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क्रिया-कोश इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में काश्यपगोत्री श्रमण भगवान महावीर ने 'सम्यक्त्व पराक्रम' नाम का अध्ययन कहा है, जिसपर भलीभाँति श्रद्धाकर, प्रतीति कर, रुचि रखकर, जिसके विषय का स्पर्शकर, स्मृति में रखकर, समग्र रूप से हस्तगत कर, गुरु को पठित पाठ का निवेदन कर, गुरु के समीप उच्चारण की शुद्धि कर, सही अर्थ का बोध प्राप्तकर और अर्हत को आज्ञा के अनुसार अनुपालन कर बहुत जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं और सर्व दुःखी का अंत करते है ।
'२ व्यवदान से जीव अंतक्रिया करता है :
वोदाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? बोदाणेणं अकिरियं जणयइ, अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुञ्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्व दुक्खाणमंतं करे?
-उत्त० अ २६ । सू २६ । पृ० १०३२ व्यवदान अर्थात् पूर्व संचित कर्मों का तप से विनाश करने से जीव अक्रिय होता है और अक्रिय होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त कर सर्व दुःखों का अन्त करता है।
३ सर्वभावप्रत्याख्यान से जीव अंतक्रिया करता है :
सम्भावपञ्चक्खाणणं भंते ! जीवे कि जणय ? सब्भावपञ्चक्खाणेणं अणियट्टि जणयइ । अणियट्टि पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तंजहा-- वेयणिज्जं, आउयं, नाम, गोयं । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिवाएइ, सम्बदुक्खाणमंतं करे।
-उत्त० अ २६ । सू ४२ । पृ० १०३३ सर्वभाव प्रत्याख्यान अर्थात् सर्व प्रवृत्तियों का परित्याग करने से जीव के अनिवृत्ति-शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद की प्राप्ति होती है । अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अणगार वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघाति कर्मों का क्षय कर देता है। तदनन्तर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण को प्राप्त करता है तथा सर्व दुःखों का अंत करता है । '४ कायसमाधारणता से जीव अंतक्रिया करता है :--
कायसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणय ? कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, चरित्तपज्जवे विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, अहक्खायचरितं विसोहित्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तओ पच्छा सिज्झइ. बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। --उत्त० अ २६ । सू ५६ । पृ० १०३४
कायसमाधारणता से जीव चारित्र-पर्यायों को विशुद्धि करता है ; चारित्रपर्यायों को विशुद्ध करके यथाख्यातचारित्र की विशुद्धि करता है; यथाख्यातचारित्र के विशोधन से
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