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________________ क्रिया - कोश (ख) अत्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाए णं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणा इवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले | ( देखो क्रमांक २२ ४ ) १०८ -भग० श १ । उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ जीव लोभ से क्रिया करते हैं। लोभक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । लोभक्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह किया अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है । नारकी जीव भी लोभक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दण्डकों में नारकी के समान कहना चाहिए | एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिए । ५३.३ लोभप्रत्ययिक क्रिया का सदृष्टान्त विवेचन : जे इमे भवति, तंजहा- आरणिया आवसहिया गार्मतिया कण्हुई- रहस्सिया नो बहु-संजया नो बहु-पडि - विरया सब्व पाण-भूय-जीव-सतेहिं ते अप्पणी सच्चामोसाईं एवं विज्जंति । अहं न हंतव्यो, अन्ने हंतव्वा, अहं न अज्जावेयव्वो, अन्ने अज्जावेयव्वा, अहं न परिघेयव्वो, अन्ने परिघेयव्वा, अहं न परितावेयव्वो, अन्ने परितावेयव्वा, अहं न उहवेयव्वो, अन्ने उद्दवेयव्वा । एवमेव ते इत्थि कामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढ़िया गरहिया अज्कोववन्ना जाव वासाईं चउ-पंचमाई, छ-इसमाई अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुंजित्तु भोग भोगाइ काल-मासे कालं किश्वा अन्नयरेसु किब्बिसिए ठाणेसु उबवत्तारो भवंति । तओ विप्पमुच्चमाणे भुज्जो भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइ - मूयत्ताए पञ्चायति । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । दुवालसमे किरिट्ठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिए । - सूय० श्र २ । अ २ । स् १३ । १० १४८-४६ कई व्यक्ति अरण्यवासी हैं, कई पर्णकुटीवासी हैं, कई ग्राम के समीप रहने वाले हैं, कई रहस्यवादी- -- गुप्त साधना करने वाले हैं। ऐसे श्रमण-ब्राह्मण पूरे संयत नहीं होते हैं, सर्वत्र पालक भी नहीं होते हैं तथा सर्वप्राण- भूत-जीव सत्त्व की हिंसा से निवृत्त नहीं होते हैं वे अधूरे संयति सत्यासत्य मिश्रभाषा बोलते हैं -- यथा - वर्णोत्तम को नहीं मारना चाहिए, उन पर आज्ञा नहीं चलानी चाहिए, उनका परिघात नहीं करना चाहिए, उनको परिताप "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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