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क्रिया-कोश तेणमिति मन्नमाणे अतेणे हय-पुव्वे भवइ दिद्विविपरियासियादंडे। एवं खलु तस्स तम्पत्तियं सावज ति आहिजइ । पंचमे दंड-समादाणे दिट्ठि-विपरियासिया-दंडवत्तिए त्ति आहिए।
- सूय ० श्रु २ । अ २ । सू ६ । पृ० १४७ .. टीका- दृष्टविपर्यासो रज्जुमिव सर्पबुद्धिस्तया दंडो दृष्टि विपर्यासोऽबुद्धिदण्डः । तद्यथा लेष्टुकादिबुद्ध या शराद्यभिघातेन चटकादिव्यापादनम् ।
. -सूय श्रु २ ! अ २! सू १ । टीका ___ यदि कोई व्यक्ति माता, पिता, भाई, वहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि के सहवास में रहता हुआ ज्ञातिका परिपालन करने के लिये अपने मित्र को शत्रु समझ कर, भ्रम से उसे मारता है । यह मिन को शत्रु के भूम से मारने वाला दृष्टिविपर्यासदंड है ।
यदि कोई व्यक्ति गाँव, नगर, खेड ( नदी से परिवेष्टित ), खर्वट ( पहाड़ियों के बीच में बसा हुआ गाँव), मंडब ( जिसके आस-पास कोसों की दूरी पर कोई गाँव न हो), द्रोणमुख ( बंदरगाह), पट्टण ( रत्न आदि की खदान वाला गाँव ), आश्रम (तापसों का निवासस्थान ), सन्निवेश ( कटकादि का वास या मंडी), निगम (व्यापार का मुख्य केन्द्रस्थल ), राजधानी पर डाकूदल या अन्य के द्वारा धावा होने पर मार-काट के समय जो चोर नहीं है उसे चोर के भ्रम में मार देता है। यह अचीर को चोर के भ्रम में मारने वाला दृष्टि-विपर्यासदंड है।
उपर्युक्त दोनों व्यक्तियों को दृष्टिविपर्यासदंडप्रत्ययिक सावध क्रिया लगती है। यह पाँचवाँ दृष्टिविपर्यासदंड-प्रत्यायिक दंडसमादान है।
“४८ मृषावाद क्रिया ( स्थान ) ४८.१ परिभाषा / अर्थ---
(क) सतोऽपलापोऽसतश्च प्ररूपणं मृषावादः, स च लोकालोकगतसमस्तवस्तुविषयोऽपि घटते।
-~-पग्ण० प २२ । सू १५७६ । टीका (ख) मृषावादप्रत्ययिकः स च सद्भूतनिहवासद्भूतारोपणः ।
-सूय० श्रु २ । अ २ ! सू १ । टीका (ग) मृषा-मिथ्यावदनं वादो मृषावादः, स च द्रव्यभावभेदात् द्विधा, अभूतोद्भावनादिभिश्चतुर्धा वा ।
- ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका - झूठ बोलना मृषावाद है। सत्य वस्तु का अपलाप करना तथा असत्य का प्रतिपादन करना मृषावाद है । लोकालोक में स्थित समस्त वस्तु के विषय में मृषावाद क्रिया हो सकती है।
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