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क्रिया - कोश
६६६ क्रिया और अहिंसा महाव्रत की भावना
अहावरा दोचा भावणा, मणं परिजाणाइ से णिग्गंथे, जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्यकरे छेयकरे भेयकरे अधिकरणिए, पाओसिए, परिताविए पाणाश्वाइए, भूओवधाइए तहप्पगारं मणं णो पधारेज्जा, मणं परिजाणार से णिग्गंथे जे य मणे अपावए त्ति दोच्चा भावणा ।
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अहावरा तच्चा भावणा, वह परिजाणाइ से णिग्गंथे जा य वई पाविया सावज्जा सकिरिया जाव भूओवघाइया तहध्वगारं नई णो उच्चारिज्जा, जे वई परिजाणाइ से णिग्गंथे जा य वई अपावियत्ति तथा भावणा ।
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- आया० श्रु २ । अ १५ । स ४५-४६ । पृ० ६५ महाव्रती - संयति कायिकी, अधिकरणिकी आदि क्रियाओं से मन को सक्रिय न करे अर्थात् मन को इन क्रियाओं में प्रवृत्त न होने दे ।
कायिकी, अधिकरणिकी आदि क्रियाओं से वचन को सक्रिय न करे अर्थात् क्रिया करने वाले शब्दों का उच्चारण न करे ।
हमने यहाँ अर्थ क्रिया की अपेक्षा से किया है ।
*६६१० क्रिया और काल
'वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।
-तत्त्व० अ ५ / सू. २२
वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व काल के उपकार हैं । द्रव्यों में क्रिया का होना काल का उपकार है ।
सर्व० टीका - क्रिया परिस्पन्दात्मिका ।
यह क्रिया परिस्पन्दात्मिका होती है, अर्थात् द्रव्यों में जो परिस्पन्दन रूप परिणमन होता है वह क्रिया है ।
पर्यायो
*६६ ११ क्रिया और परिणाम (क) सर्व ० टीका- द्रव्यस्य धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामः । जीवस्य क्रोधादिः पुद्गलस्य वर्णादिः । धर्माधर्माका - शानामगुरुलघुगुणवृद्धिहा निकृतः ।
क्रिया परिस्पन्दात्मिका ।
-तत्त्व अ ५ । सू २२
एक धर्म की निवृत्ति होकर दूसरे धर्म की उत्पत्तिरूप परिस्पन्दन रहित जो द्रव्य की पर्याय होती है उसे परिणाम कहते हैं । यथा - जीव का क्रोधादि भावों में पुद्गल का वर्णादि में तथा धर्म-अधर्म आकाश का अगुरुलघु गुण में परिणमन करना ।
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