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________________ क्रिया-कौश ३२५ वा जाव - उरु वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, तस्स णं अंसियाओ लंवंति, तं चेव (च) वेज्जे अदक्खु ईसिं पाडेर पाडेला अंसियाओ छिंदेजा, से नूनं भंते ! जे छिंदर तस्स किरिया कज्जइ, जस्स छिज्जइ नो तस्स किरिया कज्जइ, गण्णत्थेगेणं धम्मंतरायणं । हंता, गोयमा ! जे छिंदर जाव धम्मंतराइएणं । --भग० श १६ । ३ । ४ । पृ० ७४३ छह-छह ( दो-दो दिन की तपस्या करते हुए ) के सपपूर्वक यावत् आतापना लेते हुए भावितात्मा अणगार को पूर्व भाग के दिनार्द्ध में ( प्रथम दो प्रहर तक ) हस्त अथवा पैर अथवा बाहु अथवा उरु- साथल को संकोच करना, फैलाना नहीं कल्पता है तथा पश्चिम भाग के दिनार्द्ध में हस्त अथवा पैर अथवा बाहु अथवा उरु साथल को संकोच करना, फैलाना नहीं कल्पता है । कायोत्सर्ग में स्थित उस अणगार की नासिका में लम्बमान अर्श को कोई वैद्य देखे तथा अर्श को देखकर उस अर्श का छेदन करने के लिए मुनि को भूमि पर गिरावे तथा गिरा कर उसके अर्श का छेदन करे तो उस वैद्य को क्रिया होती है; जिस साधु के अर्श को छेदा जाता है उस साधु को क्रिया नहीं होती है परन्तु धर्मान्तराय ( शुभ ध्यान का विच्छेद ) होता है । ६७ क्रियासंबंधी उपदेश : (क) णत्थि किरिया अकिरिया वा णेवं सन्नं निवेलए । अस्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सन्नं निवेसए || - सूय श्रु २ । अ ५ मा १६ क्रिया तथा अक्रिया नहीं है- ऐसी संज्ञा --- विचार नहीं रखना परन्तु क्रिया तथा अकिया है—ऐसा विचार रखना । यहाँ टीकाकार ने परिस्पन्दनात्मिका क्रिया का ग्रहण किया है और सांख्यों के आकाश की तरह सर्वव्यापी आत्मा में परिनिष्पदिका क्रिया नहीं होती है इसका निरसन किया है। (ख) किरियं च रोयए धीरे, अकिरियं परिवज्जए । उत्त० अ १८ । गा ३३ । पृ० १००७ धीर पुरुष क्रिया - सदनुष्ठान क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया दुष्टक्रिया का परित्याग करे | " Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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