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________________ २१५ क्रिया-कोश उस शैलेशीकाल में वर्तता हुआ पूर्व में रचित असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा वेदनीयादि तोन कर्मों के अलग-अलग प्रति समय असंख्यात कर्मस्कंधों को विपाक से तथा प्रदेश से वेदता हुआ, उनकी निर्जरा करता हुआ, शेष समय में वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करता है। चार कर्मों का एक साथ क्षय करके, तत्पश्चात समय में औदारिक-तैजस-कार्मण--तीनों शरीरों को सर्व प्रकार से त्याग करता है। सर्व प्रकार से त्याग करने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार आगे शरीर का ( जन्म-मरण के चक्र में ) त्याग किया जाता था वैसे नहीं किन्तु सर्व प्रकार से परिहार किया जाता है । किसी आचार्य ने कहा भी है---"औदारिकादि शरीर को सर्व प्रकार से त्याग द्वारा त्याग करता है अर्थात निःशेष रूप से त्याग करता है लेकिन पूर्व में देशत्याग द्वारा त्याग करता था वैसे नहीं । xxxx v साकारोपयोग वाला होकर सिद्ध होता है, कृतार्थ होता है—सर्व प्रकार की लब्धि साकारोपयोग वाले को होती है लेकिन अनाकार उपयोग वाले को नहीं होती है । यह सिद्धि भी जो सर्व लब्धियों में उत्तम लब्धि है, साकारोपयोग वाले को ही होती है। किसी आचार्य ने कहा है-"जिस कारण से सर्व लब्धियाँ साकारोपयोग वाले को प्राप्त होती है उसी कारण से यह सिद्धि-लब्धि भी साकारोपयोग वाले को उत्पन्न होती है। इसके बाद क्रमशः उपयोग की प्रवृत्ति होती है-इस प्रकार केवली जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर सर्व दुःखों का अंत करते है। (ग) (केवली) गत्वा च अगत्वा च समुद्घातं xxx बादरकाययोगेन बादरमनोयोग निरुणद्धि, ततो बादरवाग्योगम् , ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगम् ; तेनैव सूक्ष्ममनोयोगं सूक्ष्मवाग्योगं च ; सूक्ष्मकाययोगं तु सूक्ष्मक्रियमनिवर्तिशुक्लध्यानं ध्यायन् स्वावष्टम्भेनैव निरुणद्धि, अन्यस्यावष्टम्भनीयस्य योगान्तरस्य तदाऽसत्त्वात् । तद्ध्यानसामर्थ्याच्च वदनोदरादिविवरपूरणेन संकुचितदेहविभागवर्तिप्रदेशो भवति । [तस्मिंश्च ध्याने वर्तमानः स्थितिघातादिभिरायुर्वर्जानि सर्वाण्यपि भवोपनाहिककर्माणि तावदपवर्तयति यावत् सयोग्यवस्थाचरमसमयः। तस्मिंश्च चरमसमये सर्वाण्यपि कर्माणि अयोग्यवस्थासमस्थितिकानि जातानि । नवरं येषां कर्मणामयोग्यवस्थायामुदयाभावस्तेषां स्थिति स्वरूपं प्रतीत्य समयोनां विधत्ते, कर्मत्वमात्ररूपतां वाश्रित्यायोग्यवस्थासमानाम् । तस्मिंश्च सयोग्यवस्थाचरमसमयेऽन्यतरद्वदनीयमौदारिक-तैजस-कार्मणशरीरसंस्थानषटक-प्रथमसंहनन- औदारिकाङ्गोपांग · वर्णादिचतुष्टया-ऽगुरुलघु - उपघात-पराघात-उच्छ्वास-शुभा-ऽशुभविहायोगति-प्रत्येकस्थिराऽस्थिर-शुभा शुभ-सुस्वर-दुःस्वर-निर्माणनाम्नामुदयोदीरणव्यवच्छेदः।] "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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