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क्रिया-कोश
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*६६६ क्रिया और ज्ञान :
ते एवमक्खति समिच लोगं, तहा तहा समणमाहणा य । सयं कडं णन्नकडं च दुक्खं, आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥ - सूय० श्रु १ । अ १२ । गा ११ | पृ० १२८ टीका - आहंसु विज्जाचरणं पमोक्ख' ति, न ज्ञाननिरपेक्षायाः क्रियायाः सिद्धिः, अंधस्येव, नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पङ्गोरित्यव । xxx
तद्यथा - विद्या-ज्ञानं, चरणं चारित्रं क्रिया, तत्प्रधानो मोक्षस्तमुतावतो, न ज्ञानक्रियाभ्यां परधरनिरपेक्षाभ्यामिति तथा चोक्तम्
क्रिया च सज्ज्ञानवियोगनिष्फलां, क्रियाविहीनां च विबोधसम्पदम् । निरस्यता क्लेशसमूहशान्तये, त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥ अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचित्यतामौषधमातुरं हि, न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥
सूय ० श्रु १ । अ १२ । सू ११, १७ । टीका
लोक में कई व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि ज्ञानमात्र से मुक्ति होती है और कई व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि ज्ञान बिना भी क्रिया करने से मुक्ति होती है लेकिन श्रमण निर्ग्रथ भगवान् महावीर ने विद्या - ज्ञान और चरण - चारित्र – क्रिया -- दोनों के संयोग से मुक्ति होना कहा है ।
ज्ञाननिरपेक्ष क्रिया से सिद्धि नहीं होती है-- जैसे, अंधा मनुष्य अकेला गंतव्य स्थल को प्राप्त नहीं कर सकता है तथा क्रिया-विहोन ज्ञान मात्र से सिद्धि नहीं हो सकती है यथा, पंगु मनुष्य अपने गंतव्य स्थान को नहीं पहुँच सकता है ।
सद् -- सम्यग् ज्ञान के बिना क्रिया निष्फल होती है तथा क्रिया-विहीन ज्ञान भारभूत है - जैसे औषधि के ज्ञान मात्र से रोगी को कोई लाभ नहीं होता है औषधि के चिंतन मात्र से रोग दूर नहीं होता है उसी प्रकार क्रिया के बिना ज्ञान व्यर्थ है तथा सद्ज्ञान रहित क्रिया भी व्यर्थ है ।
अतः भगवान् ने उपदेश दिया है कि सम्यग् ज्ञान और सम्यग् क्रिया के युगल से जीव को मुक्ति होती है ।
"Aho Shrutgyanam"