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क्रिया-कोश याणं जाव वेमाणियाणं ) एवं xxx दोसेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरच्यभेदेणं (सु) भाणियव्वा निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति।
-पण्ण ० प २२ । सू १५८० । पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति राग-द्वेष-अहं भाव लाना द्वेष है। ये भावकषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं। वे पक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं । नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति द्वेष से क्रिया करते हैं ।
(ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवारणं किरिया कज्जइ १ हंता, अस्थि । xxx । एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्या, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले।
(देखो क्रमांक २२.४ ) जीव द्वेष से क्रिया करते हैं । द्वेष-क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । द्वेष-किया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुकमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है ।
नारको जीव भी द्वेषक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह किया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दडकों में नारकी के समान कहना चाहिये।
___एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिये। '३४.५ द्व पप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध :
जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बन्धय ?..... ( पूरे पाठके लिये देखो २२५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्लेणं ।
-पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है ।
.३५ प्रायोगिकी क्रिया '३५१ परिभाषा | अर्थ
(क) तत्र प्रयोगक्रिया मनोवाकायलक्षणा विधा । तत्र स्फुरद्भिर्मनोद्रव्यरात्मन उपयोगो भवत्येवम् । वाकाययोरपि वक्तव्यम् । -सूय० श्रु २ । अ २ । सू १ । टीका
"Aho Shrutgyanam"