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क्रिया-कोश
८३ एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडको में नारकी के समान कहना चाहिये।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिये ! '३३.५ रागप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध :
जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? .........."( पूरे पाठ के लिये देखो २२.५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्लेणं ।
-पण्ण० प २२ । सू१५८४ । पृ० ४७६.८० रागप्रत्ययिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बन्ध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बन्ध करता है ।
'३४ द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया '३४'१ परिभाषा । अर्थ द्वेषः क्रोधमानलक्षण इति ।
-ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० टीका क्रोध और मान द्वेष के लक्षण हैं। इनके निमित्त से होने वाली क्रिया द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है। "३४२ भेददोसवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-कोहे चेव माणे चेव ।
-ठाण० स्था २ ! उ १ ! सू ६० । पृ० १८७ द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया के दो भेद होते हैं, यथा-क्रोधप्रत्ययिकी तथा मानप्रत्ययिकी । ३४.३ भेदों की परिभाषा ! अर्थ
१ क्रोधप्रत्ययिकीकोध के निमित्त से होने वाली क्रिया क्रोधप्रत्ययिकी क्रिया कहलाती है । नोट :----टीकाकारों ने सुगमता के कारण इसकी व्याख्या नहीं की है।
__ ......... ( देखिये क्रमांक ५६ ) '२ मानप्रत्ययिकी
......( देखिये क्रमांक ५१ ) ३४४ द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया और जीवदंडक
(क) ( अस्थि णं भंते : जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हता, अस्थि । कम्हि णं भंते ? जीवाणं परिम्गहेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! सव्वदन्वेसु, एवं नेरइ.
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