SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रिया-कोश १०६ नहीं देना चाहिए, उन पर उपद्रव नहीं करना चाहिए, लेकिन शूद्र-क्षुद्र आदि को मारना चाहिए, उनपर आज्ञा चलानी चाहिए, उनका परिघात करना चाहिए, उनको परिताप देना चाहिए, उन पर उपद्रव करना चाहिए । इस प्रकार परपीड़ा के उपदेश से उनके प्राणातिपात से विरति नहीं होती है। स्त्री और अन्य कामभोग में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त, अत्यन्त आसक्त तथा एकाग्रचित्त--रंगे हुए व्यक्ति, चार, पाँच, छः या दस वर्ष या अल्पकाल या बहुकाल तक गृहवास को छोड़ देते हैं तथा तपस्या करते है लेकिन लोभ के वशीभूत भोगों को नहीं छोड़ सकते हैं और वे भोगों को भोगते हुए यथासमय काल आने से मरकर असुर या किल्विषी देषों में उत्पन्न होते हैं और उस देवस्थान से निकलकर यदि वे मनुष्यभव पते भी हैं तो वे बारबार गूंगे, बहरे, जन्मान्ध, जन्मसे गूंगे होते हैं। ऐसे व्यक्ति को लोभप्रत्ययिक सावधक्रिया लगती है । यह बारहवाँ लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान है । यद्यपि उपर्युक्त वर्णित भिक्षु, ऋषि, तापसादि अल्पकालीन या बहुकालीन गृहत्यागी होते हैं तथा कठिन तपस्या करते हैं लेकिन लोभ के प्राबल्य से सर्व परिग्रह का परित्याग नहीं कर सकते हैं अतः काम-भोगों से निवृत्त नहीं हो सकते हैं । ऐसे भोगी, अधुरे संयतियों के लोभ के कारण से लोभप्रत्ययिक सावद्य क्रिया लगती है ! सामान्य व्यक्ति परिग्रह का त्याग नहीं कर सकते हैं अतः लोभ से भी उनको छुटकारा नहीं मिलता है । इसलिए यहाँ सामान्य व्यक्तियों का विवेचन नहीं करके आगमकार ने अन्यतीथीं- गृहत्यागी तपस्वी व्यक्तियों का विवेचन किया है। वे गृहत्यागी होकर, प्रवजित होकर, कठिन तपस्या करते हुए भी कतिपय परिग्रहों का त्याग नहीं कर सकते हैं अतः भोगों से और लोभ से मुक्ति नहीं पा सकते हैं । ५३.४ लोभप्रत्ययिक क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : जीवे णं भंते ! पाणइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?............ ( पूरे पाठ के लिये देखो क्रमांक २२.५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले। -पण्ण० प २२ । सू १५८१ से १५८४ ! पृ० ४७६-८० लोभप्रत्ययिक क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात किया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है। "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy