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क्रिया-कोश (ग) शाठ्यालस्यवशादहत्प्रोक्ताचारविधौ तु यः । अनादरः स एव स्यादनाकांक्षक्रिया विदाम् ॥
श्लोवा० अ६ । सू ५ । गा २१ । पृ० ४४५ आलस्य तथा प्रमाद के वश होकर अपने शरीर की अपेक्षा नहीं करने अथवा शास्त्रोक्त विधि-व्यवहारों को नहीं करने से जो क्रिया लगती है वह अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है। ३२२ भेद
अणवखवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-आयसरीरअणवकखवत्तिया चेव, परसरीरअणवकंखवत्तिया चेव ।
--ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० [ पृ० १८६ अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा--आत्मशरीर-अनवकांक्षाप्रत्यायिकी क्रिया तथा परशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया। ३२.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ
१ आत्मशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया --- (क) तत्रात्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वतः ।
__ --ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) तत्र स्वानवकांक्षा जिनोक्तेषु कर्तव्यविधिषु प्रमादवशवर्तितानादरः ।
-सिद्ध अ६ । सू ६ । पृ० १३ अपने शरीर के नाश करने वाले कार्यों को करने में अपने शरीर की अनपेक्षा के निमित्त से होने वाली क्रिया आत्मशरीर-अनवकांक्षा क्रिया कहलाती है ।
२. परशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया (क) परशरीरक्षतिकराणि तु कुर्वतः । -ठाण° स्था २१ उ १ । सू.६० ! टीका (ख) अनाद्रियमाणः परमपि नावकांक्षतीति परानवकांक्षा क्रियेति ।
—सिद्ध अ६ । सू६। पृ० १३ दूसरों के शरीर को नष्ट करनेवाले कार्यों को करने के निमित्त से जो क्रिया होती है वह परशरीर-अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है ।
'३३ रागप्रत्ययिकी क्रिया ३३.१ परिभाषा / अर्थ
प्रेम-रागो मायालोभलक्षणः।
ठाण० स्था २ । उ १ । सू. ६० । टीका
"Aho Shrutgyanam"