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क्रिया-कोश
निस्सा सेहिं अनंत अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवल-वर-नाणदंसण समुपाति, समुपाडित्ता तओ पच्छा सिज्यंति, बुज्यंति, मुञ्चति, परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंत करेंति । सूर्य ० श्रु २ । अ २ | सू २३ | पृ० १५६
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शयन
इस प्रकार साधुचर्या में बिहार करते हुए वे अनगार भिक्षु बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय को पालन कर, रोगादि के उत्पन्न होने या न होने पर बहु प्रकार के अशनादि का परित्याग करके अनशन स्वीकार करते हैं तथा बहुत काल तक अनशन का पालन करते हैं । इसके बाद जिस उद्देश्य के लिए नग्न हुए, मुण्डित हुए, स्नान-दन्तमंजन आदि शरीरसंस्कार को छोड़ा, छत्र तथा पादुका का त्याग किया, भूमि, काठ, शिला पर किया, केशलुंचन किया, ब्रह्मचर्य का पालन किया, पर घर से भिक्षा मांगी, भिक्षा मिलने, न मिलने पर समता धारी, मान-अपमान - अवहेलना - निन्दा अवज्ञा भर्त्सना तर्जना तथा ताड़ना सही, ग्रामीण लोगों के ऊँच-नीच कंटक सम वचन सहे, बावीस परीषह के उपसर्ग आदि सहे तथा सम्यग् ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की आराधना की तथा उस मार्ग की आराधना करते हुए वे अणगार भिक्षु उस उद्देश्य की प्राप्ति स्वरूप अन्तिम श्वास-निःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, व्याघात रहित, निरावरण परिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करते हैं और फिर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त और परिनिवृत्त होकर सभी दुःखों का करते हैं !
अन्त
(ख) एवामेव मंडियपुत्ता ! अत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स ईरियासमियरस - जाव-गुत्तबंभयारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, चिमाणस्स, णिसीयमाणत्स, तुयट्टमाणस्स आउत्तं वत्थ- पडिग्गह- कंबल पायपुंछणं गेण्हमाणस्स, णिक्खिवमाणस्स, जाव - चक्र म्हणिवायमपि बेमाया सुहुमा ईरियावहिया किरिया कज्जइ, सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, विश्यसमयवेश्या, तइयसमयणिजरिया, सा बद्धा, पुट्ठा, उदीरिया, वेड्या, णिजिण्णा, सेयकाले अकम्मं वा वि भवइ । से तेणट्टणं मंडियपुत्ता ! एवं दुबइ जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयइ, जाव- अते अंतकिरिया भवइ । -भग० श ३ । ३ । प्र १५ का अंश । पृ० ४५७-५८
जो आत्मार्थी संवृत अणगार ईर्या भाषा एषणा आदानभंड निक्षेपण - उच्चार-प्रसवण आदि समितियों से समित, मनोगुप्ति आदि गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचारी, उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, सावधानी पूर्वक ठहरने वाले, सावधानतापूर्वक सोने वाले, सावधानतापूर्वक वस्त्र - पात्र - कम्बल - रजोहरण आदि को ग्रहण करने वाले या रखने वाले हैं उनको यावत अक्षिनिमेष ( आँख की पलक टमकारने ) मात्र समय में विमात्रापूर्वक विविध मात्रा वाली योग मात्र से ऐर्यापथिकी किया लगती है ।
"Aho Shrutgyanam"