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________________ २१६ क्रिया-कौश तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लष्यानं ध्यायन् मध्यमप्रतिपत्त्या ह्रस्वपश्वाक्षरोगिरणमात्रं कालं शैलेशीकरणं प्रविशति । तत्र शैलेशः-- मेरुः तस्येयं स्थिरतासाम्यावस्था शैलेशी, यद्वा सर्वसंवरः शीलं तस्य य ईशः शीलेश तस्येयं योगनिरोधावस्था शैलेशी, तस्यां करणं--पूर्वविरचितशैलेशीसमयसमानगुणश्रेणीकस्य वेदनीयनामगोत्राख्याऽघातिकर्मत्रितयस्याऽसंख्येयगुणया श्रेण्या आयुः शेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणम् । तच्चासौ प्रविष्टोऽयोगी स चासौ केवली च अयोगिकेवली। अयं च शैलेशीकरणचरमसमयानन्तरमुच्छिन्नचतुर्विधकर्मबंधनत्वाद् अष्टमृत्तिकालेपलिप्साऽधोनिमग्नक्रमाऽपनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्व गामितथाविधाऽलाबुवद् ऊर्ध्व लोकान्ते गच्छति । न परतोऽपि, मत्स्यस्य जलकल्पगत्युपष्टम्भिधर्मास्तिकायाऽभावात् । स चोर्ध्व गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्ध्वमप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाञ्च समयान्तरमसंस्पृशन् गच्छति। -कर्म० भा २ । सू २ । टीका –(परिवेष्टितांश) कर्म० भा ६ । सू ६४ । टीका कर्म समीकरण करने के लिये समुद्घात करके या बिना किये ही केवली अंतक्रिया की शेषपर्याय बादर काययोग के द्वारा बादर मनोयोग के निरोध से प्रारंभ करते हैं । तत्पश्चात् बादर काययोग से बादर वाग्योग का निरोध करते हैं; तदनन्तर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग का निरोध, तब सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध, तब सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वाग्योग का निरोध करते हैं । तत्पश्चात सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यान को स्वशक्ति से ध्याते हुए सूक्ष्म काययोग का निरोध करते है। अन्य की शक्ति से योगान्तर का असद्भाव है अर्थात् अन्य की शक्ति से योग का निरोध नहीं होता है। उस ध्यान के सामर्थ्य से मुख, उदर आदि के विवर को पूर्ण करते हुए आत्मप्रदेश शरीर के एक तीसरे भाग प्रमाण संकुचित हो जाते हैं । इस ध्यान में वर्तमान रहते हुए केवली आयु बाद सब भवोपग्राहिक कर्म की स्थिति, घातादि का तब तक अपवर्तन करता रहता है, जब तक सयोगो अवस्था का चरम समय नहीं आता है। उस सयोगी अवस्था के चरम समय में सब कर्मों की स्थिति अयोगी अवस्था की स्थिति के बराबर हो जाती है। लेकिन अयोगी अवस्था में जिन कमों के उदय का अभाव है उन कर्मों का स्वरूप जानने के लिए समय-काल का उल्लेख है चूँकि अयोगी अवस्था में अयोगी के कर्मत्व मात्र का काल एक समान है। उस सयोगी अवस्था के चरम समय में दो वेदनीय कर्मों में से कोई एक, औदारिक, तेजस, कार्मण शरीर, षट् संस्थान, प्रथम संहनन, औदारिकाङ्गोपांग, चारों वर्ण, अरुलघु, "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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