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क्रिया-कोश
१८३ विश्लेषण :---धनुषधारी को धनुष ग्रहण करने से लेकर वाण छोड़ने तक पाँच क्रियायें होती है वे प्रवृत्ति की अपेक्षा से होती हैं तथा जिन जीवों के शरीर से धनुष, धनुष की पीठ, जीवा (डोरी), न्हारु-बाण बने ; शर, पत्र, न्हारु बने वे जो पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं वह अविरति की अपेक्षा से होते हैं ।
अस्तु-सिद्ध के अविरत परिणाम नहीं होते हैं इसलिए उनको परित्यक्त शरीरों से होने वालो कायिकी आदि क्रियायें नहीं होती हैं ।
जब तक बाण वेग में रहता है, नीचे की तरफ नहीं गिरता है उपरोक्त विवेचन उस समय तक का है।
__ जब वह वाण अपनी गुरुता से, अपने भार से, अपनी गुरुसंभारता से विलसा स्वभाव से नीचे गिरता है और ऊपर से नीचे गिरता हुआ वह बाण बीच मार्ग में प्राण भूत-जीवसत्त्वों का अभिहनन यावत प्राण रहित करता है तब बाण निक्षेपकारी वह पुरुष कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है ।
जिन जीवो के शरीर से धनुष बना, जिन से धनुष की पीठ बनी, जिनसे धनुष की डोरी बनी, जिनसे न्हारु बना-वे जीव चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं ।
जिन जीवों के शरीर से बाण, जिनसे शर बना, जिनसे पत्र बना, जिनसे फल बना, जिनसे न्हारु बना-वे पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं।
नीचे गिरते हुए बाण के अवग्रह में जो जीव आते हैं वे जीव भी कायिकी आदि पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं ।
विश्लेषण :---पुरुष के द्वारा छोड़ा हुआ वह बाण अपनी गुरुता आदि के कारण जब नीचे गिरता है तब जिन जीवों के शरीर से धनुष, धनुष की पीठ, डोरी, न्हास बने उन जीवों को चार क्रियायें होती हैं क्योंकि धनुष आदि साक्षात् वध-क्रिया में प्रवृत्त नहीं होते हैं अर्थात वे उसमें निमित्त मात्र हैं। जिन जीवों के शरीर से बाण, शर, पत्र, फल, न्हारु बने, उन जीवों को पाँच क्रियाएँ होती हैं क्योंकि बाणादि साक्षात्-मुख्य रूप से जीवहिंसा में प्रवृत्त होते हैं ।
७ लुहार का :
पुरिसे णं भंते! अयं अयकोटसि अयोमएणं संडासएणं उम्बिहमाणे वा पब्विहमाणे वा कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोर्टसि अयोमएणं संडासएणं उव्विहिइ वा पव्विहिइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए-जावपाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहि पुट्ठ, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो अए (यो) निव्वत्तिए अयकोहे निव्वत्तिए संडासए निव्वत्तिए इंगाला निव्वत्तिया
"Aho Shrutgyanam"