________________
२१४
क्रिया-कोश जितना. काययोग होता है उससे नीचे असंख्यात गुणहीन काययोग को समय-समय पर निरोध करता हुआ असंख्यात समय में सर्वथा काययोग का निरोध करता है ।
वह काययोग का निरोध करता हुआ सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाती शुक्लध्यान को प्राप्त होता है और उस ध्यान के सामर्थ्य से मुख, उदरादि के खाली भाग को पूरण करता हुआ शरीर के तीसरे भाग समान आत्मप्रदेशों को संकुचित करता है और शरीर के दो तृतीयांश भाग में आत्मप्रदेश घनरूप हो जाते हैं। भाष्यकार ने भी कहा है..."तत्पश्चात् उत्पत्ति के प्रथम समय में सूक्ष्म पनकजीव के जो जघन्य काययोग होता है उससे असंख्यात गुणहीन काययोग को एक-एक समय में निरोध करता हुआ तथा शरीर के तृतीयांश का त्याग करता हुआ असंख्यात समय में काययोग का निरोध करता है।"
काययोग के निरोधकाल के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में वेदनीयादि तीन कर्मों में से प्रत्येक कर्म की स्थिति सर्व अपवर्तनाकरण के द्वारा घटा कर गुणश्रेणी क्रम द्वारा कर्मप्रदेशों की रचना अयोगो अवस्था के कालप्रमाण के समान करता है ! xxx।
अयोगी प्राप्ति के अभिमुख होकर थोड़े काल में शैलेशीत्व को प्राप्त करता है । शैलेशीत्व कितने कालप्रमाण होता है ? इसके उत्तर में सूत्रकार कहते हैं कि पाँच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने कालप्रमाण शैलेशीत्व होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि नातिशीघ्र तथा नातिविलम्ब लेकिन मध्यमगति से 'ङ अ ण न म' इन पाँच ह्रस्वाक्षरों का उच्चारण करने में जितना समय लगे उतना शैलेशीत्व का कालप्रमाण है । और यह समय भी सूत्रकारानुसार असंख्यात समय प्रमाण है और इस असंख्यात समय के प्रमाण को जधन्य से अन्तमुहर्त प्रमाण कहना । सूत्रकार ने इसका अन्तर्महूर्त प्रमाण बतलाने के लिए ही ( अंतोमुहुतियं सेलेसिं पडिवज्जइ ) अर्थात् अन्तर्मुहर्त प्रमाण शैलेशीत्व को प्राप्त करता है-ऐसा कहा है।
शील-चारित्र को यहाँ निश्चयनयमतानुसार सर्वसंवर रूप ग्रहण करना क्यों कि यह सबसे उत्तम है । ऐसे चारित्र का जो स्वामी हो, उसकी जो अवस्था हो वह शैलेशी अवस्था । उस अवस्था में व्यवच्छिन्न (समुच्छिन्न) अक्रिय अप्रतिपाति शुक्लध्यान प्राप्त होता है ! किसी आचार्य ने कहा है-“शील - समाधि--निश्चय से सर्वसंवर रूप होती है और उसका ईश शीलेश । और उसकी अवस्था शैलेशी अवस्था।"शैलेशीत्व को प्राप्त हुआ जीव जितने काल में पाँच ह्रस्वाक्षरों को मध्यम प्रकार से उच्चारण किया जा सकता है उतने काल तक रहता है । काययोग के निरोध के प्रारम्भ से सूक्ष्म क्रिय अनिवृत्तिशुक्लध्यान होता है और शैलेशीकाल में व्यवच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है । केवल शैलेशत्व को नहीं प्राप्त करता है
परन्तु पूर्व में रचित गुणश्रेणी वाले वेदनीयादि कर्मों का अनुभव-वेदन भी प्राप्त करता है | xxxxx।
"Aho Shrutgyanam"