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क्रिया-कौश
२६१ कर्मबंधन का कारण योग है ; मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहते हैं और वह क्रियारूप है। कार्यरूप कर्म को माननेवाला कर्म के कारणभूत क्रिया को भी मानता है। क्रिया कर्मबंधन का कारण है जैसा कि आगम में प्रसिद्ध है—“जो जीव समितपरिमाण-पूर्वक कम्पन करता है, विविध भाव से कम्पन करता है, देशान्तर गति करता है, स्पंदन-परिस्पंदन करता है, सभी दिशाओं में गति करता है और अनुतापादि क्रियाओं को करता है तथा जीव उस-उस भाव में परिणमन करता है तथा वह जीव आठ कर्मों को बाँधता है अथवा सात कर्मों को बाँधता है, अथवा छह कर्मों को बाँधता है अथवा एक कर्म को बाँधता है लेकिन वह कर्म का अबंधक नहीं होता है ! इसलिए जो कर्मवादी है वही क्रियावादी भी है। इससे आत्मा को अक्रिय मानने वाले सांख्य मत का खण्डन हो जाता है।
यहाँ पर कर्मबंध की हेतुरूप क्रिया को मानने वाले को क्रियावादी कहा गया है ।
जीवादि पदार्थ भी है, क्रिया भी है —ऐसा कहने वाले को भी क्रियावादी कहा गया है।
.३ क्रिया-मोक्ष की हेतु के आधार पर क्रियावाद :
(क) क्रियावादिदर्शनम्. क्रियैव चैत्यकर्मादिका प्रधान मोक्षाङ्गमित्येवं वदितं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनम् आगमः कियावादिदर्शनम् ।
-सूय० श्रु १ । अ १ । उ २ । गा २४ । टीका (ख) क्रियैव परलोकसाधनायाऽलमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां हि दीक्षात एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः।
- सूय० श्रु १ 1 अ ६ ! गा २७ । टीका जो क्रिया को मोक्ष का प्रधान अंग मानते हैं अथवा क्रिया हो परलोक साधन के लिए यथेष्ट है उनको आगम में क्रियावादी कहा गया है ।
ज्ञानरहित क्रिया से ही स्वर्ग अपवर्ग का साधन हो सकता है अर्थात ज्ञान बिना क्रिया से हो मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ऐसा कहने वाले को भी क्रियावादी कहा गया है। ६२.४.२ क्रियावादी के भेद :(क) सम्मट्ठिी किरियावाई मिच्छा य सेसगावाई।
-~सूय० श्रु १ ! अ १२ । गा १ । नि गा १२१ टीका–स तत्रास्त्येव जीव इत्येवं सावधारणतयाऽभ्युपगमं कुर्वन् काल एवैकः सर्वस्यास्य जगतः कारणम्, तथा स्वभाव एव, नियतिरेव, पूर्वकृतमेव, पुरुषाकार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतयैकान्तेन कालादीनां कारणत्वेनाश्रयणान्मिथ्यात्वम् ।
"Aho Shrutgyanam"