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क्रिया-कोश '६८ पापस्थान क्रिया ६८१ पापस्थान क्रियाओं की स्पृष्टता आदि :.... अस्थि णं भंते! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ, अपुट्ठा कजइ ?–जाव-निव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघाय पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि । सा भंते ! किं कडा कज्जइ, अकडा कन्जइ ? गोयमा कडा का नो असा कजाइ । सा भंते ! किं अत्तकडा फाइ, परकडा कजइ, तदुभयकडा कजइ ? गोयमा ! अत्तकडा कज्जइ, णो परकडा कज्जइ, णो सदुभयकडा कजइ । सा भंते ! कि आणुपुव्विं कडा कजइ, अणाणुपुज्विं कडा कजइ ? गोयमा ! आणुपुठिवं कडा कजइ, जो अगाणुपुब्विं कडा कजइ । जा य कडा कन्जइ, जा य कन्जिस्सइ सव्वा सा आणुपुव्विं कडा, णो अणाणुपुव्विं कड त्ति वत्तव्वं सिया ।
अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवायकिरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कजइ ? जाव--नियमा छदिसि कजइ। सा भंते ! किं कड़ा कनइ, अकडा कजइ ? तं चेव जाव-णो अणाणुपुव्विं कड त्ति वत्तव्वं सिया।
जहा नेरइयाणं तहा एगिदियवज्जा भाणियव्वा जाव-वेमाणिया । एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा ।
जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए, तहा अदिन्नादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले। एवं एए अट्ठारस चउवीसं दंडगा भाणियव्वा ।
-भग० श १ । उ ६ । प्र २०६-१५ । पृ० ४०२-३ जीव प्राणातिपात के द्वारा क्रिया करते हैं तथा वह क्रिया स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती है, यदि वह क्रिया निर्व्याघात हो तो छुओं दिशाओं से और सव्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित चार दिशा से तथा कदाचित् पाँच दिशा से स्पृष्ट होती है। वह क्रिया कृत है, अकृत नहीं है । आत्मकृत है, परकृत तथा तदुभयकृत नहीं है । वह क्रिया अनुक्रमपूर्वक कृत है, अननुक्रमपूर्वक कृत नहीं है । जो क्रिया की जा रही है तथा जो की जायगी वह सब क्रिया अनुक्रमपूर्वक है, अननुक्रमपूर्वक नहीं है ।
नरक के जीव प्राणातिपात के द्वारा किया करते हैं तथा वह क्रिया स्पृष्ट होती है, और नियम से छओं दिशाओं से स्पृष्ट होती है। अवशेष विवेचन औधिक जीवों के विवेचन की तरह जानना ।
जैसा नारकी जीवों के विषय में कहा वैसा एकेन्द्रिय के जीवोंको बाद देकर वैमानिक तक दंडक के सभी जीवों के लिए कहना ।
"Aho Shrutgyanam"