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क्रिया-कोश
३३१ "EE ७ क्रिया और दशन :--
निसग्गुवएसरुई, आणाई सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थारुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई ॥ दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सच्चसमइगुत्तीसु। जो किरियाभावरुई, सो खलु किरियाई नाम ।।
- उत्त० अ २८ ! गा १६, २५ । पृ० १०२६ सम्यक्त्व के १० भेदों में क्रियारूचि भी एक भेद है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति तथा गुप्ति रूप क्रियाओं से ही जिसकी रुचि सद्-पदार्थों में होती है वह कियारुचि सम्यक्त्व है।
१६८ क्रिया और ध्यान काययोगस्य सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति ।
-तत्त्वराज अह । सू ४० । टीका सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति । तदस्तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिध्यानमारभते । समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगसर्वप्रेदेशपरिस्पंदक्रियाव्यापारत्वात समुच्छिन्नक्रियानिवर्तीत्युच्यते ।
--तत्त्वराज० अ६ 1 सू ४४ 1 टीका - तेरहवें गुणस्थान की शेष अवस्था की तरफ सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म क्रियाऽतिपाति शुक्लध्यान ( तीसरा पाद) होता है। इस अपेक्षा से उस समय भी जीव सक्रिय होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि इसके पूर्व के सब ध्यानों में भी जीव सक्रिय होता है क्योंकि उस समय योग-चलना इसकी तुलना में अधिकतर होती है।
सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यान के बाद समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान (चौथा पाद) आरंभ होता है तथा इसके द्वारा प्राणापान--श्वासोच्छ्वास का प्रचार (आवागमन) बंद तथा समस्त काय-वचन-मन-योग का निरोध हो जाता है तथा सर्व आत्मप्रदेश की परिस्पदन क्रिया रुक जाती है और क्रिया और योग के अन्यापार से जीव अयोगी तथा अक्रिय हो जाता है।
शुक्लध्यान के तीसरे ध्यान (पाद) में सूक्ष्म काययोग का सहयोग होता है लेकिन चौथे ध्यान (पाद) में सर्व क्रियाएँ समुच्छिन्न-व्युच्छिन्न हो जाती हैं। चौथे ध्यान में निमग्न जीव क्रिया रहित होता है। तीसरे ध्यान वाला जीव सूक्ष्मकायिक क्रिया सहित होता है।
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