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क्रिया-कोश
१२५ के शरीर की एजना कहलाती है, यथा-नारकीय द्रव्य (शरीर) से एजना-नारकीय द्रव्यएजना ।
नारकी नारकीय द्रव्य ( शरीर ) में वर्तते थे, वर्तते हैं, वतेंगे, अत्तः नारकी नारकीय द्रव्य में वर्तमान नारकीय द्रव्य में एजना-परिस्पंदन करते थे, करते हैं, करेंगे । अतः नारकी द्रव्यएजना का प्रतिपादन किया गया है ।
तिर्यचयोनिक जीव इसी प्रकार तिर्यच योनिक द्रव्य ( शरीर ) में वर्तते थे, वर्तते है, वतेंगे। अतः तिर्यचयो निक जीव तिर्यच योनिक द्रव्य में वर्तमान तिर्यचयोनिक द्रव्य से एजना ( परिस्पंदन ) करते थे, करते हैं, करेंगे।
इसी प्रकार मनुष्य मनुष्यद्रव्य से परिस्पन्दन करते थे, करते हैं, करेंगे। देवता देवद्रव्य से परिस्पन्दन करते थे, करते हैं, करेंगे।
क्षेत्रए जना के चार भेद होते हैं- यथा-१-नारकीक्षेत्रएजना, २-तिर्यचयोनिकक्षेत्रएजना, ३--मनुष्यक्षेत्रएजना तथा ४– देवक्षेत्रएजना।
इसी प्रकार कालए जना, भावएजना तथा भवएजना के चार-चार भेद होते हैं ।
जिस गति के क्षेत्र में रहकर उस गति के शरीर से जो एजना होती है वह उस गति को क्षेत्रीय एजना, यथा-नारकीय क्षेत्र में होने वाली नारकी जीवों की एजना-- नारकीय क्षेत्रएजना ।
जिस गति में जिस काल में वर्तमान हो उस काल में जो उस गति के शरीर के पुद्गल को एजना होती है वह उस गतिकाल की एजना है, यथा जिस काल में जीव नरक गति में वर्तता है उस काल में जो एज ना होती है वह नारकीय कालएजना ।
जिस गति में औदयिकादि भावों से जो एजना होती है वह उस गति की भावएजना, यथा-नरक गति में वर्तते हुए औदयिक आदि भावों के कारण जो एजना होती है वह नारकीय भावएजना।
जिस भव में वर्तते हुए जो एजना हो वह उस भव की एजना है यथा नरकभव में वर्तते हुए जीव के जो एजना होती है वह नारकीय भवएजना है ।
६३ ४ सयोगी जीव और एजनादि क्रिया :
__ जीवे शं भंते ! सया समियं एयइ, वेयइ, चलइ, फंदइ, घट्टइ, खुब्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ ? हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं एयइ--जावतं तं भावं परिणमइ।
-भग० श ३। उ ३ । प्र १० । पृ० ४५६ जीव सदा समभाव से कम्पन करता है, विविध भाव से कम्पन करता है, देशान्तर गति करता है, स्पन्दन-परिस्पन्दन करता है, सभी दिशाओं में गति करता है, क्षुब्ध होता
"Aho Shrutgyanam"