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क्रिया-कोश अस्तु-नारकी, असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव, वायुकाय, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिक जीव, मनुष्य, वाणव्यंतर ज्योतिषी-वैमानिक देव वैक्रिय समुद्घात कर सकते हैं तथा पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक अग्निकायिक जीव वनस्पतिकायिक जीव-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों के वैक्रिय समुद्घात नहीं होती है ।
६६ १३.५ कायिकी क्रियापंचक और तैजस समुद्घात :
जीवे भंते ! तेयगसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभा xxx एवं जहेव वेउब्वियसमग्घाए तहेव xxx सेतं तं चेव, एवं जाव वेमाणियस्स xxxi
-पण्ण० प ३६ । सू २१६५ । पृ० ५३० तेजस समुद्घात करने वाले औधिक जीव तथा तेजस समुद्घात करने योग्य दंडक के जीव के सम्बन्ध में कायिकी आदि क्रियापंचक की वक्तव्यता उसी प्रकार कहनी चाहिए जे सो वक्तव्यता वेदना समुद्घात करने वाले औधिक जीव और दंडक के जीव के सम्बन्ध में कही गई है !
अस्तु-चार देवनिकाय, पंचेन्द्रिय तिर्य'च योनिक जीव तथा मनुष्य जीव के तेजस समुदघात होती है अन्य दंडक के जीवों के नहीं।
६६.१३.६ कायिकी क्रियापंचक और आहारक समुद्घात :--
जीवे णं भंते ! आहारगसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ xxx ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणंति जाव उद्दति ते (तओ) णं भंते ! जीवे कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। ते गं भंते ! जीवाताओ जीवाओ का किरिया ? गोयमा ! एवं चेव । से णं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसि जीवाणं परंपराघाएणं कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि च उकिरिया वि पंचकिरिया वि, एवं मणूसे वि।
-पण्ण० प ३६ । सू२१६६-६७ । पृ० ५३०-३१ आहारक समुद्घात से समवहत-आहारक समुद्घात करने वाला जीव आहारक समुद्घात करके जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है वे बाहर निकाले हुए पुद्गल तत्र स्थित प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों का हनन करते है, हेर-फेर करते हैं, थोड़ा स्पर्श करते हैं, परस्पर संघात उत्पन्न करते हैं, तीत्र संघात उत्पन्न करते हैं, पीड़ा उत्पन्न करते हैं, क्लांत करते हैं, प्राण-वियोग करते हैं तो उन जीवों की अपेक्षा उन पुद्गलों से आहारक समुद्घात करने वाले जीव के कदाचित तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है ।
आहारक समुद्घात से निर्गत पुद्गलों द्वारा हनन किये जाने वाले जीवों को उस
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