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क्रिया-कोश
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या कठोर दंड देता है, जैसे कि शीतकाल में ठण्डे पानी में डुबोना, गर्मी के दिनों में गरम जल छिड़कना, आग से शरीर को दागना, बेंत, छड़ी, रस्सी, चाबुक, कोड़े आदि से मार-मार कर पीठ की खाल उधेड़ देना और डंडे से, हाड़ से, मुष्टि से, पत्थर से, ठीकरे से शरीर पर प्रहार करना । क्षुद्र अपराध के लिए कठोर दंड देने वाले इस प्रकार के व्यक्ति के साथ रहने से मन में बड़ी अशान्ति होती है तथा उसको छोड़कर अलग रहने से शान्ति मिलती है। छोटे अपराध के लिए बड़ा दंड देने वाला ऐसा व्यक्ति छोटी सी बात पर अत्यन्त कोधित होता है, झूर दंड देता है तथा सदा दंड देने के लिए तत्पर रहता है । वह व्यक्ति इस लोक में भी अपना अहित करता है, परलोक में भी अहित करता है क्योंकि वह जीव क्षण-क्षण में ईर्ष्या से जलता है, कोधित होता है, पीठ पीछे निन्दा करता है। ऐसे व्यक्ति को मित्रद्वेषप्रत्यायिक सावधक्रिया लगती है। यह दशवाँ मित्रदूषप्रत्ययिक क्रियास्थान है। टीका---मित्राणामुपतापेन दोषो मित्रदोषस्तत्प्रत्ययिको दण्डो भवति ।
__ ---सूय श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका
'५३ लोभप्रत्ययिक क्रिया (स्थान) ५३.१ परिभाषा | अर्थ(क) लोभप्रत्ययिको लोभनिमित्तो दण्ड इति ।
--सूय० श्रु २ । अ २ । सू१ । टीका किसी जीव-अजीव द्रव्य की कामना-लिप्ता-लालसा-आसक्ति-मुच्छी से होनेवाली क्रिया लोभप्रत्ययिक क्रिया है। .५३.२ लोभप्रत्ययिक क्रिया और जीवदण्डक :
(क) अस्थि णं भंते! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवा णं परिगाहेणं किरिया कजइ ? गोयमा! सव्वदम्वेसु, एवं नेरक्याणं जाव वेमाणियाणं एवं xxx लोभेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति।
--पण्ण० प २२ । सू० १५७६-८० । पृ० ४७६
किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति कामना-लालसा-लिप्सा-मूच्र्छा भाव लाना लोभ है । ये भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं ! लोभ से क्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति लोभ से क्रिया करते हैं।
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