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क्रिया-कोश
नवरमयं विशेष: संरम्भकरणं पृथिव्यादिविशेषमेव मनः संक्लेशकरणं, समारम्भकरणं - तेषामेव संतापकरणमिति, आह च---
समारंभो ।
सव्वेसिं ॥
।
संकपो संरंभी परितापकरो भवे आरंभो उदवओ सुद्धनयाणं तु प्रकारान्तर से करण के उपर्युक्त तीन भेद कहे गये हैं पृथ्वी आदि को उपमर्दित करने की क्रिया को अथवा आरम्भ करने को आरम्भकरण कहते हैं । इसी प्रकार संरंभ व समारम्भ के विषय में भी कहना चाहिए । विशेष यह कि पृथ्वी आदि को सन्ताप देने का संकल्प करना संरम्भकरण तथा उनको पीड़ा पहुँचाना समारम्भकरण है । कहा भी है
किसी जीव की हिंसा करने के अध्यवसाय ( संकल्प ) संरम्भ है तथा उनको पीड़ा पहुँचाने की प्रवृत्ति समारम्भ है तथा उनके प्राणों का हनन करने का व्यापार आरम्भ है । ये तीनों करण सर्वशुद्ध नयों द्वारा समर्थित हैं ।
१२ क्रिया और दर्शन :--
९२१ विवेचन :―
भगवान् महावीर ने अपने समय के प्रचलित या पूर्व प्रचलित जितनी धार्मिक तथा दार्शनिक विचारधाराएँ थीं उनको चार प्रधान भागों में विभक्त किया :"चत्तारि वाहसमोसरणा पन्नत्ता, तंजहा - किरियावाई, अकिरियावाई, अन्नाणियावाई, वेणश्यावाई' ।
चार प्रकार के समवसरण अर्थात् दर्शन या मतवाद होते हैं-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी ।
सामान्यतः
यहाँ पर वाद या दर्शन के साथ क्रिया का संयोग बड़ा महत्त्वपूर्ण है । आगमकारों तथा टीकाकारों ने क्रिया का अर्थ अस्ति या आस्तिकता लिया है। जो व्यक्ति क्रिया-अक्रिया, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, बन्ध-मोक्ष, वेदना-निर्जरा, लोकअलोक, सिद्धि-असिद्धि, धर्म-अधर्म, साधु-असाधु, शाश्वत् - अशाश्वत् नित्य-अनित्य, रागद्व ेष, क्रोध-मान, माया-लोभ, नरक-नारकी, देव-देवी, गति - आगति, इहलोक - परलोक, जन्म-मरण - उपपात, चातुर्गतिक संसार, संसार में परिभ्रमण, दु:ख-सुख, सुकृत- दुष्कृत, सुकृतदुष्कृत का फल विशेष होता है, अच्छे कर्मों का अच्छा फल, बुरे कर्मों का बुरा फल, पुण्य-पाप फल देते हैं, इत्यादि अर्थ-तत्त्व - पदार्थों में से एक-अनेक सर्व की अस्ति में एकांत या अनेकांत से, सापेक्ष या निरपेक्ष भाव से विश्वास करते हैं वे क्रियावादी हैं, उनका क्रियावाद दर्शन समूह में समावेश किया जाता है ।
"Aho Shrutgyanam"