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क्रिया-कोश
१०१ '४८२ मृषावाद क्रिया और जीव --
से जहानामए– केइ पुरिसे आयहेउ' वा नाइहेडंवा अगारहेङ वा परिवारहे वा सयमेव मुसं वयइ, अन्नेणं पि मुसं वाएइ, मुसं वयंतं पि अन्नं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिजइ। छठे किरिय-ट्ठाणे मोसावत्तिए त्ति आहिए।
-सूय० श्रु२ । अ २ । सू ७ । पृ० १४७ कोई व्यक्ति अपने लिए, जाति, गृहस्थी या परिवार के लिए स्वयं झूठ बोले, दूसरे से झूठ बुलवाए या झूठ बोलते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करे तो उसको मृषावादप्रत्यायिक सावद्य क्रिया लगती है। यह छहा मृषावादप्रत्ययिक क्रियास्थान है । ४८३ मृषावाद क्रिया और जीवदंडक :
(क) अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ?....." एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए । ( देखो क्रमांक २२४)
-भग श १ । उ ६ । प्र २०६ से २१५ । पृ० ४०३ __ (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कन्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं निरंतरं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ।
-पण्ण ० प २२ । सू १५७६ । पृ० ४७६ जीव मृषावाद की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं। मृषावाद की क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को और कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । मृषावाद की क्रिया कृत है, अकृत नहीं है, मृषावाद की क्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है। यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है ।
नारकी जीव भी मृषावाद की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा वह किया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औघिक जीव की तरह अनुकमपूर्वक की जाती है।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । .४८४ मृषावाद क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध :
जीवे गं भंते ! पाणाइवाएवं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? ....." ( पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२.५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले ।
—पण्ण० प २२ । सू १५८१ से १५८४ । पृ०.४७६-८०
"Aho Shrutgyanam"