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क्रिया-कोश है अर्थात प्रबल रूप से हलचल करता है तथा उदीरण करता है अर्थात् प्रबलतापूर्वक प्रेरणा करता है तथा जीव उस-उस भाव में परिणमन करता है ।।
___ टीका--'जीवे ' इत्यादि, इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवाऽसौ ग्राह्यः, अयोगस्य एजनादेरसंभवात् । सदा नित्यम्, 'समिअं' ति सप्रमाणम्, 'एयई' त्ति एजते कम्पते, "एजु कम्पने” इति वचनात् 'वेयइ' त्ति व्येजते विविधं कम्पते, 'चलइ' त्ति स्थानान्तरं गच्छति, 'फंदई' त्ति स्पन्दते किञ्चिञ्चलति । “पदि किञ्चिञ्चलने” इति वचनात् । "अन्यमवकाशं गत्वा पुनस्तत्रैव आगच्छति”- इति अन्ये। 'घट्टई' त्ति सर्वदिक्षु चलति, पदार्थान्तरं वा स्पृशति । 'खुब्भई' त्ति क्षुभ्यति - पृथिवीं प्रविशति, क्षोभयति वा पृथ्वीम्, बिभेति वा । 'उदीरई' त्ति प्राबल्येन प्रेरयति, पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा। शेषक्रियाभेदसंग्रहार्थमाह- 'तं तं भावं परिणमई' त्ति उत्क्षेपणा-ऽवक्षेपणाऽऽकुञ्चन-प्रसारणादिकं परिणाम यातीत्यर्थः । एषां च एजनादिभावानां क्रमभावित्वेन सामान्यतः सदेति मन्तव्यम्, न तु प्रत्येकापेक्षया--क्रमभाविनां युगपदभावादिति।
यहाँ जीव से सयोगी जीव का ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि अयोगी जीव के एजनादि क्रियाएँ नहीं होती हैं । 'समिरं एयइ' सप्रमाण कम्पन करना, 'वेयइ' विविध प्रकार से कम्पन करना, 'चलइ' एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना, 'फंदइ' स्पन्दन करना अर्थात् किंचित् चलायमान होना, 'घट्टइ' सभी दिशाओं में गति करना अथवा दूसरे पदार्थों को स्पर्श करना, 'खुब्भइ' क्षोम करना, पृथ्वी में प्रवेश करना अथवा पृथ्वी का भेद करना, तथा 'उदीरई' प्रबलतापूर्वक प्रेरणा करना अथवा बलपूर्वक किसी दूसरी वस्तु को प्रतिष्ठित करना । एजनादि क्रियाओं के और भी अनेक भेद होते हैं। बाकी के सभी क्रियाभेदों को संग्रह करना चाहिए ऐसा टोकाकार कहते है । "तं तं भावं परिणमइ' उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण इत्यादि पर्यायों को प्राप्त होता है। ये एजनादि क्रियाएँ क्रमपूर्वक होती हैं इसलिए सदा होती हैं । यह बात सामान्य रूप से समझनी चाहिए । परन्तु प्रत्येक की अपेक्षा से नहीं समझनी चाहिए ; क्योंकि क्रमपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ एक समय में एक साथ नहीं हो सकती हैं ।
एजनादि क्रिया करता हुआ जीव अन्तक्रिया नहीं कर सकता है अर्थात उसकी मुक्ति नहीं हो सकती है क्योंकि जब तक जीव एजनादि क्रिया करता है तब तक वह जीव आरम्भ करता है, सरंभ करता है, समारंभ करता है । आरम्भ-सरंभ-समारम्भ में वर्तमान जीव अनेक प्राण-भूत-जीव-सत्त्व को दुःख-परितापादि उपजाता है अतः उस जीव की मरण के समय मुक्ति नहीं हो सकती है। (देखो अंतक्रिया '७३)।
"Aho Shrutgyanam"