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क्रिया-कोश
योग से नीचे असंख्यातगुणहीन वचनयोग का निरोध करता है, इसके बाद अविलम्ब तीसरे-जघन्य योग वाले अपर्याप्त पनकजीव के काययोग से नीचे असंख्यातगुणहीन काययोग का निरोध करता है।
इस उपाय से अथवा इस प्रकार वह पहले, मनोयोग का निरोध करता है ; दूसरे, मनोयोग का निरोध करके वचनयोग का निरोध करता है ; तीसरे, वचनयोग का निरोध करके काययोग का निरोध करता है ; काययोग का निरोध करके योग का निरोध करता है ; योग का निरोध करके अयोगित्व को प्राप्त करता है ; अयोगित्व को प्राप्त करके थोड़े काल में पाँच ह्रस्वाक्षर को उच्चारण करने में जितना समय लगे उतने असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समय में शैलेशीव को प्राप्त होता है ।
तथा पूर्व में जिनकी गुणश्रेणी रची गई है ऐसे कर्मों का अनुभव करता है। वह उस शैलेशी काल में असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा असंख्यात (अनन्त) कर्म स्कंधों का क्षय करता है तथा कर्मस्कंधों का क्षय करके वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र-इन चार कर्मा शोकर्मभेदों की एक साथ खपाता है ।
__चारों कर्मों को एक साथ खपाकर औदारिक, तैजस तथा कार्मण शरीरों को सर्वप्रकार से त्याग देता है। शरीरों को त्याग करके ऋजुश्रेणी को प्राप्त करके अस्पृष्ट गति से एक समय की अविग्रहगति द्वारा ऊर्ध्व में जाकर साकारोपयोग सहित सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर, सर्व दुःखों का अन्त करके सिद्धपद को प्राप्त करता है !
टोका- योगनिरोधं कुर्वन् प्रथम मनोयोग निरुणद्धि, तञ्च पर्याप्तमात्रसंज्ञिपञ्चे. न्द्रियस्य प्रथमसमये यावन्ति मनोद्रव्याणि यावन्मात्रश्च तद्व्यापारः तस्मादसंख्येयगुणहीनं मनोयोग प्रतिसमयं निरुन्धानोऽसंख्येयैः समयैः साकल्येन निरुणद्धि, उक्त च ---"पज्जत्तमेत्तसण्णिस्स जत्तियाई जहण्णजोगिस्स । होति मणोदव्वाई तव्वावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुंभमाणो सो। मणसो सम्बनिरोहं करे असंखेज्जसमएहिं ॥२॥” एतदेवाह--'से णं भंते !' इत्यादि, सःअधिकृतकेवली योगनिरोधं चिकीर्षन् पूर्वमेव संज्ञिनः पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य मनोयोगस्येति गम्यतेऽधस्तात असंख्येयगुणपरिहीनं समये समये निरुन्धानोऽसंख्येयः समयः साकल्येनेति गम्यते प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, 'ततोऽनंतरं च. 'मित्यादि, तस्मात् मनोयोगनिरोधादनन्तरं च शब्दो वाक्यसमुच्चये णमिति वाक्यालकारे द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य वागयोगस्येति गम्यतेऽधस्तात् वाग्योगं असंख्येयगुणपरिहीन समये समये निरन्धानोऽसंख्येयः समयैः साकल्येनेति गम्यते द्वितीयं वाग्योगं निरुणद्धि, आह च भाष्यकृत्-“पज्जत्तमित्तबिंदिय जहण्णवइजोग
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