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क्रिया-कोश माया तथा लोभ प्रेम अर्थात राग के लक्षण हैं। इनके निमित्त से होनेवाली क्रिया रागप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है । '३३.२ भेद
पेज्जवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- मायावत्तिया चेव, लोहवत्तिया चेव।
-----ठाण° स्था २ । उ १ । सू ६० । पृ० १८६-८७ रागप्रत्ययिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-मायाप्रत्ययिकी क्रिया तथा लोभप्रत्ययिकी क्रिया। '३३'३ भेदों की परिभाषा / अर्थ
१ मायाप्रत्ययिकी क्रिया-- देखिये क्रमांक........"( १५) '२ लोभप्रत्ययिकी क्रिया
देखिये क्रमांक ..." ( ५३) '३३.४ रागप्रत्ययिकी क्रिया और जीवदंडक
(क) (अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । कम्हि पं भंते ! जीवाणं परिम्गहेणं किरिया कन्जन ? गोयमा ! सव्वदठवेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ) एवं xxx पेज्जेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरक्यभेदेणं (सु) भाणियव्वा निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । ---पपण० प २२ । सू० १५८० । पृ० ४७६
किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति प्रेम-स्नेहभाव लाना राग है । ये भावकषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं, रागक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं । नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति राग से क्रिया करते हैं ।
(ख अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएर्ण किरिया कजइ ? हता, अस्थि । xxx एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले ।
(देखिये क्रमांक २२.४ ) जीव राग से क्रिया करते हैं। राग-क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। राग-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रम-पूर्वक की जाती है विना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है ।
नारकी जीव भी रागक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओ दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है।
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