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क्रिया - कोश
• ५४ मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) पापस्थान क्रिया -५४ १ परिभाषा / अर्थ :--
(क) मैथुनाध्यवसायोsपि चित्रलेपकाष्ठादिकर्मगतेषु रूपेषु रूपसहगतेषु वायादिषु ततो मैथुनसूत्रे उक्तम्- 'वेसु वा रूवसहगएसु वा' इति ।
- पण्ण० प २२ । सू १५७८ । टीका (ख) तथा मिथुनस्य - स्त्री-पुंसलक्षणस्य कर्म मैथुनम् - अब्रह्म ।
-ठाण० स्था १। सू ४८ । टीका अध्यवसाय से अथवा रूपवान् द्रव्य नारकी से लेकर वैमानिक देवों तक
चित्रित अथवा दारु कार्यादिगत रूप में ( स्त्र्यादि ) के विषय में जीव मैथुनक्रिया करता है । के जीव इसी प्रकार मैथुनक्रिया करते हैं । ५४२ भेद
(क) पडिक्कमामि XXX अट्ठारसविहे अभे ।
--आव ० आ ४ । सू ६ | पृ० ११६८-६६
(ख) तथा मिथुनस्य - स्त्रीपुंसलक्षणस्य कर्म मैथुनम् - अब्रह्म, तत् मनोवाक्कायानां 'कृतकारितानुमतिभिरौदारिकवैक्रियशरीरविषयाभिरष्टादशधा विविधोपाधितो बहु
विधतरं वेति ।
-ठाण० स्था १ । सू ४८ | टीका स्त्री-पुरुष के सम्पर्क से मैथुनक्रिया होती है। यह मन-वचन-काय की अपेक्षा से तीन प्रकार की तथा इन तीनों की कृत-कारित अनुमोदित ( करता हूँ, कराता हूँ, किये हुए का अनुमोदन करना की अपेक्षा से नौ भेद हुए । फिर इन नौ भेदों के औदारिक तथा वैकिय शरीर के भेद की अपेक्षा मैथुन क्रिया के कुल अठारह भेद हुए । अथवा अन्य नामों से ( उपाधि से ) इसके अनेक भेद हैं या हो सकते हैं ।
५४३ मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) क्रिया तथा जीवदंडक
(क) अत्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? xxx | एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा परणाश्वाए तहा xxx मेहुणे । ( देखो २२४ )
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- भग० श १ । ३६ । प्र २१५ | पृ० ४०३
(ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! रूवेसु वा रूवसहगएसु या दव्वे एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव वैमाणियाणं ।
"Aho Shrutgyanam"
- पण्ण० प २२ । सू १५७८ | पृ० ४७६ जीव मैथुन की क्रिया रूप अथवा रूपवान् द्रव्य ( स्त्र्यादि ) के विषय में करते 1