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क्रिया-कोश
२१७ उपघात, पराघात, उच्छवास, शुभ-अशुभ विहायगति, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, निर्माण नाम-कर्मों का उदय-उदीरणा से व्यवच्छेद हो जाता है।
तदनन्तर समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाति शुक्लध्यान को ध्याते हुए. मध्यमगति से पाँच ह्रस्वाक्षर को उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने कालप्रमाण शैलेशीकरण में प्रवेश करते हैं।
गिरिराज-मेरु के समान स्थिरता वाली अवस्था-शैलेशी अवस्था अथवा सर्वसंबर रूप जिसका शील हो उसका ईश---शोलेश! उसकी यह योगनिरोधावस्था शैलेशीपन । उसका करण शैलेशीकरण ।
(उस शेलेशीकरण में वर्तता हुआ) शैलेशी के समय के समान पूर्व में रचित वेदनीय, नाम, गोत्र-तीन कर्मों की श्रेणी का-असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा-शेष आयुभ्य कर्म का यथास्वरूप से-श्रेणी स्थिति से कर्मस्कंधों की निर्जरा-शैलेशीकरण ! वहाँ पर प्रविष्ट अयोगी है तथा केवली है अतः उसे अयोगी केवली कहते हैं
जिस प्रकार आठ मिट्टी के लेप से लिपायमान सुंबा पानी में नीचे जाकर डूब जाता है फिर क्रमशः उन लेपों के अलग हो जाते ही वह जल के ऊपर आ जाता है उसी प्रकार शैलेशीकरण के चरम समय के अनन्तर चारों कर्मों के बंधन से छटकारा पाने पर
पर वे ऊर्व लोकांत में गमन करते हैं लेकिन नीचे नहीं आते हैं। जलकल्प में गति करने वाले मत्स्य की तरह धर्मास्तिकाय की सहायता से गति होती है परन्तु आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के बाहर गमन नहीं करते हैं।
ऋजुश्रेणी से ऊर्ध्व में जाकर उसने जितने आकाशप्रदेश को अवगाहित किया उतने ही आकाशप्रदेश को अवगाहित कर-विवक्षित समय से अनंतर समय स्पर्श करके रहता है।
'७३ ११ जीव किससे अंतक्रिया करता है :
.१ सम्यक्त्व पराक्रम से जीव अंतक्रिया करता है :
इह खलु सम्मत्तपरक्कमे 'नाम अज्झयणे' समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए जं सम्मं सद्दहित्ता पत्तियाइत्ता रोयइत्ता फासइत्ता पालइत्ता तीरइत्ता किट्टइत्ता सोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिज्मंति, बुज्झति, मुचंति, परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति ।
-उत्त० अ २६ । सू १ 1 पृ० १०२६ २८
"Aho Shrutgyanam"