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________________ के साथ बद्ध रहने की उनकी अपनी-अपनी एक काल-मर्यादा होती है, उसे शास्त्रीय भाषा में स्थितिबन्ध कहते हैं। जब आत्मा कर्मों का फल भोग कर लेती है तब वह कर्म-पुद्गल आत्मा से अलग हो जाते हैं 1 फल भोग के समय यदि आत्मा के रागद्वेषात्मक भाव होते हैं, तो फिर वह नये कर्म बाँध लेता है और उन्हें फिर यथाप्रसंग भोगना होता है। इस प्रकार बीज-वृक्ष-न्याय से कर्म और कर्मफल का भोग, फिर कर्म और फिर कर्मफल का भोग--यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है। सांसारिक स्थिति के निचले स्तरों पर कोई क्षण ऐसा नहीं गुजरता, जबकि रागद्वेष की वृत्ति का कोई भी अंश अन्दर में न हो और उस समय कोई भी कर्म आत्मा के साथ न बँधता हो। हर क्षण में रागद्वेष किसी न किसी रूप में होते ही हैं और उसके अनुसार कर्मबन्ध भी न्यूनाधिक मात्रा में हर क्षण होता ही रहता है। द्रव्यकर्म पुद्गल रूप है, और वह भावकर्म के निमित्त से कर्म का रूप ग्रहण करता है। यह भावकर्म ही है, जिसे जैन दर्शन ने क्रिया कहा है, और जिसे कर्म की जननी कहा जाता है । आत्मा की शुभ-अशुभ प्रवृत्तियाँ, चेष्टाएँ, हरकतें ही क्रिया है ! यदि क्रिया न हो तो कर्म भी न हो। क्रिया से ही कर्म अस्तित्व में आता है। हर क्रिया की कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है और प्रतिक्रिया ही कर्म है। अतएव जैन दर्शन ने जितने विस्तार से कर्मों का वर्णन किया है, उतने ही विस्तार से क्रियाओं का भी वर्णन किया है। कर्म के शुभाशुभ विकल्पों को, विभिन्न प्रकारों को समझने के लिये कियाओं के स्वरूप का भी विस्तार से परिज्ञान होना आवश्यक है। आगम साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग क्रियाओं की चर्चा से परिव्याप्त है। कहीं संक्षेप शैली में चर्चा है तो कहीं विस्तार शैली में। कहीं व्यवहार दृष्टि से निरूपण है तो कहीं निश्चय दृष्टि से । कहीं-कहीं तो इतनी अधिक सूक्ष्म चर्चाएँ हैं कि उनके वास्तविक मर्म को समझने के लिये काफी दूर तक चिन्तन की गहराई में उतरना पड़ता है और यह चिन्तन की गहराई ही साधक के लिये साधना का पथ प्रशस्त करती है। व्यक्ति की जैसी क्रिया होगी, उसी के अनुसार उसका कर्म भी होगा। और जैसा कर्म होगा, वैसा ही उसका फल होगा ! यदि कोई कर्म के फल से बचना चाहता है तो उसे कर्मबन्ध से बचना होगा। और जो कर्म बन्ध से बचना चाहता है, उसे कर्मबन्ध करने वाली क्रियाओं से बचना होगा। मूल में क्रिया है और शेष सब उसी का विस्तार है । धर्मसाधना कियाओं का निरोध है, और कुछ नहीं। यह निरोध ही संवर है, जो जैनसाधना का महातिमहान मुक्तिपथ है। १-आस्रवनिरोधः संवरः।-तत्त्वार्थसूत्र ६१ [ 22 ] "Aho Shrutgyanam'
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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