष्य, अवेदक क्रियावादी मनुष्य, अकषायी क्रियावादी मनुष्य तथा अयोगी क्रियावादी मनुष्य किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । क्रियावादी वाणव्यन्तर-ज्योतिषी वैमानिक देव केवल मनुष्य का आयुष्य ही बाँधते हैं 1 सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण क्रियावादी वाणव्यन्तर-ज्योतिषीवैमानिक देवों में पाये जायें उन उन विशेषणों सहित क्रियावादी वाणव्यन्तर-ज्योतिषीवैमानिक देव केवल मनुष्य का आयुष्य ही बाँधते हैं ! २७० .६.२.४.३.५. क्रियावादी ( समदृष्टि ) जीव और भवसिद्धकता - किरियाबाई णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया ! गोयमा ! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया | xxx | सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई किं भव० --- पुच्छा । गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । xxx | एवं जाव - सुक्कलेस्सा | अलेस्सा णं भंते! जीवा किरियावाई किं भव० - पुच्छा ! गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । एवं एएणं अभिलावेण xxx सुक्कपक्खिया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा | ××× { नाणी जाव -- केवलनाणी भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । xxx । सन्नासु चउसु वि जहा सहसा | नो सन्नोवउत्ता जहा सम्मदिट्ठी । सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा । अवेदगा जहा सम्मदिट्ठी । सकसायी, जाव - लोभकसायी जहा सलेस्सा | अकसायी जहा सम्मदिट्ठी । सजोगी जाब- कायजोगी जहा सलेहसा । अजोगी जहा सम्मदिट्ठी | सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा | ( प्र ३४ ) एवं नेरइया वि भाणियव्वा, नवरं नायव्वं मं अस्थि । एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा xxx | पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया | नवरं नाथव्वं जं अस्थि । मणुस्सा जहा ओहिया जीवा । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । ( प्र ३४ ) --भग० श ३० उ १ । प्र ३०, ३२.३४ १०६०८, ६०६ क्रियावादी जीव भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं 1 सलेशी, कृण्णलेशी यावत् शुक्ललेशी तथा अलेशी क्रियावादी जीव, शुल्कपाक्षिक क्रियावादी जीव, समदृष्टि क्रियावादी जीव, ज्ञानी, मतिज्ञानी यावत् केवलज्ञानी क्रियावादी जीव, आहारादि चारों संज्ञाओं में उपयोग वाले तथा संज्ञा में उपयोग रहित क्रियावादी जीव, सवेदक, स्त्री-पुरुष नपुंसक वेदक तथा अवेदक क्रियावादी जीव, सकषायी, क्रोध "Aho Shrutgyanam" Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २७१ मान माया लोभ कषायी तथा अकषायी कियावादी जीव, सयोगी, मनोयोगी यावत् कायायोगी तथा अयोगी क्रियावादी जीव, साकारोपयोग अनाकारोपयोगवाले क्रियावादी जीव भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं । क्रियावादी नारकी भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं । सविशेषण क्रियावादी नारकी के संबंध में जैसा सविशेषण औधिक क्रियावादी जीव के संबंध में कहा वैसा ही कहना लेकिन नारकी के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना क्रियावादी भवनपति देव भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं । सविशेषण क्रियावादी भवनपति देवों के सम्बन्ध में जैसा सविशेषण औधिक क्रियावादी जीव के संबंध में कहा वैसा ही कहना लेकिन भवनपति देव के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना | क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं । विशेषण क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीवों के संबंध में जैसा सविशेषण औधिक क्रियावादी जीव के संबंध में कहा वैसा ही कहना, लेकिन क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवों के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना | क्रियावादी मनुष्य भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं । सविशेषण औधिक जीव के संबंध में जैसा कहा वैसा ही सभी विशेषण सहित क्रियावादी मनुष्य जीव के संबंध में जानना । क्रियावादी वाणव्यंतर - ज्योतिषी-वैमानिक देव भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं । सविशेषण क्रियावादी वाणव्यंतर- ज्योतिषी वैमानिक देवों के संबंध में जैसा सविशेषण औधिक क्रियावादी जीव के संबंध में कहा वैसा ही कहना, लेकिन क्रियावादी वाणव्यं तर- ज्योतिषी-वैमानिक देवों के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना । '६२४३६ अनंत रोपपन्नक क्रियावादी ( समदृष्टि ) और जीवइंडक :--- किरियाबाई - पुच्छा । गोयमा ! अतरोषवन्नगा णं भंते! नेरख्या किं किरियाबाई वि, जाव वेणइयवाई वि । ( प्र १ ) सलेस्सा णं भंते ! अनंतरोववन्नगा नेरड्या किं किरियाबाई ? एवं चेव, एवं जब पढमुद्दे से नेरइयाणं वक्तव्वया तहेव इह वि भाणियव्या | नवरं जं जस्स अत्थि अणंतरोववन्नगाणं नेरइयाणं तं तस्स भाणियन्त्रा । एवं सव्व जीवाणं जाव वेमाणियाणं | नवरं अणंतरोववन्नगाणं जं जहिं अत्थि तं तर्हि भाणियवं । - भग० श ३० उ २ । प्र १,२ | पृ० १०६ "Aho Shrutgyanam" Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश अनन्तरोपन्नक नारकी क्रियावादी भी होते हैं, अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा विनयवादी भी होते हैं । २७२ जैसी वक्तव्यता औधिक क्रियावादी जीव के सम्बन्ध में ( क्रमांक ६२४३ ) कही गई है वैसी ही वक्तव्यता क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक जीव के सम्बन्ध में कहना चाहिए इतना विशेष कि क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक जीव में सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण पाये जायँ उन उन विशेषणों से विवेचन करना चाहिए । *१२·४·३७ अनंतरोपपन्नक क्रियावादी (समदृष्टि ) जीव और आयुष्य का बंधन किरियाबाई णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेवूया कि नेरइयाज्यं पकरतिपुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाज्यं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, नो मस्साज्यं करेंति, नो देवाउयं पकरेंति । xxx | सलेस्सा णं भंते! किरियावाई अनंतत्रवन्नगा नेरख्या किं नेरइयाज्यं - पुच्छा । नो नेरख्या उयं पकरेंति, जाव -- नो देवायं पकरेंति ! एवं जाव - वेमाणिया । एवं सव्वठ्ठाणेसु वि अनंतरोववन्नगा नेरख्या न किंचि वि आउयं पकरेंति जाव - अणागारोव उत्तत्ति । एवं जाव- - वैमाणिया नवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्वं । ( प्र ३-४ ) - भग० श ३० । उ २ । प्र ३४ । पृ० ६०६ कोई भी वादवाले अनन्तरोपपन्नक जीव किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बांधते हैं । '६२४३८ अनंतरोपपन्नक ( समदृष्टि ) क्रियावादी जीव और भवसिद्धकताकिरियाबाई णं भंते ! अनंतरोववन्नगा नेरइया किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया ? गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । xxx । सलेक्सा णं भंते ! किरियाबाई अतरोववन्नगा नेरइया किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया ? गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए उद्देसए नेरइयाणं वत्तव्वया भणिया तहेव इह वि भाणियव्वा जाव -अणागारोवउत्तत्ति । एवं जाव वैमाणियाणं । नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । इमं से लक्खणं जे किरियावाई सुरक्खिया- सम्मामिच्छादिट्ठीया एए सव्वे भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया, सेसा सव्वे भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि । - भग० श ३० उ० २ । प्र ५ व ७ । पृ० ६०६-१० क्रियावादी जीव मात्र भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं । अनन्तरोपपन्नक " Aho Shrutgyanam" - - Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २७३ '६२ ४.३६ परंपरोपपन्नक क्रियावादी (समदृष्टि ) जीव और जीवदंडक, आयुष्य ___ बंधन और भवसिद्धिकता : परंपरोववन्नगा णं भंते ! नेरच्या किरियावाई० ? एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नएसु वि नेरइयादीओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं, तहेव तियदंडगसंगहिओ। -भग० श ३० । उ ३ । प्र१। पृ० ६१० परंपरोपपन्नक क्रियावादो जीव के सम्बन्ध में वैसी ही वक्तव्यता जाननी चाहिए जैसी औधिक क्रियावादी जीव के सम्बन्ध में (देखो ६२.४ ३ ३-४ ) वक्तव्यता कही गई है । २४.३.१० अनंतरावगाढ-अनंतराहारक-अनंतरपर्याप्त क्रियावादी (समदृष्टि) जीव और जीवदंडक, आयुष्य का बंधन और भवसिद्धिकता :६२.४ ३११ परंपरावगाढ-परंपराहारक-परंपरपर्याप्त क्रियावादी (समदृष्टि) जीव और जीवदंडक, आयुष्य का बंधन और भवसिद्धिकता :'६२.४ ३ १२ चरम-अचरम क्रियावादी ( समदृष्टि) जीव और जीवदंडक, आयुष्य बंधन और भवसिद्धिकता :एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसएउद्देसगाणं परिवाडीसच्चेव इहं पिजाव-अचरिमो उद्देसो । नवरं अणंतरा चत्तारि वि एक्कगमगा, परंपरा चत्तारि वि एकगमएणं । एवं चरिमा वि, अचरिमा वि एवं चेव । नवरं ( अचरिमे ) अलेस्सी केवली अजोगी न भन्नइ, सेसं तहेव । --भग० श ३० ! उ ४-११ । पृ०६१० अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक, अनन्तरपर्याप्त क्रियावादी समदृष्टि जीव का गमक अनन्तरोपपन्नक क्रियावादी जीव की तरह कहना अर्थात् क्रियावादत्व, आयुष्य का बंधन तथा भव-अभवसिद्धिकता के सम्बन्ध में वैसा ही वक्तव्य कहना जैसा अनन्तरोपपन्नक क्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कहा गया है ( देखो क्रमांक ६२४३६-८)। परम्परावगाढ़, परम्पराहारक, परम्पर पर्याप्त क्रियावादी समष्टि जीव का गमक परम्परोपपन्नक क्रियावादी जीव की तरह कहना। चरम क्रियावादी जीव का वक्तव्य परम्परोपपन्नक क्रियावादी जीव की तरह कहना । अचरम क्रियावादो जीव का वक्तव्य औधिक क्रियावादी जीव की तरह कहना लेकिन अलेशी, केवली तथा अयोगी विशेषणों सहित विवेचन नहीं करना । "Aho Shrutgyanam" Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ क्रिया-कोश ६२.५ क्रियावादी मिथ्यादृष्टि :१२.५.१ परिभाषा / अर्थ :--. (क) जीवादिसावपदार्थोस्त्येवेत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनस्ते चैवं वादित्वान्मिथ्यादृष्टयः xxx । स तत्रास्त्येव जीव इत्येवं सावधारणतयाऽभ्युपगमं कुर्वन् काल एवैकः सर्वस्यास्य जगतः कारणम्, तथा स्वभाव एव, नियतिरेव, पूर्वकृतमेव, पुरुषाकार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतयैकान्तेन कालादीनां कारणत्वेनाश्रयणान्मिथ्यात्वम् । —सूय श्रु १ । अ १२ । गा १ । टीका (ख) "क्रियैव फलदा पुंसा, न ज्ञानं फलदं मतम्" इत्येवं क्रियैव फलदायित्वेनाभ्युपगताः क्रियावादमाश्रिताः।। --सूय० श्रु १ । अ १० ] गा १७ । टीका (ग) ये क्रियात एव ज्ञाननिरपेक्षाया दीक्षादिलक्षणाया मोक्षमिच्छन्ति । ते एवमाख्यान्ति । -सूय० श्रु १ । अ १२ । गा ११ । टीका (घ) क्रियां ज्ञानादिरहितामेकामेव स्वर्गापवर्गसाधनत्वेन वदितं शीलं येषां ते क्रियावादिनः। -सूय० श्रु २ । अ२ । सू. २५ । टीका जो जीवाजीवादि के अस्तित्व को मानता है लेकिन उनके नित्यानित्यत्व तथा स्व-पर में तथा काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा आदि को निरपेक्ष कारण-एकान्त भाव से मानता है वह एकान्त भाव होने से मिथ्यादृष्टि क्रियावादी है। जो ज्ञानरहित या ज्ञाननिरपेक्ष दीक्षादि क्रियाओं से स्वर्ग-अपवर्ग की प्राप्ति हो सकती है-ऐसा मानता है ; वह क्रियावादी मिथ्यादृष्टि है । वह क्रियावादी एकान्त भाव होने के कारण मिथ्यादृष्टि क्रियावादी है। क्योंकि वह एकान्त भाव से क्रिया को मोक्ष का साधन मानता है। ६.२५२ क्रियावादी मिथ्यादृष्टि के भेद :-- (क) तत्थ गंजे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए. तत्थ गं इमाईतिन्नि तेवट्ठाई पावादुय-सयाई भवंतीति मक्खायाई, तंजहा किरियावाईणं, अकिरियावाईणं, अन्नाणियवाईणं, वेणइयवाईणं ते वि परिनिव्वाणमाहंसु ते वि, (परि-) मोक्खमासु तेवि लवंति सावगा ते वि लवंति सावइत्तारो। -सूय० श्रु २ । अ२ । सू २५ । पृ० १५८ "Aho Shrutgyanam" Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २७२ टोका--क्रियावादिनामशीत्युत्तरशतं अक्रियावादिनां चतुरशीतिरज्ञानिकानां सप्तषष्टिवैनयिकानां द्वात्रिंशदिति । तत्र सर्वेष्येते मौलास्तस्तिष्याश्च प्रवदनशीलत्वात्प्रावादुकास्तेषां च भेदसंख्या परिज्ञानोपाय आचार एवाभिहित इति नेह प्रतन्यते। (ख) असिसयं किरियाणं, अकिरियाणं च होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्टी, वेणइयाणं च बतीसा॥ -सूय० श्रु १। अ १२ । गा १ । नि गा ११६ (ग) क्रियावादिनामशीत्यधिक शतं भवति तच्चानया प्रक्रियया । तद्यथा। जीवादयो नव पदार्थाः परिपाट्या स्थाप्यन्ते । तदधः स्वतः परत इति भेदद्वयं ततोप्यधो नित्या नित्यभेदद्वयं ततोप्यधस्तात्परिपाट्या कालस्वभावनियतीश्वरात्मपदानि पंच व्यवस्थाप्यन्ते । ततश्चैवं चारणिका प्रक्रमः । तद्यथा । अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः । तथाऽस्ति जीवःस्वतोऽनित्यः कालत एव । एवं परतोपि भंगद्वयम् । सर्वेपि च चत्वारः कालेन लब्धाः। स्वभावनियतीश्वरात्मपदान्यपि प्रत्येकं चत्वार एव लभन्ते। ततश्च पंचापि चतुष्काविंशतिर्भवति । सापि जीवपदार्थेन लब्धा । एवमजीवादयोप्यष्टौ प्रत्येक विंशतिं लभन्ते । ततश्च नवविंशतयो मीलिताः क्रियावादिनामशीत्युत्तरशतं भवति । -सूय श्रु १ । अ १२ ! गा १। टीका आगम में क्रियावादादि प्रावादुक मिथ्याष्टि वादों की संख्या ३६३ बतलाई गयी है उनमें क्रियावादी की संख्या १८० बतलायी गई है। उपर्युक्त क्रियावाद के १८० भेद टीकाकार के अनुसार नव तत्त्वों के आधार पर प्रक्रिया से होते हैं। जीव, अजीव, आस्तव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा, मोक्ष-इन नव पदार्थों के स्व और पर की अपेक्षा अठारह भेद हुए ; इन अठारह के नित्य-अनित्य की अपेक्षा से छत्तीस भेद हुए । इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा आदि कारणों की अपेक्षा पाँच-पाँच भेद करने से १८० भेद हुए। यथा-जीव स्वरूप से काल की अपेक्षा नित्य है, जीव स्वरूप से ईश्वर की अपेक्षा नित्य है । इसी प्रकार जीव स्वरूप से आत्मा, नियति, स्वभाव की अपेक्षा नित्य है । इस प्रकार नित्यपद से पाँच भेद होते है ; नित्यपद की तरह अनित्य पद के भी पाँच भेद होते है। इस प्रकार जीव के स्वरूप से नित्य, अनित्य की अपेक्षा दस भेद होते है। जिस प्रकार जीव के स्वरूप से नित्य-अनित्य की अपेक्षा दस भेद होते है उसी प्रकार जीव के पररूप से नित्यअनित्य को अपेक्षा दस भेद होते है। "Aho Shrutgyanam' Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ્ क्रिया-कौश इस तरह जीवादि नव तत्त्वों में से प्रत्येक के बीस-बीस भेद हुए और कुल मिथ्या दृष्टि क्रियावादी के १८० भेद प्रक्रिया से हुए । अभयदेवसूरि ने भी ( ठाण० स्था ४ । ४ । सू ३४५ की टीका ) मिथ्यादृष्टि क्रियाबादी के इसी प्रकार १८० भेद किये हैं । '६२५३ क्रियावादी मिध्यादृष्टि के सिद्धांत: (क) अहावरं पुरखायं किरियावाइ दरिसणं । कम्म चिन्तापणट्ठाणं, संसारस्स पवढर्णं ॥ जाणं restraट्टी, अहो जंच हिंसइ । परं अवियत्तं खु सावज्जं ॥ पुट्ठो संवेयर :– -- सूय० श्रु १ : अ १ । उ २ । गा० २४-२५ । निगा० १०३ (ख) कम्मं चयं न गच्छत्र चउव्विहं भिक्खुसमयम्मि । --सूय० श्रु १ । अ १ । उ२ । निगा ३१ टीका - तत्र परिक्षोपचितमविज्ञोपचिताख्यं भेदद्वयं साक्षादुपात्तम् । शेषं वीर्यापथस्वप्नांतिकभेदद्वयं च शब्देनोपात्तम् । मिथ्यादृष्टियों का क्रियावादी दर्शन कर्मबंधन की चिन्ता से रहित तथा संसार परिभ्रमण का प्रवर्द्धक है । इन क्रियावादियों का मत है कि चार प्रकार की हिंसक क्रियाओं से कर्म का बन्धन नहीं होता है, यथा (१) मन में हिंसा के भाव रहते हुए भी काया से हिंसा का न होना । (२) मन में हिंसा के भाव न रहते हुए भी काया से हिंसा का होना । (३) जाना आना- गमनागमन मात्र से होने वाली हिंसा । ( ४ ) स्वप्न में होनेवाली वैचारिक हिंसा । उनका कथन है कि इन चार प्रकार को हिंसाओं से कर्म का आत्मा के साथ स्पर्शमात्र अनुभव होता है परन्तु लेप और बन्धन नहीं होता है 1 (ग) संतिमे तर आयाणा, जेहिं कीर३ पावगं । अभिम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया ॥ एए उ तर आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, निव्वाणमभिगच्छई ॥ पुत्तं पिया समारम्भ, अहारेज्ज असंजए । भुंजमाणो य मेहावी, कम्मुणा नोवलिप्पइ ॥ --सूय० अ १ । अ १ | उ २ । गा २६ से २८ । पृ० १०३ "Aho Shrutgyanam" Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोशे पाप करने के तीन आदान हैं, यथा-(१) प्राणियों को स्वयं मारना, (२) अन्य द्वारा मरवाना, (३) मारने का अनुमोदन करना। - इन मिथ्यादृष्टि क्रियावादियों की मान्यता है कि उपर्युक्त तीनों आदानों से हिंसा करते हुए भी यदि व्यक्ति के भाव विशुद्ध है अर्थात् प्राणी के प्रति द्वेष नहीं है तो उसके पापकर्म का बन्धन नहीं होता और वह निर्वाण-मोक्ष को प्राप्त करता है । . इस पर दृष्टांत देते हुए वे कहते हैं कि -जैसे यदि कोई गृहस्थ पिता अपने पुत्र को बिना द्वेष से मारकर उसका भोजन करता है तो वह कर्म से लेपायमान नहीं होता है वेसे हो मेधावी (रागद्वेष रहित) जीव हिंसा करता हुआ भी कर्म से लेपायमान नहीं होता है । '२'६ अक्रियावादी '१२.६१ परिभाषा | अर्थ (क) अकिरियावाई यावि भवइ, नाहियवाई, नाहियपण्णे, नाहियदिट्ठी, णो सम्मावाई, णो णितियावाई, ण संति परलोगवाई, णत्थि इहलोए, णस्थि परलोए, णस्थि माया, णस्थि पिया, णत्थि अरिहंता, णत्थि चक्कवट्टी, णथि बलदेवा, णत्थि वासुदेवा, णत्थि णिरया, णत्थि णेरड्या, णस्थि सुक्कडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसो, णो सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवंति, णो दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवंति, अफले कल्लाणपावए, णो पञ्चायन्ति जीवा, णत्थि णिरय, णत्थि सिद्धि, से एवंवाई, एवं पण्णे, एवंदिट्ठी, एवं छंदरागमणिविट्ठे यावि भवई। -दसासु । द ६ । सू २ | पृ० १२६ (ख) णो किरियमाहंसु अकिरियवाई। -सूय० श्रु १ । अ१२ । गा ४ पृ० १२८ (ग) नत्थि ति (अ) किरियावाई य । --सूय श्रु. १ । अ १२ । गा १ । नि गा ११८ (घ) नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवं वादिनोऽक्रियावादिनस्तेप्यसद्भतार्थप्रतिपादनान्मिध्यादृष्टय एव। --सूय श्रु १ । अ १२ । गा १ । टीका (च) अक्रियां जीवादिपदार्थो नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषान्तेऽक्रियावादिनः । -भग० । श २६ ! उ २ । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ क्रिया-कोश (छ) अक्रियैव परलोकसाधनायाऽलमित्येवं वदितुं शीलं येषान्तेऽक्रियावादिनः । भग० श ३० । उ १1 टीका (ज) तन्निषेषाद क्रियावादिनो - नास्तिका इत्यर्थः । ठाण० स्था ४ । उ ४ । सू ३४५ । टीका (झ) क्रिया-अस्तीतिरूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी सैवायथावस्तुविषयतया कुत्सिता अक्रिया ननः कुत्सार्थत्वात्तामक्रियां वदन्तीत्येवं शीला अक्रियावादिनो, यथावस्थितं हि वस्त्वनेकान्तात्मकं तन्नास्त्येकान्तात्मकमेव चास्तीति प्रतिपत्तिमन्त इत्यर्थः, नास्तिका इति भावः, एवंवादित्वाञ्चते परलोकसाधकक्रियामपि परमार्थतो न वदन्ति, तन्मतवस्तुसत्वे हि परलोकसाधकक्रियाया अयोगादित्यक्रियावादिन एव ते इति। ठाण० स्था ८ । सू ६०७ । टीका जो व्यक्ति नास्तिकवादी, नास्तिक प्रज्ञावाला, नास्तिक दृष्टिवाला है तथा सम्यगवादी नहीं है तथा जो अनित्य (क्षणिक) वादी है, परलोक की सत्ता नहीं मानने वाला है; जो कहता है -इहलोक नहीं है, परलोक नहीं है, माता-पिता नहीं है, अरिहंत-चक्रवर्तीबलदेव-वासुदेव नहीं है, नरक नहीं है, नारकी नहीं है, सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फल-विशेष नहीं है, अच्छे कर्मों का अच्छा फल नहीं है, बुरे कर्मों का बुरा फल नहीं है, पुण्य पाप का फल नहीं होता है, जीव संसार में परिभ्रमण नहीं करता है, नरकादि गति नहीं है, सिद्धि नहीं है ऐसा जिसका वाद (दर्शन), प्रज्ञा और दृष्टि है तथा ऐसा जिसका अभिप्राय, प्रतीति, मति और प्रवृत्ति है-वह अक्रियावादी है । अक्रियावादी-क्रिया है ही नहीं---ऐसा मानता है अर्थात् जो कुछ होता है वह स्वयमेव होता है, उसमें क्रिया तथा क्रिया के फल की कोई बात नहीं है। अक्रियावादी आत्मादि किसी का भी अस्तित्व नहीं मानता है और वह प्रत्येक पदार्थ के लिए नहीं है-ऐसा कहता है । जीवाजीवादि पदार्थ नहीं है ऐसा अक्रियावादी कहता है तथा असदभत पदार्थ के प्रतिपादन के कारण वह मिथ्यादृष्टि है । अक्रिया परलोक साधन के लिए यथेष्ट है, ऐसा कहने वाला अक्रियावादी है। ६२६२ अक्रियावादी के भेद : --- १ आठ भेद अट्ठ अकिरियावाई पन्नत्ता, तंजहा-एगावाई, अणेगावाई, मितवाई, निम्मितवाई, सायवाई, समुच्छेदवाई, णियावाई, ण संति परलोगवाई। --ठाण० स्था८सू६०७ 1 पृ० २८८ "Aho Shrutgyanam" Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २७६ अक्रियावादियों के आठ भेद होते हैं, यथा-१-एकवादी, २–अनेकवादी, ३-मितवादी, ४-निर्मितवादी, ५-सातवादी, ६-समुच्छेदवादी, ७--नित्यवादी तथा ८-नास्तिक परलोकवादी। '२ चौरासी भेद : (क) तत्थ णं जे से पढमम्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए, तत्थ णं इमाई तिन्नि तेवढाइ पावादुय-सयाई भवंतीति मक्खायाई, तंजहा-किरियावाईणं अकिरियावाईणं अन्नाणियवाईणं वेणइयवाईणं ते वि परिनिव्वाणमासु तेवि (परि-) मोक्खमाहंसु तेवि लवंति सावगा, तेवि लवंति सावइत्तारो। --सूथ श्रु २ । अ २ । सू २५ । पृ० १५८ टीका-क्रियावादिनामशीत्युत्तरशतं अक्रियावादिनां चतुरशीतिरज्ञानिकानां सप्तषष्टिवैनयिकानां द्वात्रिंशदिति। तत्र सर्वेप्येते मौलास्तस्तिष्याश्च प्रवदनशीलत्वात्प्रावादुकास्तेषां च भेदसंख्या परिज्ञानोपाय आचार एवाभिहित इति नेह प्रतन्यते। (ख) असिसयं किरियाणं, अकिरियाणं च होइ चुलसीई। अन्नाणिय सत्तट्ठी, वेणझ्याणं च बतीसा ।। -सूय श्रु १ । अ १२ । गा १ । निगा ११६ टोका--इदानीमक्रियावादिनां न सन्त्येव जीवादयः पदार्था इत्येवमभ्युपगमवतामनेनोपायेन चतुरशीतिरवगंतव्या । तद्यथा। जीवादीन् पदार्थान् सप्ताभिलिख्य तदधः स्वपरभेदद्वयं व्यवस्थाप्यम् । ततोष्यधः कालयदृच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मपदानि षड्व्यवस्थाप्यानि । भंगकानयनोपायस्त्वयम् । नास्ति जीवः स्वतः कालतः। तथा नास्ति जीवः परतः कालतः। एवं यदृच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मभिः प्रत्येकं द्वौ द्वौ भंगको लभ्येते। सर्वेपि द्वादश । तेऽपि च जीवा दिपदार्थसप्तकेन गुणिताश्चतुरशीतिरिति । आगम में क्रियावादी प्रावादुक मिथ्यादृष्टि चारों वादों की संज्ञा ३६३ बतलाई गई है उनमें अक्रियावादी की संख्या ८४ बतलाई गई है। उपर्युक्त अक्रियावाद के ८४ भेद टीकाकार के अनुसार जीव-अजीव-आस्रव-बंधसंवर-निर्जरा-मोक्ष-इन सात तत्त्वों के आधार पर प्रक्रिया--गणना से होते हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष-इन सात तत्त्वों के स्व-पर की "Aho Shrutgyanam" Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० क्रिया - कोश अपेक्षा चौदह भेद हुए। इनमें से प्रत्येक के काल, यहच्छा, नियति, स्वभाष, ईश्वर, आत्मा- इन छः कारणों की अपेक्षा छः-छः भेद करने से कुल ८४ भेद हुए । जैसे-जीव स्वतः काल की अपेक्षा नहीं जीव परतः काल की अपेक्षा नहीं है । इस प्रकार काल की अपेक्षा जीव के दो भेद हैं । काल की तरह यच्च्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा की अपेक्षा जीव के दो-दो भेद होते है । इस प्रकार जीव के स्व-पर के काल, यहच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा की अपेक्षा १२ भेद होते हैं । जिस प्रकार जीव के स्व-पर से काल - यच्च्छा-नियति-स्वभाव-ईश्वर आत्मा की अपेक्षा १२ भेद होते हैं; उसी प्रकार अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष में से प्रत्येक के बारह-बारह भेद होते हैं। कुल अक्रियावादी के ८४ भेद प्रक्रिया से हुए । अभयदेवसूरि ने भी ठाण० स्था ४ । ४ । सू ३४५ की ) टीका अक्रियावादी के उक्त प्रकार से ८४ भेद किये हैं । ३ विशिष्ट भेद: -: [आगमों में स्थान-स्थान पर विभिन्न प्रकार के अक्रियावादियों का वर्णन मिलता है । उपर्युक्त आठ भेदों के सिवाय अन्य अक्रियावादियों का संकलन हमने यहाँ किया है ] ६ वामलोक वादी *१० तजीव तच्छरीरवादी * ११ पंचस्कंधवादी *१२ धातुवादी *१३ पंचमहाभूतवादी १४ अक्रिय आत्मवादी १५ नियतिवादी ६२६३ भेदों की परिभाषा / अर्थ : १ एकवादी - आत्माऽद्वैतवादीपरिभाषा / अर्थ - तक एवात्मादिरर्थ इत्येवं वदतीत्येकवादी । - ठाण० स्था ८ सू ६०७ । टीका जो समस्त विश्व में व्याप्त एक ही आत्मा को मानते थे उनको एकवादी कहा जाता था । "Aho Shrutgyanam" Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश एकवादी के मत का प्रतिपादन : जहा य पुढवी, एगे नाणाहि दीसह । एवं भो ! कसिणे लोए, विन्नू नाणाहि दीसइ || - सूय० श्र १ । अ १ । उ १ । गा । पृ० १०१ २८१ जिस प्रकार एक ही पृथ्वीस्तुप नाना प्रकार का दिखाई देता है उसी प्रकार यह आत्मस्वरूप सम्पूर्ण लोक में अलग-अलग प्रतिभास होता है लेकिन वास्तविकता में चेतनअचेतनरूप सम्पूर्ण लोक एक ही आत्मा है । टीका -- पृथिव्येव स्तूपा पृथिव्या वा स्तूपः पृथिवीसंघातावयवी । सवैकोपि यथा नानारूपः सरित्समुद्रपर्वतनगर सन्निवेशाद्याधारतया विचित्रो दृश्यते निम्नोन्नतमृदु कठिन रक्तगीतादिभेदेन वा दृश्यते । न च तस्य पृथिवीतत्त्वस्यैतावता भेदेन भेदो भवत्येवमुक्तरीत्या । भो इत्यादिपरामंत्रणं कृत्स्नोपि लोकश्चेतना चेतनरूप एको विद्वान् वर्तते । इदमत्र हृदयम् । एक एव ह्यात्मा विद्वान् ज्ञानपिण्डः पृथिव्याद्याकारतया नाना दृश्यते न च तस्यात्मन एतावताऽऽत्मतत्त्वभेदो भवति । तथा चोक्त एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् । यद्यपि पृथ्वी एक ही स्तूप है फिर भी अवयव रूप में अलग-अलग दिखाई देता है । पृथ्वी एक होने पर भी नदी, समुद्र, पर्वत, नगर, सन्निवेश आदि इसके विचित्र रूप परिलक्षित होते हैं । नीचा, ऊँचा, मृदु, कठिन, लाल, पीला आदि भेद से भी विभिन्न रूप में दिखाई देता है लेकिन वास्तव में पृथ्वी तत्त्व के उक्त प्रकार से भेद नहीं होते हैं । यह एक परामंत्रण उदाहरण मात्र है । इसी प्रकार चेतन-अचेतनमय समस्त लोक एक आत्मरूप है । यह हार्द है । एक आत्मा, विद्वान्, ज्ञानपिण्ड पृथ्वी के अवयव की तरह भिन्न भिन्न परिलक्षित होता है लेकिन वास्तविकता में वह एक ही आत्मतत्त्व है उसके भिन्न-भिन्न भेद नहीं होते हैं । जैसे कहा है – एक ही आत्मा सर्वभूतों में स्थित है, वह जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब की तरह एक या अनेक रूप में परिदशित होती हैं । तत्रैक एवात्मादिरर्थं इत्येवं वदसीत्येकवादी, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वादिति, उक्त चैतन्मतानुसारिभिः—“एक एवहि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैक, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥ इति अपरस्त्वात्मैवास्ति नान्यदिति प्रतिपन्नः, तदुक्तम्“पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति । यदेजति यन्नेजति यद् दूरे यद्अन्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यत्सर्वस्यास्य बाह्यतः इति (इत्यात्मा ३६ " Aho Shrutgyanam" Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ क्रिया-कोश द्वैतवादः ), तथा-"नित्यज्ञानविवर्तोऽयं, क्षितितेजो जलादिकः । आत्मा तदात्मकश्चेति, संगिरन्ते परे पुनः॥१॥ इति, शब्दाद्वैतवादी तु सर्वशब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपन्नः, उक्त च-''अमादिनिधनं ब्रह्म, शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थभावेन, प्रक्रिया जगतो यतः ॥१॥ इति, अथवा सामान्यवादी सर्वमेवैकं प्रतिपद्यते, सामान्यस्यैकत्वादित्येवमनेकधैकवादी, अक्रियावादिता चास्य सद्भूतस्यापि तदन्यस्य नास्तीति प्रतिपादनात् आत्माद्व तपुरुषातशब्दातादीनां युक्तिभिरघटमानानामस्तित्वाभ्युपगमाध। -ठाण ० स्था ७ ] सू ६०७ । टीका जो चेतन-अचेतन रूप विश्व में व्याप्त एक आत्मा का प्रतिपादन करते हैं वे एकवादी है। एकवादी कई प्रकार के हैं, उनमें से आत्माद्वैतवादी का कथन है कि प्रकृत्यनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक आत्मा व्याप्त है-जैसे कहा है ---एक ही आत्मा सर्वभूतों में व्यवस्थित है। वह जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब की तरह एक या अनेक रूप में परिदर्शित होती है अर्थात् ब्रह्माण्ड में सब कुछ एक आत्मा ही है । पुरुषाद्वैतवादी कहते हैं कि इस जगत् में जो हो चुका है और जो होनेवाला है वह सब पुरुष (आत्मा) ही है, वह पुरुष देवत्व का अधिष्ठाता है और वह दूसरे के लिए प्रकट होता है अर्थात वह पुरुष प्राणियों की भलाई के लिए कारणावस्था को छोड़कर जगत के रूप को धारण करता है अर्थात् सब कुछ वह पुरुष ही है। वह गतिशील है और गतिरहित भी है, वह दूर है और निकट भी है, वह सबके अन्दर भी है, बाहर भी है । ____ कहा गया है कि नित्यज्ञान-आत्मा-पृथ्वी, अग्नि, जल आदि की तरह भिन्नभिन्न प्रतिभासित होता है लेकिन वास्तव में वह एक ही आत्मतत्त्व है। वह संग भी है, निकट भी है, दूर भी है । एक शब्द को ही सब कुछ मानने वाले शब्दाद्वैतवादी कहते हैं कि यह जगत शब्दात्मक है अर्थात सर्वत्र शब्दतत्त्व व्याप्त है-जैसे कहा है-वह अनादि अनन्त जो ब्रह्म है वह शब्दतत्त्व-अक्षरमात्र है ---वह अर्थभाव से जगत की प्रक्रिया विविध प्रकार की करता है। . सर्वथा-एकान्त रूप में एकत्व का प्रतिपादन करने वाले एकवादी हैं। एकवादी के अनेक प्रकार है-यथा-आत्माद्वैतवादी, पुरुषाद्वैतवादी, शब्दाद्वैतवादी आदि । अस्तु, उनके द्वारा माने गये पदार्थों से भिन्न अन्य सद्भुतभावों का निषेध करने के कारण ; तथा उनके सिद्धान्त का अस्तित्व सिद्ध नहीं होने के कारण आत्माद्वैत, पुरुषाद्वैत, शब्दात आदि एकवादियों को अक्रियावादी कहा जाता है। "Aho Shrutgyanam" Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अनेकवादी परिभाषा / अर्थ सत्यपि कथञ्चिदेकत्वे भावानां सर्वथा अनेकत्वं वदतीत्यनेकवादी । : क्रिया-कोश जाता है । पदार्थ के भावों में कथंचित् एकत्व होने पर सर्वथा एकान्त रूप से अनेकत्व मानने वाले को अनेकवादी कहा जाता था । २८३ अनेकवादी के मत का प्रतिपादन सत्यपि कथञ्चिदेकत्वे भावानां सर्वथा अनेकत्वं वदतीत्यनेकवादी, परस्परविलक्षणा एव भावास्तथैव प्रमीयमाणत्वात्, यथा रूपं रूपतयेति, अभेदे तु भावानां जीवजीवबद्धमुक्त सुखितदुःखितादीनामेकत्वप्रसङ्गात् दीक्षादिवैयर्थ्यमिति, किञ्च– सामान्यमङ्गीकृत्यैकत्वं विवक्षितं परैः, सामान्यं च भेदेभ्यो भिन्नाभिन्नतया चिन्त्यमानं न मुच्यते, एवमवयवेभ्योऽवयवी धर्मेभ्यश्च धर्मीत्येवमनेकवादी, अस्याप्यक्रियावादित्वं सामान्यादिरूपतयैकत्वे सत्यपि भावानां सामान्यादिनिषेवेन तन्निषेधनादिति । -ठाण० स्था ८ | सू ६०७ । टीका ठाण० स्था८ । सू ६०७ | टीका कथंचित् एकत्व होने पर भी सर्वथा — एकांतरूप में भावों का अनेकत्व - भिन्नत्व का प्रतिपादन करने वाले अनेकवादी है। उनका कथन है कि सब भाव परस्पर में विलक्षण हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न हैं; उसी प्रकार प्रमाणित होता है--जैसे रूप से रूपत्व भिन्न है । यदि भावों का अभेद माना जाय तो जीव, अजीव, बद्ध, मुक्त, सुखी, दुःखी आदि के एकत्व के प्रसंग से दुःख निवारण के लिए ही आदि का ग्रहण निरर्थक हो जाता है । सामान्य को स्वीकार करके दूसरे वादियों ने एकत्व की विवक्षा की है परन्तु सामान्य तथा भेदविशेष की अपेक्षा से भिन्नाभिन्नत्व का विचार सिद्ध नहीं होता है अतः अवयव से अवयवी, धर्म से धर्मी भिन्न है ऐसा अनेकवादी कहते है । एकांतरूप से भावों के एकत्व का निषेध करने से अनेकवादी को अक्रियावादी कहा :-- ३ मितवादी परिभाषा / अर्थ : अनन्तानन्तत्वेऽपि जीवानां मितान् परिमितान् वदति xxx मितवादी । " Aho Shrutgyanam" Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश जीवलोक, क्षेत्रलोक, काललोक, आत्मप्रदेशलोक आदि को मित--परिमित मानने वाला--मितवादी है। वह किसी को असंख्यात या अनंत नहीं मानता है । मितवादी के मत का प्रतिपादन : अनन्तानन्तत्वेऽपि जीवानां मितान्-परिमितान् वदति 'उत्सन्नभव्यकं भविष्यति भुवनमित्यभ्युपगमात् मितं वा जीवं-अंगुष्ठपर्वमानं श्यामाकतन्दुलमात्रं वा वदति न त्वपरिमितमसंख्येयप्रदेशात्मकतया अंगुलासंख्येयभागादारभ्य यावल्लोकमापूरयतीत्येवमनियतप्रमाणतया वा, अथवा मितं सप्तद्वीपसमुद्रात्मकतया लोकवदत्यन्यथाभूतमपीति मितवादीति, तस्याप्यक्रियावादित्वं वस्तुतत्त्वनिषेधनादेवेति । -- ठाण° स्था ८ । सू.६०७ । टीका मितवादियों का कथन है कि यह संसार अनन्तान्त जीव वाला नहीं है पर परिमित संख्यक जीव वाला है । यह संसार अनन्त काल तक नहीं रहेगा तथा इस संसार का (मित) भविष्य में प्रलय के द्वारा उच्छेद होगा। आत्मा को वे असंख्येय प्रदेशात्मक न मानकर अंगुष्ठपर्व मात्र या श्यामाकतन्दुल मात्र मित मानते हैं। इस लोक को वे सात द्वीप-समुद्र रूप मित मानते हैं, कोई मितवादी इसको अन्य प्रकार से भी मित मानते हैं। उनके उपर्युक्त कथन वस्तुतत्त्व से विपरीत है अतः उनको अक्रियावादी कहा जाता है । '४ निर्मितवादी-ईश्वरकारणिकवादी परिभाषा / अर्थ(१) निर्मितं ईश्वरब्रह्मपुरुषादिना कृतं लोकं वदतीति निम्मितवादी । -ठाण० स्था८।सू ६०७ । टीका (२) इह खलु धर्माः स्वभावाश्चेतनाचेतनरूपाः पुरुष-ईश्वर-आत्मा वा कारणमादिर्येषां ते पुरुषादिका ईश्वरकारणिका आत्मकारणिका वा तथा पुरुष एवोत्तरं कायं येषां ते पुरुषोत्तरास्तथा पुरुषेण प्रणीताः सर्वस्य तदधिष्ठितत्वात् तदात्मकत्वाद्वा तथा पुरुषेण द्योतिताः प्रकाशीकृताः प्रदीपमणिसूर्यादिनेव घटपटादय इति । --सूय० श्रु २ । अ १ । सू ११ । टीका "Aho Shrutgyanam" Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २८५ जो ईश्वर, ब्रह्मा, पुरुषादि को जगत का आदि कर्ता-निर्माता मानते थे उनको निर्मितवादी ईश्वरकारणिकवादी-आत्मवादी कहा जाता था। निर्मितवादी-ईश्वरकारणिकवादी के मत का प्रतिपादन : इणमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसिमाहियं । देवेउत्त' अयं लोए, बम्भउत्त इ आवरे ।। ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीव समाउत्त, सुहदुक्खसमन्निए ।। सयंभुणा कडे लोए, इइ वुत्त महेसिणा। मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए । माहणा समणा एगे, आह-'अंडकडे जए'। 'असो तत्तमकासी य-अयाणंता मुसं वए। -सूय श्रु १ ! अ १ ! उ ३ । गा ५ से ८। पृ० १०३.४ । लोक को किसी के द्वारा निर्मित मानने वाले भी एक मत नहीं थे कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। सृष्टि के निर्माण के सम्बन्ध में निम्न प्रकार के मत थे (१) कोई कहता था कि यह लोक देव के द्वारा उप्त-वीज-वपन से उत्पन्न (२) किसी का मत था कि यह लोक ब्रह्मा के द्वारा उत्पन्न है । (३) कोई एक कहता था कि यह लोक प्रधान अर्थात् सत्त्व-रज-तम गुण के साम्य से निष्पन्न है । (४) कतिपय का यह मत था कि यह लोक स्वभाव से उत्पन्न है । (५) कुछ एक कहते थे कि यह लोक नियति से कृत है। (गा ४ तथा ५ की टीका के आधार पर) (६) किसी का मत था कि यह लोक स्वयंभू (स्वतः अपने-आप उत्पन्न ) के द्वारा कृत-निष्पन्न है तथा स्वयंभूकृत लोक में यमराज की माया व्याप्त है इसीसे यह लोक परिवर्तनशील और अनित्य अनुभूत होता है । (७) कई श्रमण-माहण कहते थे कि यह लोक अंडे से उत्पन्न हुआ है । (८) कुछ का मत था कि ब्रह्मा ने लोकतत्त्व की रचना की है। अहावरे तच्चे पुरिसजाए ईसर-कारणिए त्ति आहिजइ। xxx । इह खलु धम्मा पुरिसादिया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिस-पज्जोइया पुरिसअभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । -सूय० २ 1 अ १ । सू ११ । पृ० १३६ "Aho Shrutgyanam" Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कौश लोक को ईश्वर के द्वारा कृत मानने वाले मत का कथन था कि (१) सचेतन-अचेतन स्वरूप लोक का आदि या आदि कारण पुरुष -- ईश्वर है ; (२) यह लोक पुरुष प्रधान है। जिसका प्रधान कार्य पुरुष है उसको पुरुषप्रधान कहा जाता है, (३) यह लोक पुरुष-प्रणीत है, पुरुष के द्वारा रचित है, (४) यह लोक पुरुषसंभूत है, पुरुष ने इसको उत्पन्न किया है, (५) यह लोक पुरुष से प्रकाशित है, (६) यह लोक पुरुष का अनुगामी है, इससे अपृथक् है, (७) यह सर्व लोक पुरुष को व्याप्त करके स्थित है । लोक ईश्वर के आश्रय से स्थित है। २८६ तेजो एवं विपडिवेदेति, तंजहा - कि रियाइ वा जाव (सुक्कडे इ वा दुकडे इवा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहु इ वा असाहु इ वा सिद्धि इ वा असिद्धि इ वा निरए इ वा) अनिरए इ वा । - सूय० श्रु २ । अ १ । स् ११ । पृ० १४० वे निर्मितवादी क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पुण्य, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि, नरक, स्वर्ग आदि नहीं मानते थे । आहु:-- “ आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञ ेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ||१|| तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजंगमे । नष्टामरनेर चैव, प्रणष्टीरगराक्षसे ||२|| केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ||३|| तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्मविनिर्गतम् ! तरुणरविमण्डलनिर्भ, हृदयं काञ्चनकर्णिकम् ||४|| तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ||५|| अदितिः सुरसंघानां दितिरसुराणां मनुमनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६ ॥ कद्रः सरीसृपाणां सुलसा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पादानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ||७|| " इति, प्रमाणयति चासौ - बुद्धिमत्कारणकृतं भुवनं संस्थानवत्त्वात् घटवदित्यादि । - ठाण• स्था ८ 1 सू ६०७ | टीका जो ईश्वर, ब्रह्मा, पुरुषादि को जगत का कर्ता मानते थे वे निर्मितवादी थे । वे मानते थे कि यह जगत अन्धकारमय, नहीं जाना हुआ, लक्षण रहित, तर्क नहीं करने योग्य, अज्ञेय, सर्वतः प्रसुप्त था । स्थावर और जंगम रहित, देव-मनुष्य रहित, केवल गुफा की तरह पंच महाभूत से रहित इस जगत में अचिन्त्य आत्मा - विभु ईश्वर है जो सोया हुआ तप से aपित था । वहाँ सोये हुए उसकी नाभि से मध्याह्न सूर्यमण्डल की कान्ति की तरह सुन्दर तथा सुवर्ण की कर्णिका वाला पद्म ( कमल) निकला। उस पद्म से भगवान् दण्ड को धारण करने वाले, यज्ञोपवीत संयुक्त ब्रह्मा हुए तथा उन्होंने जगत की आठ माताएँ रचीं :-- यथा - देवसमूह की माता -अदिति, असुरों की माता -- दिति, मनुष्यों की मातामनु, समस्त प्रकार के पक्षियोंकी माता – विनता, सरीसृप --सर्पादि की माता - कद्र, नाग "Aho Shrutgyanam" Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश जाति को माता सुलसा, चतुष्पाद-पशुओं को माता-सुरभि, सर्व बीजों की माताइला-पृथ्वो उनके नाम थे। इससे प्रमाणित होता है कि बुद्धिमान पुरुष रूप कारण से कृत यह जगत है क्योंकि घट की तरह इसका संस्थान है। से जहा नामए–गंडेसिया सरीरे जाए सरीरे संवुड सरीरे अभिसमन्नागए सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा नामए–अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संवुड्डा सरीरे अभिसमन्नागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ । एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा नामए-वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंवुड्ढे पुढविअभिसमन्नागए पुढविमेव अभिभूय चिठ्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा नामए रुक्खे सिया पुढविजाए, पुढवि-संवुड, पुढवि अभिसमन्नागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ । एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा नामए पुक्खरिणी सिया पुढविजाया जाव पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ ; एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति। से जहा नामए उदगपुक्खले सिया, उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिठ्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहानामए उदगबुब्बुए सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठइ , एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । -सूय० श्रु २ । अ १ । सू ११ । पृ० १३६-४० ---जिस प्रकार फोड़ा शरीर में उत्पन्न होता है, शरीर में वृद्धि को प्राप्त होता है, शरीर से अभिसमन्वागत अर्थात् शरीर से अपृथक्भूत है, शरीर को व्याप्त करके स्थित है, शरीर के आश्रय से स्थित है उसी प्रकार सचेतन-अचेतन स्वरूप लोक का भी आदि कारण पुरुष–ईश्वर है यावत् (देखो-२.५.३.४२) यह सर्वलोक पुरुष को व्याप्त करके स्थित है, ईश्वर के आश्रय से स्थित है । २-जिस प्रकार अरति-चित्त का उद्वेग शरीर में उत्पन्न होता है, शरीर में वृद्धि को प्राप्त होता है, शरीर से अपृथक् है, शरीर को व्याप्त करके स्थित है, शरीर के आश्रय से स्थित है इसी प्रकार यह लोक भी यावत् ईश्वर के आश्रय से स्थित है । ३-जिस प्रकार वल्मीक (कीट-विशेष कृत मिट्टी का स्तूप) पृथ्वी में उत्पन्न होता है, पृथ्वी में वृद्धि को प्राप्त होता है, पृथ्वी से अपृथक है, पृथ्वी को व्याप्त करके स्थित है, पृथ्वी के आश्रय से स्थित है उसी प्रकार यह लोक यावत् ईश्वर के आश्रय से स्थित है । "Aho Shrutgyanam" Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ क्रिया-कोश उत्पन्न होता है, पृथ्वी में वृद्धि को प्राप्त होता है, करके स्थित है, पृथ्वी के आश्रय से स्थित है, उसी ४ जिस प्रकार वृक्ष पृथ्वी में पृथ्वी से अपृथक् है, पृथ्वी को व्याप्त प्रकार इस लोक का यावत् ईश्वर के आश्रय से स्थित है । ५ - जिस प्रकार पुष्करिणी - लडाग पृथ्वी से उत्पन्न होता है, पृथ्वी में ही वृद्धि को प्राप्त होता है, पृथ्वी से अपृथक् है, पृथ्वी को व्याप्त करके स्थित है, पृथ्वी के आश्रय से स्थित है उसी प्रकार इस लोक का यावत ईश्वर के आश्रय से स्थित है । ६-- जिस प्रकार उदक पुष्कल अर्थात् कमल जल में उत्पन्न को प्राप्त होता है, जल से अपृथक् है, जल को व्याप्त करके स्थित का आदि कारण पुरुष - ईश्वर है यावत् ईश्वर के आश्रय से स्थित है । ७-- जिस प्रकार जल का बुद्बुद् जल में उत्पन्न होता है, जल में ही वृद्धि को प्राप्त होता है, जल से अपृथक् है, जल को व्याप्त करके स्थित है, जल के आश्रय से स्थित है उसी प्रकार इस लोक का आदि कारण पुरुष ईश्वर है यावत् ईश्वर के आश्रय से स्थित है । - ५ सातवादी परिभाषा / अर्थ : सातं --- सुखमभ्यसनीयमिति वदतीति सातवादी । - ठाण० स्था ८ सू ६०७ । टीका सुख भोग से सुख प्राप्त होता है, दुःखभोग से दुःख प्राप्त होता है, अतः सुखभोग करो | ऐसा प्रतिपादन करनेवाला सातवादी है । होता है, जल में वृद्धि उसी प्रकार इस लोक सातवादी के मत का प्रतिपादन सातं - सुखमभ्यसनीयमिति वदतीति सातवादी, तथाहि - भवत्येववादी कश्चित् - सुखमेवानुशीलनीयं सुखार्थिना, न त्वसातरूपं तपोनियमब्रह्मचर्यादि, कारणानुरूपत्वात् कार्यस्य नहि शुक्लैस्तन्तुभिरारब्धः पटो रक्तो भवति अपि तु शुक्ल एव, एवं सुखासेवनात् सुखमेवेति, उक्त च - " मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्त मध्ये पानकं चापराह्न । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः #211" अक्रियावादिता चास्य संयमतपसोः पारमार्थिप्रशमसुखरूपयोः दुःखत्वेनाभ्युपगमात् कारणानुरूपकार्याभ्युपगमस्य च विषयसुखादननुरूपस्य निर्वाणसुखस्याभ्युपगमेन बाधित्वादिति । - ठाण० स्था । सू ६०७ 1 टीका सातवादी का कथन है कि सुख के इच्छुक जीव सुख का अनुशीलन करें किन्तु असाता – दुःखरूप तप, नियम, ब्रह्मचर्यादि का अनुशीलन न करें। सुख से सुख की प्राप्ति " Aho Shrutgyanam" Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २८६ अनुभूति होती है, दुःख से दुःख की प्राप्ति-अनुभूति होती है क्योंकि कारण के अनुरूप कार्य होता है । यथा-शुक्ल तंतुओं से बुने जाने वाला वस्त्र रक्तवर्ण नहीं होता है परन्तु शुक्लवर्ण ही होता है इसी प्रकार सुख का आसेवन करने से सुख ही होता है, दुःख नहीं होता है । “कोमल शय्या में सोना, प्रातःकाल उठकर पेय पीना, मध्याह्न में भोजन करना, अपराह्न में पानक पीना, अर्धरात्रि में द्राक्षा, खांड, शक्कर खाना-ऐसा सुख का अनुशीलन करने से अन्त में मोक्ष-~सुख होता है—ऐसा शाक्यपुत्र ने अपनी ज्ञान दृष्टि से देखा है । पारमार्थिक प्रशम सुखरूप संयम, तप से दुःख का अभि-उपगम होता है तथा विषय सुख से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है--ऐसा प्रतिपादन करने के कारण सातवादी को अक्रियावादी कहा जाता है। .६ समुच्छेदवादीपरिभाषा | अर्थ--- समुच्छे-प्रतिक्षणं निरन्वयनाशं वदति यः सः समुच्छेदवादी। - ठाण० स्था ८ ! सू ६०७ । टीका प्रत्येक वस्तु का निरन्वयनाश अर्थात् सन्ततिरहित--सम्बन्धरहित नाश को मानने वाले को समुच्छेदवादी कहा जाता था ! वस्तु नित्य नहीं है परन्तु क्षणिक है । वे क्षणिक वस्तु में अर्थ क्रिया का होना मानते थे। समुच्छेदवादी के मत का प्रतिपादन--- समुच्छेद-प्रतिक्षणं निरन्वयनाशं बदति यः स समुच्छेदवादी, तथाहिवस्तुनः सत्त्वं कार्यकारित्वं, कार्याकारिणोऽपि वस्तुत्वे खरविषाणस्यापि सत्त्वप्रसंगात्, कार्य च नित्यं वस्तु क्रमेण न करोति, नित्यस्यकस्वभावतया कालान्तरभाविसकलकार्याभावप्रसंगात्, न चेदेवं प्रतिक्षणं स्वभावान्तरोत्पत्त्या नित्यत्वहानिरिति, योगपद्यनापि न करोति अध्यक्षसिद्धत्वाद्योगपद्याकरणस्य, तस्मात् क्षणिकमेव वस्तुकार्य करोतीति, एवं च अर्थक्रियाकारित्वात् क्षणिक वस्त्विति, अक्रियावादी चायमित्थमवसेयः-निरत्वयनाशाभ्युपगमे हि परलोकाभावः प्रसृजति, फलार्थिनां च क्रियास्व. प्रवृत्तिरिति, तथा सकलक्रियासु प्रवर्तकस्यासंख्येयसमयसम्भव्यनेकवोल्लेखवतो विकल्पस्य प्रतिसमयक्षयित्वे एकाभिसन्धिप्रत्ययाभावात् सकलव्यवहारोच्छेदः स्यादत एवैकान्तक्षणिकात् कुलालादेः सकाशादर्थक्रिया न घटत इति, तस्मात् पर्यायतो वस्तुसमुच्छेदवद् द्रव्यतस्तु न तथेति । .-ठाण० स्था ८ । सू ६०७ । टीका समुच्छेदवादी का कथन है कि प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण नाश को प्राप्त होती है अर्थात् प्रथम क्षण में जो वस्तु थी वह दूसरे क्षण में नहीं रही। वे वस्तु का निरन्वय-सन्ततिरहित-- "Aho Shrutgyanam" Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० क्रिया - कोश सम्बन्धरहित नाश मानते हैं । जैसे कहा है--" प्रत्येक क्षण में कार्य के होने के कारण क्षणिक मस्तु का सत् - अस्तित्व सिद्ध होता है । यदि कार्य का होना न मानकर वस्तुतत्त्व को स्वीकार सत् मानने का प्रसंग आयेगा अर्थात् अर्थ क्रिया से क्षणिक वस्तु की सिद्धि किया जाय तो खरविषाण ( गधे के सींग ) को भी क्षणिक वस्तु हो अर्थक्रिया करती है तथा इस होती है ।" उनका कथन है कि नित्य वस्तु क्रमशः कार्य नहीं कर सकती ! क्योंकि नित्य वस्तु की एक स्वभावता होने के कारण कालान्तर में होनेवाले सब कार्य के अभाव का प्रसङ्ग आयेगा तथा प्रत्येक क्षण में अन्य अन्य स्वभाव की उत्पत्ति होने के कारण नित्यत्व की हानि होगी तथा एक साथ नित्य वस्तु कार्य कर नहीं सकती है । क्योंकि एक साथ कार्य नहीं करने का प्रत्यक्ष से सिद्ध है । इससे सिद्ध होता है कि क्षणिक वस्तु ही कार्य करती है । वस्तु के निरन्वय नाश का अभ्युपगम होने से ही परलोक का अभाव होता है तथा फल के अर्थी जीवों को क्रिया में अप्रवृत्ति होती है अर्थात् वस्तु के क्षणिक मानने के कारण किया का कर्त्ता दूसरा है तथा फल-भोक्ता दूसरा है । प्रवर्तक को समस्त क्रिया में असंख्यात समय लगता है तथा असंख्यात समय में होने वाले अनेक अक्षर के उल्लेखवाले विकल्प का प्रति समय क्षय होने पर एक इच्छित प्रत्यय के अभाव से समस्त व्यवहार का उच्छेद हो जाता है । इस कारण से एकान्त क्षणिक मत- - समुच्छेदवाद से अर्थक्रिया की सिद्धि नहीं होती है । उपर्युक्त सम्यग् कथन न होने के कारण समुच्छेदवादी को अक्रियावादी कहा जाता है । ७ नित्यवादी '१ परिभाषा / अर्थ नियतं -- नित्यं वस्तु वदति यः स - -नित्यवादी । -ठाण स्था८ । सू । ६०७ | टोका जो वस्तु को नियत --- नित्य मानता है वह नित्यवादी है । -२ नित्यवादी के मत का प्रतिपादन --- नित्यो लोकः, आविर्भावतिरोभावमात्रत्वादुलादविनाशयोः, तथा असतोऽनुत्पादाच्छशविषाणस्येव सतश्चाविनाशात् घटवत्, नहि सर्वथा घटो विनष्ट: कपालाद्यवस्थाभिस्तस्य परिणतत्वात्, तासां चापारमार्थिकत्वात्, मृत्सामान्यस्यैव पारमार्थिकत्वात् तस्य चाविनष्टत्वादिति, अक्रियावादी चायमेकान्तनित्यस्य स्थिरैकरूपतया सकलकिया विलोपाभ्युपगमादिति । "Aho Shrutgyanam" ठाण० स्था । स ६०७ । टीका Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोश २६१ लोक नित्य है, क्योंकि उत्पाद और विनाश होता है-आविर्भाव-प्रगट होना तथा तिरोभाव–अन्तर्भाव होना मात्र है । शशक के सोंग की तरह ‘असत' का उत्पाद नहीं होता है तथा घट की तरह 'सत्' का विनाश भी नहीं होता है क्योंकि घट का सर्वथा विनाश नहीं होता है। कपालादि अवस्था अपारमार्थिक है अतः उसकी अपारमार्थिकता के कारण उसकी परिणति होती है। मिट्टी रूप सामान्य पारमार्थिकता है अतः उसका विनाश नहीं होता है। स्थिर एक रूप एकान्त नित्य की स्वीकृति के द्वारा सकल क्रिया का लोप स्वीकार करने वाला-नित्यवादी अक्रियावादी है । ८ नास्ति परलोकवादीपरिभाषा / अर्थ---- न सन्ति परलोगे वा इति नेति- न विद्यते शान्तिश्च मोक्षः परलोकश्चजन्मान्तरमित्येवं यो वदति सः। - ठाण० स्था ८। सू ६०७ 1 टीका परलोक नहीं है । शांति-मोक्ष, परलोक, जन्मान्तरादि नहीं है ऐसा नास्ति परलोकवादी अक्रियावादी कहता है। '२ नास्ति परलोकवादी के मत का प्रतिपादन नास्त्यात्मा प्रत्यक्षादिप्रमाणविषयत्वात् खरविषाणवन्न, तभावान्न पुण्यपाप-लक्षणं कर्म, तद्भावान्न परलोको नापि मोक्ष इति । -ठाण० स्था८। सू ६०७ । टीका गधे के सोंग की तरह प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा आत्मा के अस्ति की सिद्धि नहीं होती है अतः आत्मा नहीं है । आत्मा के अभाव में पुण्य, पापादि कर्म भी नहीं है तथा उनके अभाव में परलोक भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है । ६ वामलोकवादीपरिभाषा / अर्थ - xxxxणथि काइकिरिया वा अकिरिया वा एवं भणंति णत्थि वाइणो वामलोयवाई। -प्रश्न० अ २ । सू ७ 1 पृ० १२०६ लोक का वास्तविकता से विपरीत स्वरूप कहने वाले को नास्तिकवादी कहते हैं यथा-क्रिया नहीं है, अक्रिया नहीं है । १० तज्जीवतच्छरीरवादी लोकायतिक परिभाषा / अर्थ (क) उर्ल्ड पायत्तला अहे केसग्ग-मत्थया तिरियं तय-परियंते जीवे, एस आया-पजवे कसिणे । एस जीवे जीवइ, एस मए णो जीवइ , सरीरे धरमाणे धरइ, विट्ठमि य णो धरइ । एयं तं जीवियं भवइ । --सूय श्रु २ । अ १ । स ६ । पृ० १३७ "Aho Shrutgyanam" Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ (ख) क्रिया - को नत्थि पुष्णेय पावे वा नत्थि लोए इतोवरे । सरीररस विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥ - सू० श्रु १ । अ १ । उ १ । गा १२ | पृ० १०१ (ग) एयावया जीवे नत्थि परलोए । ते नो एवं विपडिवेदेति, तंजहा - किरिया वा अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ बा साहु इ वा असाहु इ वा सिद्धि इ वा असिद्धि इ वा निरए इ वा अनिरए इ वा । सूय० अ २ । अ १ । सू ६ । पृ० १३८ (घ) शरीरस्य कायस्य विनाशेन भूतविघटनेन विनाशेन देहिन आत्मनोप्यभावो भवति यतो न पुनः शरीरे विनष्टे तस्मादात्मा परलोकं गत्वा पुण्यं पापं वाऽनुभवतीत्यतो धर्मिण आत्मनोभावात्तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरप्यभाव इति । - सू० श्रु १ । अ १ । उ १ । गा १२ । टीका (च) लोकायतिकास्तज्जीवतच्छरीरवादिनो नैवैतवक्ष्यमाणं अभ्युपगच्छेति । प्रतिवेदयंति —सूय० श्रु २ । अ १ । सू ६ । टीका जो जीव है वही शरीर है, जो शरीर है वही जीव है। जीव और शरीर में कोई भेद नहीं है-ऐसे मत को माननेवाले को तज्जीव-तच्छरीरवादी कहा जाता था । इनका अपर नाम लोकायतिक था। इस दर्शन को माननेवाले शरीर के विनाश से जीव का विनाश मानते थे अतः क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पुण्य, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि. असिद्धि, नरक, स्वर्ग आदि नहीं मानते थे । तज्जीव- तच्छरीरवादी के मत का प्रतिपादन एस धम्मे सुक्खाए सुपन्नत्ते भव, तंजहा - उड्डू पायतला अहे केसम्गमत्थया तिरियं तपपरियंते जीवे एस आयापज्जवे कसिणे एस जीवे जीवइ एस मए णो जीवइ, सरीरे धरमाणे धरइ विणट्ठ मि यं जो धरइ, एयं तं जीवियं भवइ, आदहणाए परेहिं निज्जइ, अगणिकामिए सरीरे कवोतवन्नाणि अट्ठीणि भवंति, आसंदीपंचमा पुरिसा गामं पञ्चागच्छति, एस असते असंविजमाणे जेसिं तं असंते असंविजमाणे तेसिं तं सुयवखायं भवइ अन्नो भवइ जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा, ते एवं नो विप्पडिवेदेति--अयमाउसो ! आया दीहे त्ति वा, हस्से त्ति वा परिमंडले त्ति वा वट्टे ति वा, तसे त्ति वा चउरंसेति वा, आयए ति वा, इलेसिए ति वा, असे ति वा, किण्हे ति वा, नीले त्ति वा, लोहियहालिदे त्ति वा सुकिल्ले त्ति वा सुब्भिगंधेत्तिवा दुभिगंधेत्ति वा तित्ते त्ति वा कडुए त्ति वा कसाए त्ति वा अम्बिले ति वा महुरे ि कक्खडे त्ति वा मउए त्ति वा गुरुए त्ति वा लहुए त्ति वा सीए त्ति वा उसिणे " Aho Shrutgyanam" ------ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कौश त्ति वा निद्धे त्ति वा लुक्खे त्ति वा! एवं असंते असंविजमाणे। जेसिं तं सुयक्खायं भवइ-अन्नो जीवो अन्नं शरीरं, तम्हा ते नो एवं उवलब्भंति । से जहानामए --केइ पुरिसे कोसीओ असिं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! असी, अयं कोसी, एवमेव नत्थि केइ पुरिसे अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदसेत्तारो अयमाउसो ! आया इयं सरीरं । से जहानामए केइ पुरिसे मुंजाओ इसियं अभिनिवट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो मुंजे इयं इसियं, एवमेव नस्थि के पुरिसे उवदंसेत्तारो अयमाउसो ! आया इयं सरीरं। से जहानामए-केइ पुरिसे मंसाओ अट्ठि अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो ! मंसे अयं अट्ठी, एवमेव नथि केइ पुरिसे उवदंसेत्तारो अयमाउसो आया इयं सरीरं। से जहानामए---केइ पुरिसे करयलाओ आमलकं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदसेजा अयमाउसो करयले अयं आमलए, एवमेव नथि केइ पुरिसे उवदंसेत्तारो अयमाउसो आया इयं सरीरं ।। से जहानामए-केइ पुरिसे दहीओ नवणीयं अभिनिव्वहिताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! नवणीयं अयं तु दही, एवमेव नत्थि केइ पुरिसे जाव सरीरं। से जहानामए-केइ पुरिसे तिलहितो तेल्लं अभिनिवट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो ! तेल्लं अयं पिण्णाए, एवमेव जाव सरीरं। से जहानामए---केइ पुरिसे इक्खूओ खोयरसं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो ! खोयरसे अयं छोए, एवमेव जाव सरीरं । से जहानामए के पुरिसे अरणीओ अग्गिं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो ! अरणी अयं अम्गी, एवमेव जाव सरीरं । एवं असंते असंविजमाणे। जेसिं तं सुयक्खायं भवइ, तंजहा-अन्नो जीवो अन्नं शरीरं । तम्हा ते मिच्छा। xxx। पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीरए त्ति आहिए। -सूय० श्रु २ । अ१ । सू६ । पृ० १३७-१३८ यह धर्म सु-आख्यात सुप्रणोत है, यथा-पदतल से ऊँचे तक, माथे की चोटी से नीचे तक, तिरछे में चमड़ी से चमड़ी पर्यन्त जीव है अर्थात यह शरीर ही जीव है, शरीर से अन्य कोई जीव नहीं है । आत्मा शरीर को पर्याय है, यही संपूर्ण जीव है। जब तक यह शरीर जीवित रहता है तब तक यह जीव जीवित रहता है। शरीर के मर जाने पर जीव का भी विनाश हो जाता है। जब तक शरीर है तब तक आत्मा को धारण करता है । शरीर के "Aho Shrutgyanam" Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ क्रिया-कोश विनाश होने पर आत्मा का धारण नहीं होता है । जीव का शरीर के साथ ही जीवितव्य है । जब शरीर मृत होता है तब उसको जलाने के लिए बंधु-बांधव श्मशान आदि में ले जाते हैं। अग्नि में शरीर के जलने से केवल कापोत वर्णवाली अस्थि रह जाती है । मंचआसंदी होने से पाँच पुरुष अन्यथा चार पुरुष उस मृत शरीर को जलाकर गाँव में आते हैं । यदि आत्मा शरीर से भिन्न होता तो निकलता हुआ दिखाई देता लेकिन दिखाई नहीं देता है । इस प्रकार जीव असद् -- अविद्यमान और अविद्यमान होने से जाना नहीं जा सकता है। अतः जो जोव को असद् - अविद्यमान तथा अविद्यमान होने से अज्ञेय कहते हैं उनका पक्ष सु-आख्यात है अर्थात् उनका कथन सत्य है ! जीव अन्य है, शरीर अन्य है-ऐसा जो कहते हैं वे अज्ञानी हैं । यह जीव शरीर से भिन्न है तो इसका क्या प्रमाण है ? आत्मा दीर्घ है या हस्व ; वर्तुल या गोल या त्रिकोण या चतुष्कोण या लम्बी या षट्कोण या आठ कोण वाला है; काला या नीला या लाल या पीला या धोला वर्ण वाला है; सुरभिगंध वाला या दुरभिगन्ध वाला है; तिक्तरस या कटुरस या कषाय रस या आम्लरस या मधुररस वाला है ; कर्कश स्पर्श या मृदुस्पर्श या लघुस्पर्श या गुरुस्पर्श या उष्णस्पर्श या शीतस्पर्श या स्निग्धस्पर्श या रुक्षस्पर्श वाला है । इस प्रकार जीव असद् -- अविद्यमान है और अविद्यमान होने से जाना नहीं जा सकता है अतः जो जीव को असद् --- अविद्यमान होने से अज्ञेय कहते हैं उनका पक्ष सु-आख्यात है अर्थात् उनका कथन सत्य है । जीव अन्य है, शरीर अन्य है—ऐसा जो कहते हैं वे जीव को शरीर से भिन्न पा नहीं सकते हैं । जिस प्रकार कोई पुरुष भ्यान से तलवार, आँवला, दही से मक्खन, तिल से तेल, इक्षु से अलग-अलग दिखला सकता है उस प्रकार कोई भी करके नहीं दिखला सकता है । इस प्रकार जीव होने से जाना नहीं जा सकता है अतः जो जीव को हैं उनका पक्ष सु-आख्यात है अर्थात् उनका कथन ऐसा जो कहते हैं वह मिथ्या है अर्थात् जीव और असत्य है । *११ पंचस्कंधवादी १ परिभाषा / अर्थ : तिनके से मुंज, मांस से हड्डी, हथेली से रस, अरणी से अग्नि निकाल कर पुरुष शरीर और जीव को अलग-अलग असद् - अविद्यमान है और अविद्यमान असद् — अविद्यमान होने से अज्ञेय कहते सत्य है । जीव अन्य है, शरीर अन्य है शरीर को भिन्न कहना प्रत्यक्ष में ही पंच खंधे वयतेगे बाला उ खणजोश्णो । अन्नो अणन्नो नेवाहु हेउयं च अहेउयं ॥ - सूय ० श्र १ | अ १ । उ १ । गा १७ । पृ० १०१ "Aho Shrutgyanam" Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश २६५ पंच स्कन्धात्मक अक्रियावादी कहते हैं कि यह संसार पाँच स्कंधात्मक है तथा क्षण मात्र ही स्थित रहता है । पाँच स्कंधों से भिन्न कोई आत्मा नाम का स्कंध नहीं है । स्कंधों-भूतों से भिन्न अथवा अभिन्न, किसी हेतु से या अहेतु से आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती है । २ पंच स्कंधवादी के मत का प्रतिपादन - टीका - एके केचन वादिनो बौद्धाः पंच स्कंधान् वदति । रूप- वेदना-विज्ञानसंज्ञा-संस्काराख्याः पंचैव स्कंधा विद्यन्ते नापरः कश्चिदात्माख्यः स्कंधोस्तीत्येवं प्रतिपादयन्ति । बौद्धों की एक शाखा पंच स्कंधों को मानती है। उनका कथन है कि रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार ---ये ही पाँच स्कंध विद्यमान हैं, इनसे भिन्न कोई आत्मा नहीं हैकेवल स्कंध ही है - ऐसा वे प्रतिपादन करते हैं । *१२ धातुवादी १ परिभाषा / अर्थ पुढची आउ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ । चत्तारि धाडणो रूवं, एवमाहंसु आवरे ॥ - सूय० श्रु । अ १ । उ १ । गा १८ । पृ० १०१ धातुवादी अक्रियावादी कहते हैं कि यह संसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु-इन चार धातुओं के संयोग से ही रूप ---आकृति निष्पन्न होती है । २ धातुवादी के मत का प्रतिपादन बौद्धों की एक शाखा का कथन है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु-ये चार धातुरूप 1 ये चार पदार्थ धातुरूप है । ये चार पदार्थ जगत को धारण करते हैं, पोषण करते हैं अतः इनको धातु कहा जाता है । ये चार धातुरूप पदार्थ जब एकाकार - संयोग को प्राप्त कर शरीर रूप में परिणत होते हैं तब उसमें जीव रूप संज्ञा उत्पन्न होती है । इन चार धातुरूप पदार्थों से भिन्न कोई आत्मा नही है । *१३ पंच महाभूत वादी १ परिभाषा / अर्थ (१) संति पंच महन्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवी आउ तेड वा, वाउ आगासपंचमा ॥ एए पंच महब्भूया, तेव्भो एगो त्ति आहिया । अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो || --- सूय ० अ १ । अ ११ गा ७-८ । पृ० १०१ "Aho Shrutgyanam" Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ क्रिया-कोश ... (२) तं च पिहुद्देसेणं पुढो-भूत-समवायं जाणेजा। तंजहा-पृढवी एगे महब्भूये, आउ दुश्च महभूये, तेउ तच्च महन्भूये, वा उ च उत्थे महन्भूये, आगासे पंचमे महब्भूये। (३) ते नो एवं विपडिवेदेति, तंजहा-किरिया इ वा जाव (अकिरिया इ वा सुक्कडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहु इ वा असाहु इ वा सिद्धि इ वा असिद्धि इ वा निरए इ वा ) अनिरए इ वा ।। --सूय० २२ । १ । सू१० | पृ० १६६ (४) साम्प्रतं विशेषेण सूत्रकार एव चार्वाकमतमाश्रित्याऽह । -सूय० श्र २ . अ १ । सू १० । टीका इस लोक में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-ये पाँच महाभूत है । इन महाभूतों से ही उत्पन्न एक आत्मा है। इन महाभूतों के विनाश से जीवात्मा का विनाश हो जाता है। केवल पाँच महाभूत ही लोक का कारण है। अतः क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पुण्य, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि, नरक, स्वर्ग आदि नहीं है। इस मत को मानने वालों को पाँच महाभूतवादी कहा जाता था तथा इनका अपर नाम चार्वाक भी था ! .२ पंच महाभूतवादी के मत का प्रतिपादन इह खलु पंच महब्भूया, जेहिं नो विजइ किरिया त्ति वा अकिरिया त्ति वा, सुक्कडे त्ति वा दुक्कडे त्ति वा, कल्लाणे त्ति वा, पावर त्ति वा, साहु त्ति वा, असाह त्ति वा, सिद्धि त्ति वा, असिद्धि त्ति वा, निरए त्ति वा, अनिरए त्ति वा। अवि अंतसो तणमायमवि। तं च पिहुद्देसेणं पुढो-भूत-समवायं जाणेजा। तंजहा-पुढवी एगे महन्भूये, आउ दुच्चे महब्भूये, तेउ तच्चे महब्भूये, बाउ चउत्थे महन्भूये, आगासे पंचमे महब्भूये। इच्चए पंच-महन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा, णो कित्तिमा णो कडगा अणाइया अणिहणा, अवंझा, अपुरोहिया, सतंता सासया । xxx ! एयावया व जीवकाए, एयावया व अस्थिकाए, एयावया व सव्वलोए; एयं मुह लोगरस करणयाए; अवि अंतसो तण-माय-मवि । -सूय० श्रु२ ! अ १ । सू १० । पृ०१३८-१३६ पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत है। ये पाँच महाभूत अनिर्मित अर्थात् ईश्वरादि के द्वारा निर्मित नहीं हैं, अनिर्मा पित अर्थात् अन्य किसी के द्वारा "Aho Shrutgyanam" Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २६७ बनाये हुए नहीं है, अकृत अर्थात् किसी के किये हुए नहीं है, अकृत्रिम अर्थात घटादि की तरह कृत्रिम नहीं हैं, अकृतक अर्थात इनको निष्पत्ति में अन्य किसी की अपेक्षा नहीं है, अनादि-अनिधन अर्थात् आदि रहित अन्त रहित हैं, अवन्ध्य अर्थात सर्व आवश्यक कार्य के कर्ता हैं, अपुरोहित अर्थात् कार्य में प्रवृत्त करनेवाली इनसे भिन्न कोई शक्ति नहीं है, ये स्वतन्त्र हैं और शाश्वत हैं । __ ये पाँच महाभूत ही जीवकाय हैं, ये हो अस्तिकाय है, ये ही लोक है, इनसे भिन्न कोई लोक नहीं है, ये हो लोक के मुख्य कारण है अर्थात् संसार में जो कुछ भी कार्य होता है उसमें पाँच महाभूत ही प्रधान कारण हैं, तृणमात्र अर्थात छोटा से छोटा कार्य भी पाँच महाभूतों के द्वारा होता है। पंच महाभूतों से हो आत्मा निष्पन्न होती है और इनके विनाश से विनष्ट हो जाती है। अतः क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पुण्य, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि, नरक, स्वर्ग आदि नहीं है। जो कुछ भी है वह पंच महाभूत ही है। .१४ अक्रिय आत्मवादी१ परिभाषा / अर्थ कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगम्भिा ।। -सूय श्रु १ । अ १ । उ १ । सू १३ । पृ० १०१ जे केई लोगंमि उ अकिरिय-आया, अन्नेण पुट्ठा धुयमादिसति । --सूय श्रु १ । अ १० । गा १६ । पृ० १२५ आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करता है और दूसरे के द्वारा भी नहीं कराता है तथा वह परिस्पंदनात्मकादि सभी क्रिया नहीं करता है। इस प्रकार आत्मा अकारक अर्थात् क्रिया का कत्ता नहीं है---ऐसा अक्रिय आत्मवादी (सांख्य ) कहते हैं । कई व्यक्ति आत्मा को अक्रिय मानते हैं क्योंकि आत्मा की निलेपता के कारण न बंध होता है, न मोक्ष होता है । '२ अक्रिय आत्मवादी के मत का प्रतिपादन.. कुर्वन्निति स्वतन्त्रः कर्ताऽभिधीयते, आत्मनश्चामूर्तत्त्वान्नित्यत्वात सर्वव्यापिस्वाञ्च कत्तृत्त्वानुपपत्तिः, अतएव हेतोः कारयितृत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति, xxxi ततश्चात्मा न स्वयं क्रियायां प्रवर्तते, नाप्यन्यं प्रवर्तयति, यद्यपि च स्थितिक्रियां मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन भुजिक्रियां करोति तथाऽपि समस्तक्रियाकत त्वं तस्य नास्तीत्येतदर्शयति'सव्वं कुव्वं ण विजई त्ति 'सर्वा' परिस्पन्दादिकां देशाद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणां "Aho Shrutgyanam" Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ क्रिया-कोश क्रियां कुर्वन्नात्मा न विद्यते, सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्येवात्मनो निष्क्रियत्वमिति, तथा चोक्तम्-'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा साङ्ख्यनिदर्शने।" 'एवम्' अनेन प्रकारेणात्माऽकारक इति । - सूय० १ १ अ१। उ १ । सू १३ । टीका आत्मा अमूर्त, नित्य, और सर्वव्यापी है इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता है और इसी कारण वह दूसरे के द्वारा क्रिया करानेवाला भी नहीं हो सकता है । आत्मा स्वयं किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता है और दूसरे को भी किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं करता है। आत्मा मुद्राबिम्बोदयन्याय या जपास्फटिकन्याय से यद्यपि स्थिति क्रिया, भोगक्रिया करता है तथापि वह समस्त क्रिया का कर्त्ता नहीं है। वह आत्मा एक देश से अन्य देश में जाना आदि परिस्पंदनात्मक सभी क्रिया नहीं करता है क्योंकि वह सर्वव्यापी और अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह निष्क्रिय है । कहा भी है—सांख्यवादियों के मत में आत्मा अकर्ता, निगुण और कर्मफल का भोक्ता है । इस प्रकार आत्मा अकारक-अकर्ता है । १५ नियतिवादी .१ परिभाषा / अर्थ :-- नियतिवादपक्षाश्रय्येवं विप्रतिवेदयति जानीते कारणमापन्न इति नियतिरेव कारणं सुखाद्यनुभवस्य । ---सूय श्रु २ । अ १ । सू १२ ! टीका सुख-दुःखादि अनुभवों का कारण मात्र नियति ही है-ऐसा कहने वालों को नियतिवादी कहा जाता था। २ नियतिवादी के मत का प्रतिपादन आघायं पुण एगेसिं, उववन्ना पुढो जिया । वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणओ ।। न तं सयं कडं दुक्खं, कओ अन्नकडं च णं । सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ।। सयं कडं न अन्नेहिं, वेदयंति पुढो जिया। संगइयं तं तहा तेसिं, इहमेगेसिमाहियं ।। -सूय • श्रु १ । अ १ । उ २ । गा १ से ३ । पृ० १०२ लोक को सांगतिक (नियति के वश ) मानने वाला एक मत था जो नियतिवादी के नाम से अभिहित किया जाता था। जीव पृथक्-पृथक् उत्पन्न होते है और पृथक-पृथक् सुख-दुःख भोगते हैं अथवा वे एक स्थान से दूसरे स्थान में संक्रमण करते हैं। वह सुख-दुःख स्वयं कृत नहीं है; अन्य कृत भी "Aho Shrutgyanam" Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश २६४ नहीं है । सुख हो अथवा दुःख हो, वह सुख-दुःख से द्धिक-- किसी निमित्त से होनेवाला हो या असैद्धिक बिना किसी निमित्त से होने वाला हो उसको सभी जीव पृथक्-पृथक् भोगते हैं; वह सुख-दुःख स्वयं तथा दूसरे के द्वारा कृत नहीं है किन्तु वह सांगतिक-नियतिकृत है । अहावरे चउत्थे पुरिसजाए नियतिवाइए ति आहिजइ ! xxx । इह खलु दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे किरियमाइक्खइ, एगे पुरिसे नो किरियमाइक्खइ । जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ जे य पुरिसे नो किरियमाइक्खइ दो वि ते पुरिसा तुला एगठ्ठा, कारणमावन्ना। बाले पुण एवं विष्पडिवेदेति कारण-मावन्ने- अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितापामि वा अहमेय-मकासि ; परो वा जं दुक्खइ वा सोयइ वाजूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा परो एवमकासि । एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने । मेहावी पुण एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा, नो अहं एवमकासि। परो वा जं दुक्खइ वा जाव परितप्पइ वा णो परो एवमकासि एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने--से बेमि पाईणं वा ६ जे तस-थावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छंति, ते एवं विपरियासमावज्जंति, ते एवं विवेगमागच्छति ते एवं विहाणमागच्छति ते एवं संगतियंति उवेहाए । नो एवं विप्पडिवेदेति, संजहा-किरिया इ वा जाव ( अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहु इ वा असाहु इ वा सिद्धि इ वा असिद्धि इ वा) निरए इ वा अनिरए ३ वा। --सूय० श्रु.२ 1 अ १सू१२ | पृ० १४० इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य है यथा--एक पुरुष जो क्रिया का समर्थन करता है, दूसरा जो क्रिया का निषेध करता है वे दोनों पुरुष एक समान है क्योंकि क्रिया तथा अक्रिया दोनों ही एक ही कारण-नियति के अधीन वशवर्ती हैं अर्थात क्रिया करने का कारण भी नियति है, क्रिया नहीं करने का या अक्रिया का कारण भी नियति है । अतः दोनों का ही कथन असम्यक् है । स्वकारण अथवा परकारण से कृत सुख-दुःखादि में पुरुषाकार को जो कारण मानते हैं उनका कथन सम्यग् नहीं है । मैं जो दुःख भोग रहा हूँ या शोक संतप्त हो रहा हूँ या झूर रहा हूँ या रुदन कर रहा हूँ या पीड़ा पा रहा हूँ या परिताप पा रहा हूँ-ये सब कार्य मैं नहीं कर रहा हूँ, इनका "Aho Shrutgyanam" Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० क्रिया - कोश नियतिवश हो रहे हैं-नियतिकृत है । कर्त्ता मैं नहीं हूँ —बल्कि ये सब कार्य उसी प्रकार दूसरे पुरुष का दुःख भोगना या शोक संतप्त होना या झरना या रुदन करना या पीड़ा पाना या परिताप पाना-- आदि सब उस अन्य पुरुषकृत नहीं है— सब नियतिकृत है । अस्तु इस संसार में जो त्रस स्थावर प्राणी हैं वे शरीर को धारण करते हैं, परिभ्रमण को प्राप्त होते हैं, शरीर से पृथक् होते हैं, अवस्था विशेष को प्राप्त होते हैं - यह सब नियति के हो अधीन होता है । वे नियतिवादी कहते हैं क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पुण्य, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि, नरक, स्वर्ग आदि कुछ नहीं है । जो कुछ है सो नियति है और उसके आधीन सब कार्य हो रहे हैं । ६२६४ अक्रियावादी जीव और दंडकजीवा णं भंते !" जहा असुरकुमारा । पूरे पाठ तथा अर्थ के लिए देखिये क्रमांक ६२४ ३ ३ । उक्त पाठ में से अक्रियावादी संबंधी विशेषार्थ अलेशी, समदृष्टि, ज्ञानी, मति यावत् केवलज्ञानी, संज्ञा में उपयोग रहित, अवेदक, अकषायी, अयोगी जीव अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी नहीं होते हैं, केवल क्रियावादी होते हैं । सममिथ्यादृष्टि जीव क्रियावादी, अक्रियावादी नहीं होते हैं; अज्ञानवादी, विनयवादी होते हैं । कृष्णपाक्षिक, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, मति श्रुत-विभंग अज्ञानी जीव अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा विनयवादी होते हैं । पृथ्वी - अप् अग्नि वायु-वनस्पतिकाय तथा विकलेन्द्रिय जीव अक्रियावादी, अज्ञानवादी होते हैं, बाको दण्डक के जीव चारों वादी होते है अतः वे अक्रियावादी भी होते हैं । '६२६५ अक्रियावादी जीव और आयुष्य का बंधन - अकिरियावाई णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख० - पुच्छा | गोयमा ! नेरइयाउयं वि पकरेंति, जाव देवाउयं वि पकरेंति । ( १२ ) सहसा णं भंते! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाउयं पकरेंति -पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाज्यं - एवं जहेव जीवा तद्देव अलेस्सा वि चउहिं वि समोसर - हि भाणियव्वा । ( प्र १३ ) कण्हलेस्सा णं भंते! जीवा किरियावाई कि नेरइयाउयं पकरेंति -पुच्छा । गोयना ! मो नेरइयाज्यं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं "Aho Shrutgyanam" : Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कौश ३०१ पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति, अकिरियाबाई, अन्नाणियवाई, वेणश्यवाई य चत्तारि वि आउयाइं पकरेंति । एवं नीललेक्सा वि, काउलेस्सा वि । ( प्र १४ ) तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावाई किं नेरइयाउयं - पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयायं पकरे, तिरिक्खजोणियाज्यं पिपकरेइ, मणुहसाउयं पि पकरेइ, देवाउयं पिपकरे | xxx जहा तेउलेश्सा एवं पम्हलेस्सा वि सुकलेस्सा वि नायव्वा । (१६) कण्हपक्खिया णं भंते! जीवा अकिरियाबाई किं नेरइयाउयं -पुच्छा । गोयमा ! नेरइयाजयं पि पकरेइ - एवं चउवि पि । ( प्र १८ ) सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा | xxx | मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । ( प्र १८,१६) xxx ! अन्नाणी जाव-विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । सन्नासु चउसु वि जहा सलेस्सा xxx 1 सवेदगा जाव नपुंसगवेद्गा जहा सलेस्सा | xxx | सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा | xxx सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा | xxx | सागारोव उत्ता य अणागारोव उत्ता य जहा सलेस्सा । ( प्र २२ ) अकिरिया वाई णं भंते ! नेरइया- पुच्छा । गोयमा ! नो नेरझ्याउयं पकरें (इ) न्ति, तिरिक्खजोणियाज्यं वि पकरेंति, मणुस्साज्यं वि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । ( प्र २४ ) सलेस्सा णं भंते ! नेरइया xxx । जे अकिरियाबाई xxx ते सव्वाणेसु वि नो नेरइयाज्यं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पिपकरेंति, मणुस्साउयं पिपकरेंति, नो देवाजयं पकरेंति । नवरं सम्मामिच्छते उवरिल्लेहिं दोहि वि समोसरणेहिं न किंचि वि पकरे जहेव जीवपदे । एवं जाव - थणियकुमारा जहेव नेरइया । ( प्र २५ ) अरियावाई णं भंते! पुढविक्काइया - पुच्छा ! गोयमा ! नो नेरइयाडयं पति, तिरिक्खजोणियाज्यं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । ( प्र २६ ) xxx 1 सलेस्सा णं भंते! एवं जं जं पदं अस्थि पुढविकाइयाणं तहिं तहिं मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चैव दुविहं आउयं पकरेंति । नवरं तेउलेस्साए न किं पि पकरेंति ( प्र २७ ) । एवं आउकाइयाण वि, एवं वणस्सइकाइयाण वि । तेडकाइया वाउकाइया "Aho Shrutgyanam" Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ क्रिया - कोश सव्वाणे मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाअयं पकरेंति, नो मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । astar as दिय- चउरिंदियाणं जहा पुढविकाइयाणं । नवरं सम्मत्त नाणेसु न एक्कंपि आउयं पकरेंति । (२७) किरियाबाई णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया किं नेरइयाउयं पकरेंतिपुच्छा । गोयमा ! जहा मणपज्जवनाणी । अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणश्यवाई य चव्विहं ( चउहिं ) पि पकरेंति । - जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि । कण्हलेस्सा णं भंते ! x पंचिदियतिरिक्खजोणिया xxx अकिरिया वाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई चउव्विहं पिपकरेंति । जहा कण्हलेस्सा एवं नीललेस्सा वि, काउलेस्सा वि । तेउलेस्सा जहा सलेस्सा | नवरं अकिरियवाई, अन्नाणियवाई, वेणइयवाई यणो नेरइयाज्यं पकरेंति, देवाउयं वि पकरेंति । तिरिक्खजोणियाज्यं वि पकरेंति, मणुस्सायं विपकरेंति । एवं पहले सावि, एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियव्वा । कण्हपक्खिया तिहिं समोसरणेहिं चउव्विहं पि आउयं पकरेह | सुक्कपक्खिया जहा सहसा । मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । अन्नाणी जाव - विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । सेसा जाव अणागारोवत्ता सव्वे जहा सलेस्सा तहा चैव भाणियव्वा । जहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वतव्वया भणिया एवं मणुस्साण वि भाणियव्वा ! xxx । जहा ओहिया जीवा सेसं तहेव । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । - भग० श ३० । उ १ । प्र १२ से १४, १६, १८, १६, २२, २४ से २६ पृ० ६०६-८ अक्रियावादी जीव नरक, तिर्यं चयोनिक, मनुष्य तथा देवता - चारों प्रकार का आयुष्य बांधते हैं । सलेशी, कृष्ण-नील कापोतलेशी अक्रियावादी जीव, कृष्णपाक्षिक-शुक्लपाक्षिक अक्रियवादी जीव, अज्ञानी, मति श्रुत-विभंग- अज्ञानी अक्रियावादी जीव, आहारादि चारों संज्ञाओं में उपयोग वाले अक्रियावादी जीव, सवेदक, स्त्री- पुरुष - नपुंसक वेदक अक्रियावादी जीव, सकषायी, कोध-मान-माया लोभ कषायी अक्रियावादी जीव, सयोगी, मन-वचन-काययोगी "Aho Shrutgyanam" Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ३०३ अक्रियावादी जीव तथा साकारोपयोग वाले -- अनाकारोपयोगवाले अक्रियावादी जीव चारों प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं । तेजो-पद्म- शुक्ललेशी अक्रियावादी जीव नरकायुष्य बाद अवशेष तीन प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं । अक्रियावादी नारकी जीव मनुष्य तथा तिर्यचयोनिक जीव का आयुष्य बाँधते हैं, नारकी तथा देवता का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । सलेशी यावत अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण अक्रियावादी नारकी में पाये जायँ उन उन विशेषणों सहित अक्रियावादी नारकी जीव तिर्यचयोनिक तथा मनुष्य का आयुष्य बाँधते हैं, नारक तथा देवता का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । अक्रियावादी भवनपति देव मनुष्य तथा तिर्य'चयोनिक जीव का आयुष्य बाँधते हैं, नारकी तथा देवता का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण अक्रियावादी भवनपति देवों में पाये जायँ उन-उन विशेषणों सहित अक्रियावादी भवनपति देव तिर्य'चयोनिक तथा मनुष्य का आयुष्य बाँधते हैं, नारक तथा देवता का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । अक्रियावादी पृथ्वी-अप्[-वनस्पतिकायिक जीव मनुष्य तथा तिर्यच का आयुष्य बाँधते हैं । सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण अक्रियावादी पृथ्वी- अप्-वनस्पतिकायिक में पाये जायँ - उन उन विशेषणों सहित अक्रियावादी पृथ्वी- अप्-वनस्पतिकायिक जीव तिर्य'चयोनिक तथा मनुष्य का आयुष्य बाँधते हैं लेकिन तेजोलेशी अक्रियावादी पृथ्वी - अप्-वनस्पतिकायिक जीव किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । अक्रियावादी अग्निकाय-वायुकायिक जीव केवल तिर्य चयोनिक जीव का आयुष्य ते हैं। सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो जो विशेषण अक्रियावादी अग्निकायवायुकायिक जीवों में पाये जायँ - उन उन विशेषणों सहित अक्रियावादी अग्निकाय-वायुकायिक जीव के केवल तिर्यंचयोनिक जीव का आयुष्य बाँधते हैं । अक्रियावादी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव मनुष्य तथा तिर्य चयोनिक जीव का आयुष्य बाँधते हैं ! सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण अक्रियावादी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों में पाये जायँ उन उन विशेषणों सहित अक्रियावादी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव तिर्थं चयोनिक तथा मनुष्य का आयुष्य बाँधते हैं लेकिन सम्यक्त्व तथा ज्ञान "Aho Shrutgyanam" Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ क्रिया - कोश अवस्था में अक्रियावादी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जीव किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बाँधते हैं । अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव चारों प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं ! सलेशी, कृष्ण - नील- कापोतलेशी अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जोव, कृष्णपाक्षिक-शुक्लपाक्षिक अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव, अज्ञानी, मति श्रुतविभंग - अज्ञानी अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव, आहारादि चारों संज्ञाओं में उपयोग वाले अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जोव, संवेदक, स्त्री-पुरुष नपुंसक वेदक अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव, सकषायौ, क्रोध मान-माया - लोभकषायी अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव, सयोगी, मन-वचन-काययोगी अक्रियावादी पंचेद्रिय तियं चयोनिक जीव तथा साकारोपयोग वाले - अनाकारोपयोग वाले अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य' चयोनिक जीव चारों प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं । तेजो-पद्म- शुक्ललेशी अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्य चयोनिक जीव नरकायुष्य बाद अवशेष तीन प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं । अक्रियावादी मनुष्य जीव चारों प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं । सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो जो विशेषण अक्रियावादी मनुष्य में पाये जायँ उन उन विशेषणों सहित अक्रियावादी मनुष्य जीव धारों प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं परन्तु तेजो-पद्म-शुक्ल-लेशो अक्रियावादी मनुष्य जीव नरकायुष्य बाद अवशेष तीन प्रकार का आयुष्य बाँधते हैं । अक्रियावादी वाणव्यन्तर- ज्योतिषी वैमानिक देव मनुष्य तथा तिर्यचयोनिक जीव का आयुष्य बाँधते हैं । सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण अक्रियावादी वाणव्यन्तरज्योतिषी वैमानिक देवों में पाये जायँ उन उन विशेषणों सहित अक्रियावादी वाणव्यन्तरज्योतिषी-वैमानिक देव तिर्य'चयोनिक तथा मनुष्य का आयुष्य बाँधते हैं ! '२'६'६ अक्रियावादी जीव और भव- अभवसिद्धिकता :-- अकिरियावाई णं भंते! जीवा किं भवसिद्धिया० - पुच्छा । गोयमा ! भवसि - द्विया वि, अभवसिद्धिया वि । ( प्र ३१ ) सस्सा णं भंते! जीवा अकिरियावाई किं भव० सिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि । xxx | एवं जाव- -सुक्कलेरसा । xxx एवं एएणं अभिलावेणं कण्हपक्खिया तिसु वि समोसरणेसु भयणाए । पुच्छा । गोयमा ! भव " Aho Shrutgyanam" Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ३०५ सुक्कपक्खिया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया xxx मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया । सन्नासु चउसु वि जहा सलेस्सा | सवेदगा जाव नपुंसगवेद्गा जहा अलेस्सा | सकसायी जाय लोभकसायी जहा अलेस्सा । सजोगी जाव – कायजोगी जहा सलेस्सा | सागाव उत्ता अणागारोवउत्ता जहा अलेक्सा | एवं नेरइया वि भाणियव्वा, नवरं नायव्वं जं अस्थि । एवं असुरकुमारा वि जाव-: - थणियकुमारा । पुढविकाइया सव्वाणेसु वि मज्झिल्लेसु दोसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि । एवं जाव वणरसइकाइया | as दिय-तेई' दिय- चउरिंदिया एवं चेव । नवरं समंते । ओहिनाणे आभिणिबोहियनाणे सुवनाणे एएस चैव दोसु मज्झिमेसु समोसरणे भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । सेसं तं चेव । पंचिदियत्तिरिक्खजोणिया जहा नेरइया । नवरं नायव्वं मं अस्थि । मणुस्सा जहा ओहिया जीवा । वाणव्यंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । -- भग० श ३० उ १ । प्र० ३१, ३३, ३४ पृ० ६०८-६ अक्रियावादी जीव भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । सलेशी, कृष्णलेशी यावत शुक्ललेशी अक्रियावादी जीव, कृष्णपाक्षिक अक्रियावादी जीव, मिथ्यादृष्टि अक्रियावादी जीव, अज्ञानी, मति श्रुत-विभंग अज्ञानी अक्रियावादी जीव, अहारादि चारों संज्ञाओं में उपयोगवाले अक्रियावादी जीव, सवेदक, स्त्री-पुरुष नपुंसक वेदक अक्रियावादी जीव, सकषायी, क्रोध - मान-माया-लोभकषायी अक्रियावादी जीव, सयोगी, मनोयोगी यावत् काययोगी अक्रियावादी जीव, साकारोपयोगवाले - अनाकारोपयोग वाले अक्रियावादी जीव भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । शुक्लपाक्षिक अक्रियावादी जीव केवल भवसिद्धिक होते हैं । अक्रियावादी नारकी जीत्र भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । सविशेषण अक्रियावादी नारकी के सम्बन्ध में जैसा सविशेषण औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कहा वैसा ही कहना लेकिन नारकी के जो-जो विशेषण पाये जायँ उनउन विशेषणों से कहना । ३६ "Aho Shrutgyanam" Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश अक्रियावादी भवनपति देव भवसिद्धिक तथा अभवसिद्धिक होते हैं । सविशेषण अक्रियावादी भवनपति देवों के सम्बन्ध में जैसा सविशेषण औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कहा वैसा ही कहना लेकिन भवनपति देवों के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन उन विशेषणों से कहना । अक्रियावादी पृथ्वी - अप्-अग्नि वायु-वनस्पतिकायिक जीव भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । ३०६ सविशेषण अक्रियावादी पृथ्वी- अप्-अग्नि वायु-वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्ध में जैसा सविशेषण औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कहा वैसा ही कहना लेकिन पृथ्वी- अप्-अग्नि-वायु-वनस्पतिकायिक जीवों के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना अक्रियावादी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । सविशेषण अक्रियावादी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में जैसा सविशेषण औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कहा वैसा ही कहना लेकिन द्वीन्द्रियश्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय जीवों के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना ; लेकिन सम्यक्त्व, ज्ञान, मति श्रुतज्ञान अवस्था में अक्रियावादी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव केवल भवसिद्धिक होते हैं । अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । सविशेषण अक्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवों के सम्बन्ध में जैसा सविशेषण औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कहा वैसा हो कहना लेकिन पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना । अक्रियावादी मनुष्य भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । सविशेषण अक्रियावादी औधिक जीव के सम्बन्ध में जैसा कहा वैसा ही सभी विशेषणों सहित अक्रियावादी मनुष्य जीव के सम्बन्ध में जानना । अक्रियावादी वाणव्यन्तर- ज्योतिषी - वैमानिक देव भवसिद्धिक भी, अभवसिद्धिक भी होते हैं । सविशेषण अक्रियावादी वाणव्यन्तर-ज्योतिषी-वैमानिक देवों के सम्बन्ध में जैसा सविशेषण औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कहा वैसा ही कहना लेकिन अक्रियावादी वाणव्यन्तर-ज्योतिषी वैमानिक देवों के जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से कहना । " Aho Shrutgyanam" Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कौश ६२.६७ अनंतरोपपन्नक अक्रियावादी और जीवदंडक अतरोववन्नगा णं भंते xxx भाणियव्वा । : ( पूरे पाठ के लिये देखिये क्रमांक ६२४°३'३ ) अनन्तरोपपन्नक नारकी अक्रियावादी भी होते हैं; क्रियावादी, अज्ञानवादी तथा विनयवादी भी होते हैं । जैसी वक्तव्यता औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में ( ६२६४ ) कही गई है वैसी ही वक्तव्यता अक्रियावादी अनन्तरोपपन्नक जीव के सम्बन्ध में कहनी चाहिए; इतनी विशेषता है कि अक्रियावादी अनन्तरोपपन्नक जीव में सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो-जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से विवेचन करना चाहिए । ३०७ '६२'६८ अनंतरोपपन्नक अक्रियावादी जीव और आयुष्य का बंधन किरियावाई णं भंते! अणंतरोववन्नगा नेरश्या किं नेरइयाज्यं पकरेंतिपुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरि०, नो मणु०, नो देवाउयं पकरेंति । एवं अकिरियाबाई वि अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि । सलेस्सा णं भंते! किरियाबाई अनंतरोववन्नगा नेरइया किं नेरइयाउयं०पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव नो देवाड्यं पकरेंति । एवं जाव वेमाणिया । एवं सव्वट्टाणेसु वि अनंतरोववन्नगा नेरख्या न किंचि वि आउयं पकरेंति जाव - अणागारोवउत्त त्ति । एवं जाव वैमाणिया, नवरं जं जस्स अस्थि तं तरस भाणियव्वं । -भग० श ३० उ२ । प्र ३, ४ । पृ० ६०६ कोई भी अक्रियावादी अनन्तरोपपन्नक जीव किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बाँधते हैं ! I : "Aho Shrutgyanam" -६२६'६ अणंतरोपपन्नक अक्रियावादी जीव और भव अभवसिद्धिकता :अकिरियावाई णं (भंते ! ) पुच्छा । गोयमा ! भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि 1 xxx 1 सस्सा णं भंते! किरियाबाई अणंतरोववन्नगा नेरइया किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया ? गोयमा ! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया । एवं एएणं अभिलावेणं जव ओहिए उद्देसए नेरइयाणं वतव्वया भणिया तद्देव इह वि भाणियव्वा जाबअणागारोवउत्त त्ति । एवं जाव वैमाणियाणं । नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । -भग० श ३० । उ २ । प्र ६,७ । पृ० ६०६-१० afararदी नारकी जीव भवसिद्धिक भी तथा अभवसिद्धिक भी होते हैं । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ क्रिया-कोश जैसी वक्तव्यता औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में (क्रमांक ६२.६४) कही गई है वैसी ही वक्तव्यता अक्रियावादी अनन्तरोपपन्नक जीव के सम्बन्ध में कहनी चाहिए । इतनी विशेषता है कि अक्रियावादी अनन्तरोपपन्नक जीव में सलेशी यावत् अनाकारोपयोग तक जो जो विशेषण पाये जायँ उन-उन विशेषणों से विवेचन करना चाहिए । ६२.६.१० परंपरोपपन्नक अक्रियावादी और जीवदंडक :-~६२६११ परंपरोपपन्नक अक्रियावादी और आयुष्य का बंधन :' २६.१२ " . भव-अभवसिद्धिकता :परंपरोववन्नगा xxxx तियदंडगसंगहिओ। ( पूरे पाठ के लिए देखिये क्रमांक ६२.६४ ) परम्परोपपन्नक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में वैसी ही वक्तव्यता जाननी चाहिए जैसी औधिक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में ( देखो क्रमांक ६.२ ६.४ ) वक्तव्यता कही ६.२ ६.१३ अनंतरावगाढ़-अनंतराहारक-अनंतरपर्याप्त अक्रियावादी और जीवदंडक ६.२ ६.१४ , " , और आयुष्य का बंधन :-- ६२ ६.१५ ,, और भव-अभवसिद्धिकता :६२.६.१६ परंपरावगाढ-परंपराहारक परंपरपर्याप्त अक्रियावादी और जीवदंडकः६२६ १७ , , , और आयुष्य का बंधन :-- '६२६१८ ,, , और भव-अभवसिद्धिकता६२.६.१६ चरम-अचरम अक्रियावादी और जीवदंडक :६२६२० , , और आयुष्य का बंधन :'६२६.२१ , , और भव-अभवसिद्धिकता : एवं एएणं कमेणं xxxx सेसं तहेव । ( पूरे पाठ के लिए देखिये क्रमांक ६२.४.३,१०,११,१२) अनन्तरावगाढ़, अनन्तराहारक, अनन्तरपर्याप्त अक्रियावादी जीव का गमक अनन्तरोपपन्नक अक्रियावादी जीव की तरह कहना अर्थात् अक्रियावादित्व, आयुष्य का बन्धन तथा भव-अभवसिद्धिकता के सम्बन्ध में वैसी ही वक्तव्यता कहनी चाहिए जैसी अनन्तरोपपन्नक अक्रियावादी जीव के सम्बन्ध में कही गयी है। (देखो क्रमांक ६.२६७,८,8) परम्परावगाढ़, परम्पराहारक, परम्परपर्याप्त अक्रियावादी जीव का गमक परम्परोपपन्नक अक्रियावादी जीव की तरह कहना चाहिए। "Aho Shrutgyanam" Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कौश ३०६ चरम अक्रियावादी जीव का वक्तव्य परम्परोपपन्नक अक्रियावादी जीव की तरह कहना । अचरम अक्रियावादी जीव का वक्तव्यं औधिक अक्रियावादी जीव की तरह कहना । ६३ क्रिया और प्रतिक्रमण ६३१ कायिकी क्रियापंचक और प्रतिक्रमण निष्फल हों । पडिक्कमामि पंचहि किरियाहि — काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए, परितावणियाए, पाणाश्वायकिरियाए । -- आव ० अ ४ । सू ६ | पृ० ११६८ मैं कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी क्रियाओं का प्रतिक्रमण करता हूँ । मेरे क्रियाजनित दुष्कृत विवेचन यदि कायिकी क्रियापंचक की सदनुष्ठान प्रशस्त क्रिया में वर्तना न की हो ) तो का अतिचार लगा हो तो उसका मैं प्रतिक्रमण वर्तना की हो तो मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि फिर उसका सेवन नहीं करूँगा । *६३२ तेरह क्रियास्थान और प्रतिक्रमण : अप्रशस्त क्रिया में वर्तना की हो ( तथा उस कारण से संयम में यदि किसी प्रकार करता हूँ । कायिकी क्रियापंचक में यदि पडिक्कमामि Xxx | तेरसहि किरियाठाणेहिं । -- आव० अ ४ | सू ६ । पृ० ११६८ मैं तेरह क्रियास्थानों का प्रतिक्रमण करता हूँ--उनसे निवृत्त होता हूँ । मेरे क्रियाजनित दुष्कृत निष्फल हों । विवेचन – यदि बारह अप्रशस्त क्रियास्थानों में वर्तना की हो तथा ऐर्यापथिकी क्रिया में वर्तना न की हो तो उस कारण से संयम में यदि किसी प्रकार का अतिचार लगा हो तो उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । बारह क्रियास्थानों में यदि वर्तना की हो तो मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि फिर उनका सेवन नहीं करूंगा । - * १४ क्रिया और भिक्षु :१४१ औधिक विवेचन : (क) वसु इंदियत्थेसु, समिईसु किरियासु य । जे भिक्खू जयई निश्च से न अच्छर मंडले | 3 - उत्त० अ ३१ । गा ७ । ० १०३८ " Aho Shrutgyanam" Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० क्रिया-कौश जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में, इन्द्रिय-विषयों तथा क्रियाओं के परिहार में सहायता करता है वह संसार में नहीं रहता है । (ख) किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिस्सु य। जे भिक्खू जयई निच, से न अच्छड मंडले ।। -उत्त० अ ३१ । गा १२ ! पृ० १०३८ जो भिक्षु तेरह प्रकार के क्रियास्थानों, चौदह प्रकार के जीव समुदायों और पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक देवों में सदा यत्न रखता है वह संसार में नहीं रहता अर्थात् परिभ्रमण नहीं करता है। (ग) सुविसुद्ध लेसे मेहावी, परकिरिअं च वजए णाणी । -सूय ० श्रु १ । अ ४ । उ २। गा २१ । पृ० ११५ निर्मल लेश्या वाला मेधावी तथा ज्ञानी---विवेकवान भिक्षु परक्रिया अर्थात पर के प्रति स्व-शरीर से या पर के द्वारा स्व-शरीर में की जानेवाली पर-क्रियाओं को त्याग दे । (घ) परकिरियं अन्नमन्नं च, तं विजं परिजाणिया । -सूय० श्रु १। अ६ । गा १८ उतरार्ध । पृ० १२३ दूसरों के द्वारा स्व-सम्बन्धी कोई क्रिया कराना अथवा पर-सम्बन्धी कोई क्रिया करना तथा परस्पर में एक दूसरे के सम्बन्ध में क्रिया करना-इसको विद्वान भिक्ष 'ज्ञ' परिज्ञा से जानकर 'प्रत्याख्यान' परिज्ञा से छोड़ दे। (ङ) अन्नउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नति, एवं परूवेंति कहन्न समणाणं निग्गंथाणं किरिया कन्जइ ? तत्थ जा सा कडा कज्जइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा नो कजइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा अकडा नो कन्जइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कजइ तं पुच्छंति, से एवं वत्तव्वं सिया __ अकिञ्च दुक्खं, अफुसं दुक्ख, अकजमाणकडं दुक्खं अकट्टु अकट्ठ पाणाभूया-जीवा-सत्ता वेयणं वेति त्ति वत्तव्वं, जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण एवमाइक्खामि, एवं भासामि, एवं पन्नवेमि, एवं परूवेमि-किच्च दुक्खं, फुसं दुक्खं, कजमाणकडं दुक्खं कट्टु कट्टु पाणा-भूया-जीवा-सत्ता वेयणं वेयंति त्ति वत्तव्वयं सिया। -ठाण• स्थान ३ । उ २ । सू १६७ । पृ० २११ __ (च) अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव-एवं पवेति xxx l अकिञ्च दुक्खं, अफुसं दुक्खं, अकजमाणकडं दुक्खं अकट अकटटु पाण-भूय-जीवसत्ता वेदणं वेदंति इति वत्तव्वं सिया। से कहमेयं भंते ! एवं ? "Aho Shrutgyanam" Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ क्रिया - कोश गोयमा ! जंणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति, जाव वेयणं वेदेति वत्तम्वं सिया । जे ते एवं आहिंसु, मिच्छा ते एवं आहिंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि xxx 1 कि दुखं, फुलं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं, कटू टु कट्टु पाणभूय जीव-सत्ता वेदणं वेदेंति इति वत्तव्वं सिया । दुःख हैं । - भग० श १ | उ १० । प्र० ३१६,३१७,३२४ । पृ० ४१४-१५ अन्यतीर्थियों का कथन है कि अकृत्य दुःख है, अस्पृश्य दुःख है तथा अक्रियमाण कृत इनको नहीं कर के, नहीं करके ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व वेदना को वेदते भगवान का कथन है कि अन्यतीर्थियों का उपर्युक्त कथन गलत है । उनका कहना है कि कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाणकृत दुःख है तथा इनको कर-करके ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व वेदना को वेदते हैं । (छ) अस्थि णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जर ? हंता, अस्थि । कहं णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ ? मंडियपुत्ता ! पमायपञ्चया, जोगनिमित्तं च ; एवं खलु समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ । -भग० श ३ । उ ३ । ८६ । पृ० ४५६ श्रमण - निर्ग्रन्थ के भी किया होती है । श्रमण-निर्ग्रन्थ के दो कारण से क्रिया होती है— प्रमादप्रत्यय तथा योग निमित्त । प्रमाद से अर्थात दुष्प्रयुक्त शरीर की चेष्टा से तथा योग अर्थात् ऐर्यापथिकी गमनादि कार्यों से श्रमण निर्ग्रन्थ के क्रिया होती है । '६४'२ साध्वाचार के अतिक्रमण से भिक्षु को लगनेवाली क्रियाएँ :--- - १ कालातिक्रम क्रिया : - से (भिक्खू वा भिक्खुणी वा ) आगंतारेसु वा जाव ( आरामागारे वा, हाइकुलेवा, ) परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कल्पं वातिणावत्ता तत्थेव भुज्जो ( भुज्जो ) संवसंति, अयमाउसो ! कालाइ कंत-किरिया वि भवइ । -आया० श्रु २ । अ २ । उ २ । सू ३४ । पृ० ५४ पथिक- विश्राम गृह ( धर्मशाला, मुसाफिर खाना आदि ), आरामगृह ( बंगला, बगीचा, विश्रामगृह ), गृहपति के घर और मठ – उपाश्रय - आश्रमादि में जो साधु-साध्वी ऋतुबद्ध शीतोष्णकाल में मासकल्प तथा वर्षांकाल में चार मास कल्प व्यतीत करके वहाँ पर बार-बार बिना कारण आकर रहे तो उनको कालातिक्रम- क्रिया दोष लगता है । "Aho Shrutgyanam" Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ क्रिया-कोश '२ उपस्थान क्रिया : से आगंतारेसु वा जाव ( आरामागारेसु वा, गाहावकुलेसु वा, ) परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उडुद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिगावित्ता तं दुगुणा दुगणेण (दुगुणा तिगुणेण ) अपरिहरित्ता तत्थेव भुजो (भुज्जो) संवसंति, अयमाउसो ! उवट्ठाण-किरिया वि भवइ। --आया० अ २१ अ २ । उ२ । सू३५। पृ० ५४ पथिक-विश्राम-गृह, आरामगृह, गृहपति के घर और मठ-आश्रमादि में जो साधुसाध्वी ऋतुबद्ध शीतोष्ण काल में मासकल्प तथा वर्षाकाल में चार मासकल्प व्यतीत करने के बाद उसी स्थान में दो-तीन मास का व्यवधान किये बिना शीतोष्णकाल में तथा दोतीन चतुर्मास का व्यवधान किये बिना वर्षाकाल में बिना कारण आकर रहे तो उनको उपस्थान-क्रिया दोष लगता है। ३ अभिक्रान्त क्रिया :-- इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगड्या, सड्ढा भवंति, तंजहा - गाहावई वा, जाव ( गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइधूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा ) कम्मकरीओ वा । तेसिं च णं आयार गोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहि, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए सुमुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई, चेतिताई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा, आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा, पवाओ वा, पणिय-गिहाणि वा, पणियसालाओ वा, जाण-गिहाणि वा, जाण-सालाओ वा, सुहाकम्मंताणि वा, दब्भ-कम्मंताणि वा, बद्ध-कम्मंताणि वा, वक-कम्मंताणि वा, वण-कम्मंताणि वा, इंगाल-कम्मंताणि वा, कट्ठ-कम्मंताणि वा, सुसाण-कम्मंताणि वा, संति-कम्मंताणि वा, गिरि-कम्मंताणि वा, कंदर-कम्मंताणि वा, सेलोवट्ठाण-कम्मंताणि वा, भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि (जाव ) भवणगिहाणि वा तेहिं ओवयमाणेहिं ओवयंति । अयमाउसो ! अभिकत-किरिया वि भवइ । --आया० श्रु २ । अ २ । प्र ३६ । पृ० ५४ इस लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओं में कई एक श्रद्धालु गाथापति-गृहस्थ, गाथापत्नी-गृहिणी, गाथापति के पुत्र, गाथापति की पुत्री, गाथापति को "Aho Shrutgyanam" Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३१३ पुत्रवधू, धाय, दास-दासी, नौकर-नौकरानी ऐसे होते हैं जो साधु के आचार-गोचर को भलीभाँति नहीं समझते है तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, भिखारी आदि के अवकाश के उद्देश्य से यत्र-तत्र विभिन्न प्रकार के भवनादि बनाते हैं, यथा-आवेशन-लोहारशाला, आयतन-धर्मशाला, देवस्थान, सभागृह, प्याऊ, पण्यगृह-दूकान-हाट, पण्यशाला-गोदामादि, यानगृह-रथशाला, यानशाला-~यान बनाने के घर, मकान पोतने के लिए खड़ी, चूना आदि बनाने का घर, दर्भ-घास-तृणादि के गृह, बढ़ईशाला, वल्क-छाल-चर्मशाला, वन-वनस्पतिगृह, इंगालकोयला बनाने का स्थान, काठ का गोला, श्मशानगृह, शान्तिगृह, पर्वतगृह, गुफागृह, पाषाणमंडप, भवन आदि का निर्माण कराते हैं तथा उन स्थानों में श्रमण, ब्राह्मण आदि उतरते हों, ठहरे हों और कोई साधु यदि वहाँ जाकर रहे तो उसको अभिक्रान्त क्रियादोष लगता है। .४ अनभिक्रान्त क्रिया :-- इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगश्या सट्टा भवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहि, तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण- अतिहि-किवण-वणीमए समुहिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चेतिआई भवंति, तंजहा--आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे भयंतारो तहल्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं ओवयंति, अयमाउसो! अणभिक्कत-किरिया वि भवइ । - आया० श्रु २। अ २ । उ २ । प्र ३७ । पृ० ५४ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणो आदि ऐसे होते हैं--जो साधु के आचारगोचर को मली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके श्रमणब्राह्मण आदि के लिए भवन-धर्मशाला आदि का निर्माण कराते हैं और उन स्थानों में यदि श्रमण-ब्राह्मण आदि नहीं रहते हों, नहीं रहे हों, फिर भी कोई साधु उनमें आकर रहे तो उसको अनभिक्रान्त क्रिया--दोष लगता है। .५ वयं क्रिया : इह खलु पाईणं वा, पड़ीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्डा भवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं एवं पुत्तपुव्वं (वृत्तपुव्वं ) भवइ "Aho Shrutgyanam" Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंतो जाव (वयमता गुणमंता संजया संवुडा बंभयारी) उवरया मेहुणाओ धम्माओ। णो खलु एएसि भयंताराणं कप्पइ आहाकम्मिए उवस्सए वत्थए। सेन्जाणिभाणि अम्हें अप्पणो सअट्टाए चेश्याई भवंति, संजहा–आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा । सव्वाणि ताणि समणाणं णिसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अपणो सअट्ठाए चेतिस्सामो, तंजहाआएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। एयप्पगारं णिग्धोसं सोचा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वटुंति । अयमाउसो ! वजकिरिया वि भवइ । -आया० श्रु २ । अ २ । उ २ । सू३८ । पृ० ५४,५५ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो ऐसा कहते हैं कि जो साधु-श्रमण शीलवन्त हैं-आचारवन्त है, व्रतवन्त हैं, संयत हैं, संवृत है, ब्रह्मचारी है, मैथन धर्म से निवृत्त हुए है, वे आधाकर्मी उपाश्रय आदि में निवास नहीं करते हैं अतः वे गृहस्थादि अपने लिए बनाये गये भवन आदि को साधु-श्रमण के रहने के लिए छोड़ देते हैं, खाली कर देते हैं तथा अपने लिए अन्य भवनादि बना लेते हैं। यदि साधु को यह मालूम हो जाय कि यह गृहस्थ अपने लिए बनाये गये भवनादि को तो साधु-श्रमण के लिए छोड़ रहा है लेकिन अपने लिए अन्यत्र भवनादि बनायेगा। ऐसी स्थिति में साधु-श्रमण उस गृहस्थ के द्वारा प्रदत्त उन मकानों में जाकर रहे तो उसको वर्ण्य क्रिया लगती है । ६ महावय॑किरिया : इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सट्टा भवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहि, तं रोयमाणेहिं, बहवे समण-माहण-अतिहिकिवण-वणीमए पगणिय पगणिय समुहिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइ आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहि पाहुडेहिं वटुंति, अयमाउसो! महावज्ज-किरिया वि भवइ । --आया० श्र२ । अ २ । उ २ । सू ३६ । पृ० ५५ "Aho Shrutgyanam" Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३१५ इस लोक में श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो साधु के आचार-गोचर को भली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके अनेक श्रमणब्राह्मण आदि के रहने के लिए अलग-अलग भवन, धर्मशाला आदि का निर्माण कराते हैं । यदि साधु को यह मालूम हो जाय कि ये भवनादि श्रमण-ब्राह्मण आदि के रहने के लिए बनाये गये हैं । ऐसा जानकर भी साधु-श्रमण उस प्रदत्त उद्दिष्ट भवन-वासस्थान आदि में जाकर रहे तो उस साधु को महावय॑क्रिया लगती है । '७ सावज्ज-किरिया :--- इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सङ्घा भवंति, संजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा । तेसिं च णं आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सहहमाणेहि, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहिकिवण-वणीमए समुदिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराईचेतिआई भवंति, तंजहाआएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वति, आयमाउसो ! सावज्ज-किरिया वि भवइ । -आया० श्रु २ ! अ २ ! उ २ । सू ४० । पृ० ५५ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो साधु के आचारगोचर को भली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके अनेक श्रमण-ब्राह्मण आदि के रहने के (सामुदायिक) उद्देश्य से भवन आदि का निर्माण कराते है। इसको जानते हुए भी यदि कोई साधु उस प्रदत्त घर में जाकर रहे तो उसको सावधक्रिया लगती है। •८ महासावज्ज-किरिया : इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संगझ्या सड़ा भवंति । तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयारगोयरेको सुणिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहि, तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं एगं समणजायं समहिस्स तत्थ तत्थ अगारीहि अगाराई चेतिताई भवंति, तंजहा--आएसणाणि वा जाव भवगिहाणि वा। महया पुढविकाय समारंभेणं जाव (महया आउकायसमारंभेणं, महया तेउकाय समारंभेणं, महया वाउकाय-समारंभेणं, महया वाणस्सइकाय-समारंभेणं) महया तसकाय-समारंभेणं, महया संरंभेणं, महया "Aho Shrutgyanam" Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ क्रिया-कोश आरंभेणं, महया विरूव-रूवेहिं पावकम्म-किचहितंजहा–छायणओ लेवणओ संथार-दुवार-पिहणओ। सीतोदए वा परिठ्ठवियपुव्वे भवइ ; अगणिकाए वा उज्जालियपुत्वे भवइ ।। जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छति, उवागच्छित्ता इयराइयरेहिं पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्म सेवेति । अयमाउसो ! महासावज्ज-किरिया वि भवइ । -आया० श्र २1 अ २ । उ २ । सू ४१ । पृ० ५५ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो साधु के आचारगोचर को भली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके किसी एक श्रमण के रहने के उद्देश्य से भवन आदि का निर्माण कराते है। तदर्थ पृथ्वी-अपअग्नि-वायु-वनस्पति-त्रसकाय के महान समारम्भ, महान संरंभ, महान आरम्भ से नाना प्रकार के पापकर्म करते है, यथा-छादन करना, लेपन करना, संस्तार (बिछौना) बनाना, द्वार ढकना तथा तद् प्रयोजनार्थ शीतोदक का व्यवहार करना, अग्नि को प्रज्वलित करना। इस प्रकार समारम्भ आदि से निर्मित घर यदि गृहस्थ साधु को रहने के लिए दे और साधु उसमें रहे तो वह दो ( अशुद्ध) पक्षका सेवन करता है तथा उसको महासावद्यक्रिया लगती है। '६ अप्पसावज्ज किरिया :-- इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्डा भवंति, तंजहा--गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सहमाणेहि, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहि अप्पणो सअट्ठाए तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चेतिताई भवंति, तंजहा–आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। महया पुढविकाय-समारंभेणं जाव अगणिकाए वा उज्जालियपुग्वे भव। जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छति, उवागच्छित्ता इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयसाउसो ! अप्पसावज-किरिया वि भवइ । -आया० श्रु२। अ२ 1 उ २ । सू ४२ ! पृ० ५५ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो साधु के आचारगोचर को भली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके अपने रहने के उद्देश्य से भवनादि का निर्माण कराते है ! तदर्थ पृथ्वी-अप्-अग्नि-वायु-वनस्पति "Aho Shrutgyanam" Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ३१७ क्रिया-कौश सकाय के महान समारम्भ, महान संरंभ, महान आरम्भ से नाना प्रकार के पापकर्म करते हैं, यथा-छादन करना, लेपन करना, स्तार (बिछौना ) बनाना, द्वार देकना तथा तद्प्रयोजनार्थ शीतोदक का व्यवहार करना, अग्नि को प्रज्वलित करना । इस प्रकार गृहस्थ के निज प्रयोजनार्थ पूर्वकृत समारम्भादि से निर्मित घर गृहस्थ के देने पर साधु उसमें रहे तो वह एक ( शुद्ध ) पक्ष का सेवन करता है तथा उसको अल्प सावद्य क्रिया लगती है । अर्थात उसको क्रिया नहीं लगती है । यहाँ टीकाकर ने अल्प शब्द का अर्थ अभाववाची लिया है । . .१० परक्रिया :--- परकिरियं अज्झस्थियं संसेसियं-- णो तं साइए, णो तं णियमे। से से परो पादाइं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज वा'–णो तं साइए, णो तं णियमे । xxx संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज वा ०००।xxx फूमेज वा, रएज्ज वा ०००1xxx तेल्लेण वा, घएण वा, वसाए वा मक्खेज वा, भिलिंगेज वा ०००। xxx लोद्धण वा, कक्केण वा, चुन्नेण वा, वन्नेण वा उल्लोलेज्ज वा, उव्वलेज वा ०००। xxx सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोएज्ज वा ००० ! xxx अण्णयरेण विलेवण-जाएण आलिंपेज वा, विलिंपेज्ज वा ०००।xxx अण्णयरेण धूवण-जाएण धूवेज वा, पधूवेज्ज वा ०००। से से परो पादाओ खाणु वा, कंटयं वा, णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा ०००। से से परो पादाओ पूर्य वा, सोणियं वा, णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा-णो तं साइए, णो तं णियमे । (सू १ से ११)। xxx के स्थान पर 'से से परो पादाइ" पढ़ें। ००० के स्थान पर 'णो तं साइए, णो तं णिय' पढ़ें।। से से परो कार्य आमज्जेज वा, पमज्जेज्ज वा–णो तं साइए, णो तं णियमे । xxx संवाहेज्ज वा, पलिमद्दज्ज वा ००० xxx तेल्लेण वा, धएण वा, वसाए या, मक्खेज्ज वा, अब्भंगेज्ज वा ०००। xxx लोद्रेण वा, कक्केण वा, चुण्णण वा, वण्णण वा, उल्लोलेज वा, उव्वलेज्ज वा ०००। xxx सीओदगवियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पहोएज्ज वा ०० ०1xxx अण्णयरेण विलेवण-जाएण आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा ०००। xxx अण्णयरेण धूवण-जाएणं धूवेज्ज वा, पधूवेज्ज वा-णो तं साइए, णो तं णियमे। (सू १२ से १८)। "Aho Shrutgyanam" Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ क्रिया-कोश .. xxx के स्थान पर 'से से परो कार्य' पढ़ें। ००० के स्थान पर 'णो तं साइए, णो तं णियमे' पढ़ें। से से परो कायंसि वणं आमज्जेज वा, पमज्जेज वा-णो तं साइए, जो तं णियमे xxx संवाहेन्ज वा, पलिमहेज वा ००० xxx तेल्लेण वा, धएण वा, वसाए वा मक्खज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा ००० ! xxx लोद्रेण वा, कक्केण वा, चुण्णण वा, वण्णेण वा, उल्लोलेज्ज वा, उठवलेज वा ०००।xxx सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोएज वा ००० ! xxx अन्नयरेणं विलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा, विलिंपेज्ज वा ०००। xxx अन्नयरेण धूवणजाएणं धूवेज वा, पधूवेज वा ०००i xxx अन्नयरेणं सत्थजाएणं अच्छिदेज वा, विच्छिदेज वा–से से परो कायंसि वर्ण अन्नयरेणं सत्थ जाएणं अच्छिदित्ता वा, मिच्छिदित्ता वा, पूयं वा, सोणियं वा, नीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा-णो तं साइए, णोतं णियमे । (सू १६ से २७) xxx के स्थान पर-‘से से परो कायंसि वणं' पढ़ें। ००० के स्थान पर-'णो तं साइए णो तं णियमे पढ़ें।। से से परो कायंसि गंडं वा, अरइयं वा, पिडयं वा, भगंदलं वा, आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा–णो तं साइए, णो तं णियमे । xxx संवाहेज्ज वा, पलिमहज्ज वा ००० xxx तेल्लेण वा, घएण वा, वसाए वा, मक्खेज वा, भिलिंगेज वा ०००।xxx लोभ्रूण वा, कक्केण वा, चुन्नेण वा, वण्णेण वा उल्लोलेज वा, उठवलेज्ज वा ००० xxx सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्जवा, पधोवेज्ज वा–णो तं साइए. णो तं णियमे । . xxx अन्नयरेणं विलेवण-जाएणं आलिंपेज्ज वा, विलिंपेज्ज वा ०००। xxx अन्नयरेणं धूवण-जाएणं धूवेज्ज वा, पधूवेज्ज वा ०००।. xxx अन्नयरेण सत्थ-जाएणं अच्छिदेज्ज वा, विच्छिदेज्ज वा ०००। xxx अण्णयरेणं सत्थ-जाएणं अच्छिदित्ता वा, विच्छिदित्ता वा पूयं वा, सोणियं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा-- णो तं साइए, णो तं णियमे (सू २८ से ३४) xxx के स्थान में-'से से परो कायंसि गंडं वा, अरइयं वा, पिडयं वा, भगंदलं वा' पढ़ें। ००० के स्थान में - ‘णो तं साइए, णो तं णियमे' पढ़ें। से से परो कायाओ सेयं वा, जल्लं वा णोहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा-णो तं साइए, णो तं णियमे। से से परो अच्छिमलं वा, कण्णमलं वा, दंतमलं वा, णहमलं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा - णो तं साइए, जो तं णियमे (सू ३५-३६)। "Aho Shrutgyanam" Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३१६ . से से परो दीहाई बालाई, दीहाई रोमाई, दीहाई भमुहाई, दीहाई कक्खरोमाई, दीहाई वत्थिरोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा णो तं साइए, णो तं णियमे। (सू ३७) से से परो सीसाओ लिक्खं वा, जूयं वा णीहरेज वा, विसोहेज्ज वा-णो तं साइए, णोतं णियमे । (सू ३८) से से परो अंकंसि वा, पलिययंकसि वा तुयट्टावेत्ता पादाई आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा--णो तं साइए, णो तं णियमे xxx संवाहेज वा, पलिमद्देन्ज वा ००० 1 xxx फूमेज्ज वा, रएज्ज वा ००० xxx तेल्लेण वा, घएण वा, वसाए वा, मक्खेज वा, भिलिंगेज्ज वा ००० xxx लोद्धेण वा, कक्केण वा, चुन्नेण या, वन्नेण वा, उल्लोलेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा ००० | xxx सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेन्ज वा, पधोएज्ज वा ००० xxx अण्णयरेण विलेवणजाएण आलिंपेज्ज वा, विलिंपेज्ज वा ०००। xxx अण्णयरेण धूवण-जाएण धूवेज वा पधूवेज्ज वा ०००+++ खाणुं वा, कंटयं वा, णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा ००० 1 +++ पूर्व वा, सोणियं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज वा णो तं साइए, णो तं णियमे । (प्र ३६ से ४८) xxx के स्थान में ‘से से परो अंकंसि वा, पलियंकसि वा तुयट्टावेत्ता पादाई' पढ़ें। +++ के स्थान में से से परो अंकंसि वा, पलियंकसि वा तुयट्टावेत्ता पादाओ' पढ़ें। ००० के स्थान में 'जो तं साइए. णो तं णियमे' पढ़े। से से परो अंकंसि वा, पलियंकसि वा तुयट्टावेत्ता कायं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज वा-णो तं साइए, णो तं णियमे । xx< संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा ०००। xxx तेल्लेण वा, घएण वा, वसाए वा, मक्खेज वा, अभंगेज्ज वा ००० ! xxx लोण वा, कक्केण वा, चुण्णेण वा, वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उवलेज्ज वा ००० ! xxx सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेग वा उच्छोलेज वा, पहोएज वा ००० 1 xxx अण्णयरेणं विलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा, विलिंपेज्ज वा ००० ! xxx अण्णयरेणं धूवण-जाए धूवेज्ज वा पधूवेज वा–णो तं साइए, णो तं णियमे (प्र ४६ से ५५) । xxx के स्थान में से से परो अंकसि वा, पलियंकसि वा तुयट्टावेत्ता कायं' पढ़े। ००० के स्थान में ‘णो तं साइए, णो तं णियमे' पढ़े। "Aho Shrutgyanam" Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश से से परो अंकंसि वा, पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता कार्यंसि वर्ण आमज्जेज वा, पमज्जेज वा णो तं साइए, णो तं नियमे । +++ संवाद्देज्ज वा, पलिमद्देज वा ००० | +++ तेल्लेण वा, घएण वा, वसाए वा मक्खेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा ०००1+++ लोद्रेण वा, कक्केण वा, चुण्णेण वा, वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उब्वलेज्ज वा ०००1+++ सीओदग वियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा, उच्छोलेज्ज वा, पधोएज्ज वा ०००। +++ अण्गयरेणं विलेवणजाएणं आलिपेज्ज वा, विलिपेज्ज वा ००० +++ अण्णयरेणं धूवण-जाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज वा ००० | +++ अण्णयरेणं सत्थजाएणं अच्छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा ०००। +++ अण्णयरेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता वा, विच्छिदित्ता वा, पूयं वा, सोणियं वा, णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा णोतं साइए, णो तं नियमे । (सू० ५६ से ६४) ३२० +++ के स्थान में 'से से परो अंकसि वा, पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता वा कार्यसि वणं' पढ़ें । के स्थान में 'णो तं साइए, णो तं नियमे' पढ़ें । से से परो अंकसि वा, पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता कार्यसि गंडं वा, अरश्यं वा, पिडयं वा, भगंदलं वा आमजेज वा, पमजेज्ज वाणो तं साइए, णो तं नियमे । +++ संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा ०००। +++ तेल्लेग वा, घरण वा, वसाए वा मक्खेज्ज वा, मिलिंगेज वा ००० । +++ लोद्धण वा, कक्केण वा, चुन्नेण वा, वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उब्वलेज्ज वा ००० | +++ सीओदग वियडेण वा, उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज्ज वा - णो तं साइए, णो तं नियमे । ००० [ +++ अण्णयरेणं विलेवण-जाएणं आलिपेज्ज वा, त्रिलिपेज्ज वा ००० । +++ अण्णयरेणं धूवण-जाएणं धूवेज्ज वा, पधूवेज्ज वा ०००।+++ अण्णयरेणं सत्थजाएणं अच्छिंदेज्ज वा, विच्छिदेज्ज वा ०००1] +++ अण्णयरेणं सत्थ जाएणं अच्छि दित्ता वा, विच्छिंदत्ता वा, पूयं वा, सोणियं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा - जो तं साइए - णो तं नियमे । (सू० ६५ से ७१ ) +++ के स्थान में 'से से परो अंकंसि वा, पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता कार्यंसि गंडं वा, अरइयं वा, पिडयं वा, भगंदलं वा' पढ़ें । ००० के स्थान में 'णो से से परो अंकंसि वा, साइए, णो तं नियमे' पढ़ें । पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता वा कायाओ सेयं वा, जल्लं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा - णो तं साइए, णो तं नियमे । से से परो "Aho Shrutgyanam" Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ३२१ अंकंसि वा, पलियं कंसि वा तुयट्टावेत्ता अच्छिमलं वा, कण्णमलं वा, दंतमलं वा, हमलं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वाणो तं साइए, णो तं नियमे । ( प्र ७२-७३) से से अंकसि वा, पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता दोहाई बालाई दीहाई रोमाई', दोहाई भमुहाई, दोहाई कक्खरोमाई, दीहाइ वत्थिरोमाई कप्पेज्ज वा, संठेज्ज वा- -णो तं साइए, णो तं नियमे । ( प्र ७४) से से परो अंकसि वा, पलियंसि वा तुयट्टावेत्ता सीसाओ लिक्खं वा, जूयं वा, णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा - - णो तं साइए, णो तं नियमे । ( प्र ७५) से से परो अंसि वा, पलियंकंसि वा, तुयट्टावेत्ता हारं वा, अद्धहारं वा, उरत्थं वा, गेवेयं वा, मउडं वा, पालंबं वा, सुवण्यसुत्त वा आविधेज्ज वा पिणिघेज्ज वाणो तं साइए, णो तं नियमे । ( प्र ७६) > से से परो आरामंसि वा, उज्जाणंसि वा णीहरेत्ता वा, पविसेत्ता वा पायाइ आमज्जेज वा, पमज्जेज्ज वा णो तं साइए, जो तं नियमे । xxx । से से परो सुद्धणं वा वइ-बलेणं तेइच्छं आउट्टे से से परो असुद्धणं वा वइ-बलेणं तेइच्छं आउ, से से परो गिलाणस्स सचित्ताणि कंदाणि वा, मूलाणि वा, तयागि वा हरियाणि वा खणित्तु वा, कड्ढेत्तु वा, कड्ढावेत्तु वा तेइच्छं आउट्टज्जा - णो तं साइए, णो तं पियमे । ( प्र ७७-७८ ) – आया० श्रु २ । अ १३ । सू १ से ७८ । पृ० ८५-८७ साधु संश्लेषिका अर्थात् कर्मबंधन की जननी परक्रिया की अभिलाषा न करे तथा न करावे | "पर आत्मनो व्यतिरिक्तान्यस्तस्य क्रिया चेष्टा कायव्यापाररूपा तां परक्रियां" आत्मा (स्वयं) से भिन्न अन्य व्यक्ति की काय व्यापार रूप क्रिया - चेष्टा परक्रिया I होती यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ ) साधु के पैरों को पूँछे या विशेष रूप से साफ करे तो साधु उसकी अभिलाषा न करे और न ऐसे कार्य उससे करावे । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ) साधु के पैरों को मले या मालिश करे; सहलावे या रगड़े ; पैरों में तेलघृत-चर्बी मले या मालिश करे ; पैरों में लोध्र- कल्क-चूर्ण आदि उबटन द्रव्य, घसे या लेप करे ; पैरों को ठण्डे या उष्ण प्राशुक जल से प्रक्षालन करे या धोवे; पैरों में अन्य प्रकार के विलेपन जाति के द्रव्यों का आलेपन या लेपन करे; पैरों को विभिन्न प्रकार के धूप जाति के द्रव्यों से धूप देवे या विशेष धूप देवे ; पैरों से कील- कांटा निकाले; पैरों का मवाद - खून निकाले या परिष्कार करे तो साधु इन कार्यों की अभिलाषा न करे और न इस प्रकार के कार्य उससे करावे । ( सू १ से ११) "Aho Shrutgyanam" Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ . क्रिया-कोश यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ) साधु के शरीर को पूँछे या विशेष रूप से साफ करे तो साधु उसकी अभिलाषा न करे और न ऐसे कार्य उससे करावे । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ) साधु के शरीर को मले या मालिश करे ; शरीर में तेल-घृत-चर्बी मले या मालिश करे ; शरीर में लोध्र कल्क-चूर्ण आदि उबटन द्रव्य घसे या लेप करे ; शरीर को ठण्डे या उष्ण प्राशुक जल से प्रक्षालन करे या धोवे ; शरीर में अन्य प्रकार के विलेपन जाति के द्रव्यों का आलेपन या लेपन करे ; शरीर पर विभिन्न प्रकार के धूप जाति के द्रव्यों से धूप देवे या विशेष धूप देवे, तो साधु इन कार्यों की अभिलाषा न करे और न इस प्रकार के कार्य उससे करावे (सू १२ से १८)। यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ) साधु के शरीर में व्रण-फोड़ा-क्षत पूछे या विशेष रूप से साफ करे तो साधु उसकी अभिलाषा न करे और न ऐसे कार्य उससे करावे। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ) साधु के शरीर में व्रण को मले या मालिश करे; शरीर में व्रण पर तेल-धृत चर्बी मले या मालिश करे ; शरीर में व्रण पर लोधू-कल्क-चूर्ण आदि मलहम लगावे या लेप करे ; शरीर में व्रण को ठण्डे या उष्ण प्राशुक जल से प्रक्षालन करे या धोवे, शरीर में व्रण पर अन्य प्रकार के विलेपन जाति के द्रव्यों का आलेपन या विलेपन करे ; शरीर में व्रण पर विभिन्न प्रकार के धूप जाति के द्रव्यों से धूप देवे या विशेष धूप देवे ; शरीर में वण को विभिन्न प्रकार के शस्त्र से छेद करे या काटे या छेदकर या काटकर मवाद रक्त निकाले या परिष्कार करे तो साधु इन कार्यो' की अभिलाषा न करे और न इस प्रकार के कार्य उससे करावे (सू १६ से २७)। वण के सम्बन्ध में गृहस्थ कृत जिन-जिन क्रियाओं का वर्णन ऊपर किया गया है उसी प्रकार शरीर में गंड गांठ, अरइयं-दुःखदायी फोड़ा, पिडयं--पीड़ादायक घाव तथा भंगदर सम्बन्धी उन-उन क्रियाओं का वर्णन करके कहना चाहिए कि साधु इन क्रियाओं की अभिलाषा न करे और न इस प्रकार की क्रियाओं को करावे (सू २८ से ३४)। यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ) साधु के शरीर का स्वेद या मैल तथा आँख का मैल या कान का मैल या दाँत का मैल या नख का मैल निकाले या साफ करे तो साधु इन कार्यों की अभिलाषा न करे और न इस प्रकार की क्रिया उससे करावे (सू ३५-३६)। यदि कोई व्यक्ति (गृहस्थ) साधु के बढ़े हुए बाल, रोम, भ्र, के बाल, कांख-काछ के बाल, गुदा के बाल को काटे या तराशे तो साधु इन कार्यों की अभिलाषा न करे और न इस प्रकार की क्रिया उससे करावे (सू ३७)। यदि कोई व्यक्ति ( गृहस्थ) साधु के सिर में से जूका या लीख निकाले तो साधु इन कार्यों को अभिलाषा न करे और न इस प्रकार के कार्य उससे करावे ( सू ३८)। "Aho Shrutgyanam" Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश यदि कोई व्यक्ति--गृहस्थ साधु को गोद में या पलंग पर सुलाकर उसके पैर के सम्बन्ध में उन-उन क्रियाओं को करे जिनका वर्णन उपर्युक्त सू १ से ११ में किया गया है तो साधु इन कार्यों की अभिलाषा न करे और न उन-उन कार्यों को उससे करावे (सू ३६ से ४८)। ऊपर में जिस प्रकार शरीर, शरीर में वण, शरीर में गंड-गाँठ, अरइयं- दुःखदायी फोड़ा, पिडयं--पीड़ादायक घाव तथा भगन्दर, शरीर का स्वेद या मैल, आँख का मैल या कान का मैल या दाँत का मैल या नख का मैल, बढ़े हुए बाल, रोम, भ, के बाल, कांख के बाल, गुदा के बाल, शिर में से जू का या लीख आदि सम्बन्धी जिन-जिन क्रियाओं का वर्णन किया गया है---उन-उन क्रियाओं को साधु को गोद में या पलंग पर सुलाकर यदि कोई व्यक्ति-गृहस्थ करे तो साधु उनकी अभिलाषा न करे तथा न उन-उन क्रियाओं को करावे (सू ४६ से ७५)। यदि कोई व्यक्ति--गृहस्थ साधु को गोद में या पलंक पर सुलाकर हार, अर्द्रहार या वक्षहार, या गले का आभरण, या सुकुट-शिर का आभुषण या माला या सुवर्णसुत्त बांधे या पहरावे तो साधु इनकी अभिलाषा न करे और न करावे (सू ७६ )। ___ यदि कोई व्यक्ति-गृहस्थ साधु को उपवन या उद्यान में ले जाकर पैर आदि के सम्बन्ध में पूछने आदि की क्रियाएँ करे तो साध उनकी अभिलाषा न करे और न करावे (सू ७७)। यदि कोई व्यक्ति-गृहस्थ विद्या-मन्त्र के बल से या सचित्त कन्द या मूल या त्वचा या हरी वनस्पति को खोदकर, छेदकर, काटकर ग्लान साधु को चिकित्सा करे तो साधु उसकी अभिलाषा न करे और न करावे (सू ७८ ) ! ·११ अन्योन्य क्रिया:एवं ( परकिरियं सरिसं ) यवा अण्णमष्णकिरिया वि । - आया० श्रु २ । अ १४ । पृ० ८७ टीका-अन्योन्यं परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योन्योन्यक्रिया। पारस्परिक अर्थात् एक दूसरे के प्रति शरीर - अङ्गोपांग आदि सम्बन्धी दान-प्रतिदान की अभिलाषा से की गई क्रिया-- अन्योन्यक्रिया। इसी प्रकार परक्रिया की तरह अन्योन्य क्रिया के समग्र पाठ जान लेने चाहिए । "Aho Shrutgyanam" Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ क्रिया-कोश १२ भिक्षु और कृतक्रिया संपसारी कयकिरिए, पसिणाय तणाणि य । सागारियं च पिंडं च, तं विजं परिजाणिया ।। -सूयः श्रु २ । अ६ । गा १६ । पृ० १२३ टीका-कृता शोभना गृहकरणादि क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवमसंयतानुष्ठानप्रशंसनम् । कृता अर्थात् शोभा करनी, प्रशंसा करनी, गृहकरणादि क्रियाओं की अर्थात असंयतानुष्ठानों की प्रशंसा करना--कृतक्रिया । उक्त गाथा में साधु को गृहकौं-असंयतानुष्ठानों की प्रशंसा न करने का उपदेश दिया है। ६४.३ भिक्षु और अक्रिया :--. (क) से भिक्खू अकिरिए अलूमए अकोहे. जाव अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे । एस खलु भगवया अक्खाए संजय-विरय-पडिहय-पञ्चक्खाय-पावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए भवइ । -सूय० श्रु २ ! अ ४ । सू ५ ! पृ० १६६ प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थानों से विरत वह भिक्षु अक्रिय अर्थात् सर्व सावद्य क्रिया से रहित, अहिंसक, अकोधी यावत् अलोभी, उपशांत और परिनिवृत्त होता है। भगवान ने ऐसे संयमी को संयत, विरत, प्रतिहत्त-पापकर्म के प्रत्याख्यान सहित, अक्रिय, संवृत, एकांत पंडित कहा है । (ख) अकिरियं परियाणामि, किरियं उपसंपज्जामि । - आव० अ४ । पृ० ११६६ __ अक्रिया अर्थात दुष्टक्रिया का परित्याग करता हूँ तथा 'क्रिया अर्थात सदनुष्ठान क्रिया में समाचरण करता हूँ ! ६४४ भिक्षु और वैद्य की छेदन-क्रिया अणगारस्स गं भंते ? भावियप्पणो छ8छट्टेणं अनिक्खित्तेणं-जाव-आयावेमाणस तस्स णं पुरिच्छमेणं अवर्ल्ड दिवसं नो कपइ हत्थं वा पायं वा बाहं वा उरु वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, पञ्चच्छिमेणं से अवड्डू दिवसं कप्पइ हत्थं वा पायं "Aho Shrutgyanam" Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कौश ३२५ वा जाव - उरु वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, तस्स णं अंसियाओ लंवंति, तं चेव (च) वेज्जे अदक्खु ईसिं पाडेर पाडेला अंसियाओ छिंदेजा, से नूनं भंते ! जे छिंदर तस्स किरिया कज्जइ, जस्स छिज्जइ नो तस्स किरिया कज्जइ, गण्णत्थेगेणं धम्मंतरायणं । हंता, गोयमा ! जे छिंदर जाव धम्मंतराइएणं । --भग० श १६ । ३ । ४ । पृ० ७४३ छह-छह ( दो-दो दिन की तपस्या करते हुए ) के सपपूर्वक यावत् आतापना लेते हुए भावितात्मा अणगार को पूर्व भाग के दिनार्द्ध में ( प्रथम दो प्रहर तक ) हस्त अथवा पैर अथवा बाहु अथवा उरु- साथल को संकोच करना, फैलाना नहीं कल्पता है तथा पश्चिम भाग के दिनार्द्ध में हस्त अथवा पैर अथवा बाहु अथवा उरु साथल को संकोच करना, फैलाना नहीं कल्पता है । कायोत्सर्ग में स्थित उस अणगार की नासिका में लम्बमान अर्श को कोई वैद्य देखे तथा अर्श को देखकर उस अर्श का छेदन करने के लिए मुनि को भूमि पर गिरावे तथा गिरा कर उसके अर्श का छेदन करे तो उस वैद्य को क्रिया होती है; जिस साधु के अर्श को छेदा जाता है उस साधु को क्रिया नहीं होती है परन्तु धर्मान्तराय ( शुभ ध्यान का विच्छेद ) होता है । ६७ क्रियासंबंधी उपदेश : (क) णत्थि किरिया अकिरिया वा णेवं सन्नं निवेलए । अस्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सन्नं निवेसए || - सूय श्रु २ । अ ५ मा १६ क्रिया तथा अक्रिया नहीं है- ऐसी संज्ञा --- विचार नहीं रखना परन्तु क्रिया तथा अकिया है—ऐसा विचार रखना । यहाँ टीकाकार ने परिस्पन्दनात्मिका क्रिया का ग्रहण किया है और सांख्यों के आकाश की तरह सर्वव्यापी आत्मा में परिनिष्पदिका क्रिया नहीं होती है इसका निरसन किया है। (ख) किरियं च रोयए धीरे, अकिरियं परिवज्जए । उत्त० अ १८ । गा ३३ । पृ० १००७ धीर पुरुष क्रिया - सदनुष्ठान क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया दुष्टक्रिया का परित्याग करे | " Aho Shrutgyanam" Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ क्रिया-कौश • १८ जैनेतर ग्रन्थों में क्रिया के समतुल्य वर्णन [ जैनेतर ग्रन्थ का 'क्रिया' की अपेक्षा हम विस्तृत अध्ययन नहीं कर सके । पुस्तकों के शेष में शब्द सूची के अभाव में हमारे अनुसंधान में कमी रह गयी । महाभारत के शांति पर्व में हमें क्रिया संबन्धी उपर्युक्त पाठ नहीं मिला। गीता से हमने तीन पाठ लिये :] १ गीता में कर्मसंग्रह का कारण करण-क्रिया [ जिस प्रकार जैनदर्शन में किया—करण को कर्मबन्ध का निमित्त कहा गया है प्रायः उसी प्रकार गीता में करण क्रिया को कर्मसंग्रह का एक कारण बताया गया है । करणं कर्म कर्त्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः । - गीता० अ १८ श्लो०१८ | उत्तरार्ध शांकरभाष्य- करणं क्रियतेऽनेनेति बाह्य श्रोत्रादि, अन्तस्थं बुद्ध्यादि. कर्मेप्सिततमं कर्तुः क्रियया व्याप्यमानं कर्त्ता करणानां व्यापारयितोपाधिलक्षण इति त्रिविधस्त्रिप्रकारः कर्मसंग्रहः । संगृह्यतेऽस्मिन्निति संग्रहः कर्मणः संग्रहः कर्मसंग्रहः । करण अर्थात् जिससे क्रिया की जाती है । करण के दो भेद हैं- बाह्य और अन्तस्थ बाह्य किया श्रोत्रेन्द्रिय आदि से होती है तथा अन्तस्थक्रिया बुद्धि आदि से होती । इच्छापूर्वक जो क्रिया की जाय वह कर्म है ! बाह्य तथा अन्तस्थ करणों से व्यापार करता हुआ उपाधिलक्षण कर्त्ता है—इन तीनों से कर्म संग्रह होता है । २ गीता में सर्वारम्भपरित्यागी आत्मासर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ - गीता० अ १४ । श्लो २५ । उत्तरार्ध शांकरभाष्य - सर्वारम्भपरित्यागी दृष्टादृष्टार्थानि कर्माण्यारभ्यन्त इत्यारम्भाः सर्वानारम्भान्परित्यक्तुं शीलमस्येति सर्वारम्भपरित्यागी देहधारणमात्रनिमित्तव्यतिरेकेण सर्वकर्मपरित्यागीत्यर्थः । दृष्ट अदृष्ट अर्थों -- कर्मों को जो किया जाय-- वह आरंभ है। जिसका शील-धर्म सर्व आरम्भ परित्याग करने का है वह सर्वारम्भपरित्यागी । देह धारण निमित्त जो कर्म करने पड़े उनको छोड़कर सर्व कर्म आरम्भ का परित्याग करने वाला - सर्वारम्भपरित्यागी । '३ गीता में कर्मों से लिप्त न होनेवाली आत्मायोगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न "Aho Shrutgyanam" जितेन्द्रियः । लिप्यते ॥ -- गीता० अ ५ । श्लो ७ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३२७ शांकरभाष्य-सम्यग्दर्शनप्राप्त्युपायत्वेन योगेन युक्तो विशुद्धात्मा विशुद्धसत्वो विजितात्मा विजितदेहो जितेन्द्रियश्च सर्वभूतात्मभूतात्मा सर्वेषां ब्रह्मादीनां स्तम्बपर्यन्तानां भूतानामात्मभूत आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य स सर्वभूतात्मभूतात्मा । सम्यगदर्शीत्यर्थः । स तत्रैवं वर्तमानो लोकसंग्रहाय कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते । न कर्मभिर्बध्यत इत्यर्थः । _योगयुक्तो- सम्यग्दर्शन प्राप्ति के उपायरूप योग से युक्त, विशुद्धात्मा-विशुद्धसत्य-जीव, विजितात्मा-विजितदेह, जितेन्द्रिय, सर्वभूतों की चेतना जिसमें व्याप्त हो गई है ऐसा सम्यग्दर्शी जोव या आत्मा लोकसंग्राहक कर्म-क्रिया करता हुआ भी कमों से लिप्त-बद्ध नहीं होता है । '६६ क्रिया सम्बन्धी फुटकर पाठ६E १ क्रिया और स्याद्वाद स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं विना सकलाः क्रियाः । लोकद्वितयभाविन्यो, नैव साङ्गत्यमियूति ।। ---ठाणा० स्था १ । सू २ । टीका में उद्धृत उस स्यादवाद को नमस्कार हो जिस स्यादवाद के बिना दोनों लोकों में होनेवाली सर्व क्रियाओं की योग्य संगति नहीं बैठती है। 'EE२ क्रिया और आस्रवएगे आसवे। ठाण स्था १ । सू१३ । पृ० १८३ टीका में उद्धत इदिय, कसाय, अन्वय, किरिया पणच उरपंचपणुबीसा । जोगा तिन्नेव भवे, आसवभेया उ बायाला ॥ उपर्युक्त गाथा में क्रिया को आस्रव के ४२ भेदों में गिनाया गया है । आगम में, तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित क्रिया के २५ भेदों को आस्रव के ४२ भेदों में सम्मिलित किया गया है। '६६ ३ क्रिया और वेदना :-- पुस्विं भंते ! किरिया, पच्छा वेयणा ? पुच्विं वेयणा, पन्छा किरिया ? मंडियपुत्ता ! पुत्विं किरिया, पच्छा वेयणा । नो पुलिंब वेयणा, पच्छा किरिया। -भग० श ३ । उ ३ प्र७! पृ० ४५६ "Aho Shrutgyanam" Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ क्रिया-कोश पहले क्रिया होती है और पीछे वेदना होती है परन्तु पहले वेदना और पीछे किया होती है, यह बात नहीं है । टीका—उक्ताः क्रियाः, अथ तज्जन्यं कर्म, तद्वदनां चाधिकृत्य आह -- 'पुठवं भंते !' इत्यादि। क्रिया करणम्, तज्जन्यत्वात् कर्म अपि क्रिया, अथवा क्रियत इति क्रिया-कर्म एव । वेदना तु कर्मणोऽनुभवः, सा च पश्चादेव भवति, कर्मपूर्वकत्वात् तदनुभव( न )स्य इति । यहाँ क्रियाजन्य कर्म और कर्मजन्य वेदना के सम्बन्ध में कथन किया गया है। जो की जाय उसे क्रिया कहते हैं, क्रिया से कर्म उत्पन्न होता है अतः जन्य और जनक में अभेद की विवक्षा करने से कर्म को भी क्रिया कहा जाता है। अथवा यहाँ क्रिया शब्द का अर्थ कर्म है। कर्म के अनुभव को वेदना कहते हैं। कर्म के बाद वेदना होती है क्योंकि कर्मपूर्वक ही वेदना होती है। कर्म का सद्भाव पहले होता है और उसके बाद वेदना ( कर्म का अनुभव ) होती है । ६६.४ क्रिया और दुःख :-- ( अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव एवं पकवंति ) जा सा पुग्विं किरिया दुक्खा, कजमाणी - किरिया अदुक्खा, किरियासमयवितिक्कतं च णं कडा किरिया दुक्खा । जा सा पुव्विं किरिया दुक्खा, कजमाणी किरिया अदुक्खा, किरियासमयवितिकतं च णं कडा किरिया दुक्खा । सा कि करणओ दुक्खा, अकरणओ दुक्खा ? अकरणो णं सा दुक्खा, नो खलु सा करणओ दुक्खा, सेवं वत्तव्वं सिया । xxx गोयमा! जंणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव xxx वत्तव्वं सिया। जे ते एवं आहिंसु, मिच्छा ते एवं आहिंसु। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्वामि xxx पुव्वं किरिया अदुक्खा | जहा भासा तहा भाणियव्वा ( कजमाणी किरिया दुक्खा, किरियासमयवितिकतं च णं कडा किरिया अदुक्खा ) किरिया वि जावकरणओ णं सा दुक्खा, नो खलु सा अकरणओ दुक्खा, सेवं वत्तव्वं सिया। -भग० श १ । उ १० । प्र ३१४, ३१५, ३१७, ३२३ । पृ० ४१४-१५ करने से पहले क्रिया दुःख का कारण नहीं है, को जाती हुई क्रिया ही दुःख का कारण है, किया का समय व्यतिकांत होने के बाद की कृतक्रिया दुःख का कारण नहीं है । "Aho Shrutgyanam" Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३२६ किया करने से ही वह दुःख का कारण है, नहीं करने से वह दुःख का कारण नहीं है। ऐसा भगवान महावीर कहते है तथा इसके विपरीत अन्यतीर्थी जो कहते हैं वह मिथ्या है । दE५ क्रिया और गुणस्थान .१ गुणस्थान और आरंभिकी क्रियापंचक :-- (देखो कमांक ६५.५) '२ गुणस्थान और कायिकी क्रियापंचक कायिकी क्रियापंचक आरंभिकी क्रिया का ही विश्लेषण है। अतः जिनको आरंभिकी क्रिया होती है उनको कायिकी क्रियापंचक में से कदाचित् तीन, कदाचित चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती हैं। आरंभिकी क्रिया प्रथम गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक होती है अतः इन छः गुणस्थानवी जीवों के कायिकी क्रियापंचक में से कदाचित तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती हैं। छठे के उत्तरवर्ती गुणस्थानों में कायिकी क्रियापंचक की कोई भी क्रिया नहीं होती है। '३ गुणस्थान और जीव की सक्रियता-अक्रियता :जीवा णं भंते ! कि सकिरिया-अकिरिया ? xxx ( देखो पूरे पाठ के लिये क्रमांक ८१.१ ) टोका-तत्र ये असंसारसमापन्नकारते सिद्धाः, सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभावतोऽक्रियाः, ये तु संसारसमापन्नकास्ते द्विविधाः शैलेशीप्रतिपन्नका अशैलेशी प्रतिपन्नकाश्च,शैलेशी नामायोग्यवस्था तां प्रतिपन्नाः शैलेशीप्रतिपन्नाः, ततः पूर्ववत् स्वार्थिकः कप्रत्ययः, शैलेशोप्रतिपन्नकाः, तद्व्यतिरिक्ताः अशैलेशीप्रतिपन्नकाः, तत्र ये शैलेशीप्रतिपन्नकास्ते, सूक्ष्मबादरकायवाङ्मनोयोगनिरोधादक्रियाः, ये त्वशैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सयोगित्वात् सक्रियाः। सिद्ध देह तथा मन की वृत्ति के अभाव में अक्रिय होते हैं। प्रथम गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक के जीव किसी न किसी अपेक्षा से सक्रिय होते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान की शैलेशी नामक अयोगी अवस्था में प्रतिपन्न जीव . सूक्ष्म-बादर--काय-वचन-मन-योग के निरोध से अक्रिय होते हैं । ४२ "Aho Shrutgyanam" Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३३० *६६६ क्रिया और ज्ञान : ते एवमक्खति समिच लोगं, तहा तहा समणमाहणा य । सयं कडं णन्नकडं च दुक्खं, आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥ - सूय० श्रु १ । अ १२ । गा ११ | पृ० १२८ टीका - आहंसु विज्जाचरणं पमोक्ख' ति, न ज्ञाननिरपेक्षायाः क्रियायाः सिद्धिः, अंधस्येव, नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पङ्गोरित्यव । xxx तद्यथा - विद्या-ज्ञानं, चरणं चारित्रं क्रिया, तत्प्रधानो मोक्षस्तमुतावतो, न ज्ञानक्रियाभ्यां परधरनिरपेक्षाभ्यामिति तथा चोक्तम् क्रिया च सज्ज्ञानवियोगनिष्फलां, क्रियाविहीनां च विबोधसम्पदम् । निरस्यता क्लेशसमूहशान्तये, त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥ अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचित्यतामौषधमातुरं हि, न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥ सूय ० श्रु १ । अ १२ । सू ११, १७ । टीका लोक में कई व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि ज्ञानमात्र से मुक्ति होती है और कई व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि ज्ञान बिना भी क्रिया करने से मुक्ति होती है लेकिन श्रमण निर्ग्रथ भगवान् महावीर ने विद्या - ज्ञान और चरण - चारित्र – क्रिया -- दोनों के संयोग से मुक्ति होना कहा है । ज्ञाननिरपेक्ष क्रिया से सिद्धि नहीं होती है-- जैसे, अंधा मनुष्य अकेला गंतव्य स्थल को प्राप्त नहीं कर सकता है तथा क्रिया-विहोन ज्ञान मात्र से सिद्धि नहीं हो सकती है यथा, पंगु मनुष्य अपने गंतव्य स्थान को नहीं पहुँच सकता है । सद् -- सम्यग् ज्ञान के बिना क्रिया निष्फल होती है तथा क्रिया-विहीन ज्ञान भारभूत है - जैसे औषधि के ज्ञान मात्र से रोगी को कोई लाभ नहीं होता है औषधि के चिंतन मात्र से रोग दूर नहीं होता है उसी प्रकार क्रिया के बिना ज्ञान व्यर्थ है तथा सद्ज्ञान रहित क्रिया भी व्यर्थ है । अतः भगवान् ने उपदेश दिया है कि सम्यग् ज्ञान और सम्यग् क्रिया के युगल से जीव को मुक्ति होती है । "Aho Shrutgyanam" Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३३१ "EE ७ क्रिया और दशन :-- निसग्गुवएसरुई, आणाई सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थारुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई ॥ दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सच्चसमइगुत्तीसु। जो किरियाभावरुई, सो खलु किरियाई नाम ।। - उत्त० अ २८ ! गा १६, २५ । पृ० १०२६ सम्यक्त्व के १० भेदों में क्रियारूचि भी एक भेद है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति तथा गुप्ति रूप क्रियाओं से ही जिसकी रुचि सद्-पदार्थों में होती है वह कियारुचि सम्यक्त्व है। १६८ क्रिया और ध्यान काययोगस्य सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति । -तत्त्वराज अह । सू ४० । टीका सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति । तदस्तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिध्यानमारभते । समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगसर्वप्रेदेशपरिस्पंदक्रियाव्यापारत्वात समुच्छिन्नक्रियानिवर्तीत्युच्यते । --तत्त्वराज० अ६ 1 सू ४४ 1 टीका - तेरहवें गुणस्थान की शेष अवस्था की तरफ सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म क्रियाऽतिपाति शुक्लध्यान ( तीसरा पाद) होता है। इस अपेक्षा से उस समय भी जीव सक्रिय होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि इसके पूर्व के सब ध्यानों में भी जीव सक्रिय होता है क्योंकि उस समय योग-चलना इसकी तुलना में अधिकतर होती है। सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यान के बाद समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान (चौथा पाद) आरंभ होता है तथा इसके द्वारा प्राणापान--श्वासोच्छ्वास का प्रचार (आवागमन) बंद तथा समस्त काय-वचन-मन-योग का निरोध हो जाता है तथा सर्व आत्मप्रदेश की परिस्पदन क्रिया रुक जाती है और क्रिया और योग के अन्यापार से जीव अयोगी तथा अक्रिय हो जाता है। शुक्लध्यान के तीसरे ध्यान (पाद) में सूक्ष्म काययोग का सहयोग होता है लेकिन चौथे ध्यान (पाद) में सर्व क्रियाएँ समुच्छिन्न-व्युच्छिन्न हो जाती हैं। चौथे ध्यान में निमग्न जीव क्रिया रहित होता है। तीसरे ध्यान वाला जीव सूक्ष्मकायिक क्रिया सहित होता है। "Aho Shrutgyanam" Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ क्रिया - कोश ६६६ क्रिया और अहिंसा महाव्रत की भावना अहावरा दोचा भावणा, मणं परिजाणाइ से णिग्गंथे, जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्यकरे छेयकरे भेयकरे अधिकरणिए, पाओसिए, परिताविए पाणाश्वाइए, भूओवधाइए तहप्पगारं मणं णो पधारेज्जा, मणं परिजाणार से णिग्गंथे जे य मणे अपावए त्ति दोच्चा भावणा । 1 अहावरा तच्चा भावणा, वह परिजाणाइ से णिग्गंथे जा य वई पाविया सावज्जा सकिरिया जाव भूओवघाइया तहध्वगारं नई णो उच्चारिज्जा, जे वई परिजाणाइ से णिग्गंथे जा य वई अपावियत्ति तथा भावणा । 2 - आया० श्रु २ । अ १५ । स ४५-४६ । पृ० ६५ महाव्रती - संयति कायिकी, अधिकरणिकी आदि क्रियाओं से मन को सक्रिय न करे अर्थात् मन को इन क्रियाओं में प्रवृत्त न होने दे । कायिकी, अधिकरणिकी आदि क्रियाओं से वचन को सक्रिय न करे अर्थात् क्रिया करने वाले शब्दों का उच्चारण न करे । हमने यहाँ अर्थ क्रिया की अपेक्षा से किया है । *६६१० क्रिया और काल 'वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य । -तत्त्व० अ ५ / सू. २२ वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व काल के उपकार हैं । द्रव्यों में क्रिया का होना काल का उपकार है । सर्व० टीका - क्रिया परिस्पन्दात्मिका । यह क्रिया परिस्पन्दात्मिका होती है, अर्थात् द्रव्यों में जो परिस्पन्दन रूप परिणमन होता है वह क्रिया है । पर्यायो *६६ ११ क्रिया और परिणाम (क) सर्व ० टीका- द्रव्यस्य धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः । जीवस्य क्रोधादिः पुद्गलस्य वर्णादिः । धर्माधर्माका - शानामगुरुलघुगुणवृद्धिहा निकृतः । क्रिया परिस्पन्दात्मिका । -तत्त्व अ ५ । सू २२ एक धर्म की निवृत्ति होकर दूसरे धर्म की उत्पत्तिरूप परिस्पन्दन रहित जो द्रव्य की पर्याय होती है उसे परिणाम कहते हैं । यथा - जीव का क्रोधादि भावों में पुद्गल का वर्णादि में तथा धर्म-अधर्म आकाश का अगुरुलघु गुण में परिणमन करना । "Aho Shrutgyanam" Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३३३ क्रिया परिस्पन्दन रूप होती है। परिणाम अपरिस्पन्दन रूप है, क्रिया परिस्पन्दन रूप होती है। तत्त्वभाष्य -- आ आकाशादेव धर्मादीनि निष्क्रियाणि भवन्ति । पुद्गलजीवास्तु क्रियावन्तः। -तत्त्व० अ५ । सू६ धर्म-अधर्म-आकाश क्रिया-रहित होते हैं तथा जीव और पुद्गल क्रियावाद होते हैं। (ख) क्रिया परिस्पन्दात्मिका द्विविधा ।।१६।। द्रव्यस्य द्वितयनिमित्तवशात् उत्पद्यमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यवसीयते । सा द्विविधा पूर्ववत् प्रयोगविस्रसानिमित्ता । प्रायोगिकी शकटादीनाम् । विनसानिमित्ता मेघादीनाम् । स्थितिग्रहणमिति चेत् ; न ; परिणामावरोधात् ।। २० ॥ ___ स्यादेतत् -- यदि परिस्पन्दात्मिका क्रिया इत्युच्यते स्थितेग्रहणं प्राप्नोति । गतिनिवृत्तिर्हि स्थितिरिति, तन्न ; किं कारणम् ? परिणामावरोधात्। स्थितिहि परिणामेऽन्तर्भवति । परिणामग्रहणमेवास्ते इति चेत् ; न ; भाववैविध्यख्यापनार्थत्वात् ॥२१॥ स्यान्मतम्- यथा स्थितिः परिणामेऽन्तर्भवति तथा क्रियापि तत्रैवावरुध्यते इति परिणामग्रहणमेवैकमस्तु इति, तन्न ; किं कारणम् ? भावविध्यख्यापनार्थत्वात् । द्रव्यस्य हि भावो द्विविधः-परिस्पन्दात्मकः, अपरिस्पन्दात्मकश्च। तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः, इत्येतत् ख्यापनार्थ पृथगग्रहणम् । -तत्त्वराज 1 अ ५ । सू १६ से २२ । पृ० ४८१ बाह्य और आभ्यंतर निमित्तों से द्रव्य में जो परिस्पन्दात्मक परिणमन होता है उसे क्रिया कहते है । वह प्रायोगिक और वैनसिक दो प्रकार की होतो है। गाड़ी आदि की क्रिया प्रायोगिकी है तथा मेघादि की क्रिया वैससिकी है । यहाँ एक प्रश्न उठता है कि स्थिति रूप परिणमन का यदि परिणाम में अन्तर्भाव होता है तो क्रियारूप परिणमन का भी उसी में अन्तर्भाव हो सकता है और ऐसी स्थिति में केवल परिणाम का ही निर्देश करना चाहिए। समाधान में कहा गया है कि द्रव्य के परिस्पंदात्मक तथा अपरिस्पंदात्मक दो भाव होते हैं तथा इन दोनों प्रकार के भावों की सूचना के लिए क्रिया का पृथक् ग्रहण करना आवश्यक है। अस्तु परिस्पंदन क्रिया है तथा अपरिस्पंदात्मक भाव-परिणाम है। "Aho Shrutgyanam" Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश '६६ १२ ऐपिथिक क्रिया और सावध --- __'सूयगडांग' सूत्र में क्रियास्थान अध्ययन में १३वें क्रियास्थान में ऐापथिक क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकारने सूत्र के अन्त में निम्नलिखित वाक्यों का प्रयोग किया है। 'सा पढमसमए बद्धा-पुट्ठा, बितीयसमए वेश्या, तइयसमए निजिण्णा सा बद्धा-पुट्ठा-उदीरिया-वेश्या सेयकाले अकम्मे यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजति आहिज्जइ ।' ---सूय श्रु० २ । अ २ । सू १४ । पृ० १४६ उपयुक्त पाठ में ऐयोपथिक क्रिया से तत्प्रत्ययिक होने वाले सावध का उल्लेख है । 'एवं खलु तस्स तप्पतियं, 'सावज' ति आहिज्जई' में 'सावज" शब्द का प्रयोग हमारी समझ में नहीं आया, लेकिन प्रकाशित अनेक प्रतियों का अवलोकन करने पर भी सर्वत्र 'सावज' शब्द मिला। खोज करने पर हमने सुना कि कतिपय हस्तलिखित प्रतियों में 'सावज्ज' शब्द बाद दिया हुआ है लेकिन उसके स्थान पर वाक्यपूर्ति के लिए किसी अन्य शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। हमारे मन में आया कि स्याद्वादी होने के कारण सूत्रकार ने 'सावज' शब्द का प्रयोग किसी विशेष दृष्टि या नय की अपेक्षा ही किया होगा । सामान्यतः 'सावद्य' का अर्थ पाप या पापकर्म का बंधन के भाव में लिया जाता है तथा ऐपिथिक क्रिया से सातावेदनीय पुण्य कर्म का बंधन होता है। १२ क्रियास्थानों में जिनसे पापकर्म का बंधन होना निश्चित है उनमें भी 'एवं खलु तस्स तप्पत्तियं 'सावज्ज' ति आहिज्जइ' वाक्य का प्रयोग है। अतः ऐपिथिक क्रिया के साथ पाप या पापकर्म बंधन अर्थ वाले 'सावद्य' शब्द का प्रयोग हमें अनुपयुक्त लगा। हम अनुसंधान के कार्य के लिए आवश्यक सूत्र की मलय गिरि टीका का अध्ययन कर रहे थे उसमें 'सावजजोगविरो ' शब्द पर हमारी दृष्टि टिकी। हमने इस शब्द की टीका पढनी आरंभ की। इसमें, भिन्न-भिम्न नयों की अपेक्षा 'सावजजोगविरओ' की टीका की गयी है। इसमें 'एवंभूतनय से साक्द्य शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है। 'अवध कर्मबंधः, सहावद्य यस्य येन वा स सावद्यः।' अतः अवद्य का यदि केवल कर्म अर्थ लिया जाय तो ऐपिथिक क्रिया के साथ 'सावद्य' शब्द के प्रयोग में कोई बाधा नहीं आती है क्योंकि इस क्रिया से भी दो समय की स्थिति वाले कर्म का बंधन होता है। सावज्जजोगविरओ, तिगुत्तो छसु संजओ। उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइअं होइ ।।१४६॥ (मू० भा०) टीका–xxx एवंभूतो वदति-xxx। सावद्ययोगविरतो नाम अवद्यकर्मबंधः, सहावद्य यस्य येन वा स सावद्यः। योगो व्यापारः सामर्थ्यवीर्यमित्येकार्थ, “जोगो विरियं थामो उच्छाहपरक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थं चिय जोगस्स हवंति पजाया ॥१॥” इति वचनात, सावद्यश्चासौ योगश्च सावद्ययोगस्तस्मात् "Aho Shrutgyanam" Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३३५ विरतः -प्रतिनिवृत्तः सावधयोगविरतो, ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिज्ञातसमस्तसावद्ययोगः, किमुक्त भवति ?-निरुद्धसूक्ष्मबादरमनोवाक्कायव्यापारो विगतक्रियानिवर्तिध्यानमधिरूढः शैलेशीप्रतिपन्नो नामात्मा सामायिकमिति, एवं चाप्रमत्तसंयतादीनां व्यवच्छेदः, तेषां मनोवाक्कायव्यापारवत्तया सावद्ययोगपरिकलितत्वात्, 'नथि हु सक्किरियाणं अबंधगं किंचि इह अणुट्ठाण' मिति वचनात् । -आव० आ १। सू१ । टीका एवंभूतनय के अनुसार 'सावज्जजोगविरओ' शब्द का अर्थ करते हुए टीकाकार कहते है कि अवद्य अर्थात कर्म का बंध। जो कर्म के बंध सहित हो वह सावध, योग अर्थात व्यापार-सामर्थ्य वीर्य आदि । जिसका योग सावद्य हो वह सावद्ययोग तथा उससे निवृत्त सावद्य योगविरत । जपरिज्ञा से-प्रत्याख्यानपरिज्ञा से समस्त सावध योग का परिज्ञान होता है। इस सावद्य-योग की विरति कहाँ होती है? इस प्रश्न के उत्तर में टीकाकार कहते हैं कि जिनके सूक्ष्म-बादर मनो-वचन-काय के व्यापार निरुद्ध हो गये हैं समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति ध्यान में अधिरूढ़ हैं और जो शैलेशीत्व को प्राप्त हो गये हैं उनकी आत्मा सावद्ययोगविरत-सामायिक होती है। __इस परिभाषा से अर्थात् कर्मबंध की परिभाषा से अप्रमत्त संयत आदि का भी व्यवच्छेद हो जाता है ! उनके मनोवाक्काय के व्यापार होने के कारण उनमें सावद्य योग की परिकल्पना होती है क्योंकि कोई भी सक्रिय जीव कर्म का अबंधक नहीं होता है । सावद्य की परिभाषाएँ--- (क) अवद्य-पापं सहावद्य न यस्य येन वा स सावद्यः। --आव० आ १ } सू १ । मलय टीका पृ० ५५६ (ख) अवयं-मिथ्यात्वकषायनोकषायलक्षणं, सह अवद्य यस्य येन वा स सावद्यः ( मूल टीकानुसारेण व्याख्या)। ---आव० मलय टीका उक्त : मुलभाष्य गा १४६ (ग) एवंभूतो वदति) xxx। अवद्य-कर्मबंधः सहावद्य यस्य येन वा स सावद्यः। -आव० मलय टीका उक्त : मूलभाष्य गा १४ (घ) तस्यावा तस्य कर्मापचये —सूय० श्रु १ । अ १ । उ २ ! सू २५ । टीका '६६ १३ कर्म, क्रिया, आस्रव और वेदना की चौपदी १ अग्निकाय की अपेक्षा अगणिकाएणं भंते ! अहुणोजलिए समाणे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियमहासव-महावेयणतराए चेव भवइ ; अहे णं समए समए वोक्कसिन्जमाणे योक्कसिज "Aho Shrutgyanam" Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ क्रिया-कोश माणे चरिमकालसमयंसि ईगालब्भूए, मुम्मुरब्भूए, छारियम्भूए, तओ पच्छा अपकम्मतराए चेव अप्पकिरिया ऽऽव-अप्पवेयणतराए चेव भवइ ? हंता ; गोयमा ! अगणिकाए णं अहुणोजलिए समाणे तं चेव । -भग० श ५। उ ६ । प्र६ । पृ० ४८१ तत्काल प्रज्वलित हुई अग्निकाय महाकर्म वाली, महाकिया वाली, महानव वाली, महावेदना वाली होती है। समय-समय बुझती हुई-चरम समय में अंगार रूप मुर्मुर रूपराख हो जाती है तब वह अग्निकाय अल्प कर्मवाली, अल्प क्रियाबाली, अल्प आस्रववाली, अल्प वेदनावाली होती है। विश्लेषण :-सद्यः प्रज्वलित अग्निकाय बहुत कर्मों का बंधन करती है अत: महाकर्म वाली होती है ; उस अग्निकाय की दाहक्रिया तीव्र होती है जिससे बहुत पृथ्वीकायिकादि जीवों का समारंभ होता है अतः महा क्रिया वाली होती है ; वह अग्निकाय बहुत नये कौं का उत्पादन हेतु होने के कारण महा आस्तववाली होती है तथा पारस्परिक शरीर-संघात से उत्पन्न होने वाली महान पीड़ा के कारण वह महावेदना वाली होती है। . इसी प्रकार बुझती हुई अग्निकाय की दाह क्रिया की तीव्रता ह्रास पाती रहती है अतः वह क्रमशः अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प आस्रव, अल्पवेदना वाली होती जाती है तथा सर्व शेष में दाह-प्रक्रिया समाप्त होकर-सर्वथा बुझकर राख में परिणत हो जाती है तब टीकाकार के अनुसार एस राख रूप अग्निकाय के कर्म, क्रिया, आस्रव, वेदना का अभाव हो जाता है। .२ महाकर्म-क्रिया-आस्रव-वेदनावाले जीव की अपेक्षा से गूणं भंते ! महाकम्मस्स, महाकिरियरस, महासवयस्स, महावेयणस्स, सठवाओ पोग्गला बझंति, सव्वओ पोग्गला चिजति सव्वओ पोग्गला उवचिज ति; सया समियं पोग्गला बझति, सया समियं पोग्गला चिजति, सया समियं पोग्गला उवचिज ति; सया समियं च णं तस्स आया दुरूवत्ताए, दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ताए, दुरसत्ताए, दुफासत्ताए, अणिस्ताए, 'अकंत-अप्पिय-असुभ-अमणुण्ण-श्रमणामत्ताए, अणच्छियत्ताए, अभिज्झियत्ताए, अहत्ताए–णो उद्धृत्ताए, दुक्खत्ताए--णो सुहत्ताए भुजो-भुज्जो परिणमंति। हंता गोयमा । महाकम्मस्स तं चेव । से केण?णं ? गोयमा ! से जहाणामए वत्थस्स अहयस्स वा, धोयस्स वा, तंतुग्गयस्स वा आणुपुत्वीए परिभुज्जमाणस्स सव्वओ पोग्गला बज्झति, सव्वओ पोग्गला चिज ति जाव–परिणमंति, से तेण?णं। -भग० श ६ । उ ३ । प्र१-२ । पृ० ४६२-४६३ "Aho Shrutgyanam" Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश ३३७ महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महास्रव वाले और महावेदना वाले जीव के सर्वतः अर्थात् सभी ओर से और सभी प्रकार से पुद्गलों का बंध होता है, सर्वतः पुद्गलों का चय होता है, सर्वतः पुद्गलोंका उपचय होता है; सदा निरंतर पुद्गलों का बंध होता है, सदा निरन्तर पुद्गलों का चय होता है, सदा निरन्तर पुद्गलों का उपचय होता है; सदा निरंतर उसकी आत्मा दुरूपपन में, दुर्वर्णपन में, दुर्गंधपन में, दु:रसपन में दुःस्पर्शपन में, अनिष्टपन में, अकान्तपन में, अप्रियपन में, अशुभपन में, अमनोज्ञपन में, अमनापन में ( मन से भी जिसका स्मरण न किया जा सके ) अनीप्सितपन में ( अनिच्छितपन में ) अभीध्यितपन में (जिसको प्राप्त करने के लिए लोभ न हो ) जधन्यपन में, अनुर्ध्वपन में, दुःखपन में और असुखपन में बार-बार परिणत होती है । जैसे कोई अहत (अपरिभुक्त) जो नहीं पहना गया है, धौत ( पहन करके भी धोया हुआ ), तन्तुगत (मशीन पर से तुरन्त उतरा हुआ ) वस्त्र अनुक्रम से काम में लिया जाने पर, उसके पुद्गल सर्वतः बंधते हैं, सर्वतः चय होते हैं यावत् कालान्तर में वह वस्त्र मैला और दुर्गंध मय हो जाता है; उसी प्रकार महाकर्म- महाक्रिया महाआस्रव - महावेदना वाला जीव उपर्युक्त रूप से अप्रशस्त परिणामों को प्राप्त होता है । ·३ अल्प कर्म - क्रिया- आस्रव वेदना वाले जीव की अपेक्षा सेणू भंते! अप्पाssसवस्स, अप्पकम्मस्स, अप्प किरियरस, अप्पवेयणस्स सव्वओ पोग्गला भिज्जति, सव्वओ पोग्गला छिज्जति, सव्वओ पोग्गला विद्धंसंति, सव्वओ पोग्गला परिविद्धसंति ; सया समियं पोग्गला भिज्जंति, सव्वओ पोग्गला बिज्जति, विद्धस्संति, परिविद्धस्संति, सया समियं च णं तस्स आया सुरुवत्ताए पत्थ यव्वं, जाव - सुहत्ताए – णो दुक्खत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ? हंता, गोयमा ! जाव परिणमति । से के ? गोयमा ! से जहा णामए वत्थस्स जल्लियस्स वा पंक्रियस्स वा मइल्लियस्स वा इलियरस वा आणुपुवीए परिकम्मिज्जमाणस्स सुद्धेणं वारिणा घोव्वैमाणस्स सव्वओ पोग्गला भिजंति, जाव परिणमंति, से तेणट्टणं । -भग० श ६ । उ ३ । प्र ३, ४ पृ० ४६३ यह निश्चित है कि अल्प आस्रववाले, अल्प कर्मवाले, अल्प क्रियावालें तथा अल्प वेदना वाले जीव के सर्वतः पुद्गल भेद होते हैं, सर्वतः पुद्गल छेद होते हैं, सर्वतः पुद्गल विध्वंस होते हैं, सर्वतः पुद्गल परिविध्वंस होते हैं ; सदा निरन्तर पुद्गल भेद होते हैं ; सदा निरन्तर पुद्गल छेद होते हैं, विध्वंस होते हैं, परिविध्वंस होते हैं; सदा निरन्तर उसकी "Aho Shrutgyanam" Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ क्रिया-कोश आत्मा सुरूपपन में, सुवर्ण पन में, सुगन्धपन में, सुरसपन में, इष्टपन में, कान्तपन में, मनोज्ञपने में, मनामपन में, इप्सितपन में, उत्कृष्टपन में, ऊर्ध्वपन में, अदुःखपन में, सुखपन में बारम्बार परिणत होती है। जिस प्रकार कोई मलिन, कादा लगा हुआ, मैला कुचैला, धूल से भरा वस्त्र हो, उसको क्रमशः शुद्ध करने पर और शुद्ध पानी से धोनेपर उसपर लगे हुए मैल के पुद्गल सर्वतः भेद होते हैं, छेद होते हैं यावत् सुपरिणाम में परिणत होते हैं उसी प्रकार अल्पास्त्रव-अल्प कर्म अल्प क्रिया-अल्पवेदना वाला जीव उपर्युक्त प्रकार से प्रशस्त परिणामों को प्राप्त होता है। ४ अग्नि जलाते-बुझाते पुरुष की अपेक्षा :-- दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं अगणिकायं समारंभंति तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उजालेइ एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावे, एएसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेयणतराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अष्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव ? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिसे मद्दाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेझ से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-तत्थ णं जे से पुरिसे जाव अप्पवेयणतराए चव ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारंभइ, बहुतरागं आउकायं समारंभइ, अप्पतरायं तेउकायं समारंभइ, बहुतरागं वाउकायं समारंभइ, बहुतरायं वणस्सइकायं समारंभइ, बहुतरागं तसकायं समारंभइ, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारंभइ, अप्पतरागं आउक्कायं समारंभइ, बहुतरागं तेउक्कायं समारंभइ, अप्पतरागं वाउकायं समारंभइ, अप्पतरागं वणस्सइकायं समारंभई, अप्पतरागं तसकायं समारंभइ से तेण?णं कालोदाई ! जाव अप्पवेयणतराए चेव ।। ---भग० श ७ । उ १० । प्र६ | पृ० ५२६ दो सरीखे पुरुष ( समान वय, समान शक्ति ) समान भांड, पात्रादि उपकरण वाले है, वे पुरुष यदि परस्पर एक साथ अग्निकाय का समारंभ करते हैं और उनमें से एक अग्निकाय को जलाता है तथा दूसरा अग्निकाय को बुझाता है तो अग्निकाय को जलाने वाला पुरुष महाकर्म वाला, महा क्रिया वाला, महास्रव वाला तथा महा वेदना वाला "Aho Shrutgyanam" Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३३६ होता है तथा अग्निकाय को बुझाने वाला पुरुष अल्पकर्म वाला, अल्पक्रिया वाला, अल्प आस्रववाला तथा अल्प वेदनावाला होता है क्योंकि जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है वह पुरुष बहुत पृथ्वीकाय का समारंभ करता है, बहुत अपकाय का समारंभ करता है, थोड़ी अग्निकायका समारंभ करता है, बहुत वायुकाय का समारंभ करता है, बहुत वनस्पतिकाय का समारंभ करता है तथा बहुत त्रसकाय का समारंभ करता है तथा जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है वह थोड़ी पृथ्वीकाय, थोड़ी अपकाय, थोड़ी वायुकाय, थोड़ी वनस्पतिकाय, थोड़ी सकाय का तथा अधिक अग्निकाय का समारंभ करता है अतः जलाने वाले पुरुष को महाकर्म वाला इत्यादि कहा गया है तथा बुझाने वाले पुरुष को अल्पकर्मवाला इत्यादि कहा गया है। ५ नारकी जीवों में चौपदी की अपेक्षा तुलना :--- अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवी पंच अणुत्तरा महइमहालया जाव अपइट्ठाणे xxx तेसु णं नरएसु नेरइया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेयणतरा चेव, नो तहा अप्पकम्मतरा चेव, नो अप्पकिरियतरा चेव, नो अप्पकम्मतरा चेव नो अप्पकिरियतरा चेव, नो अप्पासवतरा चेव, नो वेयणतरा चेव xxx छट्ठीए णं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पन्नत्तेxxx तेसु णं नरएसु नेरझ्या अहेसत्तमाए पुढवीए नेर इएहितो अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेयणतरा चेव, नो तहा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, नो महावेयणतरा चेव । xxx। तेसु णं नरएसु नेरइया पंचमाए पुढवीए नेरइएहिंतो महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेयणतरा चेव, नो तहा अपकम्मतरा चेव, नो अप्पकिरियतरा चेव, नो अप्पासवतरा चेव, नो अप्पवेयणतरा चेव xxx एवं जहा छट्ठीए भणिया एवं सत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णंति–जाव-.. रयणप्पभत्ति xxx1 -भग० श १३ । उ ४ । प्र २ । पृ० ६८२ सातवीं नारको के नरकावासों में स्थित नारकी जीव छछी तमप्रभा पृथ्वी के नारकी जीवों की अपेक्षा महाकर्म वाले, महा क्रिया वाले, महास्रव वाले, महावेदना वाले होते हैं परन्तु अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्पास्त्रववाले, अल्पवेदना वाले नहीं होते हैं । छट्टी तमप्रभा नारकी के नरकावासों में स्थित नारकी जीव सातवी नारकी के नारकी जीवों की अपेक्षा अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्पालव वाले, अल्पवेदनावाले "Aho Shrutgyanam" Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० क्रिया-कोश होते हैं परन्तु महाकर्म वाले, महा क्रिया वाले, महात्रव वाले, महावेदना वाले नहीं होते हैं। छट्ठी तमप्रभा नारकी के नरकावासों में स्थित नारकी जीव पाँचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नारकी जीवों की अपेक्षा महाकर्म वाले, महा क्रिया वाले, महास्रव वाले, महावेदना वाले होते हैं परन्तु अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्पास्त्रव वाले, अल्पवेदना वाले नहीं होते है। ___इसी प्रकार पाँचवीं पृथ्वी के नारकी जीवों की छही पृथ्वी के नारकी जीवों के साथ तथा पाँचवों पृथ्वी के नारकी जीवों की चौथी पृथ्वी के नारकी जीवों के साथ ; इसी प्रकार चौथी पृथ्वी के नारकी जीवों की पाँचवीं पृथ्वी के नारकी जीवों से तथा चौथी पृथ्वी के नारकी जीवों की तीसरी पृथ्वी के नारकी जीवों से, इसी प्रकार तीसरी पृथ्वी के नारकी जीवों की चौथी पृथ्वी के नारकी जीवों से तथा तीसरी पृथ्वी के नारकी जीवों की दूसरी पृथ्वी के नारकी जीवों से ; दूसरी पृथ्वी के नारकी जीवों की तीसरी पृथ्वी के नारकी जीवों से तथा दूसरी पृथ्वी के नारकी जीवों की पहली पृथ्वी के नारकी जीवों से ; पहली पृथ्वी के नारकी जीवों की दूसरी पृथ्वी के नारको जीवों से--तुलना करनी चाहिए। ६ मायिमिथ्यादृष्टि तथा अमायिसम्यग्दृष्टि जीवों की अपेक्षा : दो भंते ! नेरझ्या एगंसि नेरइयावासंसि नेरइयत्ताए उववन्ना, तत्थ णं एगे नेरइए महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव, एगे नेरइए अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव; से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमा! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगा य अमायिसम्मदिट्ठिउववन्नगा य । तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिट्ठि उववन्नए नेरइए से णं महाकम्मतराए चेव जाव- महावेयणतराए चेव ; तत्थ गंजे से अमायिसम्मदिट्ठिउववन्नए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव - अप्पवेयणतराए चेव । दो भंते ! असुरकुमारा० एवं चेव, एवं एगिदिय-विगलिंदियवन जाव वेमाणिया। -भग• श १८ । उ ५। प्र ३ । पृ० ७७०-७१ दो नारकीजो एक नरकावास में नारकी रूप में एक साथ उत्पन्न होते है उनमें से एक महाकर्मतर, महाक्रियातर, महास्रवतर, महावेदनातर होता है तथा एक अल्पकर्मतर, एक अल्पक्रियातर, अल्पासवतर, अल्पवेदनातर होता है। नारकी दो प्रकार के होते हैं यथा मयिमिथ्याष्टि-उपपन्नक तथा अमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । उनमें से जो माथिमिथ्याष्टि "Aho Shrutgyanam" Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश उपपन्नक होते हैं वे महाकर्मतर यावत् महावेदनातर होते हैं तथा जो अमा यिसम्यग्दृष्टि उपपन्नक होते हैं वे अल्पकर्मतर, अल्पक्रियातर, अल्पास्त्रवतर, अल्पवेदनातर होते है । एक साथ उत्पन्न दो असुरकुमारों में जो मायिमिथ्याष्टि-उपपन्नक है वे महाकर्मतर यावत् महावेदनातर होते हैं तथा जो अमायिसम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं वे अल्पकर्मतर यावद अल्पवेदनातर होते है ! एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय को बाद देकर--तिर्य चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषीवैमानिक देव के विषय में इसी प्रकार जानना । विश्लेषण : एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय जीव मायिमिथ्याष्टि होते हैं, अमायिमिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। अतः एक साथ उत्पन्न दो पृथ्वीकायिक आदि जीव कर्म, क्रिया, आस्रव, वेदना की अपेक्षा समानतर होते है । '७ जीवदण्डक की अपेक्षा :-- अस्थि णं भंते ! चरमा वि नेरइया परमा वि नेरइया ? हंता, अस्थि । से नूणं भंते ! चरिमेहितो नेरइएहितो परमा नेरक्या महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव ; परमेहितो नेरइएहितो चरमा नेरइया अप्पकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव, अप्पवेयणतराए चेव? हंता, गोयमा! चरमेहिंतो नेरइएहिंतो परमा-जावमहावेयणतरा चव, परमेहितो नेरइएहितो चरमा नेरक्या जाव- अप्पवेयणतरा चव। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ . जाव-अप्पवेयणतरा चव ? गोयमा ! ठिई पडुञ्च, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुञ्चइ-जाव अप्पवेयणतरा चेव । अस्थि णं भंते ! चरमा वि असुरकुमार परमा वि असुरकुमारा ? एवं चव, नवरं विवरीयं भाणियव्वं परमा अप्पकम्मा, चरमा महाकम्मा, सेसं तं च व-जाव थणियकुमारा ताव एवमेव । पुढविकाइया-जाव- मणुस्सा एए जहा नेरइया । वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा। -भग० श १६ । उ ५ । प्र १ से ३ । पृ. ७८६ . चरम नारकी ( अल्पस्थितिवाले नारकी ) से परम नारकी ( अधिक स्थिति वाले नारकी ) महाकर्मतर, महा क्रियातर, महाखवतर, महावेदनातर होते हैं ; परम नारकी से चरम नारको अल्पकर्मतर, अल्प क्रियातर, अल्पासवतर होते हैं ! यह कथन स्थिति की अपेक्षा से किया गया है। "Aho Shrutgyanam" Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ क्रिया-कोश टीका येषां नारकाणां महती स्थितिस्ते इतरेभ्यो महाकम्मैतरादयोऽशुभकर्मापेक्षया भवन्ति, येषां त्वल्पा स्थितिस्ते इतरेभ्योऽल्पकर्मतरादयो भवन्तीति भावः। जिन नारकियों की आयुष्य-स्थिति महती-बड़ी होती है वे दूसरे इतर नारकियों से अशुभ कर्म की अपेक्षा महाकर्मतर आदि होते हैं । जिन नारकियों की आयुष्य स्थिति अल्पथोड़ी होती है वे दूसरे इतर नारकियों से अशुभकर्म की अपेक्षा अल्पकर्मतर आदि होते है । चरम असुरकुमार की अपेक्षा परम असुरकुमार अल्पकर्मतर, अल्पक्रियातर, अल्पास्त्रवतर, अल्पवेदनातर होते हैं ; परम असुरकुमार की अपेक्षा चरम असुरकुमार महाकर्मतर, महा क्रियातर, महास्रवतर, महावेदनातर होते हैं । ऐसा स्थिति की अपेक्षा कहा गया है । यावत् स्तनितकुमार देव तक ऐसा जानना ।। टीका-अल्पकर्मत्वं च तेषामसाताद्यशुभकर्मापेक्षं अल्पक्रियत्वं च तथाविधकायिक्यादिकष्ट क्रियाऽपेक्षं अल्पास्रवत्वं तु तथाविधकष्टक्रियाजन्यकर्मबन्धापेक्षं अल्पवेदनत्वं च पीडाभावापेक्षमवसेयमिति । महती स्थिति वाले असुरकुमार देव इतर अल्प स्थिति वाले देवों से असातावेदनीयादि अशुभ कर्मों की अपेक्षा अल्पकर्मतर होते हैं ; कायिकी आदि कष्ट क्रिया की अपेक्षा अल्प क्रियातर होते हैं । कायिकी आदि कष्ट क्रियानिमित्त होनेवाले कर्मबंध की अपेक्षा अल्पास्त्रवतर होते हैं ; तथा पीड़ा कष्टकर वेदना की अपेक्षा अल्पवेदनातर होते हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्य'च पंचेन्द्रिय तथा मनुष्य के संबंध में नारकी की तरह कहना। वाणव्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक देवों के संबंध में असुरकुमार की तरह कहना । ८ साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका की अपेक्षा चत्तारि निग्गंथा पन्नत्ता, तंजहा। राइणिए समणे निगंथे महाकम्मे-महाकिरिए अगायावी-असमिए धम्मस्स अणाराहए भवइ (१), राणिए समणे निम्नथे अप्पकम्मे-अपकिरिए-आयावी-समिए धम्मस्स आराहए भवइ (२), ओमराइणिए समणे-निगंथे महाकम्मे-महाकिरिए-अणायावी असमिए धम्मस्स अणाराहए भवइ (३), ओमराइणिए समणे निग्गंथे अप्पकम्मे-अपकिरिए आयावी-समिए धम्मस्स आराहए भव। (४)। चत्तारि निग्गंथिओ पन्नत्ता, तंजहा-राइणिया! समणी-निग्गंथी एवं चेव ४ ( गमगा)। चत्तारि समणोवासगा पन्नत्ता, तंजहा–राइणिए समणोवासए महाकम्मे तहेव ४ (गमगा)। "Aho Shrutgyanam" Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश चत्तारि समणावासियाओ पन्नत्ता, तंजहा - राइणिया समणोवासिया महाकम्मा तहेव चत्तारि गमा। -ठाण स्था ४ । उ ३ । सू ३२० | पृ० २४२ चार प्रकार के निर्ग्रन्थ होते हैं यथा-(१) कोई एक रात्निक ( दीक्षापर्याय से ज्येष्ठ ) श्रमण-निर्ग्रन्थ जो महाकर्मवाला, महा क्रियावाला, आतापना को नहीं लेनेवाला, समिति रहिस है वह धर्म का भाराधक नहीं होता है, (२) कोई एक रात्निक श्रमण-निर्ग्रन्थ जो अल्प कर्मवाला, अल्प क्रिया वाला, आतापना को नहीं लेनेवाला, समिति युक्त है वह धर्म का आराधक होता है, (३) कोई एक लघुरा त्निक ( दीक्षापर्याय में लघु ) श्रमणनिर्ग्रन्थ जो महाकर्म वाला, महा क्रिया वाला, आतापना को नहीं लेने वाला, समिति रहित है वह धर्म का आराधक नहीं होता है तथा (४) कोई एक लघुरात्निक श्रमण-निर्ग्रन्थ जो अल्प कर्मवाला, अल्प क्रियावाला, आतापना को नहीं लेनेवाला, समिति युक्त है वह धर्म का आराधक होता है। चार प्रकार को श्रमणी-निर्ग्रन्थनी होती है---जैसे निग्रन्थ के चार भेदों का कथन किया वैसे हो श्रमणी-निर्ग्रन्थनी के चार भेदों का कथन करना चाहिए। चार प्रकार के श्रमणोपासक होते हैं । निग्रन्थ के चार भेदों की तरह श्रमणोपासक के चार भेदों का कथन करना । श्रमणोपासिका के भी चार भेद होते हैं जैसे 'निम्रन्थ के चार गमक कहे गये हैं वैसे ही श्रमणोपासिका के भी चार गमक कहने चाहिए । ६६ १४ आस्रव-क्रिया-वेदना और निर्जरा की अपेक्षा चौपदी-- सिय भंते ! नेरच्या महासवा, महाकिरिया, महावेयणा, महानिज्जरा ? गोयमा ! णो इण? समठे । १, सिय भंते नेरइया महासवा महाकिरिया महावेयणा अप्पनिजरा ? हंता सिया २. सिय भंते नेरझ्या महासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिज्जरा ?, गोयमा ! णो इण? सम४ । ३, सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया अपवेयणा अप्पनिज्जरा ? गोयमा ! णो इण? समठ्ठ ४, सिय भंते ! नेरड्या महासवा अप्पकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? गोयमा ! णो इण? समढे ५, सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पनिज्जरा ? गोयमा! णो इण? सम? ६, सिय भंते ! नेरच्या महासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा महानिज्जरा ? नो इण? सम? ७, सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया, अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा?णो इण? समठ्ठ ८, सिय भंते नेरझ्या अप्पासवा महाकिरिया महावेयणा "Aho Shrutgyanam" Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश महानिजरा ? णो इणढे सम?, सिय भंते ! नेरच्या अप्पासवा महाकिरिया महावेयणा अप्पनिजरा ? नो इण? समढे १०, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिज्जरा? नो इण? सम? ११, सिय भंते ! नेरच्या अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? नो इण8 समढे १२, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेयणा महानिजरा ? मो इण8 सम8 १३, सिय भंते ! नेरक्या अप्पासवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पनिजरा ? नो इणठे सम? १४, सिय भंते ! नेरच्या अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा महानिजरा ? नो इण? सम? १५, सिय भंते ! नेरक्या अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अषनिजरा ? णो इण? सम? १६, एए सोलस भंगा। सिय भंते ! असुरकुमारा महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? णो इण? सम४, एवं चउत्थो भंगो भाणियव्वो, सेसा पन्नरस भंगा खोडेयव्वा, जाव थणियकुमारा। सिय भंते! पुढविकाइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? हंता, सिया, एवं जाव सिय भंते ! पुढविकाश्या अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? हंता सिया । एवं जाव मणुस्सा। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। -भग० श १६ । उ ४ । प्र सर्व । पृ० ७८५-८६ (१) महात्रववाले, महा क्रियावाले, महावेदनावाले, महा निर्जरा, (२) महास्रववाले, महा क्रियावाले, महावेदनावाले, अल्पनिर्जरा, (३) महात्रववाले, महाक्रियावाले, अल्पवेदनावाले, महानिर्जरा, (४) महास्रववाले, महा क्रियावाले, अल्पवेदनावाले, अल्पनिर्जरा, (५) महास्रववाले, अल्पक्रियावाले, महावेदनावाले, महानिर्जरा, (६) महास्रववाले, अल्पक्रियावाले, महावेदनावाले, अल्पनिर्जरा, (७) महासववाले, अल्पक्रियावाले, अल्पवेदनावाले, महानिर्जरा, (८) महानववाले, अल्पक्रियावाले, अल्पवेदनावाले, अल्पनिर्जरा, (E) अल्पात्र ववाले, महाक्रियावाले, महावेदनावाले, महानिर्जरा, (१०) अल्पाववाले, महा क्रियावाले, महावेदनावाले, महानिर्जरा, (११) अल्पाववाले, महा क्रियावाले, अल्पवेदनावाले, महानिर्जरा, (१२) अल्पात्रत्रवाले, महा क्रियावाले, अल्पवेदनावाले, अल्पनिर्जरा, "Aho Shrutgyanam" Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश ३४५ (१३) अल्पास्रववाले, अल्पक्रियावाले, महावेदनावाले, महानिर्जरा, (१४) अल्पास्रववाले, अल्पक्रियावाले, महावेदनावाले, अल्पनिर्जरा, (१५) अल्पाववाले, अल्पक्रियावाले, अल्पवेदनावाले, महानिर्जरा, (१६) अल्पास्रबवाले, अल्पक्रियावाले, अल्पवेदनावाले, अल्पनिर्जरावाले । ये सोलह विकल्प होते है । आस्रव-क्रिया-वेदना और निर्जरा के–महा तथा अल्प की अपेक्षा निम्नलिखित सोलह विकल्प होते है :-- नारकी के जीवों में दूसरा विकल्प होता है । असुरकुमार से स्तनितकुमार तक चतुर्थ विकल्प होता है। पृथ्वीकाय-अपकाय-अग्निकाय-वायुकाय-वनस्पतिकाय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियपंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव--मनुष्य में सोलह ही विकल्प होते हैं । वाणभ्यंतर-ज्योतिषी-वैमानिक देवों में चतुर्थ विकल्प होता है । विश्लेषण :-१-महात्रव-प्रचुर कर्म बंधन से होता है, २-महा क्रिया---कायिकी आदि क्रियाओं की बहुलता से होती है, ३-महावेदना-वेदना की तीव्रता से होती है, ४-महानिर्जरा-कर्म-क्षपण की बहुलता से होती है । इसके विपरीत अल्पासव-अल्प क्रियाअल्पवेदना-अल्पनिर्जरा जानना। नारकी में आस्त्रव-क्रिया-वेदना महान होती है, कर्मनिर्जरा अल्प होती है । देवताओं में आस्रव क्रिया महान होती है ; देवताओं में आस्रव-क्रिया अविरत भाव की प्रबलता होने से महास्रव · महा क्रिया होती है ; वेदना अल्प होती है क्योंकि प्रायः सातावेदनीय का उदय रहता है तथा निर्जरा भी अल्प होती है क्योंकि प्रायः अशुभपरिणाम होते हैं । ६६.१५ दो क्रियावाद ___समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवयणनिण्हगा पन्नत्ता, तंजहा-बहुरया १, जीवपएसिया २, अवत्तिता ३, सामुच्छेइया ४, दो किरिया ५, तेरासिया ६, अबद्धिया ७, एएसि णं सत्तण्हं पवयणनिणण्हगाणं सत्त धम्मायरिया होत्था, तंजहा-जमाली १, तीसगुत्ते २, आसाढे ३, आसमित्त ४, गंगे ५, छलुए ६, गोट्ठामाहिले ७। -ठाण० स्था ७ । सू ५८७ । पृ० २८५ श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में उनके प्रवचन का उत्थापन करने वाले सात निव हुए, उनमें एक समय में दो क्रिया का होना मानने वाले दो क्रियावादी गंगदत्त आचार्य हुए। "Aho Shrutgyanam" Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ः क्रिया कोश अट्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। दोकिरियाणं दिट्टी उल्लुगतीरे समुप्पण्णा ॥ नइखेडजणवउल्लुगमहागिरिधणगुत्त अजगंगे य। किरिया दो रायगिहे महातवोतीरमणिना ए॥ नइमुल्लुगमुत्तरओ सरए सीयजलमन्नगंगस्स। सूराभितत्तसिरसो सीओसिणवेयणोभयओ॥ लग्गोऽयमसम्गाहो जुगवं उभयकिरिभोवओगो त्ति। जं दो वि समयमेव य सीओसिणवेयणाओ मे ॥ तरतमजोगेणायं गुरुणाऽभिहिओ तुम न लखेसि । समयाइसुहुमयाओ मणोऽतिचलसुहुमयाओ य॥ सुहुमासुचरं चित्तं इंदियदेसेण जेण जं कालं। संबज्झह तं तम्मत्तनाणदेउ त्ति नो तेण ।। उवलभए किरियाओ जुगवं दो दूरभिण्णदेसाओ। पाय-सिरोगयसीउण्हवेयणमणुभवरूपाओ उवओगमओ जीवो उवउजइ जण जम्मि जं कालं। सो तम्मओवओगो होइ जहिं दोवओगम्मि । -विशेमा० गा २४२४ से २४३१ भगवान महावीर के निर्वाण के २२८ वर्ष बाद उल्लुकानदी के तौर पर "एक समय में दो क्रिया होती है' इस दृष्टि की उत्पत्ति हुई। उल्लुका नदी के तट पर मिट्टी की दिवाल से आवृत-घेरा हुआ उल्लुका नामक एक खेड़ा-छोटा गाँव था । वहाँ महागिरि धनगुप्त नामक आचार्य वास कर रहे थे और उनके शिष्य आर्यगंग थे। आचार्य धननुप्त नदी के पूर्व तट पर तथा आर्य गंग अपर तट पर निवास कर रहे थे। एक दिन शरदकाल में आर्य गंग सूरिवन्दनार्थ नदी पार कर रहे थे। उनका माथा खल्वाट था। ऊपर से सूर्य तप रहा था अतः उनको सिरमें उष्णता का अनुभव हो रहा था। नीचे नदी का पानी शीतल था इसलिए पैर में शीतलता का अनुभव हो रहा था। नदी पार करते हुए-मिथ्यात्व मोहनीय कर्मोदय से उनके विचार उत्पन्न हुआ कि सिद्धान्त में दो क्रियाओं का युगपत होना निषिद्ध है और मुझे एक समय में ही शीतलता और उष्णता का वेदन हो रहा है अतः अनुभव-सिद्ध होने के कारण आगमोक्त बात ठीक नहीं प्रतीत होती है। इस प्रकार विचार करते हुए गुरु के पास जाकर वन्दनानन्तर निवेदन किया: "Aho Shrutgyanam" Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश "दो क्रियाओं का युगपत संवेदन उपयुक्त होता है क्योंकि मुझे भी शीत-उष्ण-दोनों का अनुभव नदी पार करते हुए समकाल में हुआ अतः अनुभव-सिद्ध होने से दो क्रियाओं का युगपत् संवेदन होना ठीक लगता है। मेरे पैरों में शीतलता का अनुभव तथा मस्तक में उष्णता का अनुभव समकाल में हो रहा था । यह कैसे ?" . आचार्य धनगुप्त ने कहा-"आयुष्मन् । तुमने दो क्रियाओं का युगपत् अनुभव किया वह तरतम योग से क्रमशः हुआ था न कि युगपत हुआ था। तुम उनके क्रमभाव को लक्ष्य नहीं कर सके ! समय- आवलिकादि की सूक्ष्मता के कारण, मन की अति चंचलता के कारण, अतीन्द्रिय तथा शीघ्रगति वाला होने से तुम्हें ऐसी भ्रांति हो रही थी कि दोनों अनुभव एक साथ ही हो रहे है। स्पर्श आदि द्रव्येन्द्रिय से सम्बन्ध रखने वाले जिस देश से मन का सम्बन्ध जिस समय जितना होता है उस समय उतना ही ज्ञान होता है। शीतोष्ण आदि का ज्ञान भी वहीं होगा जहाँ इन्द्रिय के साथ मन का पदार्थ से सम्बन्ध होगा। जहाँ मन का सम्बन्ध नहीं होता है वहाँ ज्ञान भी नहीं होता है । इस कारण से दूर और भिन्न देशों में हो रही दी क्रियाओं का अनुभव एक साथ व एक समय में नहीं हो सकता । पैर और सिर में होने वाले भिन्न-भिन्न शीतलता और उष्णता के अनुभव भी एक साथ नहीं हो सकते । इसलिए यह कहा जाता है कि पैर और सिर में होने वाले शीतलता और उष्णता के अनुभव भी एक साथ नहीं हो सकते हैं क्योंकि वे भिन्न-भिन्न देश में होते है । जिस तरह विन्ध्याचल और हिमालय के शिखरों को कोई एक साथ छू नहीं सकता। अतः क्रियान्यवादत्व का हेतु असिद्ध है। जीव उपयोगमय है। वह जिस समय, जिस इन्द्रिय के द्वारा जिस विषय के साथ उपयुक्त होता है उसीका ज्ञान होता है, दूसरे पदार्थों का ज्ञान नहीं कर सकता, जैसे मेघ के उपयोग में लगा हुआ बालक दूसरी सब वस्तुओं को भूल जाता है । जीव एक समय में एक ही जगह सरी जगह नहीं। इसलिए एक साथ एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव असिद्ध है। ब Wrim - ६६ १६ दो कियावादी निह्नव की परभव में उत्पत्ति: से जे इमे गामागार जाव सण्णिवेसेसु णिण्हगा भवंति। तंजहा-बहुरया, जीवपरसिया, अव्वत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया। . इच्च ते सत्त पवयणणिण्हगा केवल(लं)-चरिया लिंग-सामण्णा मिच्छदिट्ठी "Aho Shrutgyanam" Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ क्रिया - कोश बहूहिं असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गामाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता, बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाडणंति । पाणिता कालमासे कालं किश्वा, उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उवभत्तारो भवंति । तर्हि तेसिं गई एकतीसं सागरोवमाई ठिई । परलोगस्स अणाराहगा । सेसं तं चैव । -उव० सू ४१ । उपस् १६ / पृ० ३३, ३४ ये जो ग्रामादि में निह्नव होते हैं-यथा १ - बहुरत, २ - जीवप्रादेशिक, ३अव्यक्तिक, ४-सामुच्छेदिक, ५ – द्वैक्रिया ( एक समय में दो क्रिया का अनुभव मानने वाले ) ६ त्रैराशिक तथा ७ – अबद्धिक । - 'ये सात प्रवचन के अपलापक, चर्या और लिंग की अपेक्षा से साधु के तुल्य — किन्तु मिथ्यादृष्टि बहुत-से असद्भाव के उत्पादन और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरों को और स्व-पर को झूठे आग्रह में लगाते हुए --असत् आशय में दृढ़ बनाते हुए, बहुत वर्षों तक साधु अवस्था में रहते है । फिर काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट ऊपरी ग्रैवेयक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं । वहाँ एकतीस सागरोपम की स्थिति होती हैं । वे परलोक के अनाराधक होते हैं । *६६*१७ निश्चयनय और दो क्रियावाद : जदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चैव वेदयदि आदा । दोकिरियावादित्तं पसजदि सो जिणावभदं ॥ जम्हा दु अत्तभावं पोग्गलभावं च दोवि कुव्वंति । तेण दु मिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो होंति । -समय० मा ८५, ८६ । पृ० ७४-७५ व्यवहार नयवादी मानता है कि आत्मा ही अनेकविध पुद्गल कर्मों की प्रायोगिक उत्पत्ति करती है तथा आत्मा ही पुद्गल कर्मों का अनेक विध वेदना करती है । निश्चय नय इस मत के खण्डन में कहता है कि यदि आत्म-प्रयोग से ही पुद्गल कर्मों की उत्पति होती है तथा आत्मा के द्वारा ही उनका वेदन होता है, तो ऐक ही कारण से दो भिन्न फलों को मानने वाला यह दो क्रियावाद जिनमत का विरोधी है । एक ही कारण से आत्मभाव का परिणमन और पुद्गल भाव का परिणमन -- दोनों भावों का परिणमन होता है ऐसा मानने वाला दो क्रियावादी मिथ्यादृष्टि होता है । " Aho Shrutgyanam" Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश '६६ १८ परस्पर विरोधी क्रियाएँ एक समय में युगपत् नहीं होतीं :गणविसग्गपयन्ता, परोष्परविरोहिणो कहं समए । समए दो उवओगो न होज्ज, किरियाण को दोसो १ ॥ ३४६ परस्पर विरोधी क्रियाएँ एक साथ नहीं होती हैं यथा- किसी वस्तु को ग्रहण करना और छोड़ना युगपत नहीं हो सकता है; आगमानुसार ज्ञान और दर्शन के उपयोग भी एक समय में युगपत् नहीं हो सकते हैं अतः परस्पर विरोधी क्रियाएँ यथा -- सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व क्रियाएँ या सांपरायिको तथा ऐर्यापथिकी क्रियाएँ ( देखें ६४ १ १ तथा ६४'२' १ ) एक समय में युगपत् नहीं हो तो इसमें कोई दोष नहीं है । : - अभिधा । भाग ३ । पृ० ५५० *६६ १६ सूर्य की क्रिया और जम्बुद्वीप जंबुद्दीचे णं भंते! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कज्जइ, पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ, अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो तीए खेत्ते किरिया कज, पपन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ, नो अणागए खेत्तं किरिया कज्जइ । सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ अपुट्ठा कज्जर, गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा ( अष्णपुट्ठा ) कज्जइ, जाव नियमा छद्दिसिं । - भग० श ८ । उ८ । प्र० ४३-४४ | ० ५६० - जंबु० । वक्ष ७ । सू १२ | पृ० ६५१ जंबुद्वीप में सूर्य की क्रिया अतीत तथा अनागत क्षेत्र में नहीं होती है, वर्तमान क्षेत्र में होती है तथा वह क्रिया स्पृष्ट होकर ही होती है, स्पृष्ट नहीं होकर नहीं होती है, यावत् यह सूर्यक्रिया छहों दिशाओं से होती है । सूर्य की क्रिया सम्भवतः अवभास-उद्योत - ताप - प्रकाश रूप होती है और यह क्रिया सूर्य की लेश्या के द्वारा ही जम्बुद्वीप में होती है । "Aho Shrutgyanam" *६६२० भुलावण ( प्रतिसन्दर्भ के पाठ ) (क) जीवेणं भंते! अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगए नो करेजा अंत किरियापयं नेयव्वं । -भग श १ । उ २ । प्र १०७ । पृ० ३६४ प्रज्ञापना अंतक्रिया पद २० की भुलावण - (ख) छउत्थे णं भंते ! मणूसे तीय-मणंतसासयं समयं केवलेणं संजमेणं० १ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० क्रिया-कोश जहा पढमसए चउत्थुइसे (आलावगा) तहा णेयव्वा, जाव अलमत्थुत्ति वत्तव्वं सिया। --भग० श ५ । उ ५। प्र १ । पृ० ४७८ भगवती श१ । उ ४१ प्र १५६ १६३ की भुलावण (ग) एवं जहा जीवाभिगमे जाव-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा। -भग० श७। उ४1 प्र१1 पृ० ५१६ जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ तिरिय उ २ । सू १४ को भुलावण (घ) छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणंतसासयं समयं केवलेणं संजमेणं० ? एवं जहा पढमसए चउत्थे उद्देसए तहा भाणियव्वं, जाव अलमत्थुः । -भग० श ७ । उ८1 प्र१। पृ० ५२२ भगवती श१। उ ४१ प्र १५१-१६३ की भुलावण-- (ङ) एवं किरियापयं निरवसेसं भाणियव्वं -- जाव-मायावत्तियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ। -भग० श ८ ! उ ४ । प्र १ पृ० ५४८ प्रज्ञापना क्रियापद २२ । सू ११-१६ की भुलावण(च) निम्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। -भग० श६ । उ ३ । प्र २१ । पृ० ६०२ आवश्यक आव ४ । सू७ को भुलावण ६६.२१ छुटे हुए पाठ :.१६५ निक्षेपों की अपेक्षा अप्रत्याख्यान क्रिया का विवेचन :[ कृपया पृ० ४३-४४ देखें - यहाँ हिन्दी अर्थ दिया गया है । ] णामं ठवणा दविए अइच्छ पडिसेहए य भावे य। . एसो पञ्चक्खाणस्स छविहो होइ निक्खेवो॥ -सूय० नि गा १७६ प्रत्याख्यान का छः प्रकार से निक्षेप होता है-नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा, प्रतिषेध तथा भाव । टोका--नामस्थापनाद्रव्यादित्साप्रतिषेधभावरूपः। प्रत्याख्यानस्यायं षोढा निक्षेपः । तत्रापि नामस्थापने सुगमे । नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा, प्रतिषेध तथा भाव-प्रत्याख्यान के ये छ: निक्षेप होते हैं । इन में नाम और स्थापना निक्षेप का विवेचन सुगम है। अतः यहाँ नहीं किया जाता है। "Aho Shrutgyanam" Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कौश ३५९. टीका - द्रव्यप्रत्याख्यानं द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्याद् द्रव्ये द्रव्यभूतस्य वा प्रत्याख्यानम् । तत्र सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य प्रत्याख्यानं द्रव्यनिमित्तं वा प्रत्याख्यानं यथा धम्मिल्लस्य । एवमपराण्यपि कारकाणि स्वधिया योजनीयानि । द्रव्य का, द्रव्य के द्वारा, द्रव्य से, द्रव्य में अथवा द्रव्यभूत का प्रत्याख्यान द्रव्यप्रत्याख्यान है । उसमें सचित्त, अचित तथा मिश्र द्रव्य का प्रत्याख्यान होता है अथवा द्रव्य के निमित्त से प्रत्याख्यान होता है, जैसे धम्मिल्ल ( सुनि ) का । इसी प्रकार द्रव्य - प्रत्याख्यान के दूसरे दूसरे उदाहरण स्व-बुद्धि से नियोजित कर लेने चाहिए । टीका - तत्र दातुमिच्छा दित्सा न दित्सा अदित्सा तया प्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यानम् । सत्यपि देये सति च संप्रदानकारके केवलं दातुर्दातुमिच्छा नास्तीत्यतोऽदित्साप्रत्याख्यानम् । देने की इच्छा दित्सा है, दित्सा का अभाव अदित्सा है । अदित्सा से ( प्रेरित होकर ) प्रत्याख्यान करना - अदित्सा - प्रत्याख्यान है । देय वस्तु तथा दान ग्रहण करने योग्य पात्र होने पर भी दाता के देने की अनिच्छा - अदित्सा - प्रत्याख्यान है । टीका तथा प्रतिषेधप्रत्याख्यानमिदम् । तद्यथा- विवक्षितद्रव्याभावाद्विशिष्टसम्प्रदान कारकाभावाद्वा सत्यामपि दित्सायां यः प्रतिषेधस्तत्प्रत्याख्यानम् । प्रतिषेध प्रत्याख्यान इस प्रकार है— दिये जाने वाले द्रव्य के अभाव में अथवा दान ग्रहण करने योग्य पात्र के अभाव में देने की इच्छा होते हुए भी जो प्रतिषेध किया जाता है वह प्रतिषेध प्रत्याख्यान है । टीका - भावप्रत्याख्यानं तु द्विषोऽतःकरणशुद्धस्य साधोः श्रावकस्य वा मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं चेति । च शब्दाद्विविधमपि नोआगमतोभावप्रत्याख्यानं द्रष्टव्यं नान्यदिति । भाव प्रत्याख्यान दो प्रकार का होता है-शुद्ध अन्तःकरण वाले साधु या श्रावक का (१) मूलगुण - प्रत्याख्यान, (२) उत्तरगुण - प्रत्याख्यान | 'च' शब्द से विविध भेदों की शक्यता प्रतीत होती है, पर यहाँ नो- आगम की अपेक्षा से ही भाव प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए, अन्य प्रकार से नहीं । टीका साम्प्रतं क्रियापदं निक्षेप्तव्यम् । तच क्रियास्थानाध्ययने निक्षिप्तमिति । न पुनर्निक्षिप्यते । अब क्रियापद का निक्षेप करना चाहिए था पर उसका निक्षेप क्रियास्थान अध्ययन में किया जा चुका है; अतः यहाँ पुनः निक्षेप नहीं किया जाता है । टीका - इह पुनर्भावप्रत्याख्यानेनाधिकार इति दर्शयितुमाह । - "Aho Shrutgyanam" Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ क्रिया-कोश - यहाँ आगे भावप्रत्याख्यान का अधिकार है, यह बताने के लिए अगली गाथा , कही है-- मूलगुणेसु य पगयं पञ्चक्खाणे इहं अहिगारो । होज्ज हु तप्पश्चइया, अप्पञ्चक्खाणकिरिया उ॥ -सूय० नि गा १०६-८० मूल गुणों में प्रत्याख्यान का यह प्रकृत अधिकार है। अत: उस (प्रत्याख्यान के अभाव के ) कारण अप्रत्याख्यान क्रिया होती है। ___टीका-मूलगुणाः प्राणातिपातविरमणास्तेषु प्रकृतमधिकारः प्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं कर्तव्यमिति यावत् । मूलगुण - प्राणातिपात आदि ( अठारह पापों ) का विरमण । एसका यह प्रकृत अधिकार है । अतः प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करना चाहिए । टीका-इह प्रत्याख्यानक्रियाऽध्ययनेनार्थाधिकारो यदि मूलगुणप्रत्याख्यानं न क्रियते ततोऽपायं दर्शयितुमाह । यहाँ प्रत्याख्यान क्रिया अध्ययन से अर्थाधिकार है । यदि मूलगुणों का प्रत्याख्यान नहीं किया जाता है तो उससे होने वाले अपाय-दोष को दिखाने के लिए कहा गया है ।। टीका-प्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाद्यत्किंचन कारितया तत्प्रत्ययिका तत्निमित्ताभावादुलद्यते अप्रत्याख्यानक्रिया सावद्यानुष्ठानक्रिया तत्प्रत्ययिकश्च कर्मबन्धस्तन्निमित्तश्च संसार इत्यतः प्रत्याख्यानक्रिया मुमुक्षुणा विधेयेति । प्रत्याख्यान के अभाव में अनियतता-अनियन्त्रण होने के कारण जीव जो कुछ भी कर सकता है उसके निमित्त से अप्रत्याख्यान-क्रिया-सावद्यानुष्ठान क्रिया उत्पन्न होती है उससे कर्मबन्ध होता है और उससे ही संसार होता है। इसलिए मुमुक्षु को प्रत्याख्यान क्रिया करनी चाहिए। ६२.६.३.६ वामलोकवादी के मत का प्रतिपादन-- अवरे णस्थिवाइणो वामलोयवाई भणंती णत्थि जीवो ण जाइ इह परे वा लोए ण य किंचि वि फुसइ पुण्णरावे णस्थि फलं सुकयदुक्याणं पंच महाभूइयं सरीरं भासंति हे वायजोगजुत्तं ! पंच य खंधे भणंति केइ, मणं य मणजीविया भणति, वाउजीयो त्ति एवमाहंसु, सरीरं साइयं सणिधणं इह भवे एगे भवे तस्स विप्पणसम्मि सव्वणासोत्ति, एवं जंपति मुसावाई, तम्हा दाणवयपोसहाणं तवसंजमबंभचेरकल्लाणमाइयाणं णत्थि फलं ण वि य पाणवहे अलिवयणं ण चेव चोरिककरण "Aho Shrutgyanam" Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कोश परदारसेवणं वा सपरिग्गहपाचकम्मकरणं वि णत्थि किंचि ण रश्यतिरियमणुयाणजोणीण देवलोओ वा अस्थि ण य अत्थि सिद्धिगमणं अम्मापियरो णत्थि ण वि अस्थि पुरिसकारो पञ्चकखाणमवि णत्थि ण वि अस्थि कालमच्चू य अरिहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा णत्थि, णेवत्थि के रिसओ धम्माधम्मफलं य ण वि अस्थि किंचि बहुयं य थोवयं वा, तम्हा एवं विजाणिऊण जहा सुबहु इंदियाणुकूलेसु सविसएस वट्टर णत्थि काइ किरिया वा अकिरिया वा एवं भणंति णत्थिवाइणो वामलोयवाई | - पण्डा० अ २ । सु ७ । पृ० १२०६ वामलोकवादियों का मत है कि जीव नहीं है, वह इस इहलोक और परलोक में नहीं जाता है, वह पुण्य-पाप का कुछ भी स्पर्श नहीं करता है अतः सुकृत और दुष्कृत का फल नहीं है । यह शरीर पाँच महाभूतों— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ है और वायु के संबंध से यह शरीर सब कुछ करता है । यह जीव पाँच स्कंधात्मक है । मन को ही जीव मानने वाले मन को ही जीव कहते हैं । कितनेक कहते हैं कि वायु उच्छ्वास रूप वायु हो जीव है । शरीर सादि और विनाशशील है । यह एक ही भव है अतः शरीर के विनाश से सबका विनाश हो जाता है । अतः दान, व्रत, पौषध, तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि कल्याणकारी शुभ क्रियाओं का फल नहीं है । प्राणवध, मिथ्याकथन, चोरी करना, परस्त्री सेवन करना, परिग्रह रखना आदि किसी भी पाप कर्म का कुछ भी बुरा फल नहीं होता है । नरक-तिर्यच मनुष्य की योनि नहीं है, देवलोक, सिद्धगति, माता-पिता, पुरुषार्थ, पच्चक्खाण, काल से मृत्यु का होना, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव नहीं हैं । कोई भी सुनि नहीं है, धर्म-अधर्म का थोड़ा या बहुत कुछ भी फल नहीं है अतः इन्द्रियों के अनुकूल सब विषयों में अपनी इच्छानुसार सम्यग् प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिए । • ०४ सविशेषण - ससमास - सप्रत्यय 'किरिया' शब्द और उनकी परिभाषा : ०४५३ सन्भावकिरिया - सद्भाव क्रिया । - षट्० पु १३ । पृ० ४३ ५ । ४ । १३-१४ धवला टीका - जीवदव्वस्स णाण- दंसणेहि परिणामी सम्भाव किरिया ! द्रव्य का जो सद्भाव - परिणमन होता है वह स्वभाव क्रिया है । यथा— जीव द्रव्य का ज्ञान, दर्शन आदि रूप से होने वाला परिणमन उसकी सद्भाव किया है । ०४५४ सम्भावकिरियाणिफण्णाणि - सद्भाव क्रिया निष्पन्नानि । णाम । ३५३ - षट् पु १३ | पृ० ४३ ५।४ । १४ – जाणि दव्वाणि सम्भावकिरियाणिफण्णाणि तं सव्वं दव्वकम्मं ४५ "Aho Shrutgyanam" Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश . जो द्रव्य क्रियाओं द्वारा सद्भाव से ही निष्पन्न हो वह . स्वभाव किया द्रव्य ___ •०४.५५--किरियाकम्म---क्रियाकर्म । -षट्० पु १३ । पृ• ३८,८८ मूल-जं तं किरियाकर्म णाम ॥२७॥ तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम ॥२८॥ कर्म निक्षेप दस प्रकार का होता है उसमें क्रियाकर्म एक प्रकार है । आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना, तीन बार अवनति, चार बार सिर नवाना और बारह आवर्त, यह सब क्रिया कर्म है । "EE २२ श्रावक को पन क्रिया : गुण-वय-सम-पडिमा, दाणं जलगालणं च अणथामियं । दसणणाण-चरितं किरिया तवण्ण सावया भणिया ॥ -पं० दौलतरामजी द्वारा जेन कियाकोष में उद्धत मद्य, मांस, मधु तथा बड़, पीपर, पाकर, डूमर, कठूमर-पाँच कुफल-इन आठ वस्तुओंका त्याग करना-आठ गुण क्रिया, श्रावकके बारह व्रतों को पालन करने की बारह व्रतक्रिया, समष्टि की एक सम्यक्त्व क्रिया, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा धारण करने की ग्यारह क्रिया, दान की-आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभयदान की चार किया, अणछाणे (बिना छाने ) जलके उपयोग के त्याग की क्रिया, रात्रि भोजन त्याग की क्रिया, ज्ञानदर्शन-चारित्र की तीन क्रिया, तप करने की बारह तप-क्रिया-ये त्रेपन श्रावक की प्रशस्त क्रियाएँ होती है। समाप्त "Aho Shrutgyanam" Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन, गाथा, सूत्र आदि की संकेत-सूची आ, आव गा तिरि० अध्ययन, अध्याय यावश्यक उद्देश, उद्देशक माथा तिरिक्खजोणिया दशा नियुक्ति पद पृष्ठ प्रश्न प्रतिपत्ति प्रति भाष्य ला लाइन वक्ष वक्षस्कार शतक श्रतस्कंध श्लोक श्लो सम. समवाय सूत्र स्था स्थान "Aho Shrutgyanam" Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन सम्पादन- अनुसंधान में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची आयारो ( आचारांग ) – मूल, निर्युक्ति, शीलांकाचार्य वृत्ति । सूयगडो (सूत्रकृतांग ) -मूल, निर्युक्ति, शीलांकाचार्य वृत्ति दीपिका टीका । ठाणं (स्थानांग ) – मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । समवाओ ( समवायांग ) 1-मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । विवाहपण्णत्ती ( भगवती सूत्र ) – मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । नायाधम्मकहाओ ( ज्ञाताधर्मकथांग ) – मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । उवासगदसाओ ( उपासकदशांग ) - मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । अंतगडदसाओ ( अंतकृद्दशांग ) - मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । अणुत्तरोववाइयदसाओ (अनुत्तरोपपातिकदशांग ) - मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति | पावागरणाई ( प्रश्नव्याकरण सूत्र ) -- मूल, ज्ञानविमलसूरि वृत्ति । विवागसूर्य ( विपाकसूत्र ) -- मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । ओववाइयं ( औपपातिक सूत्र ) -मूल, अभयदेवसूरि वृत्ति । रायसेणइयं ( राजप्रश्नीय ) -मूल, मलयगिरि वृत्ति । जीवाजीवाभिगमो ( जीवाजीवाभिगम ) - मूल, मलयगिरि वृत्ति । पण्णवणा (प्रज्ञापना सूत्र ) -- मूल, मलयगिरिवृत्ति । जंबूदीवपण्णत्ती ( जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति ) मूल, शान्तिचन्द्र वृत्ति । चंदपण्णत्ती ( चन्द्रप्रज्ञप्ति ) मूल । सूरपण्णत्ती (सूर्यप्रज्ञप्ति ) – मूल, मलयगिरि वृत्ति । निरावलियाओ ( निरयावलिका ) -- मूल, चन्द्रसूरि वृत्ति । ववहारो ( व्यवहार सूत्र ) – मूल, मलयगिरि वृत्ति । बिहकप्पो (वृहत्कल्प सूत्र ) -- मूल, निर्युक्ति, संघदासगणि भाष्य, मलयगिरि क्षेमकीर्ति वृत्ति । निसीह ( निशीथ ) - मूल । दसासुयक्ख घो ( दशाश्रुतस्कंध ) मूल, चूर्णी । दसवे आलियं ( दशवैकालिक ) - मूल । उत्तरज्झयणाई ( उत्तराध्ययन - मूल, नियुक्ति, शांताचार्य वृत्ति । नंदी ( नंदीसूत्र ) -- मूल, हरिभद्र वृत्ति, मलयगिरि वृत्ति । "Aho Shrutgyanam" Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया - कौश अणुओगदाराई (अनुयोगद्वार सूत्र ) – मूल, हरिभद्र वृत्ति । आवस्यं (आवश्यक सूत्र ) - मूल, निर्युक्ति, मलयगिरि वृत्ति । कप्पसूत्रं ( कल्पसूत्र ) – मूल । तत्त्वार्थ सूत्र -- मूल, भाध्य, सर्वार्थसिद्धि टीका, राजवार्तिक टीका, सिद्धसेन टीका, श्लोकवार्तिक टीका | कर्मप्रकृति - मूल, मलयगिरि टीका । कर्मग्रंथ - (छह भाग ) - मूल, स्वोपश्य टीका आदि । गोम्मटसार ( जीवकांड ) -- मूल । गोम्मटसार ( कर्मकांड ) -- मूल । अभिधानराजेन्द्र कोश- - सात भाग 1 भगवद्गीता -- मूल, शांकर भाव्य, नीलकंठी टीका । सिद्धहेमशब्दानुशासन - ( अष्टम अध्याय ) मूल, ढूंढिका वृत्ति ज्ञानसार - मूल । समयसार -- मूल विशेषावश्यक भाष्य-मूल, हेमचन्द्र वृत्ति । ३५७ "Aho Shrutgyanam" Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रन्थों की सूची [ संदर्भ निम्नलिखित प्रकाशनों के अनुसार दिये गये हैं । आगम ग्रंथों के संदर्भ में जो पृष्ठ संख्या दी गयी है, वह 'सुत्तागमे' से दी गयी है । अन्यत्र जो पृष्ठ संख्या दी गयी है वह उसी प्रकाशन से दी गयी है । ] आयारो - सम्पादन-मुनि श्री नथमल, कलकत्ता - १६६७ । श्रेष्ठी - मोतीलाल पना - १६२८ । सूयगडो - - सम्पादन - पी० एल० वैद्य, प्रकाशन ठाणं - सम्पादन – मुनि श्री वल्लभविजय, प्रकाशन - माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद१६३७ । समवाओ – सम्पादन - मुनि श्री वल्लभ विजय, प्रकाशन - जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, - माणेकलाल चुन्नीलाल, प्रकाशन -- मा अहमदाबाद- १६३८ । विवाहपण्णत्ती (भगवई) - ) - प्रथम तथा द्वितीय खंड -सम्पादन - पंडित बेचरदास डोशी, प्रकाशन - जिनागम प्रकाशक सभा, बम्बई । तृतीय तथा चतुर्थ खंड-सम्पादन --- पंडित भगवानदास ह० डोशी, प्रकाशन - गुजरात विद्यापीठ तथा जैन साहित्य प्रकाशन ट्रष्ट, अहमदाबाद - १६१७, १६२२, १६२८, १६३१ । नायाधम्मकहाओ - सम्पादन - चन्द्रसागर सूरि, प्रकाशन -- सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई - १६५१ । उवासगदसाओ-- सम्पादन - भगवानदास हर्षचन्द डोशी, प्रकाशन -- वही- - अहमदाबाद --१६३५ । अंतगडदसाओ - सम्पादन - एम० सी० मोदी, प्रकाशन - गुर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद-१६३२ । अणुत्तरोववाइयदसाओ- -सम्पादन एम० सी० मोदी, प्रकाशन - गुर्जर ग्रन्थरल 'कार्यालय, अहमदाबाद -- १६३२ / पण्हावागरणाई - ( दो भाग ) सम्पादन - मफतलाल झवेरचन्द्र, प्रकाशन - मुक्तिविमल जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद --~ १६३६, १६३८ । विवागसूर्य 1- - सम्पादन -- - श्री चोकसी एवं श्री मोदी, प्रकाशन -- गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, " Aho Shrutgyanam" अहमदाबाद- १६३५ । ओषवाइय–सम्पादन-मुनि हेमसागरजी, प्रकाशन- पंडित भूरालाल कालीदास, सूरत १६३७ । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश रायपसेणइयं-सम्पादन-पं० बेचरदासजी जी० दोसी--प्रकाशन-गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्या लय, अहमदाबाद-१६३६ । जीवा जीवाभिगमो-सम्पादन-अज्ञात, प्रकाशन-देवचन्द लालाभाई जवेरी सूरत । पण्गवणासुतं-सम्पादन-मुनिश्री पुण्यविजय आदि, प्रकाशन-श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई–१६६६ ।। जम्बूदोवरण्णत्ती --सम्पादन–अशात, प्रकाशन-देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फंड, सूरत-१६१६ । चन्दपण्णत्ती–सम्पादन---मुनि श्री अमोलक ऋषि-प्रकाशन-लाला सुखदेव सहाय, ज्वालाप्रसाद, हैदराबाद-१६१८ । सूरपण्णत्ती-संपादन-अज्ञात, प्रकाशन-आगमोदय समिति, मेहसाना-१६१८ । निरयावलियाओ---सम्पादन---गोपानी तथा चोकसी, प्रकाशन गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद-१६३४ । ववहारो सम्पादन-प्रो० वोल्थर इयुकिंग, प्रकाशन–डा. जीवराज घेलाभाई डोसी, अहमदाबाद-१६२५ । । बिहकप्यो-६ भाग, सम्पादन-चतुर विजय, पुण्यविजय, प्रकाशन-श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर-१९३४ से १६४२ ! निसीई-सम्पादन-मुनि श्री नथमल, प्रकाशन-जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता १६६७ । दसासुयक्खंधो-संपादन-आत्मारामजी महाराज, प्रकाशन-जैन शास्त्रमाला कार्या लय (लाहौर), वर्तमान-लुधियाना-१६३६ । दसवेआलियं-सम्पादन-मुनि श्री नथमल, प्रकाशन-जैन श्वे. तेरापंथी महासभा, कलकत्ता-१६६६ ।। उत्तरज्झयणाई-संपादन-मुनि श्री नथमल, प्रकाशन-जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता-१६६६ । नंदीसुत्त-सम्पादन--मुनि श्री पुण्यविजय आदि, प्रकाशन–श्री महावीर जैन विद्यालय -१९६८ अणुओगहाराई-संपादन-मुनि श्री पुण्य विजय आदि, प्रकाशन-श्री महावीर जैन विद्यालय-१९६८।। आवस्सयं-तीन भाग-संपादन-अज्ञात, प्रकाशन--आगमोदय समिति, मेहसाना तथा देवचन्द लालभाई, सूरत-१६२८, १६३२, १६.३६ । सुत्तागमे-भाग २-संपादन-पुप्फभिक्खू, प्रकाशन-श्री सुत्तागम प्रकाशन समिति, गुड़गाँव छावनी-१६५३-५४ । सुत्तागमे से केवल पृष्ठ संख्या दी गई है। "Aho Shrutgyanam" Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश कटपसुतं-संपादन-मुनि श्री पुण्य विजयजी, प्रकाशन .. साराभाई मणीलाल नवाब, ___ अहमदाबाद-१६५२ । तत्त्वार्थ सूत्र-सभाष्य- संपादन-खूबचन्द्र सिद्धांतशास्त्री, प्रकाशन-श्री परम श्रुत प्रभावक जैन मंडल, बम्बई–१६३२ । सर्वार्थसिद्धि-तत्त्वार्थ टोका-संपादन-फूलचन्द्र सिद्धांतशास्त्री-प्रकाशन-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी-१६५५ । राजवार्तिक-तत्त्वार्थ टीका २ भाग-संपादन-५० महेन्द्रकुमार जैन, प्रकाशन-भारतीय ज्ञान पीठ, काशी-१६५७ । श्लोकवार्तिकालंकार-तत्त्वार्थ टीका-संपादन-पं०मनोहरलाल न्यायशास्त्री, प्रकाशन---- रामचन्द्र नाथारंग, बम्बई.--१६१८ सिद्धसेन तत्त्वार्थ टोका-२ भाग-संपादन-हीरालाल रसिकलाल कापड़िया, प्रकाशक---देवचन्द लालभाई, अहमदाबाद---१६२६, १६३० । कर्मग्रन्थ खण्ड २, संपादन-मुनि श्री चतुरविजय, प्रकाशन--श्री जैन आत्मानंद सभा, __ भावनगर--१९३४-४० । गोम्मटसार (जीवकांड) संपादन --१० खूबचन्द्र सिद्धांतशास्त्री, प्रकाशन-श्री परमश्रत प्रभावक मंडल, बम्बई-१६२७ । गोम्मटसार ( कर्मकांड )-संपादन-६० मनोहरलाल -- प्रकाशन--श्री परमश्रुत प्रभावक ___ मंडल, बम्बई-१६२८ ! समयसार-संपादन--प्रा० ए० चक्रवृत्ति, प्रकाशन-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी-१६५० अभिधानराजेन्द्र ( कोष) तृतीय भाग-संपादन श्री विजयराजेन्द्र सूरि, प्रकाशन-- श्री जैन श्वेताम्बर समस्त संघ, रतलाम---१६.१४ । सिद्धहेमशब्दानुशासन-(प्राकृत व्याकरण)-ढं ढिका टीका, प्रकाशन-~-शा० भीमसिंह माणेक, बम्बई-१६३० । भगवद्गीता-संपादन-वासुदेव लक्ष्मण पणशीकर, प्रकाशन-तुकाराम जावजी बम्बई-१६१२। विशेषावश्यक भाष्य भाग १-२-सम्पादन-राजेन्द्र विजयजी महाराज, प्रकाशन-दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद-१६६२ । ज्ञानसार भाग १-२----सम्पादन-मुनि श्री भद्रगुप्त विजय, प्रकाशन-श्री विश्वकल्याण प्रकाशन, हारीज, उत्तर गुजरात-१६६७ । "Aho Shrutgyanam" Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६.२१ छुटे हुए पाठ क्रिया - कोश ३६१ xxx अंगुत्तर निकाय में :-- ३. अथ खो सीहो सेनापति येन निगण्ठो नाटपुतो तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्क्रमित्वा निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोच - "इच्छामहं, भन्ते, समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्क्रमितुं" ति । "कि पन त्वं, सीह, किरियवादी समानो अकिरियवादं समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्ससि ? समणो हि, सीह, गोतमो अकिरियवादो, अकिरियाय धम्मं देसेति, तेन च सावके विनेती” ति । ××× 1 ७ xxx । अथ खो सीहो सेनापति येन भगवा तेनुपसङ्कमि ; उपसङ्क्रमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सीहो सेनापति भगवन्तं एतदवोच- ८. “सुतं मेतं, भन्ते- 'अकिरियवादो समणो गोतमो, अकिरियाय धम्मं देसेति, तेन च साव के विनेती ति ।" ××× । ६. "अस्थि, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य 'अकिरियादो समणो गोतमो, अकिरियाय धम्मं देसेति, तेन च सावके विनेती' ति । १०. अत्थि, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य'किरिवादो समणो गोतमो, किरियाय धम्मं देखेति, तेन च सावके विनेती' ति । XXX 1 १७. "कतमो च सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य'अकिरिवादो समणो गोतमो, अकिरियाय धम्मं देखेति, तेन च सावके विनेती' ति ? अहं हि, सीह अकिरियं वदामि कायदुच्चरितस्स वचीदुच्चरितस्स मनोदुच्चरितरस ; अनेक विहितानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अकिरियं वदामि । अयं खो, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य – 'अकिरियवादो समणो गोतमो, अकिरियाय धम्मं देखेति, तेन च सावके विनेती' ति । १८. " कतमो च, सीह, परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वय्य - 'किरियवादो समणो गोत्तमो, किरियाय धम्मं देखेति, तेन च सावके विनेती' ति ? अहं हि, सीह, किरियं वदामि कायसुचरितस्स वचीसुचरितस्स मनोसुचरितत्स; अनेक विहितानं कुसलानं धम्मानं किरियं वदामि । अयं खो, सीह, "Aho Shrutgyanam" Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ क्रिया-कौश परियायो, येन मं परियायेन सम्मा वदमानो वदेय्य - 'किरियवादो समणो गोतमो, किरियाय धम्मं देखेति, तेन च सावके विनेती' ति । ××× 1 -- अंगुत्तरनिकाय । निपात ८ । २ महावग्गो । २ सीह सुत्त (निर्ग्रन्थ श्रावक ) सिंह सेनापति निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र के पास गये और जाकर निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र से बोले – “भन्ते ! मैं श्रमण गौतम का दर्शन करने जाने की इच्छा करता हूँ ।" (निर्ग्रन्थ ज्ञात पुत्र ) “हे सिंह ! तुम क्रियावादी हो, तुम क्या उस अक्रियावादी श्रमण गौतम के दर्शनार्थ जाओगे ? हे सिंह ! श्रमण गौतम अक्रियाबादी है । वह अक्रिया का धर्मोपदेश देता है और उसीका अपने शिष्यों को अभ्यास कराता है। XXX ।" तत्पश्चात् एक दिन सिंह सेनापति जहाँ भगवान गौतम थे वहाँ पहुँचे । पास जाकर भगवान को नमस्कार कर एक ओर बैठे। एक ओर बैठे हुए सिंह सेनापति ने भगवान से कहा - " भन्ते ! मैंने सुना कि श्रमण गौतम अक्रियावादी है, अक्रियावाद की ही देशना करता है तथा अपने श्रावकों को भी अक्रियावाद का ही अभ्यास कराता है ।" "सिंह ! एक दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक-ठीक कहने वाला यह कह सकता है कि श्रमण गौतम अक्रियावादी है, अक्रियावाद की ही देशना करता है और अपने श्रावकों को अक्रियावाद का ही अभ्यास कराता है। सिंह ! (दूसरी ) एक दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक-ठीक कहने वाला यह कह सकता है कि श्रमण गौतम क्रियावादी है, क्रियावाद की ही देशना करता है, तथा अपने श्रावकों को भी क्रियावाद का ही अभ्यास कराता है। XXX।” सिंह ! एक दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक-ठीक कहने वाला यह कह सकता है कि श्रमण गौतम अक्रियावादी है, अक्रियावाद की देशना करता है तथा अक्रियावाद का ही अपने श्रावकों को अभ्यास कराता है। सिंह ! (क्योंकि) मैं शारीरिक दुश्चरित्रता, वाणी की दुश्चरित्रता तथा मन की दुश्चरित्रता न करने की बात करता हूँ तथा नाना प्रकार के पापकर्मों के न करने की बात करता हूँ । अतः, सिंह ! इस दृष्टि से मेरे बारे में ठीक-ठीक कहने वाला कह सकता है कि श्रमण गौतम अक्रियावादी है, अक्रियावाद की देशता करता है, तथा अक्रियावाद का ही अपने श्रावकों को अभ्यास कराता है। सिंह ! ( दूसरी) एक दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक-ठीक कहने वाला यह कह सकता है कि श्रमण गौतम क्रियावादी है, क्रियावादी की देशना करता है तथा क्रियावाद का ही अपने श्रावकों को अभ्यास कराता है। सिंह ! (क्योंकि) मैं शारीरिक सुचरित्रता, वाणी को सुचरित्रता तथा मन की सुचरित्रता की बात करता हूँ तथा अनेक प्रकार के कुशल कर्म करने को कहता हूँ । अतः, सिंह ! इस दृष्टि से मेरे बारे में ठीक-ठीक कहने वाला कह सकता है कि श्रमण गौतम क्रियावादी है, क्रियावाद की देशना करता है, तथा क्रियावाद का ही अपने श्रावकों को अभ्यास कराता है । 1 "Aho Shrutgyanam" Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या - कोश पर विद्वानों की सम्मति अगला भाग प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी संघवी, अहमदाबाद लेश्या कोश के प्रारंभिक ३४ पृष्ठों को पूरा सुन गया हूँ। अपेक्षा के अनुसार ही देखा है, पर उसका पूरा ख्याल आ गया है। प्रथम तो यह बात है कि एक व्यापारी फिर भी अस्वस्थ तबीयतवाला इतना गहरा श्रम करे और शास्त्रीय विषयों में पूरी समझ के साथ प्रवेश करे यह जैन समाज के लिये आश्चर्य के साथ खुशी का विषय है। आपने कोशों की कल्पना को मूर्त बनाने का जो संकल्प किया है वह और भी आश्चर्य तथा आनन्द का विषय है । इतना बड़ा भारी जवाबदेही का काम निर्विघ्न पूरा हो-यही कामना है । Dr. A. N. Upadhye, M. A. D. Litt., Shivaji University, Kolhapur. "I have read the major portion of this KOSA. You are to be congratulated on having brought out a valuable source book on the Lesya Doctrine. I appreciate your methodology and have all praise for the pains you have taken in collecting and systematically presenting the material. Such works really advance the cause of Jainological studies. Please accept my greetings on this useful work and convey the same to your colleagues who have collaborated with you in this project. Such Kosas for 'PUDGAL' etc. would be welcome in the interest of the progress of Jainological studies." Dr. P. L. Vaidya, M. A. D. Litt., Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. "I am very grateful to you for your sending me a copy of your book ‘Lesya-Kosa’. I have read a goodly portion of it and am deeply impressed by your methodical work on an important topic of Lesya in Jain. Philosophy. All students of Jain Literature and Philosophy would surely be grateful to you for your having placed in their hand a work of tremendous utility.” Dr. Suniti Kumar Chatterjee, National Professor of India, Calcutta. "I am not a student of Philosophy, much less of Jain Philosophy. But I have learnt a lot from your work, which is very thorough study, with a wealth of quotations from both Prakrita and Sanskrita, on the concept of Lesya. This, as it would appear, is not known in Brahmanical and Buddhistic philosophy. I did not know anything about it before I got your "Aho Shrutgyanam" Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 क्रिया-कोश book. This, as it would appear from your study, is a very important concept in Jain Philosophy with regard to the nature of Soul, both in the static or contemplative and its dynamic or active aspect. I am sure specialists will give a welcome accord to your book." "Wishing you all succes in your noble work of interpreting one of the most important aspects of our Indian civilisation and thought namely, the Jaina." Dr. Prof. L. Alsdorf, Seminar fur Kultur und Geschichte Indiens, Universitat Hamburg. "I acknowledge receipt of your Lesya-Kosa and accept my very sincere thanks for this most valuable and welcome gift. The theory of Karman, of which Lesya Doctrine is an integral part, is the very centre and heart of Jainism ; at the same time, it is a most intricate and complex subject the study of which presents a great many difficulties and problems, not all of which have been solved so far. With erudition and acumen, you have furnished a most useful contribution and successfully advanced our knowledge." Prof. Dr. K. L. Janert, Director, Institut fur Indologie Der Univer. sitat Zu Koln. "I have received your book Lesya-Kosa, I also owe you a valuable addition to my Library. It is always a matter of great satisfaction to me to see a scholar not recoil from the arduous task of compiling dictiona. ries, indexes etc.-even that great English Critic and Lexicographer, Dr. Samuel Johnson, called it drudgery some two hundred years ago. And it is of course only diligent collection and comparison of all relevant material that genuine advance in knowledge is based on. So we shall have to thank you for having made work easier for those who come after you." Prof. Padamanath S. Jain, Dept. of Linguistics, The University of Michigan, Michigan, U. S. A. "Please forgive me for the delay in acknowledging the receipt of your excellent gift of the Lesya-Kosa. This is an extraordinary work and you deserve our gratitude for publishing it You have opened a new field of research and have established a new model for all future Jain studies. The subject is fascinating not only for its antiquity but also for its value in the study of Indian Psychology." "Aho Shrutgyanam