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क्रिया-कोश
१२३ आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है।
नारकी जीव भी मिथ्यादर्शनशल्य-क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह किया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए ।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए। नोट : क्रमांक १७ तथा ४० भी देखिये ।
६२.३ मिथ्यादर्शनशल्यक्रिया और कर्मप्रकृति का बंधः
जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? ........"(पूरे पाठ के लिये देखो २२५) (एव) जाव मिच्छादसणसल्ले।
-पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० मिथ्यादर्शनशल्यक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है। (देखो क्रमांक २२५)
६३ एजनादिक्रिया ६३.१ परिभाषा / अर्थ--
योग के कारण आत्मप्रदेशों का कम्पन होना, परिस्पंदन होना, क्षुब्ध होना, चंचल होना आदि में एजनादि क्रियाओं का समावेश होता है ।
एजना - कंपन करना । व्येजना--विविध रूप में कम्पन करना । चलना स्थानान्तर जाना । स्पंदना-किंचित् चलना । घट्टना-सब दिशाओं में चारों तरफ चलना तथा अन्य पदार्थों को स्पर्श करना । क्षुब्ध होना-किसी वस्तु में चंचलता से प्रवेश करना । उदीरणा---प्राबल्य से ढकेलना । ऊपर में आत्मप्रदेशों के परिस्पंदन करने की कुछ क्रियाओं का नामोल्लेख किया
"Aho Shrutgyanam"