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क्रिया - कोश
१११ मैथुनक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को और कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । मैथुन की क्रिया कृत है, अकृत नहीं है, मैथुन की क्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है ।
नारकी जीव भी मैथुन की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा वह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक नारकी की तरह कहना चाहिए । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिए ।
-५४४ अब्रह्मचर्य क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :--
जीवे णं भंते! पाणाइवाणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? (पूरे पाठ के लिये देखो क्रमांक *२२°५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले ।
-पण्ण० प २२ ! सू १५८४ । पृ० ४७६-८० मैथुन ( अब्रह्मचर्य ) क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है ।
( देखो क्रमांक २२५ )
' ५५ क्रोधप्रत्ययिक पापस्थान क्रिया
*५५१ परिभाषा / अर्थ
किसी वस्तु — द्रव्य के प्रति किसी कारण प्रद्वेष-- अप्रीति हो जाने से उस वस्तु - द्रव्य के प्रति क्रोध कोप- रोष - गुस्सा - रोस उग्रता - अक्षमा भाव होने के निमित्त से होनेवाली क्रिया क्रोध किया है। यह क्रिया सब द्रव्यों के प्रति हो सकती है ।
'स्वपरात्मनोऽप्रीतिलक्षणः क्रोधः' अर्थात् स्व-पर या सर्व द्रव्यों के प्रति अप्रीति भाव होना कोध का लक्षण है ।
५५२ क्रोधप्रत्ययिक क्रिया और जीवदण्डक
(क) अत्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गद्देणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं परिग्गणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं
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