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क्रिया-कोश
का कारण होती है तथा प्रत्याख्यान परिशा से यह ज्ञान होता है कि ये सभी करण पापोपादान की हेतु है, अतः इनका प्रत्याख्यान करना चाहिए ।
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*६१३ मन, वचन तथा काय की अपेक्षा करण के ३ भेद
तिविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा- मणकरणे, वयकरणे, कायकरणे एवं विगलिंदियवज्जं - जाव - वेमाणियाणं । - ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १२४ । पृ० २०३ करण के तीन भेद होते हैं, यथा मनकरण, वचनकरण तथा कायकरण | ऐसा विकलेन्द्रिय ( एकेन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय) को छोड़ कर वैमानिक देवों तक सभी जीवों के सम्बन्ध में जानना ।
टीका - मननादिक्रियासु प्रवर्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथा परिणामवत्पुद्गलसंघात इति भावः । तत्र मन एव करणं मनःकरणमेवम् इतरे अपि xxx अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानाम् मनः प्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिर्दशनात् ।
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-क्रियाएँ
मनन, चिन्तन आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान आत्मा का जो उपकरणभूत है वह करण ; और तथारूप मनन चिन्तन रूप ) परिणामवाले पुद्गलों का समूह करण है ऐसा भी भाव या तात्पर्य है । वहाँ मन ही करण है अतः मनकरण । इसी प्रकार वचनकरण और कायकरण को भी समझना चाहिए । अथवा योग, प्रयोग तथा करण शब्दों के साथ में मन, वचन, काया शब्द का जो प्रयोग है वह केवल शब्द-भेद है । अतः इनमें अर्थ-भेद का विचार नहीं करना चाहिये। आगमों में इन तीनों का एक ही अर्थ में बहुत जगह पर व्यवहार मिलता है ।
६१४ आरंभ, संरंभ तथा समारंभ की अपेक्षा करण के ३ भेद
तिविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा- आरंभकरणे, संरंभकरणे, समारंभकरणे, निरंतरं— जाव - वेमाणियाणं ।
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"Aho Shrutgyanam"
- ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १२४ | पृ० २०३ करण के अन्य अपेक्षा तीन भेद होते हैं, यथा आरम्भकरण, संरम्भकरण तथा समारम्भकरण | ऐसा दण्डक के वैमानिक देव तक जानना |
टीका — प्रकारान्तरेण करणत्रैविध्यमाह xxx आरम्भणमारम्भः - पृथिव्यापमर्दनं तस्य कृतिः - करणं स एव वा करणमित्यारम्भकरणमेवमितरे अपि वाच्ये,